बुधवार, 1 दिसंबर 2021

सूतांजली दिसंबर 2021

 सूतांजली

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वर्ष : ०५ * अंक : ०५                      🔊 (24.30)                                         दिसम्बर   * २०२१

बिना समर्पण के पूर्णता प्राप्त नहीं होती,

बिना लगन के उपलब्धि नहीं होती

बिना त्याग के रचना नहीं होती

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यह या वह                                                              मेरे विचार

मानव दो दुविधाओं के मध्य पिसता रहता है। यह या वह, ये या वो, इधर या उधर? हाँ या ना? ऐसे प्रश्न उसके जीवन में प्रत्येक दिन आते हैं जिनका उसे उत्तर देना होता है, उसे दो में से एक का चुनाव करना होता है, दो में से एक निर्णय लेना पड़ता है। गुरु की आवश्यकता होती है केवल सही निर्णय लेने के लिए नहीं बल्कि सही निर्णय लेने की प्रक्रिया को समझने के लिए ।  बिना किसी भेद-भाव के, बिना व्यक्तिगत लाभ के, गुरु व्यक्ति को निर्णय लेने में सहायक ही नहीं होता बल्कि उसका परिचय सही निर्णय लेने की प्रक्रिया  से भी करवाता है। एक बार प्रक्रिया समझ आ गई तो प्रश्न शनै:-शनै: कम होने लगते हैं, स्वयं निर्णय लेने की क्षमता का भी विकास हो जाता है।

          गीता के पन्ने पलटें, अर्जुन भी इसी मोह से ग्रस्त है। हर समय वह दो-राहे पर खड़ा है और यह निर्णय नहीं ले पा रहा है कि उसके लिए उत्तम मार्ग कौन-सा है। अपनी तार्किक बुद्धि से उसे गलत मार्ग ही सही लगता है। श्रीकृष्ण एक गुरु की भाँति उसे प्रक्रिया समझा कर उसे सही मार्ग दिखा रहे हैं। गीता का प्रारम्भ ही यहीं से है – युद्ध करूँ या उससे विमुख हो सन्यास लूँ? तीसरे अध्याय में अर्जुन का प्रश्न है कि अगर कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है तब कर्म में क्यों लगूँ? पाँचवें अध्याय में अर्जुन को शंका है कि जब श्रीकृष्ण एक तरफ कर्मों के सन्यास की बात करते हैं तो फिर कर्मयोग की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? दोनों में कौन-सा उसके लिए कल्याणकारी है? बारहवें अध्याय तक पहुँचते-पहुँचते अर्जुन के अनेक प्रश्नों के उत्तर दे दिये गये हैं, अर्जुन प्रक्रिया समझने लगा है। अब उसे दो में कौन-सा श्रेष्ठ है इसकी जिज्ञासा पैदा हो गई है। अतः अब उसकी जिज्ञासा है कि सगुण और निर्गुण रूप भजने वाले उपासकों में योग वेत्ता कौन है? और फिर अंतिम अध्याय में अर्जुन जिज्ञासा करता है कि संन्यास और त्याग में क्या फर्क है?

          हम अपने जीवन में पग-पग पर ऐसे ही दो-राहे पर खड़े होते हैं। हमें एक मार्ग का चयन करना पड़ता है। जब हमने अपनी प्रवृत्ति के अनुसार सही या गलत मार्ग का चयन किया तब हमारा ही वह निर्णय हमें जीवन में सुख या  दुःख, शांति या अशांति के मार्ग पर आगे ले चलता है।  


 

         कौन-सा मार्ग चुनें, तपस्या का या समर्पण का? बहुधा यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा होता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस शंका का समाधान बहुत ही सरल भाषा में एक उदाहरण के माध्यम से समझाया है।  श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, तुम बन्दर के बच्चे और बिल्ली के बच्चे, इन दोनों में से किसी एक के मार्ग का अनुसरण कर सकते हो। 

बन्दर के बच्चे को इधर-उधर जाने के लिए अपनी माँ की छाती से चिपकना पड़ता है, उसे अपनी माँ को कस


