सोमवार, 1 अप्रैल 2024

सूतांजली अप्रैल २०२४


 

अंधेरे को हटाने में समय बर्बाद मत कीजिये।

बल्कि दीये को जलाने में समय लगाइये।

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सीता - अबला या सबला

          हमारा समाज, विशेषकर आज का समाज बड़ा विचित्र है। ऐतिहासिक प्रेरणा चरित्रों को जिनसे हम प्रेरणा लेते रहे, पूजते रहे, अपना पथ प्रदर्शक मानते रहे उनके जीवन में से कुछ खंडों को निकाल कर, उनकी विशेषताओं को नकारात्मक रूप में  प्रस्तुत कर समाज की नजरों से गिराने में लगा है। यही नहीं इसके उलट समाज के निष्काषित, त्याज्य चरित्रों को महिमा मंडित कर उन्हें प्रतिष्ठित करने में तथा उनके साथ अन्याय हुआ है का जुमला उछाल कर उन्हें न्याय दिलाने में लगा है। ये वे लोग हैं जो पहले अपना उद्देश्य स्थापित करते हैं और फिर उसके अनुकूल अपने शब्द जालों से उसे सही प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हैं। हमारे समाज का अ-शिक्षित अन-पढ़ वर्ग उनकी लच्छेदार भाषा में फंस जाता है और उनकी भाषा बोलने लगता है। अपने सनातनी परंपरा का निर्वाह करते हुए, जिसने अपने स्थापित सत्यों का विरोध करने वालों को भी  प्रताड़ित नहीं किया, इन सबों का विरोध नहीं किया। चर्वाक, गौतम बुद्ध हमारी ही भूमि के चरित्र हैं जिन्होंने सनातन की स्थापित विचार धाराओं पर कुठराघात करते हुए एक अलग विचार धारा को जन्म दिया और हमारे देश में ही फले-फूले भी।

          रामायण की महत्व पूर्ण नायिका सीता भी एक ऐसा ही चरित्र है। जिसके अनेक रूप हैं। अगर वह पतिव्रता है, तो वीरांगना भी है, समझदार और बलशाली है। जिस धनुष को भू-खंड के शूरवीर पूरी शक्ति लगाने के बावजूद हिला नहीं सके उसे खेल-खेल में उठा लिया। विनय और आदर्श की प्रतिमूर्ति है सीता। इसी  माह माँ सीता और भगवान राम का जन्म दिन है। सिया-राम को समर्पित है हमारा यह अंक।

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साबित करो तुम सीता हो

(कई वर्षों पहले किसी पत्रिका में डॉ.लता अग्रवाल का अपनी प्रताड़ित बेटी के नाम छपा एक छोटा सा पत्र आज अचानक सामने आ गया। उस पर आधारित)

          इतिहास ने सीता के रूप में एक ऐसा चरित्र तैयार किया है जिसे किसी भी दृष्टिकोण से देखें अद्वितीय है। एक ऐसा चरित्र जो न पहले हुआ न बाद में। एक भारतीय नारी के रूप में देखें या देवी के रूप में, ऐतिहासिक चरित्र या आधुनिक नारी की पथ-प्रदर्शिका के रूप में। सवाल तो सिर्फ इतना है कि आपकी नज़र जोड़ पर है या तोड़ पर।  आप उसे वीरांगना के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं या निरीह, प्रताड़ित नारी के रूप में। सीता में वह सब कुछ है जो एक आदर्श भारतीय गृहिणी में होना चाहिए, साथ ही आधुनिक शिक्षित नारी की समझ, शक्ति, साहस और धैर्य भी।

          हमारे यहां सदियों से समाज सीता के उस एक ही रूप को आदर्श मानकर उसी में संपूर्ण नारी की छवि देखना चाहता है जिसमें वह सीता है। आज समाज ने,  सीता की एक अबला की तस्वीर बना दी है, हर हालात में, खटते-घुटते-मरते हुए, घर-परिवार की सेवा करे, सभी के अनुरूप स्वयं को ढालती रहे। मगर यह अर्ध सत्य है, वे वास्तविक सीता के रूप की कभी चर्चा नहीं करते। हाँ, आवश्यकता पड़ने पर वह सब करे जिसकी समाज अपेक्षा रखता है अगर समाज भी उसी प्रकार प्रत्युतर दे तब। लेकिन अगर शोषण करे तब?  

          एक सीता वह थी, जिसने वैभव त्याग राम के संग जंगल की त्रासदी अपना कर अपने धैर्यवान, आत्मविश्वासी होने का परिचय दिया, वनवास को स्वीकार किया, जंगल में बच्चों को जन्म दिया।  अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ संघर्ष करना, बच्चों को शूरवीर और ज्ञानी बनाना एक अबला नहीं सबला का कार्य है। यही नहीं समझदारी से उसे प्रताड़ित करने वालों की न उसने भर्त्सना की न बातों में विरोध किया बल्कि अपने कार्यों से उसे निरस्त कर विजयी बनी। प्रतिकूल समय में भी अपना संतुलन न खो कर सही निर्णय लिया और समय को अपने अनुकूल बना लिया। ऐसा चरित्र प्रदर्शित किया कि उसे प्रताड़ित करने वाले भी उसकी आलोचना न कर सके। समय के अनुकूल आने पर बड़ी शालीनता से उनका साथ अस्वीकार कर दिया। सीता के इस संघर्ष पूर्ण और ताक़तवर रूप की चर्चा समाज ने कभी नहीं की।

          यह थी असली सीता, समयानुसार निर्णय ले अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। कथनी के बजाय करनी पर विश्वास रखा। अफ़सोस तो इस बात का है कि अज्ञानता ने जिन रूढ़िगत आस्थाओं को जन्म दिया वे समय के साथ निर्मूल होने के स्थान पर अधिक बलवती होती गई। स्वयं स्त्री अपने प्रति हुए इस षड्यंत्र से सचेत होने के बजाय उसे और ऑक्सीजन प्रदान कर रही है। करनी के बजाय कथनी का सहारा ले रही है। अब हमें सीता के उसी रूप से अपने परिवार को, समाज को  परिचित कराना होगा। धैर्य और विश्वास के साथ साबित करना होगा कि तुम सीता ही हो। मुझे विश्वास है आज की नारी में वह सीता विद्यमान है।

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सीता क्या सिखाती है आज?

