बस अंत नहीं, बसंत है यह, गूँजे दिक-दिगंत यह,
वनदेवी
आज शृंगार करे, हम मिल कर यह निनाद करें
माँ
अज्ञान हमारा दूर करे।
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हे धरती माँ
(श्री विजय
दत्त श्रीधर के लेख पर आधारित)
हमारे पुराने संस्कृत ग्रन्थों में कहाँ, क्या और कितना दबा पड़ा है शायद हमें इसकी कोई जानकारी नहीं है। जल-शुद्धि
की एक संगोष्ठी में उपस्थित समुदाय संस्कृत-साहित्य में भारत की प्राचीन परंपरा और
तकनीकों की चर्चा कर रहे थे। तभी एक वैज्ञानिक ने कहा - पुराना सोच पोंगा पंथ है,
अनर्गल है, दकियानूसी है। इतनी सी खरोंच भर करने से जो अमृत छलका वह जानने
योग्य है। एक बुजुर्ग ने प्रत्युत्तर में 'भविष्य पुराण' से एक श्लोक पढ़ा जिसका अर्थ है-
'दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर
एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के
बराबर एक वृक्ष।'
और - रहिमन
पानी राखिये बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे मोती मानुष चून ।।
दोनों उद्धरण निरुत्तर कर देने वाले हैं। वे
पोंगापंथी नहीं हैं, सिद्ध विज्ञान हैं और लोक शिक्षण का चरम ज्ञान
इनमें निहित है।
ऋषि
मनीषा ने कहा है- (वृहदधर्म पुराण, 54, 45-47)
'भाद्र कृष्ण चतुर्दशी को जितनी दूर तक गंगा का फैलाव रहता है उतनी दूर तक
दोनों तटों का भू-भाग 'गर्भ' है। उसके
बाद 150 हाथ की दूरी का भू-भाग 'तीर' है।
तीर से एक गव्यूति (दो हजार धनुष, जो एक कोस या दो मील के
बराबर होता है) पर्यंत का भू-भाग क्षेत्र कहलाता है। इस विस्तार में पाप कर्मों का
निषेध है।' व्यवहार
में इसका अर्थ है कि जल स्त्रोत के तट से पर्याप्त दूरी तक
निवास-वाणिज्य-व्यापार-कल-कारखाने समेत ऐसी किसी भी गतिविधि की इजाज़त नहीं है।’
ताज्जुब है, सैकड़ों साल पहले ऋषि मनीषा को यह ज्ञान-विवेक था!
'मत्स्य पुराण' में तड़ाग भेदक (तालाब तोड़ने वाले) के लिए जल में डुबो कर मृत्यु दंड देने
का प्रावधान है। 'अग्नि पुराण' में भी
ऐसा मिलता है। चाणक्य नीति में भी ऐसे दंड का विधान है। लेकिन आज़ादी के बाद
सरकारी निकायों द्वारा बनवायी जा रही जल संरचनाएं भ्रष्टाचार के गारे से इतनी
बदहाल है कि तड़ाग भेदन के अपराध की नींव पर ही खड़ी होती हैं।
राजा भोज का भोजताल एक हजार साल से कायम
है। परंतु, हजारों करोड़ रुपये की लागत और आधुनिक विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी के प्रयोग से बनने वाले बांध की एक हज़ार तो क्या, एक सौ साल की गारंटी कोई नहीं दे सकता है।
बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा अंचल में नवजात शिशु के जन्म के सवा
महीने बाद सद्य-प्रसूता मां घर से बाहर पहला कदम कुएं की ओर रखती है। इस रस्म को
कुआं पूजन कहते हैं। निमाड़ में इसका रूप जलवायु पूजन का है। सनातन धर्म को मानने
वालों के प्रमुख आराध्य देव हैं विष्णु, शिव, गणेश तथा देवियों में दुर्गा-लक्ष्मी-सरस्वती। इन्हीं की सबसे ज़्यादा
पूजा होती है। तब गृह लक्ष्मी का पहला कदम मंदिर की ओर क्यों नहीं? पहली पूजा के लिए जल (कुआं) को सर्वोपरि महत्व क्यों? सवाल कठिन है लेकिन जवाब सरल है। हमारे
पुरखों को जीवन के लिए जल के महत्व की पहचान थी। वे जानते थे कि जल है तो जीवन है और
