सूतांजली ०३/११ जून २०२०
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क्या आप कुछ करती हैं?
“क्या
आप काम-काजी महिला हैं?”
मैं
पिछले वर्ष हिमालय की गोद में बसे खूबसूरत नगर नैनीताल के वन-निवास, श्री अरविंद आश्रम के एक साप्ताहिक शिविर में गई थी। जैसी रमणीक जगह वैसे
ही खुश मिजाज लोग। इसी शिविर में थे एक
सज्जन बुजुर्ग, ९० वसंत देख चुके थे। फिर भी गज़ब की स्फूर्ति, सेहत और वर्तमान ख्यालात के शख्स। बिरले ही मिलते हैं ऐसे इंसान। यह एक
छोटा सा प्रश्न उन्होने ही मुझ से किया। शायद उन्हे लगा कि मैं कहीं न कहीं कुछ न
कुछ जरूर करती हूँ। यह एक छोटा सा प्रश्न जिसे अनेक भारतीय महिलाओं से किया जाता
है। और वे तुरंत अ-सहज हो जाती हैं। प्राय: बड़ी निराशा से उत्तर देती हैं ‘नहीं मैं कुछ नहीं करती। मैं तो बस सिर्फ एक सीधी साधी गृहस्थ महिला हूँ, या ‘मैं तो सिर्फ एक भारतीय महिला हूँ’। ‘सिर्फ’ लगाना नहीं भूलतीं
और एक अपराध बोध से ग्रसित हो जाती हैं।
मैं, चार दशक पहले, अपने समय की एक पढ़ी-लिखी, आधुनिक ख़यालों के परिवार की आजाद सोच की लड़की थी। मेरा विवाह एक मारवाड़ी
परिवार में हुआ। मेरे ससुराल वालों को मुझ पर गर्व था। मेरे श्वसुर का पक्का
विश्वास था कि अगर मैं कहीं नौकरी कर लूँ या कोई भी व्यवसाय करूँ तो निश्चित तौर
पर एक सफल महिला साबित होऊंगी। शायद इसी कारण एक दिन उन्होने मुझे नौकरी या
व्यवसाय करने का सुझाव दिया।
आज
तो हर बहू नौकरी करना या व्यापार करना अपना हक ही मानती है। पूछने या इजाजत का तो
कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। उसे लगता है कि इसके बिना उसकी कोई इज्जत नहीं, उसकी कोई अहमियत नहीं। कई वैवाहिक रिश्तों में तो शर्त ही यही होती है ‘मेरी लड़की घर, रसोई-चूल्हा नहीं संभालेगी’ या ‘मेरी लड़की को रोटी-सब्जी बनाना नहीं आता, घर सँभालना नहीं आता, उसे हमने यह सिखाया ही नहीं
है’। ऐसे में अगर ससुराल वाले ही काबिलियत देख कर इसकी पेशकश
कर दें तो फिर ‘नेकी और पूछ पूछ’। हम
तो तैयार ही बैठे हैं, न आता हो तो भी।
लेकिन
मैं तो जैसे किसी और ही मिट्टी की बनी थी। मैं उनके इस प्रस्ताव पर सकुचा गई।
लेकिन फिर साहस कर कहा ‘मैं तो पहले ही
बहुत कुछ करती हूँ शायद औरों की तुलना में कम भी नहीं कमाती’। श्वसुर जी हैरान,
“कैसे, मैं समझा नहीं”?
मैंने
उन्हे समझाया। यह कोई जरूरी तो नहीं कि कुछ करने के लिए बाहर जाना ही पड़े। अगर यह ‘कुछ’ करने के लिए मैं बाहर जाना शुरू करूँ तो सबसे
पहले मुझे हर समय नए नए कपड़ों की आवश्यकता पड़ेगी, बनठन कर बनाव-शृंगार पर भी खर्च करना पड़ेगा।
अपनी और परिवार की इच्छाओं और मूल्यों को
ताक पर रख कर सहकर्मियों के साथ साथ प्रतिस्पर्धा में नित-नूतन जगहों पर जाना, खरीदारी करना, पार्टी करना और उनमें जाना और भी न
जाने क्या क्या! कभी किसी के बच्चे का जन्मदिन, किसी की शादी
की सालगिरह – उनमें जाओ और साथ में उपहार। इसमें खर्च और तनाव दोनों ही होंगे। अभी
इन सबों से और इन सब पर होने वाले खर्च को बचाकर कमाई ही तो कर रही हूँ?