कर पकड़े रहना पड़ता है और यदि कहीं उसकी मुट्ठी ढीली हो जाये तो वह गिर जाता है। यहाँ पूरा उत्तरदायित्व बच्चे पर है माँ पर नहीं। दूसरी ओर, बिल्ली का बच्चा अपनी माँ को नहीं पकड़ता, बल्कि माँ ही उसे पकड़े रखती है, इसलिए उसे न कोई भय होता है, न उसका कोई उत्तरदायित्व; उसे तो बस केवल इतना ही करना है कि अपनी माता को पकड़ने दे और "माँ-माँ" करता रहे। यहाँ बच्चे का कोई उत्तरदायित्व नहीं है, सब दारोमदार माँ पर ही है।

          श्रीमाँ कहती हैं, योग-साधना के दो मार्ग हैं, एक है तपस्या का और दूसरा है समर्पण का। तपस्या का मार्ग दुष्कर है, इस मार्ग में तुम सर्वथा अपने ऊपर ही निर्भर रहते हो, अपने निजी सामर्थ्य से ही आगे बढ़ते हो। तुम अपनी शक्ति के अनुपात में ही ऊँचे उठते हो और उसी के अनुसार फल पाते हो। इस मार्ग में नीचे गिरने का भय हमेशा लगा रहता है। और एक बार गिरे तो तुम गहरी खाई में जाकर चूर-चूर हो जाओगे और इसका इलाज शायद ही हो सके। परन्तु दूसरा मार्ग, समर्पण का मार्ग, निरापद और निश्चित है। परन्तु शिक्षित लोगों को इसमें कठिनाई होती है। उन्हें यह शिक्षा मिली है कि वे उन सभी चीज़ों से डरें और बचें - जो उनकी व्यक्तिगत स्वाधीनता पर आँच लायें। व्यक्तित्व की भावना उनकी घुट्टी में मिली होती है। और समर्पण का अर्थ है इस सब का त्याग। इस समर्पण-मार्ग को यदि तुम पूर्ण रूप से और सच्चाई के साथ अपना लो तो कोई गम्भीर कठिनाई या कोई खतरा नहीं रहता। प्रश्न केवल सच्चाई का है

          समर्पण का अर्थ? किसका समर्पण? किसको समर्पण? श्री अरविंद कहते हैं “समर्पण का अर्थ है अपने अन्दर की प्रत्येक चीज को भगवान के  हाथों में अर्पित कर देना, जो कुछ हम हैं और हमारे पास है सब कुछ उत्सर्ग कर देना, अपने ही विचारों, कामनाओं, अभ्यासों आदि  पर आग्रह न करना, बल्कि दिव्य सत्य को ऐसा अवसर देना कि वह उनके स्थान में अपने ज्ञान, संकल्प और कर्म को सर्वत्र स्थापित कर दे।



          श्रीमाँ कहती हैं, “सबसे महत्वपूर्ण है तुम्हारे चरित्र का समर्पण, तुम्हारी जीवन शैली विधि का समर्पण, ताकि वह बदल सके। यदि तुम अपनी एकदम निजी  प्रकृति का समर्पण न करो तो यह प्रकृति कभी परिवर्तित नहीं होगी।...सच पूछा जाये तो मनुष्य जो कुछ करता है वह नहीं, बल्कि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह क्या है। कार्यकलाप चाहे जो हो, वास्तव में कार्य जिस तरह किया जाता है वह नहीं, बल्कि चेतना की जिस स्थिति में वह किया जाता है वह महत्त्वपूर्ण है।

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ऐ सुख तू कहाँ मिलता है ?                                               मेरे विचार

 

ऐ सुख, तू कहाँ मिलता है?

क्या तेरा कोई पक्का ठिकाना है? क्यों बन बैठा है अंजाना?

आखिर क्या है तेरा ठिकाना?

कहाँ-कहाँ ढूँढा तुझको, पर तू न कहीं मिला मुझको।

ढूँढा ऊँचे मकानों में, बड़ी-बड़ी दुकानों में,

स्वादिष्ट पकवानों में, चोटी के धनवानों में,

वे भी तुझको ही ढूँढ रहे थे, बल्कि, मुझ से ही पूछ रहे थे। 

क्या आपको कुछ पता है? ये सुख, कहाँ रहता है?  ..........

         कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि है हर कोई, अमीर हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, सुख ढूँढ रहा है हर जगह ढूँढ रहा है। और इस ढूँढने में सब इतने मशगूल हैं कि उस जगह को छोड़ आये जहाँ सुख रहता था।

          मेरी गली की नुक्कड़ पर एक दुकान है। रोज़मर्रा की वस्तु वहाँ मिल जाती है। दुकान इतनी ही बड़ी है कि उसमें एक बार में सिर्फ एक ही आदमी घुस सकता है। हम अपनी हर चीज सड़क पर ही खड़े रह कर खरीदते हैं। मैं भी यदा-कदा खरीददारी कर लिया करता हूँ। छोटे बच्चे उसके नियमित ग्राहक हैं। वहाँ से खरीदने के लिए उन्हें न किसी के साथ की जरूरत है और न पैसों की। अकेले चले जाते हैं और मनोज, दुकान का मालिक, जानता है कि पैसे तो मिल हो जायेंगे। अभी कोरोना के प्रथम लहर के समय आते-जाते उससे थोड़ा बतिया लिया करता था। उस दिन सुबह-सुबह उधर से जा रहा था। मनोज बस दुकान खोल ही रहा था। मुझे देख रुक गया, कैसा समय आ गया है अंकल !’ मुख्य मंत्री ने पिछले सप्ताह ही हर सप्ताह किसी भी 2 दिन के पूर्ण लॉक डाउन का ऐलान किया था। चंद सप्ताह पहले ही उससे बात हो रही थी तब उसने बताया था कि बिक्री बहुत खराब थी, अब सुधार रही है। लेकिन बीमारी बढ़ जाने के कारण बिक्री फिर घट गई है। मैंने समझा कि शायद इसी बात को इंगित करके उसने यह बात कही है। अतः मैंने भी जोड़ दिया हाँ, भैया कौन जानता था ऐसा खराब समय भी आ सकता है। मुझे ताज्जुब हुआ जब उसने आगे जोड़ा, कितना अच्छा समय आ गया है। पहले 6 दिन कमाते थे और सातवाँ  दिन पिछली कमाई का हिसाब और अगली कमाई का तैयारी में समाप्त हो जाता था। अब बड़े सुखी हैं। 5 दिन कमाते हैं, 1 दिन दुकान की तैयारी और 1 दिन बीवी-बच्चों, माँ-बाप के साथ कमाई का आनंद लेते हैं सीधे-साधे शब्दों में कहूँ तो उसने अनजाने में आनंद का पता दे दिया। 

          यही बात उस मछुआरे ने उस सेठ / साहब / पढ़े लिखे नौजवान को कही थी। आपने भी पढ़ी या सुनी होगी। लेकिन  इसके शब्द थोड़े अलग हैं। वह मछुआरा समुद्र के किनारे मछली पकड़ने के बाद सो रहा था। हार्वर्ड के पढ़े लिखे एमबीए नौजवान के पूछने पर कि इसके बाद दिन भर वह क्या करता है, वह बताता है, मैं देर तक सोता हूँ, अपने बच्चों के साथ खेलता हूँ और फिर दिन में कुछ देर सो लेता हूँ। शाम को गाँव में अपने दोस्तों – परिवार वालों से मिलने चला जाता हूँ, उनके साथ खाता-पीता हूँ, गिटार  बजाता हूँ, गाने गाता हूँ और अपनी ज़िंदगी पूरे उल्लास से जीता हूँ

         एमबीए नौजवान ने फिर अपना पूरा ज्ञान दिया, तरक्की के रास्ते सुझाए, लाखों करोड़ों कमाने के गुर बताये। मछुआरा पूछता रहा, उसके बाद?’  और फिर अंत में 25-30 वर्षों बाद क्या –इसके बाद तुम शान से पास ही के किसी गाँव में अपना मकान बनाना। देर से उठाना, मछलियाँ पकड़ना, दिन में सोना और अपनी शाम दोस्तों के साथ बिताना  इस पर मछुआरे ने मुसकुरा कर कहा, मैं अभी यही तो कर रहा हूँ! हार्वर्ड के एमबीए का नौजवान सर झुका कर निकल लिया।

