सूतांजली ०३/०१ अगस्त २०१९
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सर्व धर्म समभाव
वैसे
तो हम गणेश को शुभ कार्य के प्रारम्भ में ही याद करते हैं, लेकिन इसके अलावा, गणेश चतुर्थी, दिवाली या अन्य किसी त्योहार या अनुष्ठान पर भी याद कर लेते हैं। फिर शिव पुत्र हैं, विवेक के अधिष्ठाता देव हैं, अत: जब चाहें पूरे
अधिकार के साथ याद तो कर ही सकते हैं। अभी तो उनको याद करने के दो बहाने भी मिल
रहे हैं मुझे। पहला तो यह कि इस माह के साथ हम तीसरे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं।
दो वर्ष पूर्व लिया गया यह संकल्प सुचारु रूप से निभा पा रहा हूँ, इसके लिए गणेश
को नमन और आप सबों का आभार। गणेश चतुर्थी भी अब नजदीक ही है। है तो अगले माह में, लेकिन माह के प्रारम्भ में ही है। अत: सोचा कि क्या यह अच्छा न हो कि
गणेश की बात चतुर्थी के बाद करने के बजाय चतुर्थी के पहले कर ली जाए?
शायद
गणेश के बारे में आप मुझसे ज्यादा ही जानते हों। अत: मैं और कुछ न कह कर केवल
पिछले वर्ष की गणेश चतुर्थी की कुछ यादें ताजा करवाना चाहता हूँ। शायद आपको याद
होगा स्पेन के बार्सिलोना में गणेश चतुर्थी पर निकाली गई विसर्जन यात्रा का वीडियो
यू ट्यूब में बहुत चर्चित हुआ और देखा गया था। शहर के भारतीय मूल के निवासियों ने
धूम धाम से गणेश की पूजा की और नियमानुसार अंतिम दिन उनकी शोभा यात्रा निकाली। यह
यात्रा वहाँ के एक चर्च के सामने से निकलनी थी। अत: वहाँ के नियमों के अनुसार औपचारिक
रूप से चर्च को इसकी इत्तला की गई और यात्रा निकालने की अनुमति मांगी गई। चर्च ने
न केवल अनुमति प्रदान की बल्कि आयोजकों से गणेश की प्रतिमा को चर्च के अंदर लाने का
अनुरोध भी किया। इसका वीडियो आज भी यहाँ https://www.youtube.com/watch?v=6g6IyoV76OQ उपलब्ध
है। इसे कहते हैं ‘सर्व धर्म समभाव’, सब धर्मों
के प्रति एक सी भावना का जीता जागता उदाहरण।
क्या
हम इस घटना पर खुश हों, गर्व अनुभव करें? सही कहूँ तो मुझे हीनता का बोध होता है। जिस ‘सर्व धर्म समभाव’ की चर्चा हम यहाँ भारत में करते
हैं, वह तो मुझे यहाँ कहीं दिखता ही नहीं। हमारे देश से
हजारों मील दूर ईसाइयों ने दिखाया कि वे भले ही समभाव की चर्चा न करते हों, लेकिन इस पर आचरण तो किया! एक चर्च ने हमारे गणेश का सम्मान किया, हमारे स्वर में स्वर मिला कर हमारे देव का आदर किया । हमें इसका
प्रत्युत्तर खोजना चाहिए। हमारे कौनसे मंदिर में हमने ईसाइयों को ईसा का जन्म दिन या
कोई दूसरा त्योहार मनाने की छूट दी? उनका सत्कार किया? केवल ईसाई ही क्यों और भी तो दूसरे अनेक धर्म हैं। हमने कब कहाँ
दूसरे धर्मों के समक्ष ऐसा उदाहरण पेश किया? उदाहरण अपनी कथनी का नहीं अपनी करनी का देना होगा। वेदों, पुराणों और हजारों वर्ष पुरानी घटना का नहीं आज की ताजा घटना का। अपनी
महान मान्यताओं की बातें न कर उन पर आचरण करना होगा। हाँ हम कर तो सकते ही हैं।
और जब ऐसा करेंगे तब ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’।
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श्री राम की सेना
“उसने
तय कर लिया, गाड़ी रुकते ही इंजन के पास की जनरल बोगियों के
यात्रियों से ही वह गुहार लगाएगा। वह जानता था, स्लीपर और
ए.सी. के यात्रियों से गुहार लगाने से कोई फायदा नहीं। ऐसी घटनाओं पर वे उतरने
वाले नहीं, बल्कि ऐसी घटनाओं की आहट पाते ही बाहर के दरवाजे
बंद कर अपनी बर्थों पर चिपक जाते हैं। लेकिन जनरल बोगियों में असुविधाओं के बीच
यात्रा करने वाले सामान्य लोग उसकी आवाज सुनकर अवश्य नीचे आ जाएंगे।” (एक अकथनीय
कथ्य को मिथिलेश्वरजी ने अपनी कहानी ‘गेटमैन गोवर्धन’ में बड़े सहज ढंग से कह डाला।) और गोवर्धन के देखते देखते रेल से यात्री
उतरकर गुंडों पर बेरहमी से पिल पड़े और उस बच्ची को उनकी चंगुल से छुड़ा लिया। हम पढ़े लिखे शिक्षित लोग,
इस सच्चाई को स्वीकार करने से घबराते हैं, कतराते हैं, तर्क देते हैं सफाई देते हैं। लेकिन यह नहीं मानते कि भूखे को रोटी चाहिए, केवल रोटी, भाषण नहीं।
मुझे
तो ऐसा लगता है कि :
१.श्री
राम भी ऐसे लोगों के भरोसे ही लंका पर आक्रमण कर सके। राम के पास सेना को देने के
लिए हथियार नहीं था। जिसको जो मिला उसे ही हथियार बना दुश्मन से भिड़ गया। कुछ नहीं
मिला तो लात, घूंसे और थप्पड़ों से ही रावण की सेना पर पिल पड़े। राम
की सेना के पास सत्य था, धर्म था। वह अन्याय के विरुद्ध
लड़ रही थी। उत्तम ध्येय के कारण उसमें आत्मविश्वास और आत्म बल था। राम की सेना की
यही शक्ति थी, जिसके बल बूते पर वह लड़ी। युद्ध जीतने पर
भाइयों ने राम का स्वागत किया, राजमहल ले गए और उनका राजतिलक
कर दिया।
२.
