गुरुवार, 1 जून 2023

सूतांजली जून 2023

 


अपने आप कुछ नहीं होता,

कर्म करना पड़ता है।

अपने आप हम सिर्फ वृद्ध होते हैं या

मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

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परिश्रम के देवता                                                        मैंने पढ़ा

          हमारे यहाँ देवी-देवताओं की कमी नहीं। जितने चाहो उतने मिलते हैं, किस्म-किस्म के, हर रूप-आकृति और अनेकों कर्म के भी। पहले इनकी संख्या  33 कोटि (करोड़) थी, लेकिन अब शिक्षा और विज्ञान ने इनकी संख्या 33 कोटि (वर्ग, किस्म) तक सीमित कर दी है। लेकिन, अगर मैं आप से पूछूं श्रम के देवता कौन हैं? तो आप एक बार तो बगलें झाँकने लगेंगे। कोई एक नाम आपके दिमाग में नहीं आयेगा।  यह एक अलग बात है कि श्रम का महत्व हम सब समझते हैं लेकिन वहीं, यह बात भी छिपी नहीं है कि हम शारीरिक श्रम को हेय दृष्टि से देखते हैं। वंदना जी की लिखी यह कहानी श्रम के बारे में ही है।

          एक बार की बात है, स्वर्ग में देवता निष्क्रिय से दिख रहे थे। उनके जीवन में कहाँ दुःख और कहाँ कष्ट? वह तो धरती वासियों की प्रार्थना, आर्तनाद, पुकार आदि ही उनके लोक में हलचल पैदा करते हैं, क्योंकि अगर कोई सच्ची निष्ठा के साथ देवता को पुकारता है तो वे धरती पर उतरने के लिए तैयार हो जाते हैं; इसी कारण निरन्तर देवताओं का आवागमन होता ही रहता है। लेकिन कुछ दिनों से स्वर्ग में न तो आर्तनाद आ रहे थे, न प्रार्थनाओं की टेर सुनायी दे रही थी। देवता भी आश्चर्य में पड़ गये और सोचने लगे कि आखिर मामला क्या है ? अन्त में सब ने मिल कर निश्चय किया कि इस बार अ-निमन्त्रित ही धरती पर जाकर वहाँ के लोगों की हालत देखेंगे।

          अगले ही दिन देवता सूक्ष्म रूप धारण कर धरती पर उतरे। वहाँ पहुँच कर सभी आश्चर्य में पड़ गये, क्षण-भर के बाद नारद बोले- 'ओह! यह हमारी सुपरिचित दीन-हीन, लावण्य रहित पृथ्वी नहीं है।" उनकी आँखों के सामने झूम रही थी हरी-भरी वसुन्धरा। उसका अपूर्व सौन्दर्य देख वरुण देव तो आनन्द से उन्मत्त हो उठे। वे तो यहां अधिकतर किसानों की हृदय-भेदी करुण प्रार्थना सुन कर सूखी धरती के हृदय की प्यास बुझाने आया करते थे। आज तो सारी धरती, उसके प्राणी, पेड़-पौधे, चर-अचर - सभी रूपान्तरित से दिख रहे थे। नदियाँ मस्ती से बह रही थीं, किसान खेतों में, नगरवासी नगरों में, बालक विद्यालयों में, पशु वनों में, पक्षी नीड़ों में, अर्थात् सभी अपने-अपने उचित स्थान पर आनन्दपूर्वक, उत्साह के साथ काम में लगे हुए थे।

          धरती का यह परिवर्तन देख सभी देवता आश्चर्य में डूबे हुए थे। अचानक उन्होंने एक सुदर्शन पुरुष को इधर-उधर विचरते देखा। उस युवक ने भी देवताओं को देख दूर से ही सादर प्रणाम किया। देवताओं ने सोचा – अरे! हमारे जैसा यह कौन है? पहले तो हमने इसे कभी यहाँ नहीं देखा। हमारे जैसा दिखने पर भी हमसे अपरिचित !!