ऊपर दी गई कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं,

          मैं बच्चों की मुस्कान में हूँ, परिवार के संग जीने में हूँ,

          माँ बाप के आशीर्वाद में हूँ, बच्चों की सफलता में हूँ,

       जो मिला उसी में कर संतोष, आज को जी ले, कल की न सोच।

       कल के लिए आज को न खोना। मेरे लिए कभी दुखी न होना।

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वाह हिंदुस्तान!                                                              मैंने पढ़ा

 

(हम उन लोगों में हैं जिन्हें अपना मुल्क, अपने लोग, अपनी भाषा, अपना पहनावा, अपना कुछ भी पसंद नहीं। हमें अपनी हर कमजोरी और हर बुराई  की जानकारी है, लेकिन हम यह भी मानते हैं कि उसे दुरुस्त करना हमारी नहीं किसी और की ज़िम्मेदारी है। हमें अपनी खूबसूरती का भान नहीं है, हमें अपनी ताकत का अंदाज़ नहीं, हम अपनी अच्छाइयों से भी बेखबर हैं। ऐसे में अमेरिकी जाने-माने हास्य लेखक मार्क ट्वेन का भारत यात्रा वृत्तान्त बहुत कुछ कहता है।)



18 जनवरी से 31 मार्च 1896 के बीच मार्क ट्वेन ने भारत के अनेक नगरों की यात्राएं कीं और यहाँ के निवासियों के जीवन को सूक्ष्म दृष्टि से देखा-जाना-पहचाना। हमारे इतिहास और सांस्कृतिक सम्पदा ने उन्हें इस तरह प्रभावित किया था कि उन्होंने एक स्थान पर लिखा – “भारत में समस्त विश्व की सारी चीजें सबसे पहले शुरू हुई। यहीं की सभ्यता पहली सभ्यता थी। यहाँ की भौतिक सम्पदा भी विश्व कि सबसे पहली सम्पदा थी। और सबसे अधिक विचारक और बुद्धिजीवी भी यहीं पैदा हुए। यही एकमात्र देश है, जिसकी संसार की श्रेष्ठतम विशिष्टताओं पर एकाधिकार रहा है। दूसरे देशों में कोई एक उल्लेखनीय वस्तु हो सकती है, पर यहाँ तो हर वस्तु उल्लेखनीय है। किसी देश में कुछ वस्तुएँ दोहरी हो सकती हैं, लेकिन भारत के चमत्कार अपने हैं। इनका कोई अनुकरण संभव नहीं है। इनकी विशालता, भव्यता और स्वदेशी चरित्र अपने आप में अनुपम है।”

          “यह हिंदुस्तान है! सपनों और राग-रंगों की धरती, बेइंतहा दौलत और बेइंतहा दरिद्रता की धरती, शान-शौकत और फटे हाल लोगों की धरती, महलों और झोपड़ियों की धरती, अकाल और टिड्डी  दल  के हमलों की धरती, मामूली लोगों और महान लोगों की धरती, अलादीन के चिराग, शेरों और हथियों की धरती, काले नाग और जंगलों की धरती, यही है एक सौ राष्ट्रों के एक देश की धरती, मानव सभ्यता के फलने-फूलने की क्रीड़ास्थली, मनुष्य की वाणी की जन्मस्थली, इतिहास की जननी, आख्यानों की दादी, परम्पराओं की परदादी, जिसका  अतीत दुनिया के शेष हिस्सों से प्राचीनतम है। संसार में सूर्य के नीचे विश्व का यह एक ही देश है, जहाँ लोग गरीबी में हैं, बंधन में  हैं और मुक्त भी हैं। एक ऐसा देश जिसे सब लोग देखने की इच्छा रखते हैं। जिसने भी एक बार देख लिया या एक झलक भी ले ली, वह सारे संसार के दर्शन से बढ़कर है”। ये उद्गार भी उसी अमेरिका के विश्व प्रसिद्ध व्यंग्यकार, उपन्यासकार, पर्यटन-लेखक और भाषण कर्त्ता मार्क ट्वेन के हैं। यह उन्होंने तब व्यक्त किए जब वे एक सदी से कुछ पहले मुंबई पोर्ट पर पहुंचे और वहाँ के जीवन की इंद्र्धनुषी हलचल से अभिभूत हो उठे। इस दौरान उन्होंने ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, इंग्लैंड, मौरिशस, दक्षिण अफ्रीका, फिजी और श्री लंका का भ्रमण किया।

