सूतांजली
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वर्ष : ०४ * अंक : ०१ 👂🔉 अगस्त * २०२०
धन्यवाद
इस अंक के साथ साथ हम चौथे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। यह आपके
उत्साहवर्द्धक दिप्पणियों एवं सुझावों के कारण ही हो सका है। कोरोना हमारे लिए नए क्षितिज
लेकर उपस्थित हुआ। इस महामारी के कारण सूतांजली की छपाई का कार्य रुक गया और इसे मेल, फ़ेस बूक, व्हाट्सएप्प और
ब्लॉग की सहायता से लोगों तक पहुंचाना प्रारम्भ किया गया। फलस्वरूप हमारे पाठकों
की संख्या और पत्राचार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
इतना ही नहीं हमने ज़ूम पर ‘सूतांजली के आँगन में’ भी प्रारम्भ किया। इसकी पहली सभा शनिवार १८ जुलाई को प्रयोग के रूप में प्रारम्भ हुई। आपकी उपस्थिती और सहयोग के लिए हम आपके आभारी हैं। अगस्त माह में इसकी दो बैठकें निर्धारित हैं, रविवार 2 एवं 16 अगस्त को। यथा समय इसकी सूचना व्हाट्सएप्प पर दी जायेगी। अगर आपको सूचना नहीं मिल रही है तो कृपया अपना नाम एवं फोन नम्बर हमें भेजें, sootanjali@gmail.com पर।
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अनुशासित विरोध
(८ अगस्त १९४२ मुंबई, गवालिया टैंक मैदान – आज का अगस्त क्रांति मैदान – युद्ध की घोषणा का स्थल बना था, और महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी को संबोधित किया था। ‘गांधी मार्ग’ से उसी सम्बोधन का प्रारम्भिक अनुच्छेद।)
“आपने अभी जो प्रस्ताव पास किया है उसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। मैं उस तीन साथियों को भी बधाई देता हूँ जिन्होंने यह जानते हुए भी कि प्रस्ताव के पक्ष में भारी बहुमत है, अपने संशोधनों पर मत-विभाजन करने का साहस दिखाया। मैं उन १३ सदस्यों को भी बधाई देता हूँ जिन्होंने प्रस्ताव के विरुद्ध वोट दिया। उन्होने ऐसी कोई बात नहीं की जिसके लिए उन्हे शर्मिंदा होने की जरूरत है। पिछले बीस वर्षों से हम यही सीखते आए हैं कि हमारे समर्थकों की संख्या बहुत कम हो और लोग हमारी हंसी उड़ाएँ, तब भी हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। हमने अपने विश्वासों पर दृढ़ रहना सीखा है .......यह मानते हुए कि हमारे विश्वास ठीक हैं। ऐसा करने से आदमी का चरित्र और नैतिक स्तर ऊंचा होता है।”
हमारे वर्तमान माहौल में इस अनुच्छेद से सीखने और समझने के लिए कई बातें मिलती हैं –
१।
विरोध करने वालों को बधाई – हमारे मत अलग अलग हो सकते हैं लेकिन हम एक साथ
हैं। समर्थन करने वालों के पहले, हमें, हमारा (सकारात्मक) विरोध करने वालों का आभारी होना सीखना होगा ताकि हम
सही रास्ते पर चलते रहें, हमें अपनी कमियों का भी पता चलता
रहे, और हम सचेत रहें।
२।
विरोध में शर्मिंदगी नहीं – विरोध करना शर्मिंदगी का काम नहीं है। विरोध
करने का तरीका और ध्येय शर्मिंदगी का कारण हो सकता है। अनुशासन के दायरे में, स्वार्थहीन विरोध ही, सृजनात्मक विरोध है। ऐसा
विरोध करने में गर्व का अनुभव होना चाहिए।
३।
विरोध करने का साहस और हिम्मत – हम में विरोध करने का साहस और हिम्मत होनी
चाहिए। सही और उचित विरोध होने पर ही हम सर्वांगीण दृष्टिकोण अपना सकते हैं। अगर
सत्य और अहिंसा को पकड़ कर रखें तो साहस का संचार खुद-ब-खुद हो जाता है, विरोध सृजनात्मक हो जाता है।
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सोचो और समझो
श्री
जय प्रकाश नारायण:
“....हमें
याद रखना चाहिए, और कभी भूलना नहीं चाहिए कि लोकतांत्रिक समाजवादी
समाज की रचना के लिए रचनात्मक सेवा की
कहीं ज्यादा जरूरत है, बनिस्पत संसदीय विरोध के दावपेंचों के; समाज को सकारात्मक सेवा की ज्यादा जरूरत है बनिस्पत दूसरों की गलतियों व
चूकों का फायदा उठाने की चातुरी के”।
बी आर अंबेडकर:
“अब
जब हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई है,
हमारी अपनी चुनी हुई सरकार है, न्यायालय हैं, संविधान है हमें हड़ताल, सत्याग्रह और घेराव जैसे
हथियारों का प्रयोग छोड़ कर संविधानिक तरीके से न्यायालयों से न्याय प्राप्त करना
चाहिए”। -
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सामान्य सेवक और निष्ठावान भक्त
(विनोबा से बातचीत का अलग ही आनंद था, क्योंकि वे, सवाल के बोझ और
जवाब के आतंक से मुक्त, आनंद में पगे होते थे। एक छोटी से
बानगी ‘गांधी मार्ग’ से।)
प्रश्न
: लक्ष्मी अपने माँ-बाप के अंतिम समय में भी नहीं आई। उस वक्त उनके पास रहना
लक्ष्मी का कर्तव्य नहीं था?