जो जीवनदाता है वही देवता है। वाचिक परम्परा वाली भारतीय संस्कृति में ऐसे
लोक-विज्ञान के लिए शोध-पत्र नहीं रचे गये। पेटेण्ट की होड़ नहीं लगी बस, संस्कारों के अनुशासन में वर्जना और प्रोत्साहन को ढाल दिया गया
पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका अनुपालन-अनुकरण होता रहा। मर्म की समझ जहां कमज़ोर पड़ी वहीं
विकारों ने डेरा डाल लिया।
इलाहाबाद के अंग्रेज़ कमिश्नर हॉकिन्स
ने कोई एक शताब्दी पहले फरमान निकाला-शहर की गंदगी गंगा में बहा दी जाये। बाद के
वर्षों में गुलाम मानसिकता ने इसे देशभर के लिए कानून मान लिया। इससे शहर तो साफ़
नहीं हुए, नदियां ज़रूर मौत के मुंह में समाने लगीं। धर्म के
ठेकेदारों के लिए भी यह निहायत शर्मनाक है, जो नदियों को
देवी मां की तरह पूजते और आरती के आडम्बर तो रचते हैं, परंतु
उनकी शुद्धि के लिए न तो सचेष्ट हैं, न जागरूक हैं और न ही
समाज की चेतना को जाग्रत करने का दायित्व निभा रहे हैं। प्रकृति-चिंतक अमृतलाल
वेगड़ कितना सही कहते हैं, 'जब मनुष्य असभ्य था तब
नदियां स्वच्छ थीं। आज जब मनुष्य सभ्य हो गया है तब नदियां मलिन और विषाक्त हो गयी
हैं..। ज्यों-ज्यों औद्योगिक सभ्यता का दबदबा बढ़ता
गया पानी के बुरे दिन शुरू हो गये।'
इसके विपरीत, औद्योगिक सभ्यता के कई सौ बरस पहले भारतीय ऋषि मनीषा ने जल स्रोतों के साथ
मनुष्य के बरताव की लक्ष्मण-रेखा खींच दी थी। उस पर अमल भी किया जाता रहा।
मनुस्मृति, (4-56) में लिखा है - पानी में मल, मूत्र,
थूक, रक्त या विष का विसर्जन न करें।
'नारायणोपनिषद' में कहा गया है- 'जल ही विश्व में सर्वभूत
है, जल ही प्राण है, जल ही पशु है,
जल ही ब्रहा है, जल ही अमृत है, जल ही स्वराज है, जल ही वेद है, जल ही आकाश है, जल ही सत्य है और जल ही तीनों लोक हैं।'
जल और प्रकृति की ऐसी समझ लोक- ज्ञान का चरम है।
न केवल मानव जीवन बल्कि समूची सृष्टि के
लिए शुद्ध जल की अनिवार्यता से अवगत वैदिक ऋषि कामना करता है- (अधर्ववेद, भूमि-सूक्त, 12/1/30)
जो
जल संपूर्ण जगत के प्राणियों में जीवन का संचार करने वाला है वह जल स्वयं शिव है।
इसलिये जल की पूजा यानि उपयोग करना जानी चाहिये न कि अपव्यय।
सन् 1732 ईस्वी की घटना है। राजस्थान की
जोधपुर रियासत में खेजड़ी वृक्षों की रक्षा करते हुए विश्नोई समाज की 69 महिलाओं
और 294 पुरुषों ने प्राण न्योछावर कर दिये थे। इस कुर्बानी ने राजसत्ता के
कुल्हाड़ों को वृक्ष-संहार बंद करने पर विवश कर दिया था। राजस्थान में उक्ति
प्रचलित है- 'सीस कट्या रूख बचे तो भी सस्ता जाण।' तात्पर्य यह कि जान देकर भी पेड़ बच जाए तो सौदा घाटे का नहीं।
लोक व्यवहार में पीपल का वृक्ष काटना और
उसकी लकड़ियां जलाना वर्जित किया गया है। लोक की आस्था को इससे जोड़ दिया गया।
पीपल में विष्णु और वट (बरगद) में शिव का वास माना गया। दोनों दीर्घायु और
विशालकाय वृक्ष होते हैं। वातावरण को शुद्ध करने की अपार क्षमता होने के कारण ही ऐसे
वृक्ष में देवत्व का वास माना गया। पीपल, वट कटने से बच
गये।
औषधीय गुणों के कारण ही नीम में शीतला
माता का वास माना गया। वट-सावित्री व्रत का विधान किया गया। एक व्रत आंवला नवमी का
