रविवार, 1 जनवरी 2023

सूतांजली जनवरी 2023

 सूतांजली

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वर्ष : 06 * अंक : 06                                                                जनवरी * 2023

नव-वर्ष 2023 पर हार्दिक शुभ कामनाएँ

 

सद्गुण एक प्रकार की बुद्धि है जिसे सिखाया नहीं जा सकता और इसलिए यह ज्ञान नहीं है।

जो लोग यह दावा करते हैं कि यह एक ज्ञान है और इसे सिखाया जा सकता है,

वे यह भूल जाते हैं कि उनके अच्छे काम का परिणाम ज्ञान नहीं

बल्कि उनके सच्चे विचारों की देन है। 

(प्लूटो)

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सद्गुणों के उत्सव में                                                       मैंने पढ़ा

एक समय की बात है। एक भव्य महल था, जिसके बीचों बीच एक मंदिर था। किन्तु आज तक उसकी देहली भी किसी ने पार नहीं की थी। और तो और, उसकी बाहरी चहारदीवारी तक भी पहुंचना मर्त्य प्राणियों के लिए प्रायः असंभव था, क्योंकि महल ऊंचे बादलों पर खड़ा था और आदिकाल से बिरले ही वहाँ का मार्ग ढूँढने में समर्थ हुए थे। यह था सत्य का महल।

          एक दिन वहाँ उत्सव का आयोजन हुआ, मनुष्यों के लिए नहीं, बल्कि उनसे अत्यंत भिन्न प्रकार की सत्ताओं के लिए। इसमें वे छोटे-बड़े देवी-देवता आमंत्रित थे जो इस पृथ्वी पर सद्गुणों के नाम से पूजे जाते हैं।

          उस महल के बाहरी भाग में एक बहुत बड़ा कक्ष था। उसकी दीवारें, फर्श और छत स्वयं प्रकाशित थीं, वे हजारों अग्नि-स्फुलिंग से और भी जगमगा रही थीं। यह था बुद्धि का महाकक्षयहाँ फर्श के पास प्रकाश बहुत हल्का था, नीलमणि के रंग का अति सुंदर गहरा नीला रंग छत की ओर अधिकाधिक तेज़ होता गया था। छत में हीरों के शमादान झाड-फ़ानूसों की तरह लटक हुए थे। उनके हजारों मुखों से आँखों को चौंधियाने वाली किरणें चारों ओर फूट रही थीं।

          सद्गुण अलग-अलग आये पर शीघ्र ही अपनी-अपनी रुचि के अनुसार टोलियाँ बना कर बैठ गये। सब प्रसन्न थे कि आज ऐसा दिन आया जब वे एक बार इकट्ठे हो सके। वे साधारणतः इस जगत में और अन्य जगतों में बिखरे रहते हैं, परायों की भीड़ में छितरे रहते हैं। इस उत्सव की अध्यक्षता की दिल की सच्चाई  ने जिसका वेश जल के समान निर्मल था, उसके हाथों में एक घनाकार, अति विशुद्ध स्फटिक था। उस स्फटिक से वस्तुएँ वैसी दिखलाई देती थीं जैसी वे वस्ताव में होती थीं, जैसी वे साधारणतया प्रतीत होती हैं उससे सचमुच बहुत ही भिन्न, क्योंकि उसमें वस्तुएँ हूबहू, बिना किसी विकृति के प्रतिबिम्बित होती थीं।

          उसके पास ही दो मूर्तियाँ विश्वस्त अंगरक्षकों की तरह खड़ी थीं; एक थी विनम्रता, उसका भाव आदरपूर्ण और साथ ही गर्वीला था, और दूसरी ओर उन्नत ललाट, उज्ज्वल चक्षु, दृड़ हास्यपूर्ण अधर, प्रशांत, निश्चिंत भंगिमावाला साहस  था। साहस के समीप, उसके हाथ में हाथ डाले, बुरके में लिपटी एक नारी खड़ी थी। केवल उसकी तीक्ष्ण आँखें ही घूँघट को भेद कर चमकती हुई दीख पड़ती थी। वह थी सावधानता

