मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

सूतांजली अक्तूबर 2019


सूतांजली                       ०३/०३                                        अक्तूबर २०१९              ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अतिशबाजी और दिवाली
हमारे देश में त्यौहारों का माह प्रारम्भ हो चुका है। हम इन्हें बड़े हर्ष, उल्लास और उमंग से मनाएंगे। इनमें एक प्रमुख त्यौहार दिवाली है। देश के उच्चतम  न्यायालय ने आतिशबाज़ी पर रोक लगा रखी है। शायद यह रोक फिर से दोहराई जाएगी। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बावजूद आतिशबाजी होती है। आतिशबाज़ी खुशी जाहिर करने का एक माध्यम है। यह केवल दिवाली पर ही नहीं इसके अलावा अन्य अवसरों पर भी होती है, जैसे विवाह, खेल में जीतने पर, धार्मिक विसर्जन यात्रा पर, अँग्रेजी नव वर्ष आदि पर। जिन कारणों से दिवाली पर आतिशबाज़ी सही नहीं है, ठीक उन्हीं कारणों से इनमें से किसी भी अवसर पर यह सही नहीं है। आतिशबाजी सिर्फ हमारे आनंद व उल्लास को प्रगट करने का एक माध्यम है। इनमें से किसी भी भावना पर लगाम की दरकार नहीं है। लेकिन आतिशबाज़ी आनंद अभिव्यक्त का सही माध्यम नहीं है। इसे रोकने का कार्य कानून से कम समाज सुधार और जन जागरण से ज्यादा अच्छी तरह किया जा सकता है। कानून, भय से सुधार करता है, समाज हृदय परिवर्तन करता है।
गांधीजी से एक बार यह अनुरोध किया गया था कि वे दिवाली पर लोगों को आतिशबाज़ी में रुपए बर्बाद न करने की सलाह दें। 20 अक्तूबर 1928 के यंग इंडिया में गांधीजी लिखते हैं, “मैं इस सुझाव का हृदय से समर्थन करता हूँ”। लेकिन वे यहीं नहीं रुकते। वे इस जोश को एक नई दिशा  देते हैं। वे आतिशबाज़ी बंद करने जरूर कहते हैं लेकिन इसमें लगने वाले पैसे, समय, शक्ति और उत्साह को अवरुद्ध नहीं करते। वे लिखते हैं, “इसमें लगने वाले पैसे, समय और मेहनत को बच्चों के लिए खेल-कूद का आयोजन करने में लगाएँ, पारिवारिक वन-भोजन करें जिसमें  बाजार के पकवानों के बजाय घरेलू पकवानों, फल तथा सूखे फल का प्रयोग किया जाए। अमीर और गरीब का ख्याल छोड़कर बच्चों को खुद अपने हाथों से सफाई करने की शिक्षा एवं ज्ञान दें। इससे बच्चों में शारीरिक श्रम करने का अभ्यास भी होगा और स्वच्छता के प्रति जागरूकता भी बढ़ेगी”।
          यह है असली समाज सुधारक का कार्य। वह प्रवाह को अवरुद्ध नहीं करता बल्कि उसे सही दिशा देता है। वह एक नया मार्ग सुझाता है।
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कहाँ गए अपने उत्सव और त्यौहार
हमारे उत्सव और त्यौहारों के दिन आ गए। इनके साथ याद आए बचपन के वे दिन जब हमें इनका इंतजार होता था। एक तरफ परिवार में नवरात्रि का पाठ और पूजा होती और दूसरी तरफ दुर्गा पूजा में पूरा शहर दुल्हन की तरह सज जाता था। यह एक समय था जब हमें देर रात तक अपने दोस्तों के साथ बाहर रहने की इजाजत मिलती थी। दुर्गापूजा से प्रारम्भ होकर भैयादूज तक जैसे उत्सवों की झड़ी सी लगी रहती थी। दिवाली पर पूरे घर की सफाई के अभियान में भी हम बच्चों का सक्रिय योगदान होता था। दिवाली पर मिट्टी के दीयों  में तेल-बत्ती डाल कर जलाना और उनका ध्यान रखना, दिवाली की शुभकामनाओं के कार्ड तैयार करना और भेजना, एक विशिष्ट कार्य होता था ।