         

          एक हिंदू परिवार में, अक्सर सुबह 'रघुपति राघव राजा राम' के जाप सुनती हुई मेरी नींद खुलती। मेरे दादाजी द्वारा सुनाई गई कई कहानियों में मेरे पसंदीदा कहानियाँ राम के साहसिक कारनामों के थे। मैं और मेरे चचेरे भाई अक्सर रसोई के बर्तनों को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करके इन साहसिक कार्यों को अंजाम देते थे। मेरे चचेरे भाई चाहते थे कि मैं सीता बनूं, लेकिन जिस भूमिका की मैं वास्तव में शौकीन थी वह थी राम की भूमिका। उनके कारनामे सबसे अच्छे थे क्योंकि उन्हें उन बंदरों से दोस्ती की जिनके पास विशेष शक्तियां थीं, जो उन्हें समुद्र के पार ले गए और अनगिनत दुष्ट राक्षसों को मार डाला।

          राम के चरित्र ने मुझे किशोरावस्था के दौरान आकर्षित किया। मैं अपने इस वीर और साहसी नायक को पूजती थी क्योंकि वह बहुत सारे अद्भुत गुणों से युक्त अवतार था। दशरथ के लिए वह प्यारा और आज्ञाकारी उत्तराधिकारी था; कौशल्या का एक देखभाल करने वाला और कोमल पुत्र। उनके भाई उनकी नायक मान कर पूजा करते थे। जब मैंने उस दृश्य को बार-बार पढ़ा, जहां वह अपने पिता की प्रतिज्ञा का शांति से पालन करते हुए, भरत को राजगद्दी सौंपते हुए, अयोध्या छोड़ देते हैं, इसे पढ़ कर मैं जार-जार रोती। लेकिन राम शांत और संयमित बने रहे। जब व्याकुल भरत उनके पास आता है, तो वह हमेशा की तरह उससे प्यार करते हैं लेकिन स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वह अपने पिता से किए गए वादे के खिलाफ नहीं जा सकते।

          मुझे विशेष रूप से वह दृश्य बहुत पसंद आया जहां राम की मुलाकात निषादों के राजा गुहा से होती है, और अयोध्या के राजकुमार और अपेक्षाकृत छोटी स्वदेशी जनजाति के इस शासक के मध्य एक दूसरे के प्रति प्रेम, सौहार्द और सम्मान है। राम ऋषियों के दयालु रक्षक का उत्तरदायित्व भी निभाते हैं। वे सुग्रीव को उसके राज्य को वापस पाने में मदद करते हैं। हालांकि इस जीत के लिए जिस तरीके से एक गुप्त स्थान से सुग्रीव के भाई बाली को तीर से मारा, इस घटना ने मुझे बहुत परेशान किया, लेकिन मैंने इसे पार कर लिया। इन सभी मामलों में, राम जाति या वर्ग या सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करते हैं। मैंने इसके लिए उनकी प्रशंसा की।

 

          वनवास के दौरान कैसे राम ने सीता की देखभाल की और उन्हें सुरक्षित और आरामदायक रखने की कोशिश की, कैसे अपने बेहतर फैसले के खिलाफ वह सोने का हिरण लाने गए क्योंकि सीता उसे चाहती थी। जब सीता का अपहरण कर लिया गया था तो वे कितने व्याकुल थे, कैसे उन्होंने सचमुच सीता को बचाने के लिए समुद्र को बांध दिया था। कैसे वे विजयी होकर अयोध्या लौटे और देवताओं के आशीर्वाद से उन्हें राजा और रानी का ताज पहनाया गया। बीच में एक समस्या थी, सीता की बेगुनाही का परीक्षण करने के लिए अग्नि परीक्षा, लेकिन अग्नि देवता द्वारा सीता के गुणों की घोषणा के साथ यह खुशी से समाप्त हो गई, इसलिए मैंने फिर से इसे नजरअंदाज कर दिया।

 

          राम एक अद्भुत राजा मर्यादा पुरूषोत्तम थे, उन्हें धर्म का सर्वोच्च आचरण करने वाला कहा जाता है। लेकिन जैसे ही मैंने नारीत्व में प्रवेश किया, कुछ अप्रत्याशित घटा। सीता के बारे में मेरे दृष्टिकोण में अभूतपूर्ण विलक्षण जागरूकता आ गई। मैंने अब उसे एक आज्ञाकारी बहू, एक विनम्र पत्नी के रूप में नहीं देखा जो जंगल में राम और लक्ष्मण के बीच चलती है और न ही एक ऐसी युवती के रूप में जो रावण के डर से रोती है। मैं अमर चित्र कथा और टीवी की रामायण से आगे बढ़ गई। मैंने वाल्मिकी, कंब, कृत्तिबास और अदभुत रामायण को पढ़ा। मुझे एहसास हुआ कि सीता वास्तव में कितनी शक्तिशाली थी, अपने अनोखे शांतिपूर्ण अंदाज में। मैं उसके पक्ष में क्रोध से भर गई क्योंकि मुझे यह एहसास हुआ कि जब वह गर्भवती थी तो राम ने उसे शहर की तीखी गपशप के कारण कितने गलत तरीके से वाल्मिकी के आश्रम में निर्वासित कर दिया था। राम के क्रूर परित्याग के बावजूद उसने कितनी शालीनता और साहसपूर्वक अपने बेटों को जंगल में पाला और अंत में कैसे उसने एक और अनुचित अग्नि परीक्षा से गुजरने से इनकार कर दिया।

