मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

सूतांजली दिसंबर २०२०

सूतांजली

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वर्ष : ०४ * अंक : ०५                   👂🔊 (00.00-24.24)                       दिसंबर * २०२०

आप जो कर रहें हैं वही सोच रहे हैं या जो सोच रहे हैं वही कर रहे हैं?

कौन हैं आप?

वह, जो कर रहा है या वह, जो सोच रहा है?

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मैं कौन हूँ?

(00.00-06.03)

मैं कौन हूँ? यह एक शाश्वत प्रश्न है। अनादि काल से यह प्रश्न ऋषियों, मुनियों, संतों, चिंतकों, दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों को मथता रहा है, भारत में ही नहीं पूरे विश्व में। अलग-अलग देश-काल में अलग-अलग लोगों ने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर अपने अपने ढंग से इसका उत्तर दिया भी है। लेकिन  इनमें एक्य तो है ही नहीं विरोधाभास भी है। और यह प्रश्न आज भी जस-का-तस-खड़ा है।

 इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई भी इसका उत्तर ढूंढ नहीं पाया। अनेकों ने अपने अपने ढंग से इसे व्याख्यायित किया है। किसी एक की सुनें तो वही सटीक लगता है; लेकिन दो विरोधाभासी व्याख्या सुनें तो असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है। लेकिन दोनों ही अपनी अपनी जगह पर सही हैं; जब तक एक सर्वमान्य व्याख्या ढूंढ न ली जाये। आज हम इसी विषय पर कुछ विरोधी व्याख्याओं की चर्चा करेंगे।   

 मैं ईश्वर हूँ 

एक व्यक्ति को ईश्वर से मिलने की तीव्र इच्छा थी। वह ईश्वर को ढूँढता रहता था। ऋषियों, मुनियों, साधुओं के चक्कर लगाता रहता था, कोई उसे ईश्वर से मिला दे! अचानक उसे पता चला, एक पहाड़ी की कन्दरा में एक मुनि रहते हैं वे उसकी मुलाक़ात ईश्वर से करा सकते हैं। वह व्यक्ति भागा भागा उनके पास पहुंचा। हाथ जोड़ कर प्रणाम कर चुपचाप उनके नजदीक बैठ गया। मुनि के पूछने पर उसने बताया मैंने सुना है आप ईश्वर से साक्षात मुलाक़ात करा सकते हैं। मैं ईश्वर से मिलने के लिए भटक रहा हूँ। क्या आप मेरी मुलाक़ात ईश्वर से करा सकते हैं’?” मुनि सहर्ष तैयार हो गए, “यह कौन सी बड़ी बात है, बोलो तुम कब मिलना चाहते हो”? व्यक्ति बहुत खुश हुआ और कहा कि जब मुनि चाहें, वह प्रस्तुत है। मुनि ने उसे निश्चित दिन, समय और स्थान पर आने के लिए कहा। तय समय पर वह व्यक्ति स्नान कर, शुभ्र वस्त्र धारण कर, प्रसन्न हृदय बताए हुए स्थान पर पहुँच गया। उसने देखा मुनि पहले से ही वहाँ विराजमान हैं। श्रद्धा पूर्वक मुनि को प्रणाम कर, हाथ जोड़ वह शांति पूर्वक बैठ गया। मुनि ने उसे आशीर्वाद दिया। और बोले, “इसके पहले की ईश्वर तुम से मिलें  मुझे उन्हें तुम्हारा परिचय देना होगा। अत: बताओ तुम कौन हो”? व्यक्ति ने अपना नाम बताया। मुनि ने कहा, नहीं यह तो तुम्हारा नाम है। ईश्वर को तुम्हारे नाम से कोई मतलब नहीं, तुम कौन हो, यह बताओ। व्यक्ति ने बताया कि वह एक बड़ी संस्था का संचालक है। मुनि ने फिर कहा यह तो तुम्हारा ओहदा है, तुम कौन हो’?

मैं सरल हृदय हूँ, आस्तिक हूँ, ईश्वर का आराधक हूँ, व्यापारी हूँ,  .......”

“ये तो तुम्हारे कार्य हैं। तुम कौन हो?”