          ट्वेन ने हिंदुस्तान में मुंबई, पूना, बनारस, कलकत्ता, दार्जीलिंग, आगरा, जयपुर, दिल्ली और दूसरे अनेक नगरों की यात्राएँ कीं, जिनमें से अधिकतर यात्राएँ रेल से की थीं। उन्होंने हिंदुस्तान के होटलों, यहाँ की खुशनुमा पार्टियों, लोगों के लम्बे-लम्बे नामों, गलियारों, फकीरों और वेषभूषा के बारे में भी बहुत कुछ लिखा। एक जगह वे लिखते हैं, “दूसरे देशों में स्टेशन पर रेलगाड़ी का इंतजार करना बहुत थकाने वाला और उबाऊ होता है, लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा कोई एहसास नहीं होता। यहाँ के स्टेशनों पर भारी चहल-पहल और शोरगुल रहता है। आभूषण पहने नर-नारियों की भीड़ नजर आती है। उनकी बहुरंगी वेषभूषा और परिधानों को देखकर मन जितना आनंदित होता है, उसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता”।

(वह आँख, नाक, कान पैदा करें जिनमें अपनी मिट्टी की खूबसूरती देखने, सोंधी सुगंध सूंघने और उसका संगीत सुनने की क्षमता हो।)

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हौसला                                                   लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

 

मेंढकों का एक झुण्ड जंगल घूमने निकला। सैर करते-करते दो मेंढक एक गहरे गड्ढे में गिर गये। बाहर खड़े दोस्तों ने गड्ढे में झाँका। उन्हें लगा कि कितनी भी कोशिश क्यों न की जाये, उनका बाहर निकल पाना नामुमकिन है। वे गड्ढे में फँसे मेढकों से कहने लगे कि हाथ पैर मारने का कोई फायदा नहीं, वे किसी भी कीमत पर बच नहीं पायेंगे। वह गड्ढा उनके लिए मौत का गड्ढा साबित होगा। दोनों मेंढकों ने उन्हें अनसुना कर दिया और बाहर निकलने की भरसक कोशिश करते रहे। बाहर से झाँकते मेंढक उनके न बच पाने की बात दोहराते जा रहे थे। आखिरकार एक मेंढक निराश हो गया। उसने बाहर निकल पाने की आशा छोड़ दी और वहीं मर गया। दूसरा मेंढक अब भी बाहर निकलने की कोशिश में बराबर जुटा था। कुछ देर बाद वह गड्ढे से बाहर आ गया। बाहर निकलते ही उसने अपने मित्रों को धन्यवाद दिया। मेंढक कुछ समझ नहीं पाये। उसने उन्हें बताया कि वह बहरा है और जब वह बाहर आने के लिए लड़ रहा था, तब उन्हें सुन तो नहीं पा रहा था, लेकिन यह भलीभाँति समझ रहा था कि वे सब उसे बाहर आने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे।

आपके मुंह से निकले शब्द किसी का हौसला बुलंद या पस्त कर सकते हैं, इसलिए हमेशा सकारात्मक बोलें। 

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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी                                        धारावाहिक

(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी बारहवीं किश्त है।)

 


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"द्रोण ने क्या किया?"