          मैं सीता के राम से घृणा करना चाहती थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकी। पुस्तकों के व्याख्यान ने मुझे राम के बारे में एक अंतिम, जटिल अहसास कराया और यह सीता ही थीं जिन्होंने मुझे यह सिखाया था कि उनके साथ इतना कुछ घटित होने के बावजूद उन्होंने कभी भी राम से नफरत या उनका अनादर नहीं किया बल्कि वे हमेशा उनसे प्यार करती रहीं। क्योंकि वह उस कठिन पंथ को समझती थी जिसका सामना राम को करना पड़ा था। वह अपने दिल की इच्छा के साथ जा सकता था और निर्दोष सीता को अपनी प्यारी रानी के रूप में अपने साथ रख सकता था, भले ही इससे अयोध्या में कानून और व्यवस्था बाधित हो सकती थी। अपने पिता दशरथ के विपरीत, जिन्होंने कैकेयी की राम को निर्वासित करने की अनुचित मांग को स्वीकार कर लिया था, और वही किया जो राज्य के लिए सर्वोत्तम था भले ही इस कारण सीता और राम के हृदय के टुकड़े हो गए। उनके पास समझौता करने का कोई रास्ता नहीं था - ठीक उसी तरह जब सीता के पास भी कोई विकल्प नहीं था उन्होंने अखंडता का रास्ता चुना, अयोध्या में अग्नि परीक्षा देने से इनकार कर दिया और फिर से अपने पति और बच्चों से मिलने की आशा का परित्याग कर सदा के लिए धरती माँ के गोद में समा गई।

 

          यहां वह अंतिम सबक है जो मैंने राम और सीता की कालजयी कहानी से सीखी: कभी-कभी हमारी सार्वजनिक भूमिकाएं और मूल्य हमारी निजी भूमिकाओं और मूल्यों के साथ गहराई से टकराते हैं। कभी-कभी, दुनिया के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए, हमें अपने निकटतम और प्रियतम के प्रति लापरवाह, यहां तक कि क्रूर भी होना होगा। युद्ध के मैदान से लेकर बोर्डरूम तक, हर जगह नायक इस दुविधा का सामना करते रहते हैं। इसका समाधान कभी आसान नहीं होता।

 

          मैं राम और सीता की इस महान जोड़ी को सलाम करते हुए अपनी बात समाप्त करती हूं, जिनके पास आज भी हमें सिखाने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन मुझे सीता के बलिदान को पहले रखना होगा और कहना होगा, जय सियाराम!

(दिवाकरुनी की पुस्तक "द फॉरेस्ट ऑफ एनचांटमेंट्स' पर आधारित)

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शुक्रवार, 1 मार्च 2024

सूतांजली मार्च 2024

 


मन और सोच का वास्तु ठीक करो।

अपने घर का वास्तु, अपने आप ठीक हो जाएगा ।

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कैसे सुधारें अपना व्यवसाय?   

         कोई भी भला इंसान रातों-रात धनवान नहीं बन सकता।  अतः इस बात पर विश्वास रखिए कि रातों-रात धनवान बनाने वाला हर रास्ता गलत रास्ता ही है।

वे जो अपना काम करते हैं वे ‘नौकर’ खोजते हैं लेकिन जो दूसरों का काम करते हैं वे ‘नौकरी’ खोजते हैं।  भारत के आर्थिक इतिहास में शायद यह पहली मर्तबा है कि भारत  सरकार, स्टार्ट अप इंडिया के अंतर्गत, नौकरी देने वालों को महत्व दे रही है। नौकरी खोजने के बजाय नौकरी देने वाला बनिये।

          अगर आप अपना कोई व्यवसाय-व्यापार  प्रारम्भ करना चाहते हैं तो पहला प्रश्न तो यही है कि कैसा व्यवसाय। यह प्रमुखतः हर व्यक्ति की अपनी क्षमता, ज्ञान और उपलब्ध संसाधनों पर ही निर्भर करता है कि वह कैसा व्यवसाय करे। लेकिन सब व्यवसाय-व्यापार का मूलभूत आधार एक ही होना चाहिए – मानव कल्याण की भावना।

          हर व्यापार का एक ही सिद्धान्त है - मेहनत, लगन और समय। इनका मूल नियम भी एक ही है – कम में लेना और ज्यादा में देना। इस लेन-देन के अंतर को ही लाभ कहते हैं और यह लाभ  कानूनी और नैतिक दोनों रूप में वैध भी है और आवश्यक भी। एक व्यापारी के लिए अपना व्यवसाय करना भी आध्यात्मिक विकास का एक सुअवसर है। इसका उपयोग करना या इसे बर्बाद करना खुद पर निर्भर करता है। कैसे समाज और देश का निर्माण करना है, यह भी आप पर ही निर्भर करता है। व्यवसाय शुरू करने के पहले, श्रीअरविंद से जुड़े डॉ. रमेश बीजलानी के इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं दें, आपको दिशा स्वतः ही मिल जाएगी।   

किस का व्यापार करें?

विचार करें कि क्या आपका व्यापार जरूरतमंदों की वास्तविक आवश्यकता को पूरा करेगा?