ऊपर से नीचे - शिविर में प्रभात फेरी, भारतीय खेल, मंच पर श्री शंकरन-आचार्य श्रद्धेय श्री नवनीत एवं आयुर्वेदाचार्य डॉ. सुरिंदर कटोच, सभाकक्ष में श्रोता |
यह तो हुई कमाई की बात। अगर घर के बाहर जाना शुरू कर देती हूँ, तब घर के कार्य नहीं कर पाऊँगी, उनमें बाधा पड़ेगी।
न तो समय पर गरम खाना दे पाऊँगी और न ही सही ढंग से देख भाल कर सकूँगी। कभी कपड़े
आयरन नहीं होंगे, कभी बटन टूटी मिलेगी,
कभी आपकी दवा छूटेगी, कभी किसी बच्चे के स्कूल का काम पूरा
नहीं होगा। ये सब काम सही तरह और समय पर न होने के कारण नौकर रखा जायेगा। उसका
खर्च तो होगा ही, क्या वह सभी काम सही ढंग से कर लेगा? क्या उसके काम की और उसके खुद की देखभाल नहीं करनी पड़ेगी? और इन सब के कारण घर के सब सदस्य एक प्रकार की झुंझलाहट के शिकार हो
जाएंगे। उसके कारण मेरा स्वभाव भी चिड़चिड़ा हो जाएगा। इन सब का असर पॉकेट पर तो
पड़ेगा ही परिवार में भी एक प्रकार की अशांति रहने लगेगी, टूटन आने लगेगी।
अभी
मैं कोई नौकरी न कर अपने घर को सब तरफ से बचा रही हूँ। बच्चों की देखभाल, बड़ों को समय पर खान-पान, खुद रसोई में सबके लिए
सुस्वादु और स्वास्थ्यकर भोजन बनाना और पूरा घर संभालना, यह सब उन रुपयों से बड़ा है जो मैं अपने झूठे दंभ में कमा कर लाऊँगी।
मेरे
श्वसुरजी मेरी बात से एकदम सहमत हो गए और उन्होने फिर कभी मुझे नौकरी या व्यवसाय
करने को नहीं कहा।
आज
फिर इतिहास दोहरा गया। नैनीताल के उस शिविर में जब उन बुजुर्ग ने वही प्रश्न किया
तब मैंने सगर्व कहा, “नहीं, मैं एक गृहस्थ महिला
हूँ, लेकिन मैं कमाती हूँ। मैं वह सब कमाती हूँ जिसे दूसरे
नहीं कमा सकते’। और उसके बाद मैंने श्वसुरजी को कही पूरी बात
दोहरा दी। वे बहुत खुश हुए, बोले,
“वाह! क्या बात है, आज की पीढ़ी यह क्यों नहीं समझती’?
आज
विवाह के चालीस वर्षों बाद, श्वसुर तुल्य बुजुर्ग की यह बात सुन और उनके चेहरे
पर आई खुशी देख मुझे बहुत प्रसन्नता हुई और मुझे अपना जीवन सार्थक होता नजर आया।
- रश्मि करनानी
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चिंता
ही तरक्की है?
