शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

सूतांजली, नवंबर २०१९


सूतांजली                            ०३/०४                                               नवंबर  २०१९
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झंझटों से मुक्ति का कठिन उपाय
हाँ, सही पढ़ा है आपने, कठिन उपाय। अब सरल उपाय में क्या धरा है? अब आसान काम हमें आकर्षित नहीं करते। जोखिम भरे काम ही हमें आकर्षित करते हैं।

ताजमहल की भौंडी नकल में अंग्रेजों ने कोलकाता में विक्टोरिया मेमोरियल बनाया। मैं सोचता हूँ अगर यह नहीं होता तो कोलकाता वासियों का क्या होता? सुबह से लेकर शाम तक लोगों का जमावड़ा बना रहता है। सुबह सुबह बुजुर्ग लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए आते हैं। दिन में पर्यटक म्यूज़ियम देखने आते हैं। शाम को बच्चों और नव युवक-युवतियों का समय होता है। मैं सुबह घूमने वालों में हूँ। यहाँ एक बुजुर्ग आते हैं। उनका परिचय किसी भी नए शख्स से कराया जाता है तब वे तपाक से २-३ सवाल करते हैं – क्या नाम है? क्या काम है? कौन ग्राहक हैं? इन कतिपय प्रश्नों से वे उस नए मुर्गे के पॉकेट की गहराई नाप लेते हैं। अब अगर उनकी यह आदत है तो है, मुझे अच्छा नहीं लगता तो यह मेरी तकलीफ है।

एक दिन उनके दल के बीच पहुंचा तो पता चला कि वे सज्जन किसी झंझट में हैं और उसी की चर्चा हो रही है। झंझट था, उनके पोते के जन्म का। मैं तुरंत बोला, “झंझट तो है ही? लेकिन इसका पता ७-८ महीने पहले ही चल गया होगा! आपको उसी समय कोई उपाय करना चाहिए था। उस समय चूक गए, कोई बात नहीं तुरंत किसी को गोद देने की व्यवस्था कर लीजिये। लेने वाले मिल जाएंगे। आप कहें तो ऐसी दम्पति खोजने में आपकी मदद करूँ?” सन्नाटा छा गया। भाई साहब जबर्दस्त गरम हो गए। मैंने हाथ  जोड़ कर माफी मांगते हुआ कहा कि मेरा इरादा आपको ठेस पहुँचाने के नहीं था। लोग अक्सर झंझट की चर्चा उससे मुक्ति पाने के उद्देश्य से करते हैं। मैंने उसी इरादे से यह सुझाव दिया। भाई साहब तो नरम नहीं ही पड़े बल्कि उनके मित्रों ने कहा कि बोलचाल की भाषा में हम यही कहते हैं इसका यह अर्थ नहीं होता है जैसा मैंने लगाकर काफी उल्टी सीधी बातें कह दीं। मैंने उनकी बात मनाने से इंकार कर दिया, कहा “जुबान पर वही बात आती है जो हमारे दिमाग में होती है”

अर्थ कमाने की अन्धाधुन्द दौड़ में हमें हमारे सब उत्सव, त्यौहार, खुशी के मौके झंझट लगने लगे हैं। हमें यह पता ही नहीं कि हम क्यों कमा रहे हैं, कितना कमाना है और उस कमाई का क्या करना है? और इसलिए उसमें किसी भी प्रकार का व्यवधान झंझट ही हो गया है। दिवाली-होली-राखी हो या विवाह-जन्म-सालगिरह हो, ये सब झंझट ही हो गए हैं। हम पहले ये मन से मनाते थे अब हम ये धन से मनाते हैं। पहले इनमें हमारा दिल लगता था, अब हमारा दिमाग लगता है। पहले अपने परिवार, परिचित और पास-पड़ोस के साथ और सहयोग से मनाते  थे। अब शुभचिंतक, सहयोगी और मित्रों की टोली रहती है और इवैंट मैनेजमेंट का सहयोग रहता है। इसी कारण ये सब खुशी के मौके झंझट हो गए हैं। झंझट शब्द खुद-ब-खुद होठों पर आ जाता है क्योकि दिल और दिमाग में यही रहता है। हमें हमारे जीवन के सुहावने क्षण अब झंझट सरीखे लगने लगे हैं। अपना रोज-रोज का झंझट सुहावना लगने लगा है और इनके बीच पैदा हुआ सुहावना क्षण, झंझट।