होता है। अशोक का भी औषधीय महत्व है। फलदार-फूलदार पेड़-पौधों को आस्था के लोकाचार
और वर्जना के निषेध के साथ जोड़कर संरक्षित किया गया। बचपन में हमें सिखाया जाता
था कि शाम होने के बाद पौधों को हाथ नहीं लगाना चाहिए, वे सो जाते हैं। जड़ी-बूटियां चमत्कारी औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं।
वनवासी समाज बड़ी सूझबूझ और कौशल के साथ इनका प्रयोग उपचार और आरोग्य के लिए
सदियों से करता आ रहा है।
अथर्ववेद का भूमि सूक्त वस्तुतः भारतीय
संस्कृति की पर्यावरण चेतना का उद्घोष है। वैदिक ऋषि प्रकृति के समस्त उपादानों से
अनुकूल रहने की प्रार्थना करते हुए कहता है- (अथर्ववेद,
1, 3, 15) सभी नदियां
हमारे अनुकूल बहें, वायु हमारे अनुकूल बहे, पक्षी भी हमारे अनुकूल हों।
अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया
है- 'हे धरती मां! जो कुछ मैं तुझसे लूंगा वह उतना ही
होगा जिसे तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात
नहीं करूंगा।' वास्तव में यह सोच मनुष्य के पशु-पक्षी, नदी-पर्वत, जड़-चेतन के साथ सह-अस्तित्व के रिश्ते
की है। वृक्ष हमें प्राणवायु देते हैं और
कार्बन डाइ ऑक्साइड सोख लेते हैं। यही वृक्षों का शिवत्व है, महत्व है।
... आधुनिक विज्ञान की दुधारी स्थिति
है। उसे भी वरदान और अभिशाप की कसौटी पर परखा जाना अभीष्ट है। परमाणु शक्ति की
सृजन और विनाश के सामर्थ्य को पहचानें। इससे ऊर्जा पायी जा सकती है तो
नागासाकी-हिरोशिमा जैसे भीषण विध्वंस भी रचे गये हैं। चिकित्सा के वरदानों पर
तालियां बजाइये तो घातक शस्त्रों पर लानत भेजिये, ध्वनि
तरंगों से सूचना-संवादों का संचार कीजिये, तो दंगे-फसाद भी
भड़काए जाते हैं। रासायनिक खाद कीटाणुनाशक
खेती में सहायक हो सकते हैं तो उनका अतिरेक मिट्टी की उर्वरा शक्ति को निगल भी
सकता है; कैंसर जैसी व्याधियां फैला सकता है। जल-प्रदूषण,
कार्बन उत्सर्जन, वनों का विनाश, तपती धरती, सूखती नदियां, यमुना
ग्लेशियरों पर मंडराता पिघल जाने का खतरा, बंजर होते खेत,
मौत के मुंह में धकेलते रसायन और इस पर भी संयम को मुंह चिढ़ाती हुई
लालच की मार..। यही तो इस समय के विकट सवाल हैं जिन्हें आधुनिक विज्ञान और
प्रौद्योगिकी ने पैदा किया है, पनपाया है।
गांधी जी ने
पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता को राक्षसी सभ्यता कहा है। असंयमी उपभोक्तावाद और लालची
बाज़ारवाद ने सृष्टि विनाश की नींव रखी। भारत का परम्परागत संयमी जीवन-दर्शन ही
त्रासद भविष्य से बचाव का मार्ग सुझाता है। समाज में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार
ज़रूरी है। परम्परागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का समन्वय एवं संतुलन ज़रूरी है।
इसके लिए हमें लोक संस्कृति, लोक संस्कार और लोक परम्पराओं
के पास लौटना होगा। हमारे सामने एक ही मार्ग है; जो प्रकृति
सम्मत है वही ग्राह्य है और जो सृष्टि के विनाश का सरंजाम जुटाता है वह अग्राह्य
है, अस्वीकार्य है। पृथ्वी का भविष्य इसी बात पर टिका
है कि हम अस्वीकार्य के खिलाफ़ खड़े होंगे। पृथ्वी को मां समझकर ही हम
जीवन के भविष्य की कोई सार्थक कल्पना कर सकते हैं।
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नारी - पुरुष
युगों