          सबके बीच एक दूसरे के पास आती-जाती, फिर भी हर समय सब के निकट दीखती थी उदारता – एक ही साथ सतर्क एवं शांत, कर्मरत एवं विवेकपूर्ण। उस समूह में वह जिधर निकल जाती उधर ही अपने पीछे उज्ज्वल मृदु प्रकाश की रेखा छोड़ती जाती थी। यह प्रकाश जो उससे छिटक कर विकिरण हो रहा था वास्तव में उसे अपनी श्रेष्ठ सखी, चिर सहचरी और जुड़वाँ बहन न्यायपरता से मिल रहा था, किन्तु वह उसके पास सूक्ष्म रूप में, अधिकतर दृष्टियों से ओझल रह कर आ रहा था। दया, धैर्य, सौम्यता’, अनुकम्पा और ऐसे अनेकों की उज्ज्वल सेना उदारता को घेरे हुए थी। 

          सभी आ चुके थे। कम-से-कम सब की ऐसी धारणा थी।

          किन्तु यह लो, वह कौन है? स्वर्ण-द्वार पर हठात एक नवागंतुक! द्वार पर नियुक्त द्वारपालों ने बड़ी कठिनाई से उसे अंदर आने दिया था। न तो उन्होंने उसे पहले देखा था और न ही उसकी आकृति में उन्हें कोई प्रभावशाली चीज लगी। सचमुच बहुत कम उम्र की थी, उसकी देह दुबली-पतली और सफ़ेद पोशाक साधारण, बल्कि गरीब जैसी थी। वह डरती-सी, झिझकती-सी कुछ कदम आगे बढ़ी। पर स्पष्ट ही वह अपने को ऐसी वैभवशाली उज्ज्वल भीड़ के बीच पाकर खो-सी गयी। वह ठिठक गयी, उसे पता न था कि किसकी ओर जाये।

          उधर सावधानता अपने साथियों से कुछ परामर्श करके उनके अनुरोध पर अनजाने मेहमान की ओर बढ़ी। वह जरा गला साफ करके, जैसा कि दुविधा में पड़े लोग थोड़ा सोचने के लिए करते हैं, उसकी ओर अभिमुख होकर बोली, “हम सब जो इस महल में इकट्ठे हुए हैं एक-दूसरे के नाम और गुण जानते हैं। आपको आते देख कर हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप हमें विदेशी-सी प्रतीत हो रही हैं। कम-से-कम ऐसा नहीं लगता कि आपको पहले कभी देखा हो। क्या आप बताने की कृपा करेंगी कि आप कौन हैं?

          नवगता ने लम्बी साँस लेते हुए उत्तर दिया, “हाय! मुझे आश्चर्य नहीं कि मुझे इस प्रसाद में विदेशी माना जा रहा है, क्योंकि मैं कदाचित ही कहीं आमंत्रित होती हूँ।

          “मेरा नाम है कृतज्ञता’”

(श्री अरविंद सोसाइटी से प्रकाशित पत्रिका अग्निशिखा से)

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ययाति आख्यान                                                         मेरे विचार

ययाति, पांडवों के वंश में सम्राट नहुष का पुत्र था, पराक्रमी और न्यायप्रिय। दैवयोग से असुरों के गुरु शुक्राचार्य के श्राप से ग्रस्त अ-समय में वृद्धावस्था को प्राप्त हुआ। सांसारिक भोगों को भोग कर ययाति की तृप्ति नहीं हुई थी अतः उन्होंने क्षमा याचना करते हुए ऋषि की स्तुति की और अपने श्राप को वापस लेने की प्रार्थना की। शुक्राचार्य ने अपने क्रोध को वश में कर बताया कि वे श्राप को पूर्णतया वापस नहीं ले सकते लेकिन उन्होंने एक विकल्प दिया –अगर कोई तुम्हारे बुढ़ापे के बदले अपनी जवानी देने को तैयार हो तो इस बुढ़ापे से जवानी की अदला-बदली हो सकती है। राजा को यह विकल्प बहुत सहज लगा और प्रसन्न मन वापस आ गए और सुपात्र खोजने लगे। लेकिन अकथ परिश्रम और आधे राज्य तक का प्रलोभन देने पर भी कोई भी व्यक्ति इस अदला-बदली के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिर उन्होंने अपने बेटे से इसकी चर्चा की और उससे अपनी जवानी देकर पिता का बुढ़ापा लेने का प्रस्ताव रखा। लेकिन एक-एक कर सब बेटों ने भी इंकार कर दिया। आखिर वे अपने सबसे छोटे पुत्र, पुरू, से भी याचना की। पुरू ने कहा कि वह उनके प्रस्ताव पर विचार करेगा।