विनोबा
का उत्तर : अंतिम समय में आप तो वहाँ थे न! अगर उनके अंतिम समय में सेवा के लिये
कोई नहीं होता तो लक्ष्मी का जाना कर्तव्य होता। यह हुई, बात नम्बर एक। नम्बर दो, सामान्य सेवक और निष्ठावान
भक्त में अंतर है। सामान्य सेवक के लिये माता-पिता की सेवा के लिये, अगर वहाँ सेवा करने वाला कोई न हो, जाना आवश्यक है।
निष्ठावान भक्त के लिये यह जरूरी नहीं। इसका उदाहरण हैं मीराबाई :
मातु छोडी, पिता छोड्या, छोड्या सगासोई
अंसुवन जल सींचि
सींचि प्रेमबलि बोई
मेरे तो
गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
निष्ठावान
की भूमिका अलग है। मैं फिर से दोहराता हूँ। सेवा के लिये वहाँ दूसरा व्यक्ति न हो
तो जाना जरूरी है। सेवा के लिये कोई है तो केवल दर्शन के लिये जाना जरूरी नहीं।
निष्ठावान भक्त और सामान्य सेवक की ये दो अलग-अलग भूमिकाएँ हैं।
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परतन्त्रता का मूल है - भय
‘अग्निशिखा’ में मैंने पढ़ा कि श्रीमाँ अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए एक दिन
बताती हैं:
मैंने अपनी आंखें खोलीं और क्या देखती हूँ मैं? एक विशाल, क्रुद्ध सर्प मेरे सामने फुफकार रहा था। वह आधा कुंडली मारे बैठा था। उसे मेरा वहाँ बैठना बिलकुल नहीं गंवारा। मुझे पता नहीं था कि उसकी बाँबी वहीं थी। फिर मैंने यह किया कि यह दिखलाते हुए कि मैं जरा भी भयभीत नहीं हूँ, सीधा उसकी आँखों में आँखें डाल कर
उसे घूरने लगी, तुम जानते ही हो कि
भय के प्रकम्पनों को जानवर एकदम से पकड़ लेते हैं और तुरन्त प्रतिक्रिया करते हैं। मैं
उसे घूरती रही। सचमुच मेरे अन्दर कोई डर नहीं था, लेकिन वह
साँप इतना क्रुद्ध था कि वह मुझ पर हमला बोलना चाहता था। मैं पैर लम्बे करके बैठी
थी, ज़रा भी घबराये बिना, मैंने अपने
पैर एक के बाद एक समेट लिए। सारे समय मैं
उसे टकटकी बांधे देखती रही। सम्मोहक दृष्टि से उसे एकटक देखते हुए मैं उठी और
मैंने जान-बूझकर एक कदम उसकी ओर बढ़ाया, फिर दूसरा, सारे समय मैं उसे देखती रही; फिर अपनी शक्ति को
एकाग्र कर मैंने उससे कहा, “यहाँ से चले जाओ!” मैं उसे घूरे
जा रही थी और मैंने अपनी दृष्टि से उससे कहा, “चले जाओ, यहाँ से चले जाओ!” और जब वह और प्रतिरोध न कर सका तो उसने अपना फण एकदम
से नीचे गिरा दिया! और वह भागा! वह इस तरह एकदम तेज़ी से निकल
भागा। ....... शर्त है कि कभी डरना मत। जहां कहीं डर हो मैं काम नहीं कर सकती। तब
काम करना बहुत कठिन हो जाता है। ..... उस क्षण, साँप के
सामने, अगर मैं डर
गयी होती तो निश्चित है कि साँप मुझे डस लेता। लेकिन मैं डटी रही और मैंने भय को
अपने पास फटकने नहीं दिया, वह फौरन चला गया।
