परमात्मा को चाहा नहीं
जा सकता ।
जब कोई चाह नहीं होती,
तब जो शेष रह जाता है,
वह परमात्मा है।
ओशो
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धर्मसंस्थापनार्थाय मेरे विचार
गीता के चौथे अध्याय के दो श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन
श्लोकों में श्रीकृष्ण यह घोषणा करते हैं कि वे कब और क्यों पृथ्वी पर प्रकट होते
हैं :
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७||
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।८||
‘हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म
की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने साकार रूप से लोगों के
सम्मुख प्रकट होता हूँ। साधुजनों (भक्तों) की रक्षा करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भली भाँति स्थापना
करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।’
इस
श्लोक में “धर्मसंस्थापनार्थाय” शब्द और इसमें भी धर्म शब्द अनेक
महत्व का है। क्या अर्थ है धर्म का? जब श्री कृष्ण धर्म की रक्षा की, स्थापना की बात कर
रहे हैं, वे किस धर्म की बात कर रहे हैं? हिन्दू धर्म की? सनातन धर्म की? क्या हमारे श्री कृष्ण और हमारी गीता इतनी संकीर्ण है जिसमें धर्म का
अर्थ ‘सनातन धर्म’ तक ही सीमित है? सबसे पहली बात तो यह कि हम भली भाँति जानते हैं कि धर्म का अर्थ पंथ या
मत नहीं है। धर्म वह नहीं है जिसका प्रायः अँग्रेजी में ‘रिलीजन’ अनुवाद कर दिया जाता है। धर्म इनसे सबसे अलग है, इन
सबसे कहीं बेहद ऊंचाई पर है। तब क्या है धर्म?
वैसे
तो महात्माओं, विद्वानों,
टीकाकारों, साधुओं ने अपने-अपने ढंग से इसका अर्थ समझाया है, इसकी व्याख्या की है, लेकिन अगर हम इसे एक साधारण
मानव के लिए सीधे-सादे शब्दों में कहना या समझना चाहें तो कह सकते हैं – “धर्म वह
है जो हमें आंतरिक सुख, शांति और आनंद प्रदान करता है। वे सब
सद्गुण जो हम दूसरों में देखना चाहते हैं उनका निचोड़ धर्म है।” एक इंटरव्यू के
दौरान जमशेदजी टाटा को कहा गया कि भविष्य में भारत एक वृहद आर्थिक रूप से शक्तिशाली
देश के रूप में उभरेगा। जमशेदजी ने बीच में टोकते हुए कहा कि भारत को आर्थिक रूप
से शक्तिशाली बनाने में उनका कोई प्रयोजन नहीं है वे तो यह चाहते हैं कि भारत एक सुखी देश के रूप में उभरे।
सब कुछ रहे लेकिन सुख-शांति न रहे तब सब कुछ निष्प्रयोजन ही है। धर्म वह है जिससे
हर प्रकार के लौकिक सुविधा के साथ-साथ आंतरिक सुख और शांति की प्राप्ति होती है।
हमें
सम्पूर्ण बाह्य जगत में एक लय,
एक तारतम्य दिखाई पड़ता है और इसीलिए हम सब काम कर पाते हैं। हम वैज्ञानिक प्रगति
की बात करते हैं, लेकिन उसकी उन्नति केवल इसलिए हो रही है
क्योंकि प्रकृति के सब नियम सुचरू रूप से चल रहे हैं। अगर एक व्यक्ति, परिवार, समाज में सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा है
तब इसका अर्थ यही है कि सब अपना-अपना कार्य कर रहे हैं। जिसके कारण यह लय, यह तारतम्य बना रहता है। सम्पूर्ण सृष्टि में, समाज
में, सुख शांति बनी रहती है, वही धर्म
का अभ्युदय है। इसके विपरीत, यानी इस तारतम्य का बिगड़ना, जोड़ने के बजाय टूटना, निर्माण के बजाय विध्वंस का होना, मतलब अधर्म हो
गया।
वह
क्या है जो सब को जोड़ कर रखती है?