गांधी की सेना में भी पहले दक्षिण अफ्रीका में और फिर भारत में यही आम लोग थे। गांधी
के पास भी देने के लिए हथियार नहीं था। अत: उन्होने आत्मबल, निर्भयता, सत्य और अहिंसा का हथियार उन्हे पकड़ा दिया। लेकिन गांधी
के ‘भाइयों’ ने उन्हे राजमहल के बाहर
उनकी सेना के साथ छोड़ दिया और खुद महलों में घुस कर अपना अपना राजतिलक कर लिया।
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गांधी का टाइम मैनेजमेंट
गांधी
अपने से मिलने आने वाले हर शख्स से मिलते थे, बिना
किसी भेद भाव के। उनके लिए सब समान थे। और इस कारण उनसे मिलने वालों की भीड़ जुटी
रहती थी। गांधीजी को किसी भी प्रकार का रोक-टोक पसंद नहीं था। अत: समय की किल्लत
रहती थी। समय की पाबंदी के ख्याल से सेवाग्राम में आश्रम वासियों ने गांधीजी के
बैठने की जगह के ठीक पीछे एक तख्ती लगा दी – “शीघ्रता करें,
संक्षिप्त कहें, विदा लें”। गांधी के लंबे समय तक रहे सचिव
महादेव भाई जब युवा थे तो उन्हे यह बड़ा ‘रूखा व्यहवार’ प्रतीत हुआ अत: वे कई बार मिलने वाले के पीछे हो लेते और उनसे अपने संक्षिप्त
मुलाक़ात की प्रतिक्रिया पूछते। महादेव भाई
लिखते हैं कि उन्हे यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता कि प्राय: सब पूरी तरह संतुष्ट होकर
लौटते। मिलने वाले कहते “हाँ, यह सही है कि समय
बहुत कम था लेकिन वह समय पूरी तरह हमें दिया गया”।
महादेव
भाई आगे लिखते हैं –“जब गांधी सुन रहे होते हैं, तो हर व्यक्ति को वह गरिमा प्रदान करते जो कि मनुष्यमात्र के नाते सामान्यत:
उनका हक था। काफी हद तक उनकी अहिंसा के पीछे यही सिद्धान्त था। आगंतुक के धन, ज्ञान, उम्र, स्त्री-पुरुष का
ख्याल न कर वे हर एक से उसकी वैयक्तिक और मनुष्य होने की उसकी गरिमा का ध्यान रखते
हुए पेश आते”।
मूलमंत्र
– जो भी कार्य करें, पूरा ध्यान उसी
पर लगाएँ। जितना भी समय दें, वह पूरा समय, शतप्रतिशत उसे ही दें।
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कौन जानता गांधी को
जुलाई
2019 में उत्तर और दक्षिण कोलकाता के विद्यालयों में ‘कौन जानता गांधी को’ के कार्यक्रम हुए। पहला
कार्यक्रम सत्यनारायण पार्क के नजदीक श्री दिगंबर जैन विद्यालय में हुआ। अगला कार्यक्रम लॉर्ड सिन्हा रोड की श्री शिक्षायतन
स्कूल में आयोजित था। प्रेक्षाग्रह में
सर्वश्री राजीव लोचन कानोडिया, नर नारायण हरलालका, PDG लायन गिरधारी चमड़िया भी उपस्थित थे। विद्यालय की
प्रधानाध्यापिका श्रीमती संगीता टंडन ने अपने धन्यवाद भाषण में कार्यक्रम के संयोजन
की प्रशंसा करते हुए बताया कि कार्यक्रम केवल एक साधारण प्रश्नोत्तरी नहीं थी
बल्कि प्रश्नोत्तरी के माध्यम से गांधी के जीवन एवं कार्यों की मीमांसा थी। इस
कार्यक्रम की रिपोर्ट http://gandhiquizatkolkataschools.blogspot.com
पर देखी जा सकती है।
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हमें
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता है। - संपादक