सूतांजली ०२/०१ अगस्त २०१८ ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
पहला वर्ष
और
देखते ही देखते पहला वर्ष बीत गया। इस माह से हमने दूसरे वर्ष में प्रवेश किया है।
जब यात्रा प्रारम्भ की थी, भरोसा नहीं था कि दूसरा वर्ष देख पाएंगे। यह तो
आपलोगों का सहयोग एवं उत्साहवर्द्धन ही है कि हम केवल अपना वजूद बनाये रखने में ही
सक्षम नहीं रहे बल्कि हमने विस्तार भी पाया है, आगे बढ़ते जा
रहे हैं। अब तो ‘आगे बढ़ रहे हैं’ कहने
में भी डर लगता है। जैसे रंगों का, व्यक्तियों का, नारों का, गीतों का, पत्रों
का राजनीतिकरण हो चुका है वैसे ही ‘आगे बढ़ रहे हैं’ भी राजनीतिज्ञों का ही जुमला हो गया है। यही कहना ठीक है, पहला कदम ही महत्वपूर्ण है। कदमों की शृखंला उसके पीछे अपने आप बनने लगती
है। गांधी ने जब दांडी यात्रा शुरू की तो उनके साथ तो गिने चुने ही लोग थे। देश तो
उनके पीछे अपने आप हो गया।
सूतांजली
के संबंध में कई अलग अलग सुझाव मिले। इसके स्वरूप को बड़ा करने का सुझाव भी मिला, लेकिन कइयों का मत था कि इसका वर्तमान स्वरूप ही इसे विशिष्ट पहचान देता
है, अत: ऐसा ही रखा जाय। इस माह से हमने केवल इसके अक्षरों का
आकार थोड़ा बड़ा किया है। वर्तमान में यह पत्र अंतर्देशीय पत्र में छाप कर भेजा जा
रहा है। कुछ लोगों को उनके मेल पर भेजा जाता है।
इस माह से हमने एक नया घर बनाया है - www.sootanjali.blogspot.com । हमारे पुराने पत्र यहाँ उपलब्ध हैं। आने वाला हर
पत्र भी वहाँ उपलब्ध रहेगा, ज्यादा सामाग्री और लिंक के साथ। आपकी इच्छानुसार
सूतांजली पत्र या मेल या दोनों रूपों में आपके पास भेजी जा सकती है। इसमें
कोई भी बदलाव चाहते हों तो हमें sootanjali@gmail.com
पर मेल करें या ९४३२२९५२५० पर संदेश भेजें। अपना पूरा
नाम तथा ठिकाना जरूर से लिखें। और एक बात, अगर आप चाहते हैं
कि सूतांजली आपके किसी परिचित को भी भेजी जाय तो हमें उन्हे भी भेजने में
खुशी होगी। कृपया उनका विवरण (नाम एवं ठिकाना) भेजें, उपरोक्त मेल या फोन पर।
सूतांजली के लिए आपके पास कोई भी सामाग्री हो तो अवश्य भेजें। सुझाव
हो तो जरूर बताएं। हम उस पर विचार करेंगे। आपके सहयोग के लिए एक बार फिर आभार। संपादक
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संस्कृति एवं संस्कार
“और
संस्कार”?
“क्या
होता है ये, आपका संस्कार? किसे कहते हैं
संस्कार”?
“वह
ज्ञान जिसे हम पूर्वजों से, परिवर से, समाज से, आड़ोस-पड़ोस से, उनकी बातों से,
उनके तौर तरीकों से सीखते हैं”?
“बस
रहने दीजिये आपका वो परिवार, समाज, पड़ोस। परिवार वाले हमारे लिए खड्डा खोदने मे कोई कसर नहीं छोड़ते, समाज पूरी तरह दक़ियानूसी और रूढ़िग्रस्त है, पड़ोस
झाँकने भी नहीं आता। यही है न आपके संस्कार की पाठशाला”?
“मेरी
सुनो तो कहूँ”।
“हाँ
हाँ, कहिए न, क्या कहना है आपको”?
“मैं
इतना कुछ नहीं जानता हूँ। लेकिन हाँ मेरा बेटा विदेश में रहता है। कुछ समय पहले
उसने भारत में भारतीय पद्धति से विवाह किया। विवाह के बाद दोनों, बेटा और बहू, विदेश चले गए। लेकिन बहू को उस देश के
नियमों के तहत कुछ महीने बाद ही कुछ समय के लिए वापस आना पड़ा। आवश्यक कार्यवाही
पूरी होने पर वह वापस चली गई। जाने के पहले सासू माँ के साथ कपड़े खरीदने बाजार गई।
विदेशी परिधान के साथ-साथ भारतीय पोशाक भी खरीद रही थी। सास को आश्चर्य हुआ, “क्या ये पोशाकें वहाँ चलती हैं”?
“नहीं, लेकिन जब आप और बाबा वहाँ आएंगे तो आपलोगों के सामने मैं विदेशी पोशाक
पहन कर नहीं घूमूंगी”।
“.........”