कुछ एक साक्षियों के विरुद्धाचरण करने पर भी अधिकांश नॉर्टन साहब के प्रश्नों का अनुकूल उत्तर देते। इनमें जाने-पहचाने कम ही थे, कोई-कोई किन्तु परिचित भी था। देवदास करण महाशय ने हमारी विरक्ति दूर कर हमें खूब हँसाया था, चिरकाल हम उनके कृतज्ञता के ऋण में बँधे रहेंगे। इन साक्षी ने यह गवाही दी थी कि मेदिनीपुर के सम्मेलन के समय जब सुरेन्द्र बाबू ने अपने छात्रों से गुरुभक्ति के बारे में पूछा था तब अरविन्द बाबू बोल पड़े थे, "द्रोण ने क्या किया?" यह सुनते ही नॉर्टन साहब के आग्रह और कौतुहल की सीमा न रही, उन्होंने नि:स्सन्देह यह सोचा होगा कि द्रोण या तो कोई बम का भक्त है या राजनीतिक हत्यारा या मानिकतल्ला, बागान या छात्रमण्डली से संयुक्त। नॉर्टन के ख़याल में इस वाक्य का अर्थ शायद यह था कि अरविन्द घोष ने सुरेन्द्र बाबू को गुरुभक्ति के बदले बम का पुरस्कार देने का परामर्श दिया था, तब तो मुक़द्दमे में बड़ी सुविधा हो सकती है। अतएव उन्होंने साग्रह प्रश्न किया, "द्रोण ने क्या किया?" शुरू में साक्षी किसी भी तरह प्रश्न का उद्देश्य समझ न सके। पाँच मिनट तक इसे लेकर खींचतानी चलती रही, अन्त में करण महाशय ने दोनों हाथ ऊपर फैला नॉर्टन साहब को जतलाया, "द्रोण ने अनेक चमत्कार दिखलाये थे।" इससे नॉर्टन साहब सन्तुष्ट नहीं हुए। द्रोण के बम का अनुसन्धान न मिलने तक सन्तुष्ट हों भी कैसे? दोबारा पूछा, “अनेक चमत्कार क्या बला है? क्या विशेष किया है उन्होंने?" साक्षी ने इसके अनेकों उत्तर दिये, एक से भी द्रोणाचार्य के जीवन के इस गुप्त रहस्य का भेद नहीं खुला। नॉर्टन साहब भड़क उठे, गरजना शुरू किया। साक्षी भी चिल्लाने लगे। एक वकील ने हँसते हुए यह सन्देह व्यक्त किया कि शायद साक्षी को पता नहीं कि द्रोण ने क्या किया। करण महाशय इस पर क्रोध और क्षोभ से आग बबूला हो उठे। चिल्लाये, “क्या? मैं? मैं नहीं जानता कि द्रोण ने क्या किया? वाह, क्या मैंने वृथा ही सारा महाभारत पढ़ा?" आधे घण्टे तक द्रोणाचार्य की मृत-देह पर करण और नॉर्टन का महायुद्ध चला। हर पाँच मिनट बाद अलीपुर विचारालय को कँपाते नॉर्टन अपना प्रश्न गुँजाने लगे, "Out with it, Mr. Editor! what did Drona do?" (हाँ, बताइये-बताइये, सम्पादक महाशय, द्रोण ने क्या किया?) उत्तर में सम्पादक महाशय ने एक लम्बी रामकहानी आरम्भ की, किन्तु द्रोण ने क्या किया, इसका कोई विश्वसनीय संवाद नहीं मिला। सारी अदालत ठहाकों से गूँज उठी। अन्त में टिफ़िन के समय करण महाशय ज़रा ठण्डे दिमाग से सोच-समझ कर लौटे और समस्या की यह मीमांसा बतलायी कि बेचारे द्रोण ने कुछ नहीं किया, बेकार ही उनकी परलोक गत आत्मा को ले आधे घण्टे तक खींचतान हुई, अर्जुन ने ही गुरु द्रोण का वध किया था। अर्जुन के इस मिथ्या अपवाद से द्रोणाचार्य ने निस्तार पा कैलाश पर सदाशिव को धन्यवाद दिया होगा कि करण महाशय की गवाही के कारण अलीपुर के बम-केस में उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं होना पड़ा। सम्पादक महाशय की एक बात से सहज ही अरविन्द घोष के साथ उनका सम्बन्ध प्रमाणित हो जाता। किन्तु आशुतोष सदाशिव ने उनकी रक्षा की।                                                                                             (क्रमशः आगे अगले अंक में)

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https://youtu.be/GtMdjaqo4Ng

सूतांजली मई 2024

  गलत गलत है , भले ही उसे सब कर रहे हों।                     सही सही है , भले ही उसे कोई न कर रहा हो।                                 ...