          नारद ने घोषणा कर दी - “हम सब उस पुरुष के पास जाकर स्वयं उसका परिचय प्राप्त करें।" अगले ही क्षण देवता वहाँ उपस्थित थे। देवताओं ने पूछा-" हे सुदर्शन युवक कौन हो तुम, देवजाति के लगते हो, लेकिन सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि स्वर्ग में तुम्हारे दर्शन कभी नहीं हुए।"

          उस पुरुष ने कहा- "देवगण ! मैं आप लोगों की कोटि का स्वर्ग में रहने वाला देवता नहीं हूँ, धरती माता की कोख में मेरा वास है। जब-जब धरती वासी मुझे पुकारते हैं मैं उपस्थित हो जाता हूँ। हरे-भरे लहराते खेतों में, फलों से लदे वृक्षों में, भव्य प्रसादों में, कुटीरों में, ग्रन्थों में, काव्यों में, सृजन के प्रत्येक कार्य में मेरा ही वास है, लेकिन मेरा सौन्दर्य सबसे अधिक निखरता है पसीने की बूँदों में, मैं हूँ परिश्रम।"

          परिश्रम-देवता को नमस्कार कर देवताओं ने कहा- "तुम ही सचमुच पृथ्वीवासियों के देवाधिराज हो। तुम्हारे बिना लोग अकर्मण्य, निष्प्राण होते हैं, तुम साथ रहो तो वे सर्वसमर्थ बन जाते हैं। तुम्हीं सचमुच पृथ्वीवासियों के सच्चे लावण्य, पारसमणि हो।"

          "हे देवगण! तब तो मुझे वर दीजिये कि धरतीवासी अपने सच्चे सौन्दर्य को भुला न दें, यह कभी न भूलें कि वे इस परिश्रम-रूपी पारस के अधिकारी हैं जिसके स्पर्श से सीसा हीरे में, लोहा सोने में बदल जाता है।” उद्यम देवता ने सिर झुका कर निवेदन किया।

          और सभी देवताओं के वरद हस्त तथास्तु में उठ गये।

(पृथ्वी को स्वर्ग बनाने का एकमात्र उपाय परिश्रम ही है)

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दैवी सम्पदा                                                                  चिंतन

          कई ऐसे गुण हैं जिन्हें अपने जीवन में धारण करने से मानव देव बन जाता है, इन्हें दैवीय सम्पदा (गुण) कहते हैं। ऐसा कोई मानव नहीं जिनमें केवल गुण हों और हर प्रकार के दुर्गुण से मुक्त हो। वैसे ही ऐसा कोई देव नहीं जिसमें कोई दुर्गुण न हो, ऐसा कोई असुर नहीं जिसमें कोई दैवीय गुण न हो। देश-काल के प्रभाव से इनका अनुपात निरंतर बदलता रहता है। साधारणतया इन गुण-दोष की मात्रा ही इस बात का निर्धारण करती है कि कौन है देव और कौन असुर।

          इन संपदाओं को जानना जितना आसान है, उतना कठिन है अपने जीवन में उतारना। एक है जीवन मूल्य(वैल्यूज) और दूसरा सद्गुण (विर्च्युज) जैसे अहिंसा, सत्य आदि। ये जीवन मूल्य हैं जिनका हम सम्मान तो करते हैं लेकिन अपने जीवन में नहीं उतारते। अतः ये दैवीय सम्पदा हमारे गुण में परिवर्तित  नहीं होते। जब हम इन जीवन मूल्यों को, दैवीय सम्पदा को अपने जीवन में उतारते हैं तब ये सद्गुण हमारे जीवन में दिखने लगते हैं। इस प्रकार दैवीय संपप्ति को बटोरने वाले को ही देव कहा जाता है।

          जैसे गुण-दोष हैं वैसे ही कर्म भी श्रेय और प्रेय होते हैं। श्रेष्ठ कार्य श्रेय और प्रिय कार्य प्रेय कहलाता है। हर मानव जानता है कि श्रेय क्या है और यह मानता भी है कि यह श्रेय है। लेकिन अनेक प्रकार की शक्तियाँ हैं जो उन्हें श्रेय के बदले प्रेय कार्य में प्रवृत्त करती हैं। यही है, हर मानव के दो विपरीत रूप (dual personality), कहना कुछ, करना कुछ, कथनी और करनी में भेद।  

          विडम्बना यही नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा गंभीर है। हर गुण को जानना एक बात है और उन्हें समझना दूसरी। इन्हें गहराई में जाकर समझने की आवश्यकता है। गीता के सोलहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने दैवीय सम्पदा की चर्चा की है और उन संपदाओं को गिनाया है। वे इस प्रकार हैं :

निर्भीकता                  निर्मलता                            ज्ञान और योग में निष्ठा           दान

इंद्रिय दमन                यज्ञ                                    स्वाध्याय                            तप

सरलता                    अहिंसा                               सत्य                                  अ-क्रोध

त्याग                       शांति                                 निंदा का त्याग                      दया