          पिता के इस प्रस्ताव पर विचार कर पुरू अपने पिता के पास आता है और कहता है कि वह इस अदला-बदली के लिए तैयार है लेकिन वह अपने पिता को बताना चाहता है कि उसे यह प्रस्ताव क्यों स्वीकार है।  पिता की स्वीकृति पर वह कहता है-

          पिताजी, मैं आपके बुढ़ापे के बदले जवानी देने को तैयार हूँ लेकिन मैं आपके इस प्रस्ताव को “पुत्र कर्तव्य” बोध से नहीं कर रहा हूँ। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने का कारण यह नहीं है कि मैं इसे अपने पिता की आज्ञा मान रहा हूँ। न ही मैं यह विचार कर रहा हूँ कि पिता की प्रसन्नता ही पुत्र का कर्तव्य  है। और न ही मैं यह इस लिए कर रहा हूँ कि इससे मुझे पुण्य मिलेगा और मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। ये तीनों ही कारण नहीं है। तब और क्या कारण हो सकता है?

          “मुझे लगता है कि अपने वंश में कहीं कोई दोष हुआ है, जिसके कारण इतना भोग-विलास करने के बाद भी आपको संतुष्टि नहीं हुई और आप अभी और भोग की कामना रखते हैं। आपको लगता है कि और कुछ समय भोग भोगने से संतुष्टि मिल जाएगी लेकिन यह यथार्थ से परे है। समय आने पर, शायद मैं भी अपने पुत्र के सामने ऐसा ही प्रस्ताव रखूँ और कालांतर में मेरा पुत्र अपने पुत्र से ऐसी अपेक्षा रखे। तब, यह कब-कैसे समाप्त होगा। मेरे विचार से हमें जीवन में लगी गांठों को खोलने का प्रयत्न करना चाहिए, न कि नई गांठें लगाने का। हमें ऐसा कोई भी सूत्र, बात, आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिए जो जीवन में गांठों को खोलने के बजाए नई गांठें लगाए। अपने वंश के विकार को मैं यहीं समाप्त कर देना चाहता हूँ, जवानी और भोग के महत्व को मैं यहीं समाप्त कर देना चाहता हूँ। अतः मैंने विचार किया है कि मैं इसे यहीं समाप्त कर दूँ ताकि यह न तो परंपरा बने और न ही उदाहरण। इस असत परंपरा को निर्मूल बनाने के उद्देश्य से मुझे आपका प्रस्ताव मंजूर है।”

(हमारा एक गलत कार्य, हमारा एक गलत निर्णय  हमारे परिवार-वंश में एक गलत परंपरा पैदा करती है, एक अच्छी परंपरा को नष्ट कर देती है। यह शनैः-शनैः हमारा सर्वनाश कर देती है। परम्पराओं को हटाना बड़ा आसान है लेकिन उन्हें बनाना उतना ही कठिन। बिना समझे उन्हें छोड़ना अपने वंश को नष्ट करना है और इन्हें बचाना अपने वंश को बचाए रखना है। इसका असर कई बार पीढ़ियों के बाद महसूस होता है। रोज़मर्रा के जीवन में कई परिवार बड़े सुसंस्कृत और बंधे-बंधे नजर आते हैं तो कई बिखरे-बिखरे और असभ्य। इनके मूल में जाकर देखें। क्या हटाना है और किसे मजबूत करना है, इसका निर्णय सुविधा-असुविधा पर मत छोड़िए। गलत कार्य छोटा-बड़ा नहीं होता, बस गलत ही होता है। एक छोटा कंकड़ भी अपनी गति से विनाश कर सकता है। हमारे कर्म का उद्देश्य यही होना चाहिए कि हम जीवन की गांठें खोलें और आगे के जीवन में कोई गांठ लेकर न जाएँ। अनेक अनजानी-अनबूझी परम्पराओं का कार्य बस इतना ही होता है कि नई गांठें न बने और बनी हुई गाँठे खुल जाये। हमारे जीवन में गांठें नहीं हैं, वे प्रकृति के नियमानुसार चलता रहता है यह हमारी समझ और बुद्धि है जो जीवन में गांठें पैदा करती हैं, हमें उनका ही ध्यान रखना है।)