व्यक्ति पसीने से तर बतर हो गया। उसने एक एक कर बताया कि वह पुरुष है, इंसान है, जीव है, आदि आदि। लेकिन मुनि इस सब उत्तरों को खारिज कर उसी प्र्शन पर अटके रहे तुम कौन हो’? व्यक्ति को मौन देख मुनि ने कहा कोई बात नहीं, अभी वापस जाओ, समझो कि तुम कौन हो। जब समझ जाओ तब फिर से आ जाना।

 व्यक्ति लौट आया। बहुतों से मिला, पढ़ा, सुना और फिर से मुनि के पास पहुंचा। लेकिन मुनि ने फिर से सब उत्तरों को खारिज कर वहीं पर डटे रहे, “तुम कौन हो?” निराश, व्यक्ति लौट आया। चिंतन करता रहा। एक दिन अचानक मुनि की एक प्रवचन में उस व्यक्ति से मुलाक़ात हो गई। मुनि ने पूछा, “तुम फिर आए नहीं? ईश्वर से मिलने की इच्छा नहीं रही?’ व्यक्ति ने आदरपूर्वक मुनि को प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर बोला, “नहीं मुनिवर ऐसी बात नहीं है। मैं पहचान गया कि मैं कौन हूँ। और जब मैं अपने को जान गया तब ईश्वर से मुलाक़ात हो गई”।

मैं परमेश्वर हूँ – श्री अरविंद   (06.03-07.14)

प्रत्येक मनुष्य की सनातन और विराट आत्मा स्वयं परमेश्वर है; उसकी व्यक्तिगत आत्मा भी परमेश्वर का ही अंश है,  ममैवांश:, जो निश्चय ही  परमेश्वर से कट कर अलग हुआ टुकड़ा नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के संबंध में ऐसी कोई कल्पना नहीं की जा सकती कि वे छोटे छोटे टुकड़ों में बंटे हुए हों, बल्कि वे परम चेतना की आंशिक चेतना हैं, परम शक्ति का शक्त्यांश हैं, सत्ता के आनंद के द्वारा जगत-सत्ता का आंशिक आनंद –उपभोग हैं, और इसलिए व्यक्त रूप में या जैसा कि हम कहते हैं, प्रकृति में यह सत्ता उसी परम अनंत तथा असीमित सत्ता का ही एक सान्त तथा सीमित भाव है।

-       गीता प्रबंध

मेरे विचार ही मैं हूँ – डॉ.वेन डायर  (07.14-10.39)

(डॉ.वेन डायर एक अमेरिकन स्वयं-सहायता (सेल्फ हेल्प), आध्यात्मिक और प्रेरक लेखक हैं)

मैं कौन हूँ” इसका उत्तर तो मिला, लेकिन इसे कैसे समझें, कैसे मानें? यह बहुत सरल भी है और अत्यंत कठिन भी।

मैं कौन हूँ? क्या मैं यह शरीर हूँ? बाहर से दिखने वाली त्वचा, बाल, कान, आँख आदि का हाड़-मांस से बनी यह देह। नहीं केवल इतना नहीं। यह तो केवल बाहरी खोल है। इसके अंदर भरा है मांस, नसें, रक्त, हड्डी, फेफड़ा, हृदय, किडनी, लीवर और भी बहुत कुछ। तो क्या, यह स्थूल रूप में जो कुछ दिखता है वही मैं हूँ। अगर हाँ, तब यह सब तो आप भी है। हाँ, बाहर की चमड़ी का रंग थोड़ा अलग हो सकता है, आकार-प्रकार अलग है लेकिन मूलत: ये सब एक ही है। तो क्या मैं और आप एक ही हैं? आप ही क्यों पृथ्वी के सब मानव भी ऐसे ही है। क्या सब मानव एक ही हैं? मानव ही क्यों, पशु, पक्षी, जानवर भी तो कमोबेश इन्ही के बने हुए हैं। तो क्या हम सब और ये सब एक ही हैं? कतई नहीं। तब फिर क्या अलग अलग है? कैसे? सही बात बात तो यह है कि 99% हम वह नहीं हैं जो हमें स्थूल रूप से दिखता  है। बल्कि वह है जिसे हम देख नहीं पाते, सूंघ नहीं पाते, छू नहीं पाते। हम मुख्यरूप से उसके बने हैं जो इन सब से अलग है, स्थूल नहीं है, हर मानव को मानव से अलग करता है, पशु और मानव को अलग करता है। वह है हमारा दिमाग, हमारी भावनाएँ, हमारे विचार, हमारा ज्ञान, हमारी चेतना। तब, अब मैं  दो भागों में बाँट गया - एक मेरा यह स्थूल भाग और दूसरा मेरा अदृश्य भाग। अब अगर मैं थोड़ा प्रयत्न करूँ, अभ्यास करूँ  तो इन दोनों को अलग अलग देख सकूँगा, अनुभव कर सकूँगा। पता चलेगा मेरे शरीर कुछ और कर रहा है लेकिन असली मैं कुछ और। हमें अनुभव होने लगेगा हमारा शरीर कई गलत काम कर रहा है लेकिन मैं नहीं। अगर अभ्यास करते रहें तो जल्दी ही वह समय भी आ जाएग जब हमारा शरीर भी वही करने लगेगा जो मैं करना चाहता हूँ। और तब परम शांति, सुख और आनंद का अनुभव होगा। उसकी अनुभूति बताई नहीं जा सकती केवल महसूस की जा सकती  है। यह पथ अपने आप हमें अपने असली मैं तक पहुंचा देगा। हम अपने को पहचान लेंगे कि “मैं” मैं नहीं मेरे विचार हैं।   

