सूतांजली ०३/०५ दिसंबर २०१९
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जीवन मंत्र
‘नजात’ हासिल करने का तरीका क्या है?’
‘हलाल
मुकाम से दीनार हासिल करना और हलाल काम में सर्फ करना’।
मतलब?
“अर्थ
शुचि: स शुचि:।”
यानि
पैसा
पैदा करना ईमानदारी से।
पैसा
खर्च करना भले कामों में।
समझे?
पांडवों और कौरवों की तरह या युधिष्टिर की तरह?
पैसा
पवित्र तो अन्न पवित्र। अगर अन्न पवित्र तो रोटी शुद्ध।
अगर
रोटी शुद्ध और अन्न पवित्र तो मन पवित्र
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भ्रष्टाचार से मुक्ति
गांधीरिसर्च फ़ाउंडेशन के संस्थापक दिवंगत डॉ. भंवरलाल जी जैन ने भ्रष्टाचार के दानव से
मुक्ति का एक रास्ता सुझाया – “यदि जनता के प्रत्येक कार्य के निष्पादन की समय
सीमा निर्धारित हो जाए, तो विलम्ब और भ्रष्टाचार के भस्मासुरों को
नियंत्रित किया जा सकता है। नियत समय सीमा में
कार्य का निष्पादन न होने या शुल्क
जमा होने के पश्चात भी नियत समय सीमा में कार्य न होने पर संबन्धित अधिकारियों को
उत्तरदायी ठहरा कर उनके वेतन से पीड़ित व्यक्ति के नुकसान की भरपाई की जाए तो
चमत्कारी परिणाम प्राप्त होगा। साथ ही, यदि कोई अधिकारी अपने
अधिकारों का दुरुपयोग कर किसी नागरिक से मनमाना जुर्माना या सजा सुनाई हो और वह
जांच निष्पक्ष हो जाय तो ऐसे अधिकारी को उसी अनुपात में कठोर सजा दी जानी चाहिए।
ऐसे प्रावधान की व्यवस्था कानून एवं अधिकारियों के नियुक्ति – पत्र में होनी चाहिए”।
यहाँ मैं अपना एक निजी अनुभव साझा करना
चाहूँगा। मेरी एक परिचिता एक संस्था में कार्यरत थीं। वहां प्रोविडेंट फ़ंड की
सुविधा उपलब्ध थी। अचानक एक दिन संस्था बंद हो गई। महिला ने प्रोविडेंट फंड खाता बंद
कर उसके पैसे वापस देने के लिए आवेदन दिया। संस्था के कार्यालय में ताला लगा था और
निर्देशक लापता। अत: कोई चारा न होने के कारण नियमानुसार उसने बैंक से अपना दस्तखत
प्रमाणित (वेरिफ़ाई) करवा कर आवेदन जमा कर दिया। विभाग ने आवेदन रद्द कर वापस लौटा दिया
इस निर्देश के साथ कि संस्था के निर्देशक द्वारा अपनी पहचान करवायें। यह संभव न
होने के कारण महिला ने फिर से आवेदन भिजवा दिया और लिखा कि निर्देशक ‘गायब’ हैं और नियमानुसार बैंक से भी प्रमाणित कराया जा सकता है। विभाग अब चुप बैठ गया। बड़े कष्ट से महिला जब
संबन्धित अधिकारी से मिली तो उन्हे साफ शब्दों में बताया गया कि उन्हे नियमावली से
कोई सरोकार नहीं है। वहाँ उनका ही नियम चलता है और उनके नियम के अनुसार संस्था के
निर्देशक का प्रमाण पत्र आवश्यक है। उन्हे पैसे नहीं मिले। जब महिला ने इसकी चर्चा
मेरे से की तब मैंने समझाया कि इसका मतलब है अधिकारी को ‘पैसे’ चाहिए। महिला भड़क उठी। मैंने दूसरा रास्ता सुझाया। ‘सूचना का अधिकार’ लेकिन साथ ही चेताया कि पैसे मिल जाएंगे
लेकिन समय लगेगा। वह तैयार हो गई। मैंने सूचना के अधिकार के अंतर्गत कार्यवाही
प्रारम्भ की। जब पहला आवेदन देने गया तब मुझे धमकाया गया, ‘इससे कुछ नहीं होगा और पैसे कभी नहीं मिलेंगे’। मैं
उसके पीछे लगा रहा। लेकिन अति तो तब हुई जब विभाग ने उस महिला को धमकाने के लिए
विभाग से महिला के घर आदमी तक भेजा। लेकिन हम डटे रहे। लगभाग 12 महीने लगे। पूरा
पैसा मय ब्याज के आ गया।
यह तो व्यक्ति का फैसला है कि वह काम करना
चाहता है या रोड़े अटकाना। नियम तो बनाने ही होंगे लेकिन उतने भर से काम नहीं होने
का, उस पर चलना होगा। पहले आप के बदले पहले मैं।
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काली चमड़ी, गोरा नकाब
इंफ़ोसिस
के संस्थापक श्री नारायणमूर्ति अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि तीन पुस्तकों ने
उनकी विचारधारा को बहुत प्रभावित किया। ये पुस्तकें हैं – १. मैक्स वेबर की
प्रोटेस्टंट एथिक एंड द स्पिरिट ऑफ कैपिटलिज़्म, २.