जो
यह कहते हैं कि ‘चिंता चिता है’, उन्हे तरक्की
की न तो जानकारी है न ही उन्हे हमारी तरक्की की चिंता है। हमने माना “चिंता चिता
है”; हमने चिंता न करने की सलाह दी,
उपदेश दिया। इसीलिये हमारी तरक्की बंद हो गई। जबसे हमने चिंता करना
सीख लिया तब से हमारी तरक्की शुरू हो गई। विश्वास कीजिये हम जितनी ज्यादा
चिंता करेंगे हमारी तरक्की भी उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी,
क्योंकि चिंता ही तरक्की का मूल है, चिंता ही हमें तरक्की
करने के लिये बाध्य करती है। बाजार पुर-जोर इसी कोशिश में लगा है कि हम चिंता करना
छोड़ न दें। बस ऐसा ही समझना चाहिए कि चिंता मिटी - तरक्की रुकी।
सोचिए
जरा सा, पोलियो-मलेरिया जैसी बीमारियाँ उन्नत देशों से मिट
चुकी हैं। उन्नतिशील देशों में भी समाप्त प्राय: है। हमने इन्हें मिटाने का संकल्प
केवल इसीलिये लिया क्योंकि ये बीमारियां चिंता
करने के कारण नहीं होतीं। इन बीमारियों का मूल चिंता नहीं है, अत: हमें इन बीमारियों की आवश्यकता नहीं है। हृदय रोग-चीनी-रक्तचाप-अवसाद
जैसी बीमारियों का सीधा सम्बंध चिंता से
है। इसलिए हमें ये चाहिए और ये सब दिन-दुनी रात-चौगुनी गति से फल-फूल रही हैं। हम
इन्हें पाल-पोस कर बढ़ाने में लगे हैं। हमने इनके उन्मूलन का कोई अभियान नहीं चलाया।
इन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं किया। हमने केवल इनके उपचार के लिए नए-नए
अस्पताल-संसाधन-दवाइयाँ-उपकरण आदि का ही प्रयास किया है,
उन्मूलन का नहीं। हम चिंता मिटाने का कोई प्रयत्न नहीं करते, बल्कि इस बात की चिंता करते हैं कि कहीं लोग चिंता करना बंद न कर दें। हर रोज स्वास्थ्य का फलता फूलता
व्यवसाय यह सिद्ध करता है। बल्कि अब तो हम यह कहने भी लगे हैं – स्वास्थ्य बड़ा
व्यापार है - ‘हैल्थ इस बिग बिज़नेस’।
हमारे
दिमाग में जड़ दिया गया है कि बुढ़ापे में बच्चे हमारा ख्याल नहीं रखेंगे। अत: वर्तमान में पेंशन
स्कीम की चिंता करें, वर्तमान को छोड़ भविष्य को सुरक्षित कीजिये; अनजान लोगों के हाथ में अपनी कमाई देकर। मेरे बाद,
मेरे परिवार का क्या होगा, इसकी चिंता में जीवन सुरक्षा बीमा लीजिये, बीमार पड़ जाने पर इलाज के लिए पैसे नहीं होंगे और कोई अपना-पराया सहायता
नहीं करेगा, अत: अनजान लोगों पर भरोसा कर मेडिकल बीमा
करवाइये, और दुर्धटना घटने पर इलाज के लिये एक्सिडेंट बीमा
अलग से लीजिये। सबसे बड़े मजे की बात तो यह कि पिछले वर्ष,
पूरा लेखा-जोखा करने के बाद, बाजार द्वारा सुझाई गई रकम की
बीमा कराई गई थी। लेकिन एक वर्ष बाद ही
हमें यह समझा दिया गया कि पिछले वर्ष कराई गई बीमा की राशि कम है, यह प्रमाणित कर, बाजार हमें और बीमा करवाने की चिंता
से ग्रस्त कर देगा। और इन सब बीमा के भुगतान के लिए वर्तमान खुशियों को ताक
पर रख कर, अपनों पर अविश्वास की जड़ पुख्ता कर, ज्यादा कमाने की चिंता में व्यवसाय की, वेतन की वृद्धि
की चिंता लगातार करते रहिये।
बाल
सफ़ेद होने की चिंता में उसे रंगिये,
चेहरे और बदन की झुर्रियां छिपाने की चिंता में क्रीम और लोशन लगाइये, फैशन के साथ चलने के लिए पोशाक रहते हुए भी नये कपड़े खरीदने की चिंता
बनाए रखिये। फोन, आइ पैड, लैपटॉप, टीवी को अप-टू-डेट की चिंता बराबर बनाए रखिये, भले