क्या मेरे विचार ही मैं हूँ?  जे.कृष्णमूर्ति   (10.39-13.29)

विचार से आपका क्या तात्पर्य है? आप विचार कब करते हैं? स्पष्टत: विचार किसी प्रतिक्रिया का परिणाम होता है, चाहे वह तंत्रिकीय प्रतिक्रिया हो या मनोवैज्ञानिक – है वह संगृहीत स्मृति की प्रतिक्रिया ही। किसी अनुभूति के प्रति तंत्रिकाओं में तत्काल प्रतिक्रिया होती है और संचित स्मृति मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया करती है जो जाति, वर्ग, गुरु, परिवार, परंपरा आदि-आदि से प्रभावित रहती है – और आप इस सब को विचार कह देते हैं। इस प्रकार विचार–प्रक्रिया स्मृति की प्रतिक्रिया है, है न? यदि आपकी कोई स्मृति नहीं है तो विचर भी नहीं होंगे। किसी परिस्थिति के प्रति स्मृति की प्रतिक्रिया ही विचार-प्रक्रिया को गति प्रदान करती है।

यह बात बिलकुल साफ है कि सारी विचारणा अतीत के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया ही है – अतीत अर्थात स्मृति, ज्ञान, अनुभव। सारी विचारणा अतीत का परिणाम होती है। अतीत अर्थात काल, बीता हुआ काल। बीता हुआ काल जो अतीत में अनंत छोर तक विस्तार पा गया है – उसी को काल मान लिया गया है, काल अतीत के रूप में, काल वर्तमान के रूप में, काल भविष्य के रूप में, काल को इस तीन खंडो में विभाजित कर दिया गया है लेकिन काल तो नदी की तरह है – प्रवाहमान। इसे इन खंडों में हमने बांटा है और विचार इन खंडों में अटकता-भटकता रहता है। अत: हमको यह स्पष्टत: समझ लेना चाहिए कि हमारे विचार स्मृति का प्रत्युत्तर होते हैं और स्मृति यंत्रवत होती है। ज्ञान सदैव अपूर्ण रहता है और इसलिए इससे उपजी सारी अवधारणा सीमित व आंशिक रहती है, कभी स्वतंत्र नहीं होती। अत: विचार की कोई स्वतन्त्रता नहीं होती। परंतु हम ऐसी स्वतन्त्रता का अन्वेषण आरंभ कर सकते हैं जो विचारों की प्रक्रिया न हो और जिसमें मन अपने समस्त द्वन्द्वों और अतिक्रमण कर रहे समस्त प्रभावों के प्रति केवल सजग रहे।

श्री अरविंद, श्री जे.कृष्णमूर्ति, श्री सद्गुरु, डॉ वेन डायर

मैं जीवन हूँ – सद्गुरु    (13.29-24.24)

यह एक सच्चाई है कि हमारे पास सबसे विकसित स्नायु-प्रणाली (न्यूरोलॉजिकल सिस्टम) है, किसी कीड़े मकोड़े या जानवर किसी की भी तुलना में। पर हमारी एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया चाहे कुछ भी हो, आपके विचार और भवनाएं सिर्फ इसलिए घटित  हो रही हैं क्योंकि आपने एक खास मात्रा में जानकारी इकट्ठी की हैं। अगर आप सोचते हैं कि वह एक अच्छा इंसान है तो एक तरह का विचार, अगर सोचते हैं कि वह एक अच्छा इंसान नहीं है तो दूसरे तरह का विचार। ये सब जानकारी जो आपने इकट्ठा की हैं वो चाहे सही हो या गलत इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपने जिस तरह की जानकारियाँ इकट्ठा की हैं वे आपकी भावनाओं और विचारों का ढंग निर्धारित करती हैं। आप इन्सानों को समझा दें कि उनकी यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया उनका अपना नाटक है, इसका सच्चाई से कोई लेना देना नहीं है।