क्या यह स्वास्थ्य, नैतिकता, विकास को कुछ सकारात्मक बढ़ावा देगा?

क्या इसमें कुछ उत्पादन करना, सेवा प्रदान करना, उचित सलाह देना या मार्ग दर्शन करना है?

अथवा यह मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्तियों को पूरा करेगा और यह सिर्फ सट्टा है?

आपका व्यापार जीवन-प्रदान करता है या जीवन का क्षरण करता है?

याद रखें आपका व्यापार आपके विचार और चरित्र को भी दर्शाता है, और

आपके बच्चों को भी उसी पथ पर आगे बढ़ाता है।

 

ग्राहकों के प्रति कैसे विचार रखें?

क्या आप अपने  ग्राहकों के प्रति सद्भावना रखते हैं?

क्या आप अपने ग्राहकों को सिर्फ एक बटुआ (पर्स) मानते हैं जिसमें से जितना संभव हो उतना निचोड़ना है?

ग्राहक से अधिकतम लाभ लेना है या उसकी सर्वोत्तम सेवा करनी है?

क्या आप यह मानते हैं कि वह  हमें सेवा करने का अवसर दे रहा है और हमें उसे भरपूर सेवा प्रदान करनी है, या

यह मानते हैं कि  वह हम पर आश्रित है और हमें उसका शोषण करना है?

हमारी क्या ज़िम्मेदारी है?

क्या हमारी ज़िम्मेदारी केवल ग्राहक और शेयरधारकों के प्रति है?  या

समाज के प्रति भी है?

क्या उचित मूल्य पर सामान और सेवाएँ प्रदान करना पर्याप्त है, या

शेयरधारकों को अच्छा मुनाफा भी देना है? अथवा

हमें यह भी ध्यान रखना होगा और हमारी यह ज़िम्मेदारी भी बनती है कि हमारा व्यवसाय पर्यावरण का विनाश या उसे प्रदूषित न करे, और

समाज और देश के हित में हो?

श्रमिक, कर्मचारी एवं अन्य सहयोगी के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो?

क्या हमें उनकी आवश्यकता और लाचारी का शोषण करने से बचना चाहिए? और

उनके विकास के प्रति भी सजग रहना चाहिए?

प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के संबंध में हमारा क्या दृष्टिकोण है? 

क्या हम यह मानते हैं  कि हम जिस व्यवसाय में हैं, उसमें बने रहने का अधिकार हमारे प्रतिद्वंदियों को भी है?

क्या हमें अपना ध्यान अपने विकास पर रखना चाहिए या उनकी बरबादी पर?

क्या हम अकेले विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं?

क्या हम यह मानते हैं कि विश्व में सब की आवश्यकताओं की, उनके लालच की नहीं, पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हैं?

क्या आप यह मानते हैं कि प्रतिद्वंद्विता के बजाय सहयोग से अधिक उत्पाद संभव है?

करों का भुगतान करते समय हमारी क्या नीति है? 

क्या हम उतना भुगतान करते हैं जितना हमें करना चाहिए?

क्या हम इसे खुशी-खुशी करते हैं?

क्या हम यह मानते हैं कि सरकार को बुनियादी ढांचा तैयार करने में हमें मदद करनी चाहिए?

क्या हमें सरकार को कुछ हद तक समानता और सामाजिक न्याय हासिल करने में मदद करनी चाहिए?

क्या देश के लिए लाभ का एक हिस्सा खुशी-खुशी बिना छोड़े, सरकार यह कर पाएगी?

बिना कोई योगदान दिए सरकार से हमें कितनी उम्मीद रखनी चाहिए?

कितना लाभ कमाना और इसका क्या उपयोग करना?

हम कितने लाभ की आशा रखते हैं और उसका क्या सदुपयोग करते हैं?

क्या हम उचित लाभ से संतुष्ट हैं, अथवा

हम अनुचित लाभ कमाने के लिए ग्राहक को लूटने और उसकी अज्ञानता और लाचारी का फायदा उठाने की प्रवृत्ति रखते हैं?

क्या हम अपने लाभ को सिर्फ स्वयं की संपत्ति और उसका मालिक मानते हैं? या

हम खुद को उस संपत्ति के ट्रस्टी के रूप में मानते हैं?

क्या हमें यह एहसास है कि पैसा कमाना भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त अल्प लोगों को दी गई एक प्रतिभा है? और

इसके लिए ईश्वर के आभारी हैं?

अपनी योग्यता से अधिक पाने / खोने के पीछे किसका हाथ मानते हैं?

अपनी अप्रत्याशित सफलता या असफलता पर हमारी कैसी प्रतिक्रिया होती है?

क्या आप यह मानते हैं कि व्यापार में यह दोनों ही स्वाभाविक हैं, और सच पूछा जाए तो ये हमारी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हैं?

जब हमें अप्रत्याशित सफलता प्राप्त होती है तब क्या हमें यह अनुभव होता है कि यह हमारी काबिलीयत से ज्यादा है?

क्या हम इस सत्य के प्रति संवेदनशील हैं कि हमसे ज्यादा काबिलीयत और मेहनती लोगों को हमसे कम सफलता मिली है?

अगर ऐसा है तब क्या हम इसके पीछे प्रभु का प्रेम देखते हैं? और

तब क्या हम अपनी कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में अपनी सफलता का फल उन लोगों के साथ साझा करने के लिए तैयार हैं जो हमसे कम भाग्यशाली रहे? और

यदि हमें कोई झटका लगता है, तो क्या हम इसके पीछे ईश्वरीय प्रेम को भी देखते हैं, जो हमें संकेत दे रहे हैं कि अब से जीवन किस रास्ते पर जाना चाहिए?