ही वे एकदम ठीक चल रहे हों और आपका सब कार्य हो रहा हो। इन सब को प्लास्टिक के
पैसे से खरीदते जाइए और मासिक ईएमआइ (EMI) के भुगतान की
चिंता बरकरार रखिये। कहीं बीमार न पड़ जाएँ इस चिंता में जिम,
पूरे शरीर का परीक्षण (होल बॉडी टेस्ट) और MRI कराते रहिये।
पहले वर्ष में एक बार। अगर एक बार करा रहे हैं, तब एक नहीं
दो बार, और खुदा ना खस्ता दो बार करवा रहे हैं तब साल में
.........बस बढ़ाते रहिये। विटामिन की गोलियां, ताकत की
गोलियां, जड़ी-बूटियों का लगातार सेवन करते रहें, बिना यह जाने कि आपको इनकी आवश्यकता है भी या नहीं,
और है भी तो कब और कितनी? इसकी न सोच कर बस लेने की चिंता
बनाए रखिए। आपको आयोडीन नहीं चाहिए तो भी आयोडिन युक्त नमक खाइये। बिना सोचे समझे
घी और चीनी बंद रखने की चिंता रखिये, भले ही आपके शरीर को
इनकी आवश्यकता हो। वैसे ही प्रोटीन, फाइबर आदि लेने की चिंता
रखिये भले ही वे हमारे शरीर में जरूरत से ज्यादा हों। हम दाल-रोटी, दाल-भात खाते थे और मस्त रहते थे। हमारी तरक्की रुक गई। चिंता में हमने ये बंद किए हमारी तरक्की शुरू
हो गई।
पड़ोसी
/ पड़ोसन ने कौनसी नई गाड़ी खरीदी, किसके यहाँ कितने
इंच का नया टीवी आया, कितने डोर (दरवाजे) का नया रेफ्रीजरेटर
आया, विदेश में कहाँ घूम कर आया इस पर बराबर नजर बनाए रखिये
और इसकी बराबरी करने की चिंता करते रहिये। अगर धार्मिक हैं तो द्वादश ज्योतिर्लिंग
कितनी बार हो आये, मानसरोवर की यात्रा में किसने कितने खर्च
किए, कितनी बार भागवत कथा करवाई-कहाँ और किससे, शत-चंडी पाठ, रुद्राभिषेक का भी लेखा-जोखा रखिये, नहीं तो तरक्की रुक जायेगी।
पहले
माँ-बाप को यहा पता ही नहीं होता था कि उनका बच्चा कौनसी कक्षा में पढ़ता है? कोई चिंता नहीं होती थी। कोई तरक्की नहीं हुई। अब देखिये बच्चा आने के
पहले से जो चिंता शुरू होती है वह तब तक बरकरार रहती है जब तक रिले र्रेस की तरह
दूसरी चिंता हमारा हाथ नहीं पकड़ लेती। हम खुद ही चिंतित नहीं रहते बल्कि इस बात की
भी चिंता बनाए रखते हैं कि उस बच्चे को भी
हर समय चिंता बनी रहे। और हम इसके सब साधन जुटाये रखते हैं। पहले बच्चों को 60
प्रतिशत अंक में प्रथम श्रेणी और 75 प्रतिशत अंक में विशिष्ट श्रेणी मिलती थी। हम
खुश हो जाते थे, फलस्वरूप विशेष तरक्की नहीं हुई। अब 90
प्रतिशत भी मिले तो भी अच्छे विध्यालय / उच्च विद्यालय / विश्व विद्यालय में
प्रवेश की चिंता बनी रहती है। इसी कारण तरक्की हुई और 99 से 100 प्रतिशत अंक भी
मिलने लगे।
चिंता!
चिंता!! और चिंता!!! यही मूल मंत्र है। यही तरक्की का असली रास्ता है। बाजार इस बात
का पूरा ध्यान रख रहा है कि हमारी चिंता
बनी रहे, बढ़ती रहे, फलती-फूलती रहे। चिंता
मिटी और चिता मिली, चिंता मिटी-तरक्की रुकी।
वर्तमान
हमारी मुट्ठी में है,
भविष्य मात्र एक कल्पना है। क्योंकि भविष्य वर्तमान बन कर ही फलीभूत होता है। अगर हम वर्तमान को खुशहाल बना पाये तब भविष्य स्वत: ही खुशहाल हो
जाएगा। लेकिन हम भविष्य को खुशहाल बनाने की चिंता में वर्तमान को दुख:हाल बनाते रहते
हैं। फलस्वरूप वर्तमान दुख:हाल रहा,
भविष्य कभी मुट्ठी में आया ही नहीं। क्या करना है, यह हमें
ही सोचना है?
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