लोभ का त्याग            कोमलता                             लज्जा                                 अ-चपलता

तेज                         क्षमा                                  धैर्य                                    पवित्रता द्रोह का अभाव                   अभिमान का न होना

          इनमें से कोई भी सम्पदा ऐसी नहीं है जिसे हम नहीं जानते हैं। ये सब हमने बार-बार  सुना है और इनका अर्थ जानते हैं। इन सम्पदाओं में  एक है स्वाध्याय यानी खुद का अध्ययन, चिंतन। क्या इन दैवी संपदाओं पर हमने अपना अध्ययन किया है? क्या हम इन संपदाओं का सटीक अर्थ जानते हैं? हम इनके शाब्दिक अर्थ जानते हैं। और उसी के आधार पर हम कहते हैं की हाँ-हाँ जानते हैं, बहुत सुना है, फिर से उपदेश मत शुरू करो। अगर आप इसी समुदाय में हैं तो जरा ठहरिए और कुछ एक सम्पदा पर चर्चा, स्वाध्याय कीजिये

निर्भीकता – रावण-कंस, आतंकवादी-डकैत-गुंडे तो बड़े निर्भीक हैं, क्या यह उनका दैवीय गुण है? नहीं, अधर्म के मार्ग पर निडर होकर बढ़ना दैवीय सम्पदा नहीं है। जब हम  धर्म के मार्ग पर, ज्ञान के मार्ग पर, भक्ति के मार्ग पर निडर होकर चलते हैं तब वह हुई निर्भीकता। उस समय हमें डर नहीं लगना चाहिये। कौन क्या कहेगा? क्या होगा? कोई तो नहीं चलता? धर्म मार्ग पर चलने से कैसे होगा? अरे वाह! व्यावहारिक जगत में तो हम स्वीकार करते हैं प्यार किया तो डरना क्या’, भगवान से प्यार किया तो क्यों डर रहे हो? साँच को आंच क्या! आसक्ति होती है तब डर लगता है। धर्म के मार्ग पर, भक्ति के मार्ग पर, सत्य के मार्ग पर  अभय से, निर्भीकता से बढ़ना ही दैवीय सम्पदा है।   

दान – ईश्वर ने हमें जो कुछ भी दिया है उसे केवल खुद के भोग के लिए नहीं दिया है, उसका उदारता पूर्ण वितरण होना चाहिए। अगर सब खुद जमा करते रहेंगे तो कुछ लोगों के पास अनावश्यक जमा हो जायेगा और कई अभाव में रह जायेंगे। प्रकृति, हमारी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, लेकिन हमारे लालच की नहीं। जो प्राप्त है उसका उदारता पूर्वक वितरण करना, चाहे धन हो, ज्ञान हो, वस्त्र हो, अन्न हो, भूमि हो, जिसके पास जो है, उसी का दान करना। इस बात का स्मरण रखिए जो भी देते हैं वह उसी रूप में आपके पास लौट कर आता है – कहीं भी, कभी भी, किसी से भी। दान देते समय सुपात्र-कुपात्र का ध्यान रखना भी आवश्यक है। लापरवाही से और कुपात्र को दान देना दान नहीं है। दान किसे दे रहे हैं – जोड़ने वाले को या तोड़ने वाले को? निर्माण के लिए या विध्वंस के लिए? साधु को या ठग को? इसका ध्यान रखें।

स्वाध्यायस्वाध्याय का अर्थ ईश्वर का जप या मंत्र या शास्त्र के पाठ तक सीमित नहीं है, स्वयं का अध्ययन, चिंतन, मनन भी आवश्यक है। श्रेष्ठ ग्रन्थों का अध्ययन करने से हमें जीवन के प्रति ज्ञान प्राप्त होता है और स्व-ध्ययन करने से वह ज्ञान हमारे जीवन में उतरता है और अपनी कमियों का परिचय होता है। गुरु केवल इशारा करता है, उस मार्ग पर चलना तो हमें ही पड़ता है। सनातन यानी शाश्वत। शाश्वत तो तभी हो सकता है जब देश-काल के अनुसार उसमें परिवर्तन-उत्थान होता रहे। अगर जो है केवल उसे ही पढ़ते रहे तो उत्थान कैसे होगा? पठन-पाठन, चिंतन-मनन इसी का अंग है। अतः स्वाध्याय, खुद का अध्ययन आवश्यक है।

तप, सरलता, अहिंसा  ये तीनों कर्मणा-वाचा-मनसा (कर्म, वाणी और चिंतन) तीनों स्तर पर होना चाहिए।