क्या आप मानते हैं कि ईश्वर के करीब जाना एक ऐसा लाभ है जिसके लिए भौतिक हानि बहुत बड़ी कीमत नहीं है।

कुल मिलाकर हमारा दृष्टिकोण क्या है? 

क्या हम ईश्वर के उपकरण होने के प्रति सचेत हैं?

क्या हम कार्य करने में सक्षम बनाने वाली प्रतिभाएँ, योग्यताएँ और परिस्थितियाँ देने के लिए ईश्वर के प्रति आभारी हैं?

क्या उस अदृश्य हाथ के प्रति सचेत हैं जिसके बिना हम सफल नहीं हो सकते? और

क्या अपनी असफलता में किसी को दोष देने के बजाय किसी बड़ी, उच्चतर और व्यापक चीज़ का बीज देखते हैं?

          यह चर्चा केवल प्रश्न उठाती है, उत्तर नहीं दे रही है। क्योंकि, हर कोई जानता है कि उत्तर क्या होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, सही चुनाव करने का ज्ञान हमारे भीतर है। आध्यात्मिकता के पुट के साथ भौतिकता के  विकास की ओर ले जाने वाले विकल्पों को चुनने की प्रतिभा हमारे भीतर है। विभिन्न प्रलोभनों के कारण, हम सही का ज्ञान होने के बावजूद, उचित चुनाव करने में अकसर  असफल हो जाते हैं। हमारी बुद्धि हमारी निम्न प्रकृति पर हावी हो जाती है, और हमें सही चुनाव न करने का ज्ञान देती है। भावनाएँ और बुद्धि इतना शोर मचाती हैं कि सबसे गहरे आत्मा की शर्मीली और फीकी आवाज छिप जाती है, और हम उसे नजर अंदाज कर देते हैं। इसे नजर अंदाज करने से हमें धन, शक्ति, नाम और प्रसिद्धि का लाभ हो सकता है, लेकिन इसे नजर अंदाज करने से हम मानसिक और भौतिक शांति खो देते हैं क्योंकि इससे समाज में एक गलत परंपरा, दोष, अपराध, शारीरिक और मानसिक रोग फैलता है और हम खुद भी उसकी चपेट में आते हैं। प्रत्येक गलत विकल्प के साथ, हम एक कदम पीछे हटते हैं।

          कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को उद्धृत करूँ तो -

“न जाने कब से सुनता आ रहा हूँ – तार्किकता का युग अपने साथ खुशियाँ लाएगा, विज्ञान दुनिया में शांति स्थापित करेगा, आवश्यकताओं की वृद्धि उनकी पूर्ति के साधन उपलब्ध कराएगी। पर क्या ऐसा हुआ? सच तो यह है कि इन सब चीजों का आना और दूभर होता जा रहा है। ... क्या यह कहा जा सकता है कि पिछले दस-बीस दशकों में मनुष्य बेहतरी की तरफ बढ़ा है? ... बेहतरी के लिए परिवर्तन का मतलब होता है मनुष्य का उच्च आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों की ओर बढ़ने की इच्छा से परिचालित होना। क्या ऐसा हो रहा है?...”

          क्यों नहीं हुआ ऐसा? हमने अपने कारोबार को, व्यवसाय को, उद्योग को, पेशे को धंधा बना लिया। अकाउंटेंट करों की चोरी कराने लगे, उद्योग तंबाखू, हथियार, नशीले पदार्थ बनाने लगे, वकील दोषियों को छुड़ाने में लग गए, व्यापारी ग्राहकों को लूटने और उनकी मजबूरी का फायदा उठाने में लग गए, डॉक्टर मरीजों का उपचार करने के बजाय उन्हें धन कमाने की मशीन के रूप में देखने में लग गए। हम लालच के दलदल में बुरी तरह फंस कर अनुचित लाभ कमाने की होड़ में लग गए। रक्षक ही भक्षक बन गये।

अपने व्यापार में सात्विकता का तड़का लगाने के बजाय उसमें से सात्विकता को निचोड़ कर निकाल दिया।  सात्विकता के साथ किए हुए व्यापार से तनाव उत्पन्न नहीं होता। इसके विपरीत हमने अपने मन को समझा दिया कि बिना बेईमानी के व्यापार नहीं चल सकता और ईमानदारी को कुएँ में डाल दिया। हमने यह अंगीकार कर लिया कि व्यापार का मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी भौतिक आवश्यकताओं का ही नहीं बल्कि लालच की पूर्ति ही है, इसमें सात्विकता का कोई स्थान नहीं।

आध्यात्मिकता को जीवन के हर अंग में अपनाया जा सकता है। आध्यात्मिकता को हर व्यवसाय में लाया जा सकता है। आध्यात्मिकता का अभ्यास करना सभी का सर्वोत्तम व्यवसाय है। व्यवसाय में आध्यात्मिकता का समावेश हमें एक बेहतर समाज, बेहतर देश और बेहतर जगत प्रदान करता है। हमें बेहतर जीवन के लिए प्रेरित होना होगा, स्वयं को बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि व्यापार में भी सात्विकता हो सकती है, कुछ आध्यात्मिकता हो सकती है, मानवता हो सकती है।

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लघु कहानी जो सिखाती है जीना                                पाप का गुरु

          कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद एक पंडित अपने गांव लौटा। गाँव के एक किसान ने उनसे पूछा, ‘पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?’ प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए, भौतिक व आध्यात्मिक गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप का भी गुरु होता है? यह उनकी समझ और अध्ययन के बाहर था।

          पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी अधूरा है इसलिए वे फिर काशी लौटे, अनेक गुरुओं से मिले। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक वेश्या से हो गई। उसने पंडितजी से उनकी परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।

