सूतांजली ०३/१० मई २०२०
(यहाँ सुने 🔊 )
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हरिहर काका और मनबोध मउआर
(‘हरिहर काका’ और ‘मनबोध मउआर’ दोनों मिथिलेश्वर जी की कहानियाँ हैं।
हरिहर काका ज्यादा पसंद की गई है। हरिहर काका जैसे पात्र बहुत हैं और उनसे हमें
कोई डर-भय भी नहीं लगता। लेकिन मनबोध मउआर लुप्त प्रजाति है और हर किसी को ऐसे
पात्रों से डर है, भय है। लेकिन, अगर मनबोध
मउआर जैसा एक पात्र भी हर मुहल्ले में हो, तो दुनिया से
अमानवीय और अनैतिक कार्य लुप्त हो जाए।)
(मनबोध मउआर कहानी यहाँ पढें 📖 और यहाँ सुनें 🔊)
हरिहर
काका, बुजुर्ग हैं, गाँव में रहते
हैं। पत्नी गुजर गई है, औलाद नहीं है,
लेकिन तीन भाई हैं। सबसे बड़ी बात यह कि उनके पास १५ बीघा जमीन है। जैसा हमने देखा, सुना और पढ़ा है, इस संपत्ति के कारण ही भाई - भाई का दुश्मन बन जाता है; ठीक वैसे ही, हरिहर काका के भाई उनके दुश्मन बन गए
हैं। उनके गाँव में एक ठाकुर बाड़ी भी है। इस कहानी में, यह
ठाकुर बाड़ी एक नया मोड़ है, क्योंकि भाई तो भाई, इस ठाकुरबाड़ी का महंत भी उस जमीन को हथियाने के चक्कर में उनका दुश्मन बन
गया है। संपत्ति के चलते भाइयों में, बाप-बेटों में, रिश्तेदारों में मन मुटाव, झगड़े और हत्याएं कोई नई
बात नहीं। ऐसी कहानियाँ पढ़ी हैं, ऐसे वाकिए सुने हैं; हो सकता है ऐसे लोगों से परिचय भी हो या खुद भुक्त-भोगी हों या हम खुद, ऐसी घटना को अंजाम देने वाले हों। यह सब मर्म स्पर्शी है, दुखदायी है, अनैतिक है, अमानवीय
है लेकिन, यह कोई नई घटना नहीं है।
दूसरे
व्यक्ति हैं – मनबोध मउआर। मुझे प्रभावित किया इस शख्स ने। ऐसे लोग नहीं मिलते - न
देखने को, न पढ़ने को, न सुनने को। ये
भी बुजुर्ग हैं। गाँव में रहते थे अब अपने लड़कों के साथ शहर में रहते हैं। इनके
पास संपत्ति है या नहीं, पता नहीं,
लेकिन जिगरा है। ‘मुहल्ले का कोई ऐसा घर नहीं, जो उसकी वक्रदृष्टि का शिकार नहीं हो। उस अकेले बूढ़े ने सबकी नाकों में
दम कर रखा है’। पहली
नजर में ‘गाँव’ का आदमी नजर आया। लेकिन, पहली ही मुलाक़ात में उसने बताया कि मेरा मकान मालिक ‘आदमी नहीं कसाई है, अपनी छोरियों को बिना इलाज के
मार डाला’। इस बात पर मेरा तर्क ‘किसी दूसरे के मामले से हमें क्या मतलब’
उन्हें एकदम पसंद नहीं आया। रात अपनी पत्नी से पता चला कि मेरा मकान मालिक अपने
बेटों और बेटियों में अमानवीय सीमा तक फर्क करता है। पूरा मुहल्ला यह जानता है लेकिन
सब खामोश – ‘हमें क्या लेना देना’। मुहल्ले में ऐसे लोग कम ही थे, जो किसी न किसी
अनैतिक और अमानवीय कार्यों में न लगे हों। ऐसा भी नहीं था कि मुहल्ले वालों को
इसका पता नहीं था। लेकिन सब खामोश रहते थे – वही ‘हमें क्या
लेना देना’। लेकिन मनबोध मउआर, ऐसे
लोगों के आलोचक थे, उनका भंडाफोड़ करते थे। पीठ पीछे नहीं, उनके मुंह पर। वे
चुप रहने वालों में नहीं थे, इसलिए ऐसे सब लोग उनके विरोधी
थे, उनसे कतराते थे। जाहिर है उनके विरोधियों की संख्या अधिक
थी। समर्थ भाई ने अपने कमजोर भाई की हत्या
कर दी, लेकिन बात उड़ा दी कि उसकी मृत्यु हो गई। लेकिन मनबोध
को यह अमानवीय कार्य सहन नहीं हुआ। किसी
और ने आवाज नहीं उठाई लेकिन वे चुप नहीं रहे, सबों को कहते
फिरे। वहीं दूसरी ओर मनबोध ने यह प्रचारित कर दिया कि मुहल्ले में बन रही भव्य
कोठी तस्करी के पैसे से बन रही है। तस्कर, बंदूक लेकर उसके
घर उन्हे मारने पहुँच गया। ऐसी एक-दो नहीं अनेक घटनाएँ हैं। इतना ही नहीं अपने
गाँव से कोई भी इलाज के लिए आता, तो उसे संभालने जाते और हर
संभव उसकी सहायता भी करते। क्या ऐसा कोई जीता जागता चरित्र आपकी नजर में है? ‘ऐसे लोग किसी शताब्दी में हुआ करते होंगे, अब तो लोक कथा और आदिम इतिहास के पात्र बन गए हैं। मनबोध मउआर अपनी पीढ़ी
के नहीं बल्कि पिछली शताब्दी के अंतिम पात्र हैं’।
अगर
आप पिछली शताब्दी के व्यक्ति हैं, तो जरूर जानते
होंगे कि खटमल किस जन्तु का नाम है। जब विकास का दौर आया, तब
इस प्रजाति में भी विकास हुआ। रात के अंधेरे के बदले अब ये दिन के उजाले में भी