अभी अभी त्योहारों का मौसम गया है, लेकिन आगे आते रहेंगे। कल सुबह जब सैर पर जाएँ या पूजा घर में बैठे हों या रात बिस्तर पर जाएँ  तो थोड़ा सा इस पर विचार कीजिये। उत्सव धन से नहीं मन से मनाइए। दिल खोल कर मनाइए। त्योहार समझ कर मनाइए। और सबसे बड़ी बात परिवार के साथ मनाइए। देखिये झंझट शब्द नहीं आयेगा।  आसान नहीं है, लेकिन उतना कठिन भी नहीं। और मैंने तो पहले ही कह दिया झंझटों से मुक्ति का कठिन उपाय। क्या कहते हैं आप? हाँ, हम कर सकते हैं, करेंगे? होंगे कामयाब?
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समय का उपयोग और सेवा कार्य
दूसरे विश्व युद्ध के समय की बात है। विश्व युद्ध का ऐलान हो चुका था और वाइसराय ने बिना काँग्रेस से सलाह मशवरा किए एक तरफा घोषणा कर दी थी कि भारत मित्र राष्ट्रों के साथ है। यह बात काँग्रेस को पची नहीं और वे नाराज हो गए। इस अवस्था में वाइसराय ने गांधी को चर्चा के लिए आमंत्रित किया। वाइसराय उस समय शिमला में थे अत: गांधी वहीं पहुंचे। कई दिनों की  चर्चा के बाद वाइसराय को बात आगे बढ़ाने के लिए लंदन से निर्देश लेने की आवश्यकता महसूस हुई।  अत: चर्चा में एक सप्ताह का अंतराल आ गया। गांधी एवं उनके साथियों के पास शिमला में कोई दूसरा कार्य नहीं था। उस समय की यातायात की व्यवस्था के अनुसार वहाँ से किसी भी कार्यस्थल तक पहुँचने में कम से कम २ दिनों का समय लगता। यानि आने जाने में ही ४ दिन नष्ट हो जाते, परेशानी और खर्च अलग। अत: गांधी के साथियों को लगा कि अब ७  दिनों की छुट्टी और वे शिमला तथा आस पास की अन्य जगहों में घूमने के कार्यक्रम बनाने लगे। लेकिन गांधी के पास दूसरी योजना तैयार थी। उन्होने वापस सेवाग्राम चलने की घोषणा कर दी। वहाँ मुश्किल से ३ दिन ही रहा जा सकता था। साथी यह नहीं समझ पा रहे थे कि वहाँ ऐसा कौनसा काम है कि भयानक गर्मी में इतनी लंबी यात्रा कर सेवाग्राम जाना और फिर ३ दिन बाद वापस शिमला लौटना। लेकिन गांधी अपनी बात पर अटल रहे। उन्होने कहा, “सेवाग्राम में परचूरे शास्त्री हैं। वे संस्कृत के विद्वान हैं और कुष्ट रोग से पीड़ित होने के कारण उनके परिवार वालों ने उन्हे छोड़ दिया है। उन्हे हमारी सेवा की आवश्यकता है”। गांधी के लिए परचूरे शास्त्री की सेवा करना उतना ही महत्वपूर्ण था जितना शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि से दूसरे विश्वयुद्ध में भारत के रुख पर चर्चा करना

समय का सदुपयोग करना और सेवा कार्य को महत्व देना, गांधी के विशेष गुण थे जिसका विश्व के शक्तिशाली सम्राट भी लोहा मानते थे।
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सुख की खोज
सुख!
इसकी खोज में  हम जीवन भर भटकते रहते हैं। दौड़ते रहते हैं। लेकिन यह सुख है कि मृग मिरीचिका कि भांति सामने दिखती तो है लेकिन हाथ नहीं आती।
सबके सुख भी अलग रंग, रूप, आकार और वस्तु की होती है। सुख! किसका सुख? अपना सुख! बस यहीं हम गलत हो जाते हैं।

व्याख्यान चल रहा था। पढ़े लिखे लगभग ५०० वयस्क विद्वान श्रोता जमा थे। अचानक वक्ता ने कहा कि बगल के कमरे में अनेक प्रकार के डब्बे रखे हैं। सब पर एक नाम लिखा है। आपको उस कमरे में जाना है और अपने नाम का डब्बा खोज कर उसे ले आना है। आप के पास इसके लिए ५ मिनट का समय है। कमरे का दरवाजा खुला और भगदड़ मच गई। सब जल्द से जल्द अपना डब्बा खोज कर वापस आना चाहते थे। लोग दौड़ रहे थे, टकरा रहे थे, तनाव में थे। तभी घंटी बजी, समय समाप्त हो चुका था। सब खाली हाथ बाहर निकल आए।

वक्ता ने फिर कहा अब वापस उसी कमरे में जाएँ। समय भी वही ५ मिनट का ही है। लेकिन इस बार आपको अपने नाम का डब्बा नहीं खोजना है, बल्कि आपके हाथ जो डब्बा लगे उस पर लिखे नाम के व्यक्ति को खोज कर वह डब्बा उसे दे देना है। ५ मिनट से कम समय में सब अपने अपने डब्बों के साथ कमरे के बाहर आ गए थे।

वक्ता ने कहा, “ये अलग अलग डब्बे अलग अलग किस्म के आपके सुख हैं। ५ मिनट हमारा जीवन काल है। जब हम अपने सुख को खोजते हैं तब हमें कुछ भी हाथ नहीं लगता, लेकिन जब हम दूसरों को उसका सुख देना शुरू करते हैं सबको उसका सुख मिल जाता है। अपना सुख दूसरों को सुखी बनाने में छिपा है।  
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हमें आपकी प्रतिकृया का इंतजार रहता है। - महेश

सूतांजली मई 2024

  गलत गलत है , भले ही उसे सब कर रहे हों।                     सही सही है , भले ही उसे कोई न कर रहा हो।                                 ...