यह देखने लायक बात है कि इस लय को तोड़ने वाला आदमी ही होता है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे-वनस्पति, प्रकृति तो बराबर अपने नियम के
अनुसार चल रहे हैं। बल्कि यह तो मनुष्य ही है जो उनके तारतम्य को छिन्न-भिन्न करता
है और इसके कारण आने वाली आपदा को भी उसे ही भोगना पड़ता है। लेकिन इतना कह-सुन
लेने के बाद बात वहीं-की-वहीं रह गई। धर्म की बहुत बड़ी-बड़ी व्याख्याएँ हैं, लेकिन सरल शब्दों में जिसे आम आदमी समझ सके और उसके अनुसार धर्म मार्ग पर
चल सके, ऐसी भी कोई व्याख्या है?
परिभाषा है? हाँ है, क्यों नहीं है –
वे सभी सद्गुण जिन्हें आदमी दूसरों में देखना चाहता है, अगर उन सभी सद्गुणों को मिला दिया जाए तो वही धर्म है। दिक्कत यह है कि ये
सद्गुण हम दूसरों में देखना चाहते हैं, खुद अपनाना नहीं
चाहते। कैसे सद्गुण? जैसे :
सत्यनिष्ठ धार्मिक
निष्ठावान ईमानदार
विनम्र उदार
प्रेमी मिलनसार
क्षमाशील अहिंसक
ज्ञानी
कृतज्ञ
निष्कपट आनंदित
कर्तव्यनिष्ठ
सेवा भाव
शांतचित्त दयावान
अ-परिग्रही धैर्यशील
सौम्य
ये
सब और ऐसी सब चीजों की एक तालिका बनाई जाए तो जो तैयार होगी वह होगी ‘जीवन मूल्य और गुण’
(वैल्यूज अँड वर्च्युज ऑफ लाइफ) की पूरी तालिका और यही है धर्म, जहाँ सब के लिए सत्य है, प्रेम है, दया है, शांति है, सुख है।
अगर मानव इसके अनुरूप चले तो उन्नति है, नहीं तो अवनति है। ऐसे
मानव हैं तब धर्म की स्थापना है।
ऐसा
नहीं है की ईश्वर का प्राकट्य समय-समय पर ही होता है। जब भी पृथ्वी पर, समाज में, परिवार में और अपने अंदर इन सद्गुणों का
प्रभाव बढ़ रहा हो और दुर्गुणों का अभाव हो रहा हो तब समझ लेना चाहिए कि ईश्वर का अवतार हो रहा है।
जब-जब अवतार हो रहा हो उसकी आराधना कीजिये, गुणगान कीजिये, स्तुति कीजिये। उस क्षण का भरपूर आनंद लीजिये और उसका बार-बार आह्वान
कीजिये। ईश्वरीय अवतार का अनुभव कीजिये। धर्म की स्थापना कीजिये।
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पेड़ की आत्मा मैंने पढ़ा
कविवर रवीन्द्र
द्वारा स्थापित शांतिनिकेतन का परिसर। महान भारतीय कलाकार नंदलाल बोस उद्यान में
बैठे अपने छात्रों और उनकी चित्रकला की देखरेख कर रहे थे। उनमें से एक, एक बड़े पेड़ के सामने बैठा था और उसे रंगने की कोशिश कर रहा था। नंदलाल
उनके पास जाते हैं और पूछते हैं, "कनाई, क्या तुमने पेड़ देखा है"। इस प्रश्न से परेशान और नाराज, कनाई कहते हैं, "सर, मैं
अंधा नहीं हूं"।
नंदलाल कहते हैं,
"बेशक भौतिक रूप से तुम अंधे नहीं हो, लेकिन
क्या तुम भीतर जागे हुए हो? क्या तुमने पेड़ की आत्मा को
देखा है"। कुछ मिनटों के मौन के बाद, अपने गुरु के अर्थ,
शब्द छात्र के दिमाग में छा गए और कनाई कहता है "नहीं
सर"। नंदलाल ने धीरे से कनाई के कंधों पर हाथ रखा और कहा:
"पेड़
को रंगने से पहले, न केवल अपने शरीर की आँखों से, बल्कि अपने हृदय की आँखों से, न केवल पेड़ के बाहरी
रूप को बल्कि पेड़ को जीवित करने वाली जीवित आत्मा को भी देखो। इसे एक जीव के रूप में, एक आत्मा के
रूप में देखो जैसे मैं और तुम। इसे
सूर्योदय से पहले देखो, इसे देखो जब सूरज उगता है और पेड़ पर
अपनी सुनहरी किरणें डालता है, दोपहर में इसे सूर्य की तेज