दिखने लगे। चुपके चुपके मानव का खून पीने के बजाय दिन दहाड़े काटने लगे। गणतन्त्र
की हवा में संगठित होकर नेतागिरी करने लगे। आरक्षण, जातिवाद की
तरह इन्होने भी शासन-प्रशासन में अपनी जगह बना ली। खून पीने के कारण शारीरिक बल तो
था ही, संगठित होने के कारण संख्या बल भी मिल गया और पूरे
समाज में निडर होकर घूमने और काटने लगे। कभी, किसी समय, खटिया के छिद्रों में छुपे रहते थे, केवल रात को
निकलते थे, दिन में दिख जाने पर हाथों हाथ उनकी कब्र खोद दी
जाती थी। अब समय बदल चुका है। उनका जमाना है। लोग चुप रहने लगे। मनबोध मउआर, अब भी खटमल से, खटमल की ही तरह बर्ताव करता है।
जहां कहीं खटमल दिख जाता है, उसकी जान के पीछे पड़ जाता है।
खटमलों ने उनकी टांगे भी तोड़ डाली लेकिन उनके उत्साह में कोई फर्क नहीं आया। इन दो
प्रजातियों के मध्य एक और तीसरी प्रजाति बड़ी संख्या में उत्पन्न हो गई है।
यह है चुप रहने वालों की। “हमें इससे क्या लेना देना” कह कर इन खटमलों को रक्त दान
करने वालों की। क्या हम भी उन्ही में हैं?
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सच की राहों में बिखरी जिंदगी
(से.रा.यात्री की “सच की राहों में बिखरी जिंदगी” यहाँ पढ़ें 📖 और
यहाँ सुने 🔊)
यह
शीर्षक मेरा दिया हुआ नहीं है। मुझे नहीं पता, यह
से.रा.यात्री का दिया हुआ है या अहा! जिंदगी का। हाँ, जून
2011 में अहा! जिंदगी में छपे एक लेख का यही शीर्षक था,
जिसके लेखक थे से.रा.यात्री। सच हमेशा सुंदर नहीं होता। उसके कई रूप होते
हैं। मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा ‘मेरे विश्वविद्यालय’ में यह बात पूरी तरह चरितार्थ होती है। यह एक ऐसे युवक की कहानी है जिसने
मास्को के एक कसाई खाने में होने वाली धांधली की खबर अपने खुशमिजाज़ मालिक को देकर
उसके रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया और उसके एवज में उसे अपनी नौकरी से हाथ
धोना पड़ा। अपनी निष्ठा और ईमानदारी का यह अनोखा पुरस्कार एलेक्स को मिला जो सच को
लेकर कई सवाल खड़े करता है।
क्या
सच बोलना ही काफी है? सच बोलना आवश्यक है? कई लोग
तो यहाँ तक कहते हैं कि सच बोलना जरूरी नहीं, चुप भी तो रह
सकते हैं! हाँ लोगों को यह सीख पसंद आई और ज़्यादातर लोग यही
करते हैं। भय से, अपने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने में हिचकते
नहीं। और जब - जहां सच की जरूरत होती है तब चुप्पी साध कर अपने उत्तरदायित्व का
निर्वाह कर लेते हैं; यही विचार करते हैं कि हमने झूठ नहीं बोला। इसी चुप्पी के कारण
गुनहगार को सजा दिलाने चश्मदीद गवाह नहीं मिलते। हत्यारा निर्भीक घूमता है, भ्रष्टाचारी सम्पन्न बना सामाजिक / राजनीतिक / प्रशासनिक सम्मान पाता है, लोगों की चीख सुन खिड़की बंद कर ली जाती है, घायल को
मरने-तड़पता छोड़ दिया जाता है, अबला
सड़कों पर सहायता के लिए गुहार लगाती रहती है और सच आँख, मुंह
और कान बंद किए बैठा रहता है। मुट्ठी भर लोग सैकड़ों लोगों के बीच बेगुनाह को पीट
पीट कर मार देते हैं। सच, जेल की सलाखों के पीछे दम तोड़ता रहता है और झूठ स्वतंत्र फूलता-फलता रहता
है। गांधी की और कोई बात हमने मानी हो या नहीं, लेकिन ऐसे
मौकों पर उनकी ‘तीन बंदरों’ की सीख, थोड़े संशोधन के साथ, हम पूरे मनोयोग से मानते हैं – न हमने बुरा देखा, न हमने बुरा सुना, न हमने बुरा कहा। न हमें पाप
दिखा और न ही पापी। लेकिन जब पासा उल्टा पड़ा तब अकबर इलाहाबादी के शब्दों में चीख
उठे, “हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता”।
हमें
सच को छिपाने वालों की जमात नहीं चाहिए, हर
मुहल्ले में बस एक ‘मनबोध मउआर’ जैसे
नागरिक चाहिए जो सत्य कहने की हिम्मत रखते हों।
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विशेष सूचना
कोविड-19
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माह से सूतांजली की छपाई, पूर्णतया बंद करने का निश्चय किया गया है। यह पत्र ईमेल
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