          वेश्या बोली, ‘पंडित जी, इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान, लेकिन इसके लिए कुछ दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा। पंडित जी के हाँ कहने पर उसने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। इस प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से बीते लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। एक दिन वेश्या बोली, ‘पंडित जी  आपको बहुत तकलीफ होती है खाना बनाने में यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं, आप कहें तो मैं नहा धोकर आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं। अगर आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी।स्वर्ण मुद्रा का नाम सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया।

          इस लोभ में पंडित जी अपना नियम व्रत आचार विचार धर्म सब कुछ भूल गए। पंडित जी ने हामी भर दी और वेश्या से बोले, ‘ठीक है तुम्हारी जैसी इच्छा लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि कोई तुम्हें मेरी कोठी में आते-जाते देखे नहीं। वेश्या ने पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बना कर पंडित जी के सामने परोस दिया। पर ज्यों ही पंडित जी खाने को तत्पर हुए, त्यों ही वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली। इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और बोले, यह क्या मजाक है? वेश्या ने कहा, यह मजाक नहीं है पंडित जी यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है, यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ ही पाप का गुरु है।

मछली आटे के लोभ में आकर अपना गला फंसा देती है।

भौंरा सुगन्धी के लोभ में आकर कमल में बन्द हो अपनी जान से हाथ धो बैठता है !

प्रकाश के लोभ में आकर पतंगा जान दे बैठता है!

दान चुगने के लोभ में आकर पक्षी जाल में फंस जाते हैं!

अब पशु पक्षी थोड़े से प्रलोभन में आकर बंधन में पड़ कर प्राण दे बैठते हैं तो हम तो पूर्णतया लोभ कषाय में ही रंगे हुए हैं हमारी न जाने क्या दशा होगी।

अगर संसार के चक्कर से बचना चाहते हैं, कर्मों की कुण्डी खोलना चाहते हैं, शांति स्वरूप को प्राप्त कर चलना चाहते हैं मुक्ति पथ की ओर, तो इस संसार के महा पिशाच लोभ का त्याग इसी क्षण कर दें!

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गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

सूतांजली फ़रवरी 2024


 

संत इसलिए संत नहीं कि उनमें कोई बुराई  नहीं है,

बल्कि इसलिए है कि वे अपनी बुराइयों को जानते हैं,

उनसे बचना चाहते हैं, उन्हें छिपाते नहीं और उनसे मुक्त होकर

अच्छे बनने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

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आत्मीय अहसास

 

श्री राम लक्ष्मण एवम् सीता मैया चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे, राह बहुत पथरीली और कंटीली थी कि यकायक श्री राम के चरणों में कांटा चुभ गया। श्री राम रुष्ट या क्रोधित नहीं हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती माता से अनुरोध करने लगे। बोले - माँ, मेरी एक विनम्र प्रार्थना है आपसे, क्या आप स्वीकार करेंगी। धरती बोली - प्रभु प्रार्थना नहीं, आज्ञा दीजिए।

          प्रभु बोले, माँ मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज में इस पथ से गुजरे, तो आप नरम हो जाना! कुछ पल के लिए। अपने आँचल के ये पत्थर और कांटा मेरे पैर में चुभा सो चुभा पर मेरे भारत के पाँव में आघात मत करना। श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई। पूछा - भगवान, धृष्टता क्षमा करें। पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है? जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गये तो क्या कुमार भरत सहन नहीं कर पायेगें? फिर उनको लेकर आपके चित्त में इतनी व्याकुलता क्यों?

          श्री राम बोले – नहीं....,  नहीं माते, आप मेरे कहने का अभिप्राय नहीं समझीं भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नहीं उसके हृदय को विदीर्ण कर देगा। हृदय विदीर्ण !! ऐसा क्यों प्रभु,  धरती माँ जिज्ञासा भरे स्वर में बोलीं।

          अपनी पीड़ा से नहीं माँ बल्कि यह सोचकर कि ... इसी कंटीली राह से मेरे भैया राम गुजरे होंगे और ये शूल उनके पगों में भी चुभे होंगे। मैया, मेरा भरत कल्पना में भी मेरी पीड़ा सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसकी उपस्थिति में आप कमल पंखुड़ियों सी कोमल बन जाना।

         अर्थात रिश्ते, अंदरूनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं। जहाँ गहरी आत्मीयता नहीं, वह शायद रिश्ता नहीं परंतु दिखावा हो सकता है। इसीलिए कहा गया है कि रिश्ते खून से नहीं, परिवार से नहीं, मित्रता से नहीं, व्यवहार से नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ आत्मीय एहसास से ही बनते और निर्वहन किए जाते हैं। जहाँ एहसास ही नहीं, वहाँ अपनापन कहाँ से आएगा

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भारतीय सभ्यता-संस्कृति एवं श्री राम                                     

          यह पृथ्वी कब बनी थी? मानव सभ्यता का उदय कब हुआ? यह अभी भी विद्वानों के लिए शोध का विषय है। लेकिन जब मानव सभ्यता का अस्तित्व शुरू हुआ तो उसमें कई संस्कृतियों, सभ्यताओं और साम्राज्यों का उदय हुआ और समय के साथ कई संस्कृतियों, सभ्यताओं और साम्राज्यों का अस्तित्व समाप्त भी हो गया जैसे ग्रीक, मिस्र, रोमन, मंगोलियाई, फारसी आदिइस्लाम ने 621 ईस्वी में मिस्र पर, अरब शासक और खलीफा मोहम्मद उमर के नेतृत्व के तहत आक्रमण किया642 ईस्वी, यानी महज 21 वर्षों में उन्होंने वहां की संस्कृति और सभ्यता को नष्ट कर दिया और उसे इस्लाम में परिवर्तित कर दियाइस्लाम ने 635 ईस्वी में मोहम्मद उमर के नेतृत्व में ईरान और इराक पर आक्रमण किया और 650 ईस्वी में ईरान और इराक के खलीफा सुलेमान ने 652 ईस्वी यानी महज 17 वर्षों में उन्हें एक इस्लामी राज्य बना दिया329 ई. में रोम के सम्राट कॉन्सटेंटाइन अपनी मां के साथ यरुशलम आए और वहां उन्होंने ईसाई धर्म की दीक्षा ली। फिर, उनके प्रयासों से 50 वर्षों के भीतर, संपूर्ण यूरोप को ईसाई बना दिया।