“तो
आपका मतलब यह कि भारतीय पोशाक पहनना ही संस्कार है”?
“कुछ
समय पहले स्काइप पर उन्ही बेटे-बहू से कुछ बातें कर रहे थे। कुछ देर में बेटा उठ
कर चला गया लेकिन बहू बात करती रही। थोड़ी देर बाद दिखाई पड़ा कि बेटा कहीं बाहर
जाने के लिए तैयार हो कर आया। हमने पूछ ‘कहीं बाहर
जा रहा है?’ बहू ने बताया कि हमलोगों का मूवी जाने के
कार्यक्रम था। हमने तुरंत कहा, ‘था
मतलब, कहा क्यों नहीं? जाओ तुम भी
जल्दी से तैयार हो जाओ’ और बात समाप्त कर लाइन काट दी।
“आपसे
अपनी बात कहने की हिम्मत न होना ही संस्कार है”?
“नहीं,
इनमें से कोई भी संस्कार नहीं है। लेकिन इन घटनाओं में आपसी सम्बन्धों को जोड़ने
वाला वह पतला सा धागा जो न दिखाई पड़ता है न दिखाया जा सकता है, वह भावना जो न बताई जा सकती है न समझाई जा सकती है,
वह समझ जो उस धागे को देखने की शक्ति प्रदान करती है वही संस्कार है। यह समझ कि
मैं सिर्फ मैं नहीं हूँ, बल्कि मैं से बहुत ज्यादा व्यापक एक
परिवार हूँ, समाज हूँ,
गाँव-शहर-देश-विश्व-ब्रह्मांड और इन सबसे ऊपर मानव हूँ। यह दृष्टि जो बिना पढ़े, बताए, समझाये मिलती है, उसे
संस्कार कहते हैं। संस्कार हमें केवल अपने अधिकारों से नहीं बल्कि अपने
उत्तरदायित्वों से रूबरू करवाता है। संस्कार और संस्कृति ज़िम्मेदारी संभालने के
लिए है, अधिकार प्राप्त करने के लिए नहीं’”। हर समय बदलते रहने में न बदलने वाली चीज संस्कृति है। उसे देखने
वाली दृष्टि संस्कार है।
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ब्लॉग / मेल विशेष
जब
बच्चे के विवाह का प्रसंग आता है तो हम कहते हैं हमें तो पढ़ा लिखा लेकिन संस्कारी
बच्चा चाहिए। अगर बच्चा ऑक्सफोर्ड-हारवर्ड से पढ़ा लिखा हो, फर्राटे दार अँग्रेजी बोलता हो, स्थानीय भाषा भी
बोलता हो, गाड़ी चलाता हो, दफ्तर में
काम करता हो, CEO बनने वाला हो। तो उसका स्टेटस तो बहुत अच्छा है, लेकिन हम तो कह देंगे कि नहीं नहीं हमें तो संस्कारी बच्चा चाहिए। तो
क्या उसमें संस्कार नहीं है? क्या वह जंगली है? यही भाषाओं और विचारों का अंतर है। जिसे हम मूल्यवान समझते हैं और
संस्कारी मानते हैं। यानि कि जो हमारी परंपरा में रचा-बसा हो, वो जो हमारे परिवार में भी जुड़ सके वह हमारे लिए संस्कारी है। यानि जो
अपनी परंपरा से जुड़ा है वह संस्कारी है। वह जो हमारी परंपरा से जरा भी जुड़ा न हो
उसे हम अ-संस्कारी तो नहीं लेकिन हाँ आधुनिक कहेंगे। इन
दोनों में खाई है और घर्षण भी है। ऐसा
नहीं है कि उच्च शिक्षित बच्चा संस्कारी नहीं या संस्कारी बच्चा उच्च शिक्षित नहीं
हो सकता। होता यह है कि एक संस्कारी लेकिन साधारण पढ़ा लिखा बच्चा अपने कर्तव्य बोध
से दबा रहता है और अपने अधिकारों के प्रति उदासीन। वहीं शिक्षित बच्चा कार्यालय
में कार्यरत बॉस के अस्तित्व को स्वीकार करता है, उसके
अनुरूप मर्यादा में रहता है, तथा अपने पद के अनुसार अपने
अधिकारों के साथ साथ अपने जिम्मेदारियों के प्रति ज्यादा सजग रहता है। अधिकारों का
प्रयोग अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में करता है। यही नहीं उत्तरदायित्व को
निभाने के लिए जरूरत पड़ने पर अधिकार को छोड़ भी देता है। लेकिन वही बच्चा जब परिवार
में आता है तब यह विस्मृत कर देता है कि यहाँ बॉस और कोई है। वह अपने अधिकारों के
प्रति तो सजग होता है लेकिन उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीन। समुचित ढंग से अपने उत्तरदायित्व
का निर्वाह करने पर अधिकार स्वत: प्राप्त
हो जाते हैं। अधिकार और कर्तव्य के बीच सामंजस्य बना रहे तो न कोई विरोध न कोई
घर्षण। संस्कार और शिक्षा ३६ नहीं ६३ हैं, बस समझ का फेर है।