से पुरुष अपने-आपको नारी से बड़ा समझता है तथा अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है। उधर
नारी अपने-आपको उत्पीड़ित अनुभव करती है और फिर परोक्ष या अपरोक्ष रूप में विद्रोह
करती है। इन दोनों का यह झगड़ा युगों से चला आ रहा है; मूल में यह एक ही है, पर यह अनगिनत रूप-रंगों में प्रकट होता है। यह स्थिति सिर्फ भारत या एशिया
या और किसी समूह की या भौगोलिक प्रदेश की नहीं बल्कि पूरे विश्व की है।
अपने पारस्परिक सम्बन्ध में पुरुष और
स्त्री एक दूसरे के पूरी तरह निरंकुश स्वामी और साथ ही कुछ दयनीय दास भी होते हैं।
हां, सचमुच दास; क्योंकि जब तक
मनुष्य में इच्छाएं हैं, अभिरुचियां और आसक्तियां हैं,
तब तक वह इन वस्तुओं का और उन व्यक्तियों का भी दास है जिन पर वह इन
इच्छाओं की पूर्ति के लिए निर्भर रहता है। अतएव, स्त्री, पुरुष की दासी इसलिए है कि वह पुरुष और उसके बल के प्रति आकर्षण अनुभव
करती है, उसके अन्दर घर बसाने की इच्छा होती है, वह घर से प्राप्त होने वाली सुरक्षा को चाहती है, और
अन्त में उसके अन्दर मातृत्व के प्रति मोह भी होता है। इधर पुरुष भी स्त्री का दास
है, अधिकार भावना के कारण, शक्ति और
प्रभुत्व की तृष्णा के कारण, काम-वासना की तृप्ति की इच्छा
तथा विवाहित जीवन की छोटी-मोटी सुख-सुविधाओं के प्रति आसक्ति के कारण।
इसलिये कोई भी कानून स्त्री को तब तक
बन्धनमुक्त नहीं कर सकता जब तक वह स्वयं ही बन्धन-मुक्त न हो जाये। इसी प्रकार
पुरुष भी अधिकार जमाने की आदतों के होते हुए तब तक दासता से मुक्त नहीं हो सकता जब
तक वह अपने अन्दर की सारी दासता से मुक्त न हो जाये।...
जब तक समस्या का सुखद और आमूल समाधान
नहीं हो जाता, भारतवर्ष और बातों की भांति इस बात में भी उन
प्रचण्ड विरोधात्मक भेदों का देश रहेगा। वस्तुतः, क्या
भारतवर्ष में ही उस परमा जननी की अत्यधिक तीव्र भक्ति और पूर्ण उपासना नहीं की
जाती जो विश्व को बनाने वाली और शत्रुओं पर विजय पाने वाली है, जो समस्त देवताओं और समस्त जगतों की माता है, सकल
वरदायिनी है? और क्या भारत में
ही हम स्त्री-तत्त्व, 'प्रकृति', अर्थात्,
'माया' की अत्यन्त आमूल रूप में निन्दा और
उसके प्रति अत्यधिक घृणा प्रदर्शित होते नहीं देखते?
भारतवर्ष का सारा जीवन ही इस विरोध से
सराबोर है, वह अपने मन और हृदय, दोनों
में इससे पीड़ित है।... जो भी हो, जब तक एक ऐसी नयी जाति को,
जिसे प्रजनन की आवश्यकता के अधीन होने की जरूरत न हो और जो सत्ता के
दो पूरक लिगों में विभाजित होने के लिए बाध्य न हो, उत्पन्न
करने के लिए प्रकृति को प्रेरित करने वाला नया विचार एवं नयी चेतना प्रकट नहीं हो
जाते, तब तक वर्तमान मानवजाति की उन्नति के लिए अधिक-से-अधिक
यही किया जा सकता है कि पुरुष और स्त्री दोनों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार
किया जाये, दोनों को एक ही शिक्षा तथा प्रशिक्षा दी जाये तथा
दिव्य वास्तविकता के साथ, जो कि समस्त लिंग भेदों से ऊपर है,
सतत सम्पर्क स्थापित करके समस्त सम्भावनाओं और समस्त समस्वरताओं के
उद्गम को प्राप्त किया जाये।
और तब शायद
भारतवर्ष, जो विषमताओं का देश है, नयी
उपलब्धियों का देश बन जायेगा।
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