अक्तूबर 2018 की सूतांजली में मैंने एक दन्त कथा की चर्चा की है; कैसे एक जनप्रिय नेक दिल राजा अचानक राक्षस प्रवृत्ति का बन जाता है और अपनी ही जनता का खून पीने लगता है। इस राक्षसी राजा से छुटकारा पाने का तरीका बहुत ही सहज था। बस, उसके मुंह पर, बिना भय के, इतना ही कहना था ‘तुम मेरा खून नहीं पी सकते’। लेकिन राजा को देखते ही लोगों की डर के मारे घिघ्घि बंध जाती, जबान तालू से चिपक जाती और उनके मुंह से कोई बोल ही नहीं फूटते थे। एक दिन अचानक एक नौजवान भय त्याग, साहस से बोल पड़ा ‘तुम मेरा खून नहीं पी सकते’ और बस जनता को राजा से छुटकारा मिल गया। लोग आजकल पूछते हैं ‘ कौन गांधी? क्या किया उंसने?’ उसने यही किया था। भगत सिंह ने अपनी माँ से पूछा था कि हमलोग अंग्रेजों को देश से क्यों नहीं निकाल देते हैं। माँ ने कहा – वे लाखों हैं। भगत ने पूछा – लेकिन हम तो करोड़ हैं? इन ‘करोड़’ में भय था जान का, मान का और माल का। गांधी ने उन करोड़ों में से उनका यह डर निकाल दिया और वे जान, माल और मान को खोने के डर को छोड़ गांधी के पीछे चल पड़े और लाखों को खदेड़ दिया।
आज हम भयभीत हैं। हमें डरा रखा है बाजार ने, वैश्विक बाजार ने। क्योंकि उसे डर है कि अगर हम भयमुक्त हो जाएँ तो उनकी तरक्की रुक जाएगी, उनका माल बिकना बंद हो जाएगा। हमारा भय ही उनकी तरक्की का कारण है, इसलिए वे हमें बराबर-लगातार डरा कर रखते है। अगर हमारे पास जो है उससे हमें संतोष हो जाए तब फिर हम क्यों मॉल जाएंगे? अगर हमें अपने चेहरे और चमड़ी की झुर्रियों से डर लगना बंद हो गया तो उनकी क्रीम और लोशन कौन खरीदेगा? अगर हम एक अनुशासित जीवन यापन करें तो हमें इस बात का भय नहीं रहेगा कि हम बीमार पड़ सकते हैं, तब उनकी मेडिकल पॉलिसी कौन खरीदेगा? हम अपने बच्चे पर अविश्वास कर ही बुढ़ापे के लिए नित नए निवेश कर अपना वर्तमान तो खराब करते ही हैं, पिता-पुत्र के स्वाभाविक स्नेह की भी बलि चढ़ा देते हैं। अगर हमें नागरिकता, गरीबी, भ्रष्टाचार, टैक्स की दर, मंहगाई, असहिष्णुता, धार्मिक मदांधता का भय नहीं दिखाया जाए तो हम क्यों उनके इशारों पर नाचेंगे? हमारे हाथ में प्लास्टिक के रुपये पकड़ा कर हमें टीवी, रेफ्रिजरेटर, गाड़ी और मकान खरीदवाकर कर्ज तले दबा कर उसके ई एम आई के भुगतान का भय नहीं दिखाएंगे तो हम कैसे उनकी मुट्ठी में आएंगे? हम महीने के अंत का इंतजार कमाई का आनंद भोगने नहीं, एक और ई एम आई के सफलतापूर्वक भुगतान का भय कम करने में करते हैं। इस भयपूर्ण माहौल में हम जाने अनजाने आर्थिक गुलाम बन गए हैं। अपने बच्चों पर विश्वास करना छोड़ दिया है, परिचितों से अनबन हो गई है, पारिवारिक माहौल बिगड़ गया है। मानवता लुप्त होती जा रही है। जब तक भयभीत रहेंगे गुलाम ही बने रहेंगे। हमें अपने आप को इससे मुक्त करना होगा ताकि उन्मुक्त हो कर जी सकें, मुस्कुरा सकें। यह हमारे अपने ही हाथ में है। बाजार की न सुन, अपनी सुनें। उतना ही पैर पसारें जितनी चादर है। क्या करना है – डर कर भागना या डर का मुक़ाबला कर उसे भगाना? जहां भय गया, गुलामी गई आजादी आई। क्या लेना है – गुलामी या आजादी - मर्जी आपकी है।
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