रोशनी में देखो, इसे शाम के गोधूलि में देखो, रात के अँधेरे में चाँद की कोमल रोशनी में देखो, बारिश,
हवा और तूफान में देखो। देखो, देखो और देखो और
एक दिन पेड़ की आत्मा तुम्हारे पास आएगी और कहेगी "मैं यहाँ हूँ" और फिर
चित्र बनाओ, तुम्हारी कला जीवंत और भावपूर्ण होगी"।
यह भारतीय कला की विशेषता है। ग्रीक कला में,
यदि आप ‘वेनस’ देखते हैं,
तो सब कुछ सही है, नाक एकदम सही है, आँखें समान दूरी पर हैं। लेकिन भारतीय छवियों में, गणेश
को देखें - बड़ा पेट, लंबे दांत, झूलता
सूंड, क्या भारतीय इससे अधिक सुंदर रूपों के बारे में नहीं
सोच सकते? क्यों? क्यों नहीं? क्योंकि अगर रूप अपने आप में सुंदर है, तो आपकी
दृष्टि वहीं रुक जाती है। भगवान का रूप कुछ और इंगित करने वाला द्वार है; रूप के पीछे किसी चीज का प्रतीक है यह। इस रूप का उद्देश्य आपका ध्यान
आकर्षित करना नहीं है, आपके ध्यान को वहीं रोकना नहीं है। आत्मा
महत्वपूर्ण है, उपस्थिति महत्वपूर्ण है।
रूप या प्रतीक में
सुंदरता भी हो सकती है, लेकिन उसका उद्देश्य उसके पीछे छिपे अर्थ को उजागर
करना है। दृष्टि उस छिपे अर्थ पर पड़नी चाहिए। आंखों को उस अर्थ को समझने का अभ्यास
होना चाहिए।
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साक्षी भाव लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना
एक बूढ़ा किसान था, जो वर्षों से खेती
कर रहा था। एक दिन उसका घोड़ा भाग गया। यह खबर सुनकर पड़ोसी किसान के पास पहुंचे और
सहानुभूति पूर्वक बोलने लगे, “यह बहुत बुरा हुआ”। किसान ने
कहा, “शायद ऐसा हुआ हो”। अगले दिन उसका घोड़ा वापस आ गया, उसके साथ और तीन जंगली घोड़े थे।
पड़ोसी फिर आए और कहने लगे यह तो बहुत आश्चर्यजनक है। किसान ने फिर कहा, ‘शायद हो सकता है, ऐसा ही हुआ
हो’। उसी दिन किसान के बेटे ने उनमें से एक घोड़े पर सवारी
करने की कोशिश की, लेकिन घोड़े ने उसे गिरा दिया और उसकी एक
टांग टूट गई। पड़ोसी फिर जमा हो गए और कहने लगे की यह तो बहुत बुरा हुआ। बूढ़े किसान
ने फिर वही बात दोहरा दी, ‘शायद ऐसा ही
हो सकता है’। उसी दिन सेना के अधिकारी गाँव में किसान के
बेटे को जबरन सेना में भर्ती करने आ धमके। लेकिन किसान के बेटे की टूटी टांग देख
कर वापस चले गए। पड़ोसी फिर आए और बोले कि आखिर सब अच्छा ही हुआ। किसान ने फिर वही
बात दोहरा दी, ‘शायद ऐसा ही हो सकता है’।
कहने का तात्पर्य यह कि हमें अपने साथ होने वाली अच्छी या बुरी
घटनाओं को बहुत उत्साह या बहुत दु:ख से देखने के बजाय एक तटस्थ नजरिये से देखना
चाहिए। हम इसे ‘साक्षी’ भाव भी कह सकते हैं।
अगर हमारे पास साक्षी भाव है तो हमारी मानसिकता और मन दोनों को कोई उद्वेलित नहीं
कर सकता। हम शांत-चित्त रह सकते हैं।
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आपलोगों
में से अनेकों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ व्हाट्सएप्प पर प्राप्त हो रही हैं –
टिप्पणी, ईमोजी और औडियो के रूप में; कइयों के फोन भी मिले
हैं।
आप
सबों को हृदय से आभार, आप से एक अनुरोध भी
है।
आज
की इस ‘ऑन लाइन’ यांत्रिक दुनिया में जो मन में है उसे ऑन
लाइन बताइये।
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