          भारतीय संस्कृति, सभ्यता राष्ट्रवाद को मिटाने की दृष्टि से विदेशियों ने उपमहाद्वीप पर 13 बार आक्रमण किया :

1.    460 ईसा पूर्व में फारसियों ने,

2.    327 ई.पू. सिकंदर ने,

3.    100 ई.पू. में कुषाण ने,

4.    79 ई. में शकों ने,

5.    535 ई. में हूणों ने,

6.    650 ई. में अरब ने आक्रमण किया।

इन 6 आक्रमणों में हमारी संस्कृति, सभ्यता और देश की सीमाओं की रक्षा हुई, फिर

7.    712 में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया वहां भारतीय शासक आपसी विभाजन और गुटबाजी के कारण हार गई थी।

8.    1026 ई. में महमूद गजनवी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण कियाज्योतिष के भ्रम और शिवदर्शी नामक पंडित के चंगुल में फंस कर भारत हार गया था।

9.    मोहम्मद गौरी ने 1192 ई. में हमला किया थाभारत के सात राज्यों ने गौरी का समर्थन किया और सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार हुई

10.  1526 में, बाबर ने भारत पर आक्रमण किया और मुगल साम्राज्य की नींव रखी

11.  पुर्तगाली 1498 ई. में भारत आए और 1509 में दीव और 1510 में गोवा पर अधिकार कर लिया 

12.  5-6 सितंबर 1746 को फ्रांस ने मद्रास पर आक्रमण किया और 15 साल के संघर्ष के बाद 26 जनवरी 1761 ई. में पांडिचेरी पर अधिकार कर लिया।

13.  अंग्रेजों ने तेरहवीं शताब्दी में आक्रमण किया 1601 में ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए अंग्रेज भारत आएवे यहां की ऐश्वर्य, सुख-समृद्धि को देखकर बहुत प्रभावित हुए। भारत के कमजोर नेतृत्व और राजनीतिक अस्थिरता को समझते हुए उनके मानस में तीव्र इच्छा पैदा हुई। 23 जून 1757 ई. को, रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल के नवाब, सिराज उद-दौला के कमांडर मीर जाफर की गद्दारी के कारण प्लासी की लड़ाई जीती। इसके बाद, उन्होंने भारत के कुछ क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया। लेकिन पूरे भारत पर ब्रिटिश अधिकार 28 जून, 1858 ई. से 14 अगस्त, 1947 ई. तक रहा।

 

इस प्रकार इतिहास साक्षी है मिस्र ने 21 वर्षों में, ईरान ने 15 वर्षों में, इराक ने 17 वर्षों में और यूरोप ने 50 वर्षों में अपनी संस्कृति और सभ्यता को खो दिया। तब फिर भारत में ऐसी क्या विशेषता थी कि इतने आक्रमणों और अत्याचारों के बावजूद इसका सभ्यतागत अस्तित्व आज तक बना हुआ है। यदि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत देश से तीन इस्लामी राष्ट्र बन गए, तो नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार भारतीय सभ्यता और संस्कृति का समर्थन करने वाले राष्ट्र भी बने यदि इस्लाम और ईसाई संस्कृति भारतीय धरती पर प्रभाव डालने में सफल होती है, तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता की अमिट छाप जापान, वियतनाम, भूटान, थाईलैंड, कोरिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया आदि देशों पर देखी जा सकती है।

          भारतीय सभ्यता संस्कृति में वे अमृत तत्व हैं, ऐसे महापुरुष, संत, ऋषि, ज्ञानी और विद्वान हैं जिन्होंने भारतीय आत्मा को मरने नहीं दिया, इसकी ज्योति जन-मानस में अक्षुण्ण जाग्रत रखी। ऐसे अनेक चरित्रों में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और उनके वंशजों का भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अस्तित्व को पुष्पित करने और फलने-फूलने में एक अद्भुत योगदान रहा है। भगवान बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक, जैन धर्म के विभिन्न भगवान, सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी, सभी क्षत्रिय थेइन लोगों ने अज्ञानता से उत्पन्न होने वाले अंधविश्वासों और बुराइयों का जोरदार खंडन किया

          मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम भारतीय संस्कृति और सभ्यता की आत्मा हैं। श्री राम के बिना एक भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना निराधार है। श्रीराम के जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं:

1.    अपने आप को सामर्थ्यवान बनाएँ। दूसरे खुद अपना दुख मिटाने के लिए आपसे समझौता करेंगे। सुग्रीव को राम में बाली से भयमुक्त होने, अपनी पत्नी तारा और अपना खोया राज्य वापस पाने का मार्ग दिखा और उन्हें प्राप्त किया तब उसने श्री राम की सहायता की। वैसे ही रावण द्वारा अपमानित कर राजदरबार से निष्काषित किए जाने पर विभीषण को शरण और जीवन का सम्मान वापस पाने का मार्ग राम में ही दिखा और श्री राम द्वारा लंका का राजतिलक किये  जाने के बाद विभीषण श्रीराम की सहायता के लिए तैयार हुए और राम की लंका पर विजय सुनिश्चित की