इस शुभकामनाओं के कार्ड को तैयार करने की प्रक्रिया पिछली दिवाली से ही प्रारम्भ हो जाती थी। प्रत्येक प्राप्त हुए कार्ड से नाम, पता और टेलीफ़ोन मिलाना और ठीक करना। उनमें लिखे संदेश का मुआयना कर उनमें से बेहतरीन संदेशों को संभाल कर रखना, फिर एक सुंदर सा सारगर्भित संदेश तैयार करना हमारा काम होता था। इस प्रक्रिया में हमें अपने परिचितों की भी जानकारी मिल जाती थी – कौन हैं और कहाँ रहते हैं। मुझे अच्छी तरह से याद है लोगों को हमारे भेजे हुए संदेश की प्रतीक्षा रहती थी क्योंकि हमारा संदेश विशिष्ट होता था। दरअसल यह पूरी प्रक्रिया हमें इस त्यौहार से जोड़ देती थी।  बच्चन जी ने लिखा भी है “प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में”। आनंद और उत्सव न उस पूजा में है, न त्यौहार में, न पटाखों में, न मिठाई में, न जलते दीपक में बल्कि उस पूरी प्रक्रिया में जो हमें सबों से जोड़ती है।
जब भी नई तकनीक आए उसे अपनाना ही चाहिए। लेकिन इस नई तकनीक को अपनाने के चक्कर में कहीं हम गुद्दे को फेंक और छिलके को तो नहीं रख रहे हैं। अब हमारा पारिवारिक शुभकामनाओं का पत्र, हमारा व्यक्तिगत  हो गया है। परिवार के हर सदस्य सबको संदेश भेजते नहीं केवल फॉरवर्ड करते हैं। एक बार नहीं कई कई बार। हाँ, दिखाई देता है कि हम सोशल हो रहे हैं। क्या सचमुच हो रहे हैं?  अगर हो रहे होते तो हमारे संबंध और प्रगाड़ होते, लेकिन ऐसा है नहीं।
श्री अश्विन झाला लिखते हैं “संदेश भेजने के इस सिलसिले में  हम इतने आगे बढ़ गए हैं कि वह अपनी क्षितिज को विस्तारित करते हुए बहुत दूर, सभी सीमाओं से, सभी बंधनों से, सभी नफ़रतों से दूर संदेश फॉरवर्ड करते हैं। इतना कुछ होने के बावजूद भी मानव समुदाय के बीच में दीवारें पहले से क्यों बढ़ी हैं? क्यों हिंसा के कई स्वरूप, शोषण के कई घटक पनप रहे हैं? यह तो विपरीत स्थिति को प्रस्तुत करता है। दरअसल, हम सोशल मीडिया पर तो सक्रिय नजर आते हैं किन्तु वास्तविक जीवन में निष्क्रिय हैं।  जीवन के विशेष दिन पर संदेश को फॉरवर्ड करना ही उस दिन को मनाना हो गया है। मानो संदेश को फॉरवर्ड करने से ही हमने अपनी भावना को व्यक्त कर दिया है। हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि हम कोई शुभकामनाएँ भेज रहे है। हम सिर्फ अंगुली का एक झटका भेज रहे हैं। उसका असर भी एक झटका ही होता है।
इस बार कुछ अलग कीजिये। अपना कुछ लिखिए, रचिए, बनाइये। इस प्रक्रिया में अकेले मत लगिये बल्कि पूरे परिवार को सम्मिलित कीजिये। संदेश में पूरे परिवार का नाम दीजिये। अपनी विशिष्ट पहचान बनाइये। भले ही सजा संवारा न हो, लेकिन लिखा अच्छा हो जो आपके और आपके परिवार की भावनाओं को दर्शाता हो। उस संदेश में अपने परिवार की महक हो। आपके परिवार से यही संदेश सब तक पहुंचे। थोड़ा कठिन है, लेकिन अगर अनुशासन रखें तो यह सम्भव है कि आपके परिवार से एक व्यक्ति के पास एक ही संदेश जाए। संदेश को सजाना संवारना चाहते हैं तो  अपने प्रिंटर को ही कहें एक ई-कार्ड तैयार कर दे, वह आपकी भावना के अनुरूप बना देगा।  लोग मिल जाएंगे जो आपके लिए संदेश लिख भी देंगे और उसे रंग-रोगन, चित्र, संगीत से सजा भी देंगे। जब आप कार्ड प्रिंट करवाते थे, तब भी तो यही करते थे। नई तकनीक आ गई है तो उसका भरपूर प्रयोग करें, शुभकामनाओं को लिखने और भेजने में, उन्हे फॉरवर्ड करने में नहीं। परिवार का जुड़ाव भी होगा और आपके परिवार की एक अलग पहचान भी बनेगी।
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हमें आपकी प्रतिकृया का इंतजार रहता है। - महेश

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