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बड़े लोग, छोटे लोग                                           लघु कहानी - जो सिखाती हैं जीना

मीता के बेटे को बुखार था और वह कार्टून कैरेक्टर्स के चित्रों की जिद लगा बैठा था। उसे दादी के पास रहने की हिदायत देकर मीता बाजार के लिये निकल पड़ी और फुटपाथ पर स्टिकर और पोस्टर बेचने वाले एक बच्चे के पास रुकी। मीता ने मिकी माऊस पसंद किया। साथ ही उसका ध्यान इस बात की तरफ भी गया कि उसके साथ मोटू-पतलू का भी एक पोस्टर चिपका हुआ है। पर वह चुप रही। पोस्टर हाथ में ही लिये हुए उसने दाम पूछे। बच्चे ने २० रुपये बताये। उसने कहा, मैं १० ही दूँगी। वो उदास हो गया। मीता आगे बढ़ने को हुई कि उसने कहा, ठीक है मैडम जी ले जाओ। वैसे ही खाने के लाले हैं, जो मिल जाये वही ठीक है

          घर आकर उसने बच्चे को बताया कि किस तरह उसने एक पोस्टर का दाम आधा करवा लिया और मिकी माऊस के साथ मोटू-पतलू का एक एक्सट्रा पोस्टर भी ले आई। बच्चा आश्चर्य से मम्मी को देख रहा था। वो बोला मम्मा! आपने ही तो सिखाया है कि कभी झूठ नहीं बोलना चाहिये, चीटिंग नहीं करनी चाहिये। आपने उस बच्चे के साथ अच्छा नहीं किया। कहकर वह उदास हो गया। जब मीता ने उसे दवा देने की कोशिश की तो उसने मना कर दिया। कहा, जब तक उस बच्चे को इन पोस्टरों की पूरी कीमत देकर नहीं आयेंगी मैं दवाई नहीं लूँगा।

          मीता वहाँ पहुंची तो देखा वह बच्चा वहाँ नहीं था। पास बैठी बूढ़ी अम्मा से, जो सब्जी बेच रही थी, पूछा तो उसने कहा, वो बाजार के पीछे कच्ची बस्ती में रहता है। मीता तुरंत कच्ची बस्ती की तरफ गई। किसी से पूछा - वो पोस्टर बेचने वाला बच्चा कहाँ रहता है? उसने सामने झोपड़ीनुमा कमरे की तरफ इशारा किया। अंदर प्रवेश करने वाली ही थी कि माँ-बेटे की बातचीत सुनकर ठिठक गई। लड़का कह रहा था, माँ, देखो मैं बिस्कुट लेकर आया हूँ। तुम जल्दी से खाकर दवाई ले लो। माँ को दवाई देकर वह बाहर आया। बाहर मीता को खड़ी देखकर ठिठक गया। मीता ने कहा – बेटा! मैं  एक के बदले दो पोस्टर ले गई थी। ये लो १०० रुपये। लड़का बोला, मैडम जी, दो स्टीकर के ४० रुपये ही होते हैं, आप उतने ही दीजिये।

          मीता नि:शब्द थी। घर आकार बच्चे को सारी बात बताई। बच्चा आराम से दवा लेकर सो गया। मीता सोच रही थी कि कभी-कभी बच्चे भी जिंदगी का महत्वपूर्ण पाठ पढ़ा देते हैं।

(वे सद्गुण जिन्हें आप अपने बच्चों में देखना चाहते हैं, पहले खुद उन्हें अपनाइये।)

                                                                                                                                    (अलका जैन) 

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सूतांजली मई 2024

  गलत गलत है , भले ही उसे सब कर रहे हों।                     सही सही है , भले ही उसे कोई न कर रहा हो।                                 ...