2.    अपनी कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता विकसित करें। किसी के मदद की अपेक्षा न रखें। जैसा कि श्री राम ने अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए अयोध्या और जनक से कोई मदद नहीं मांगी, खुद नए संबंध बनाए।

3.    साम्राज्य की नींव अधर्म और बुराई पर न डालें, क्योंकि उनकी दीवारें कमजोर होती हैं। इसलिए सत्य और धर्म के मार्ग पर चलें, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनें, क्योंकि लोग एक शक्तिशाली व्यक्ति से प्यार करते हैं।

4.    आदर्श स्थापित करें। सब कुछ कुर्बान करने के लिए तैयार रहें और समाज में हर वर्ग और व्यक्ति के महत्व को समझें, किसी की उपेक्षा न करें, बल्कि उनका प्रभावी ढंग से उपयोग करें। जैसे श्री राम ने किरीट, भील, जनजाति, वानर आदि सभी वर्गों का महत्व समझा।

5.    राष्ट्र प्रेम, पिता-पुत्र आदर्श, भाइयों में भक्ति, पति-पत्नी का प्रेम, शासक-शासित समीकरण और सत्य तथा निष्ठा के साथ बलिदान के लिए तैयार रहना आदि श्री राम की सच्ची भक्ति के रूप में आत्मसात करने के आदर्श हैं।

 

          किसी भी समाज-देश का स्वर्णिम भविष्य तभी सुरक्षित होगा जब उस के नागरिक वहां की संस्कृति और सभ्यता का सम्मान करेंगे। इसके लिए यूनेस्को ने भी सभी देशों को सुझाव दिया है:- 'शिक्षा की जड़ें अपनी संस्कृति में होनी चाहिए, लेकिन प्रगति के लिए प्रतिबद्ध'।

          जैसे इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश है। वहां के राष्ट्रपति जोको विडोडो, जो एक मुस्लिम भी हैं, 3 नवंबर 2019 को भारत आए। भारत के प्रधानमंत्री से बात करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने अपने बेटे का नाम नरेंद्र रखा है। भारत में रहते हुए कई बड़ी हस्तियों ने अपने बेटों का नाम गैर भारतीय रखा। इंडोनेशिया के मुसलमान अपनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को श्रद्धांजलि देते हुए महाराजा सुग्रीव के नाम पर एक विश्वविद्यालय का निर्माण करते हैं। लेकिन भारत में कई समुदाय अपनी जड़ें अरब और यूरोप में ढूंढते हैं, जबकि इन समुदायों के पूर्वज अक्सर हिंदू थे एक तरफ जहां कॉन्वेंट स्कूलों और मदरसों ने भारत में शिक्षा को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने में अपनी भूमिका निभाई है; दूसरी ओर, उन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की जड़ों को समाप्त करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसलिए मेरा उद्देश्य बस इतना ही है, हमारी पूजा-पद्धति और मान्यताएं चाहे जो भी हों, लेकिन हमारी आस्था, संस्कृति और समर्पण भारत राष्ट्र के प्रति होनी चाहिये

          अपनी सभ्यता और संस्कृति को न भूलें उसे बनाए रखें और अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित रहें।

(स्वामी धर्मबंधु के लेखन पर आधारित) 

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मन की माला                                             लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

          बनारस के किसी मुहल्ले में एक पंडित जी और एक मुल्ला जी रहा करते थे। दोनों में गहरी मित्रता थी। दोनों अपने-अपने धर्म के महान विद्वान थे। दोनों अक्सर धर्म चर्चा किया करते थे, जिसे मुहल्ले वाले ध्यान से सुना व सराहा करते थे। वैसे तो सभी बातों में प्रायः एक जैसे मत रखते थे, पर माला फेरने को लेकर दोनों में अक्सर विवाद हो जाता था। पंडित जी, अपने धर्मग्रंथों के अनुसार सीधी माला फेरते थे और मुल्लाजी इस्लाम ग्रंथों के आधार पर उल्टी माला फेरते थे। दोनों एक-दूसरे की माला फेरने की रीति को गलत बताते और झगड़ पड़ते। एक दिन दोनों इसी बात पर झगड़ रहे थे कि तभी कबीरदास वहाँ से टहलते हुए निकले। उन्होंने थोड़ी देर ठहरकर दोनों का विवाद सुना और फिर जोर से हंस पड़े। क्यों कबीर, मेरी बात पर तुम क्यों हंसे?', पंडित बोला। कबीर मुस्कुराये फिर बोले,

'माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

"जरा समझाकर बताइए, कबीरदास जी।', मुल्ला ने कहा।

'अरे भाई, कबीरदास जी समझाते हुए बोले, 'तुम दोनों के माला फेरने का ढंग एक ही है। पंडित जी सीधी माला फेरते हैं, जिसका अर्थ है सारे सद्गुणों को अपने अंदर आत्मसात करना और उल्टी माला फेरने का अर्थ है अपने सारे अवगुणों को अपने घट रूपी शरीर से उलटकर बाहर निकाल देना। दोनों का उद्देश्य एक ही है पर ढंग अलग-अलग है, इसलिए अभी तुम माला फेरने से पहले अपने मन को फेरो तभी विवाद मिटेगा।' सुनकर दोनों नतमस्तक हो गए।

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सूतांजली अप्रैल २०२४

  अंधेरे को हटाने में समय बर्बाद मत कीजिये। बल्कि दीये को जलाने में समय लगाइये। ------------------ 000 ---------------------- सीता - ...