तप का अर्थ जंगल-पहाड़ों में जाकर आँख बंद कर बैठना नहीं है। हम जैसा बनना चाहते हैं, अपने महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम करना ही तप है।

कहा कुछ, किया कुछ और विचार कुछ, तब सरलता नहीं आ सकती, सरलता के लिए इन तीनों में कोई भेद नहीं होना चाहिये।

अहिंसा का अर्थ समझना और अपनाना कठिन कार्य है। लोग इसके शाब्दिक अर्थ को पकड़ कर बैठ जाते हैं। उससे आगे बढ़िए और इस पर चिंतन-मनन कीजिये।

सत्य – प्रमाण से जो ज्ञान प्राप्त हुआ वही बोलना। कहीं से, कुछ भी सुन-पढ़ कर नहीं बोलना। बोलने के पहले यह जांच करना कि क्या यह सत्य है? जब तक खुद आश्वस्त न हो नहीं बोलना। अगर कोई वचन (शब्द) दिया है तो उसका पालन करना। वचन का अर्थ प्रॉमिस नहीं है। जो कहा, वो किया है।

अ-क्रोध – क्रोध बिलकुल आये ही नहीं यह तो बड़ा ही कठिन है। लेकिन उस पर हमारा शासन होना चाहिए, संयम से वश में कर उसे शांत करने की शक्ति होनी चाहिए, उठे हुए हाथ को रोकने की शक्ति होनी चाहिये, जिव्हा पर आए शब्द बाहर नहीं निकलने चाहिये, क्रोध प्रकट न हो  

त्यागत्याग का अर्थ सन्यास भी है। अपने ममत्व-राग-द्वेष का त्याग, अहंकार का त्याग ही सबसे बड़ा त्याग है।

निंदा का त्याग – हम इसमें बहुत माहिर हैं। पीठ पीछे बुराई करना ही निंदा है। चुगली से बचना।

दया लोग दया दिखाते हैं दुष्टों के प्रति, अधमों के प्रति, अवाञ्छ्नीयों के प्रति, असफल और असफलताओं के प्रति – वास्तव में इससे दुष्टता और असफलता को एक प्रकार का बढ़ावा मिलता है।  इसके विपरीत अगर हम  सम्पूर्ण सच्चाई के साथ, समझने वाले और मूल्य आँकने वाले हृदय की स्वाभाविक कृतज्ञता के साथ दयावान हों तो जगत में चीजें बड़ी तेजी से बदलने लगे, उन्हें ईश्वरीय शक्ति की उपस्थिती का आभास होने लगेगा।

लज्जा -  न करने योग्य कार्य करने में, धर्म विरोधी कार्य करने में लज्जा आनी चाहिए। इतना ही नहीं करने योग्य कार्य न करने से भी लज्जा की अनुभूति होनी चाहिए।

क्षमा -  इसका भी प्रायः गलत अर्थ लगाया जाता है। अपने प्रति किए गए अपराध को इस प्रकार भूल जाना जैसे वह हुआ ही नहीं हो, क्षमा है। उसी प्रकार राष्ट्र, समाज के प्रति किए गए अपराध क्षम्य नहीं हैं। क्षमा योग्य कृत्य ही क्षम्य हैं, अन्यथा दंडनीय ही हैं।

          अपने स्वाध्याय से इस सभी तथा अन्य संपदाओं पर गंभीरता से निरंतर मनन कीजिये। इनके अर्थ बदल जाएंगे, क्या करना है और क्या नहीं, इसकी समझ आने लगेगी। आपकी ये संपदाएँ आभूषण के रूप में, अलंकार के रूप में लोगों को दिखने लगेंगे। आप जितनी गहराई में जाएंगे इसके तल को नहीं पाएंगे, उसकी गहराई निरंतर बढ़ती जाएगी।

          यह भी सत्य है कि अगर हम किसी भी एक सम्पदा को पकड़ लें और यह निश्चय कर लें कि हर अवस्था में, मैं इसका त्याग नहीं करूंगा, इस पथ पर दृड़ता पूर्वक चलूँगा, तब एक-एक कर बाकी सम्पदा भी स्वतः प्राप्त होने लगती है।

किसी एक सम्पदा को ही अपनाइये और उसे दृड़ता पूर्वक पकड़ कर रखिए, और देखिये कैसे

जीवन बदल गया, लोग बदल गये, दुनिया बदल गई,

सुख, शांति, आनंद का साम्राज्य हो गया।

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