यहाँ सौ लोग बैठे हो सकते हैं और हर कोई अपनी एक अलग मनोवैज्ञानिक स्थिति में हो सकता है। और वे सब अपनी अलग अलग दुनिया में हैं। वे इस दुनिया में नहीं हैं। लोग प्राय: मेरे पास आकर कहते हैं कि सद्गुरु मैं ध्यान करना चाहता हूँ लेकिन मेरे मन में विचार आते हैं। मैं पूछता हूँ, “देखिये मैं आपको एक दूसरे तरह का ध्यान सिखा दूँगा जिससे आपका गुर्दा, कलेजा, दिल काम करना बंद कर देगा। क्या आप सीखना चाहेंगे?”

“नहीं, नहीं, नहीं”।

“तो आप सिर्फ अपने दिमाग का ही काम बंद करना चाहते हैं, क्यों? जब आप बैठ कर ध्यान करते हैं तब आपका दिल, गुर्दा, कलेजा सब काम करते हैं, आपको कोई दिक्कत नहीं है। सिर्फ दिमाग के काम करने पर आपको दिक्कत है?

ऐसा क्यों है? क्योंकि आपकी पहचान आपके किडनी के काम करने से जुड़ी हुई नहीं है लेकिन अपनी विचार प्रक्रिया और भावनाओं से आपकी पहचान बुरी तरह जुड़ी हुई है। आप उससे इतने ज्यादा जुड़े हुए हैं कि आपको लगता है आप खुद वही हैं। और इस वजह से जीवन का अनुभव इसके पीछे छुप गया है। बताइये पिछले चौबीस घंटों में ऐसे कितने पल थे जब आपने विचारों से परे जाकर, बिना किसी पूर्वाग्रह के, किसी चीज को देखा? क्या आप सिर्फ आकाश की तरह मौजूद हो सकते हैं? सिर्फ जीवन। क्या आप जीवन हैं? हाँ। आप ठीक से विचार कीजिये, क्या आप वाकई जीवन हैं? हाँ। आप जीवन हैं। मैं एक जीवन हूँ इसलिए मेरा एक शरीर है। मेरे पास विचार हैं, भावनाएं हैं, घर है, मेरा ..... और न जाने क्या क्या है। ये सब साजो सामान है। आप साजो समान का अनुभव कर रहे हैं, क्या आप रोज जीवन का अनुभव कर रहे हैं?

आप अपने मनोवैज्ञानिक नाटक को जीवन समझने की गलती कर रहे है। आपका मनोवैज्ञानिक नाटक आपका नाटक है। शायद उसका निर्देशन बुरा है। जब इसका निर्देशन बुरा होता है तब कष्ट होता है, लेकिन जब निर्देशन अच्छा होता है तब आनंद लेते हैं। तब आपका मनोवैज्ञानिक नाटक आपका अपना है। आप इसे चलने दें। इसमें कुछ गलत नहीं है। यह ऐसा है जैसे हम एक खेल खेलना शुरू करते हैं। आपको टेनिस खेलना पसंद है, आनंद आता है। मान लीजिये आपने टेनिस खेलना शुरू किया और आप रुक नहीं पा रहे हैं ....... 24 घंटे, तो आप टेनिस से कैसा दुख पाएंगे? अभी बस यही हो रहा है। आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया बेलगाम हो गई है। वो बस चलती ही जा रही है...... बिन रुके। तो इसका आसान हल ये है कि आप इसे रोकने की कोशिश न करें। आपको  दिमाग के काम करने से परेशानी है, क्योंकि उससे आपकी पहचान है। आपने गलती से समझ लिया है कि आपके विचार आप हैं। आप जो भी सोचते हैं, आप समझते हैं कि वो आप हैं। मगर आपके विचार एक खास सूचना से पैदा हो रहे हैं जो आपने बाहर से इकट्ठा किए हैं। अगर मैं आपकी सारी याददाश्त मिटा दूँ तो...... क्या आप विचार पैदा कर पाएंगे? नहीं। यह केवल आपके द्वारा इकट्ठा की गई जानकारी से ही आ रहा है।  आपने जो जानकारियाँ इकट्ठा की हैं वो सब अपनी मर्जी से इकट्ठा नहीं की हैं। जब आप सड़क पर चलते हैं तब वह हर चीज जो आप देखते, सुनते, सूंघते, चखते, पढ़ते और छूते हैं वो आपके मन में दर्ज हो जाती हैं। आप इससे बच नहीं सकते। आपके अंदर जानकारी के रूप में जो जाता है वो पूरा आपके हाथ में नहीं है, 90 फीसदी आपके हाथ में नहीं है। इसमें कुछ भी अच्छा, बुरा, बदसूरत, सुंदर नहीं है। ये बस जानकारी हैं। आप इसे अपनी तरह से पहचान कर कहते हैं कि अरे ये अच्छा है, और वो अच्छा बन जाता है। आप कहते हैं ये बुरा है और वो बुरा बन जाता है। यह दरअसल आपका किया धरा है। मगर जानकारी बस बरस रही है सिर्फ दर्ज हो रही है। आप जो भी इकट्ठा कर रहे हैं वो आपका हो सकता है, पर वो आप नहीं हो सकते। 