महात्मा गांधी की माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ, और ३. फ्रैंज
फ़ैनन की ब्लैक स्किन, व्हाइट मास्क।
इनमें गांधी के प्रभाव को रेखांकित करते
हुए वे आगे लिखते हैं कि ‘लोगों कि आकांक्षाओं को उभारने, एक महान सपने को पाने के लिए उनसे बलिदान स्वीकार करवाने और सबसे
महत्वपूर्ण उस सपने को हकीकत में बदलने में
अच्छे नेतृत्व की महत्ता के प्रति महात्मा गांधी ने मेरी आंखे खोलीं। गांधी
ने जाना था कि अगर अनुयायियों को बलिदान करना है तो नेताओं में उनका विश्वास होना
अत्यंत जरूरी है। विश्वास पाने के लिए उन्होने सबसे शक्तिशाली अस्त्र का प्रयोग
किया – मिसाल बनकर नेतृत्व करना। वे गरीब लोगों की तरह ही खाते, कपड़े पहनते, यात्रा करते और रहते थे।
............... अपने कहे पर जी कर दिखाना महात्मा के लिए बेहद जरूरी था, जिन्हे हमारे लोगों के नब्ज की समझ किसी भी दूसरे भारतीय नेता से ज्यादा
थी।
नारायणमूर्ति आगे लिखते हैं कि वेबर और
गांधी को पढ़ने के बाद ‘मैं इस उलझन में पड़ा रहा कि मेरे देश में विकास उस
तरह की प्रगति क्यों नहीं कर पा रहा जो इतनी स्वाभाविक लगती थी’। इसका उत्तर उन्हे फ़ैनन की पुस्तक से मिला। वे लिखते हैं ‘उत्तर-ओपनिवेशिक समाज में सुशिक्षित वर्ग की ओपनिवेशिक मानसिकता पर उनकी
अत्यंत उपयोगी किताब ने गरीब और अधिकारहीन लोगों कि प्रगति में बाधा डालने वाली
नौकरशाही और सुशिक्षितों की भूमिका के प्रति मेरी आंखे खोल दीं। उत्तर-उपनिवेशवाद
समाज में ‘सफ़ेद नकाब पहने काले सुशिक्षितों’ की यह मानसिकता कि शासक और शासितों के अधिकार और जिम्मेदारियाँ अलग-अलग
होते हैं और यह विषमता शासकों के पक्ष में झुकी होती है’। भारतीय सुशिक्षितों का इस तरह का विषमता पूर्ण बर्ताव
मैं रोज देखता हूँ कि किस तरह वे .........’।
कौन रोक रहा है भारत की प्रगति? काली चमड़ी में, गोरे नकाबधारी। इन्हे पहचानें। जब इनकी सही पहचान होगी और जनता इनसे हिसाब मांगने
लगेगी तब होगा हमारा उद्धार, तब हमें मिलेगी
आर्थिक और सामाजिक स्वतन्त्रता।
यस, वी
कैन। हाँ, हम कर सकते हैं। हाँ, हम
करेंगे। हाँ, इन सबका यही एक उत्तर है।
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बात ज्यादा, काम कम
जब
गांधी ने एक स्वाधीन भारत की कल्पना की तब उसमें केवल राजनीतिक स्वाधीनता नहीं थी
बल्कि आर्थिक और सामाजिक स्वाधीनता भी थी। स्वाधीनता के बहुत पहले ही गांधी ने कहा
‘जब हम स्वतन्त्रता की बात करते हैं तब उसके साथ ही
साथ हमें यह भी निश्चित कर लेना चाहिए कि कैसी स्वतन्त्रता और किससे स्वतन्त्रता? अन्यथा गुलामी ही स्वतन्त्रता के रूप में फिर से आ जाएगी और इसका विचार
हमें पहले ही कर लेना होगा’। और वही हुआ जिसका डर था। गुलामी
ही स्वतन्त्रता के रूप में वापस चली आई। पूरा प्रशासन वैसे ही चलता रहा। सत्ता में
वही लोग रहे। स्वतन्त्रता केवल इन मुट्ठी भर लोगों के बीच ही सीमित रह गई।
अभी अभी हमने गांधी की
१५०वीं जन्म जयंती बड़े धूम धाम से मनाई। बहुत शोर किया,
नगाड़े बजाये। लंबी लंबी बातें तो बहुत की लेकिन क्या कुछ ठोस कार्य भी कर पाये? क्या कहीं हमने अपने आचरण में गांधी को जीया? अपनी
मृत्यु के ठीक पहले यानि २९ जनवरी १९४८ को गांधी ने अपना वसीयतनाम लिखा जो बाद में
हरिजन में प्रकाशित हुआ। इस वसीयतनामे के केवल शब्दों पर न जाएँ बल्कि इसके भीतर
छिपी भावनाओं और दूरगामी प्रभावों पर भी विचार करें।
हम पढे लिखे बुद्धिजीवी वर्ग भाषण करने, वक्तव्य देने, पुस्तक छपवाने,
साक्षात्कार देने, फोटो खिंचवाने का कार्य कर अपने
उत्तरदायित्व का निर्वाह समझ लेते हैं। उसे कार्य रूप में परिणित करने की न तो सोच
है न उद्यम। नारायणमूर्ति ने अपने संस्मरण को साझा करते हुए लिखा , ‘दरअसल, हमारे अधिकांश
बुद्धिजीवियों के लिए अभिव्यक्ति ही एक बड़ी उपलब्धि होती है! किसी विचार के
क्रियान्वन की दिशा में कोई प्रगति किए बिना उस पर चर्चा करते रहने की प्रवृत्ति
कभी कभी हास्यास्पद स्तर तक पहुँच जाती
है। अगर मेरी गणना सही है, तो पिछले पच्चीस साल में बंगलोर
में एक पावर स्टेशन बनाने के लिए अब तक तैंतीस सेमिनार हो चुके हैं। लेकिन फिर भी बंगलोर
में कोई पवार प्लांट नहीं है और हम अभी (२००९) तक ब्लैकआउट्स से त्रस्त हैं”। वह समय कब आयेगा जब हम बात कम काम
ज्यादा करेंगे?
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हमें
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता है। - महेश