मैं इसे अपनी कुर्सी कह सकता हूँ। लेकिन अगर मैं यह कहूँ कि यह मैं हूँ तो आप सोचेंगे कि मैं पागल हो गया हूँ। फिलहाल हम सब के साथ यही हुआ है। इसे थोड़ा आसान तरीके से समझाता हूँ। हमारा शरीर, ये शरीर, क्या आप ऐसे ही पैदा हुए थे? नहीं आप छोटे से आए थे लेकिन आप अब इतने बड़े हो गए हैं। ये कैसे हुआ? बस उस भोजन से जो आपने खाया। यह धरती पर जिस पर आप चल रहे हैं वो भोजन बन गई है और अब ऐसी है। मेरे और आप जैसे अनगिनत लोग इस धरती पर आ चुके हैं। अब वो लोग कहाँ हैं? वे सब अब मिट्टी की परत हैं। तो यह सिर्फ मिट्टी है जो भोजन में बदल गई है। इस भोजन को खा कर हमने यह शरीर बना लिया। यह सच है कि यह शरीर भी समय के साथ इकट्ठा किया गया है। जो आप इकट्ठा करते हैं वो आपका हो सकता है पर क्या वो आप हो सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा आप अपने द्वारा इकट्ठा की  गई चीज को अपनी कहने का दावा कर सकते हैं लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि यह “मैं” हूँ। आप जो भी इकट्ठा करते हैं वो कभी आप खुद नहीं हो सकते।  अगर आपने जानकारी के रूप में जो भी इकट्ठा किया है उसे आप साफ साफ जान लें कि मैं यह नहीं हूँ, तब  जीवन को बस जीवन की तरह देखने लगेंगे। बिना किसी चीज से प्रभावित हुए। बिना किसी चीज से पहचान जोड़े। बिना किसी पूर्वाग्रह के। बस एक जीवन। क्या यह सच है कि आप मूलरूप से बस एक जीवन हैं? आपने एक शरीर एकत्रित किया तो हमने आपको आदमी कहा, फिर आपने अपने अंदर कुछ चीजें इकट्ठा की तो हमने आप को ये-वो और सब कुछ कहा। लेकिन मुख्य रूप से क्या आप सिर्फ एक जीवन हैं? और क्या यह सबसे महत्वपूर्ण है कि आप जीवित हैं। क्या आप अभी जीवित हैं? आपके ज़िंदगी में अभी सबसे महत्वपूर्ण यही है कि आप जीवित हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आप जो सोच रहे हैं वो आपके अपने जीवित होने से ज्यादा अहं हो गया है। मेरी छोटी सी भावना मेरी जीवित होने से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।

इस ब्रह्मांड में यह सौर मण्डल एक कण की तरह है। कल सुबह पूरा सौरमंडल गायब हो जाए तो कोई ध्यान नहीं देगा। उस कण में पृथ्वी, एक बहुत छोटा कण है। उस सूक्ष्म कण में हमारा शहर एक उससे भी अतिसूक्ष्म कण है। इसमें आप एक बड़े आदमी  हैं? यही एक गंभीर समस्या है। यही आपका एक मनोवैज्ञानिक नाटक है। हमारा मनोवैज्ञानिक नाटक सूरज का रास्ता रोकने वाले बादल की तरह है। हम जीवन का अनुभव नहीं करते, हम सिर्फ उन विचारों, भावनाओं, पूर्वाग्रहों और फालतू चीजों का अनुभव करते हैं  जिन्हें हम पैदा करते हैं। स्रष्टा की सृष्टि में रहने के बजाय हम अपनी बनाई हुई तुच्छ सृष्टि में रहते हैं, यह एक बड़ी बात है। मैंने कोई रचना नहीं की इसलिए मैं इस सृष्टि में हूँ, इस दुनिया में हूँ, जीवित हूँ। मैं जीवन हूँ।

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