सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

 सूतांजली

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वर्ष : ०४ * अंक : ०७                🔊(००.००-१७.१४)                                   फरवरी * २०२१

बिना पुण्य किये

पुण्य का फल सबों को चाहिये लेकिन

पाप करके भी

पाप का फल किसी को नहीं चाहिये।

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यक्ष प्रश्न (🕩00.00- 0७.२८)   

(महाभारत का यक्ष-युधिष्ठिर संवाद यक्ष प्रश्न के नाम से भी जाना जाता है। एक सरोवर की रक्षा कर रहे यक्ष के प्रश्नों के उत्तर देकर युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों को बचा लाता है। यह कठिन प्रश्नोत्तर हैं – प्रश्न भी और उत्तर भी। ये जीवन के मूलभूत प्रश्न हैं। इन प्रश्नोत्तरों को आमजन तक पहुँचने के लिए टीकाकारों ने इसे अलग अलग ढंग से बताया और समझाया है। ये वे प्रश्न हैं जिन्हें हमारे मन में भी उठने चाहिए और हमें इनका उत्तर ढूँढना चाहिए। हाँ, युधिष्ठिर ने इनके उत्तर दिये हैं जो सटीक हैं लेकिन इस पर स्वयं मनन करने की आवश्यकता है। चिन्मय मिशन ने उपनिषदों पर आधारित एक सीरियल उपनिषद गंगा का निर्माण कराया था। यह टीवी के विभिन्न चैनलों पर दिखाया गया था और इसकी डीवीडी भी उपलब्ध है। प्रस्तुत वार्ता इसी सीरियल से लिया गया है।)



 यक्ष अपना पहला प्रश्न करता है, “कौन हूँ मैं?

“तुम न ये शरीर हो, न इंद्रियाँ, न मन, न बुद्धि। तुम शुद्ध चेतना हो। वह चेतना जो सर्व साक्षी है,” युधिष्ठिर ने उत्तर दिया।

“जीवन का उद्देश्य क्या है?”, यक्ष ने अगला प्रश्न किया।

युधिष्ठिर, “जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है जो जन्म और मरण के बंधन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है”।

“जन्म का कारण क्या है?”

“अतृप्त वासनायें, कामनाएँ और कर्म फल यही जन्म का कारण हैं”।

“जन्म और मरण के बंधन से मुक्त कौन है?”

“जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया। वह जन्म और मरण के बंधन से मुक्त है”।

यक्ष ने अगला प्रश्न किया, “संसार में दु:ख क्यों है?”

“लालच, स्वार्थ, भय संसार के दु:ख के कारण हैं”, युधिष्ठिर ने बताया।

“तब फिर ईश्वर ने दु:ख की रचना क्यों की?”

“ईश्वर ने संसार की रचना की। और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दु:ख और सुख की रचना की”।  

“क्या ईश्वर है? कौन है वह? क्या रूप है उसका? वह स्त्री है या पुरुष है?” यक्ष ने पूछा।

युधिष्टिर ने कहा, “कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उसके अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो, इसलिए वो भी है। उसी महान कारण को अध्यात्म में ईश्वर कहा गया है। वह न स्त्री है न पुरुष। वह सत-चित-आनंद है। वह निराकार सभी रूपों में अपने को व्यक्त करता है”।

“वह निराकार स्वयं करता क्या है?”

“वह निराकार संसार की रचना, पालन और संहार करता है”।

“यदि ईश्वर ने संसार की रचना की तब ईश्वर की रचना किसने की”?

“वह अजन्मा, अमृत और अकारण है”।

यक्ष ने पूछा, “भाग्य क्या है?”

युधिष्ठिर ने कहा, “हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, परिणाम बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है। आज का प्रयत्न कल का भाग्य है”।

यक्ष के प्रश्न समाप्त नहीं हो रहे थे, “सुख और शांति का रहस्य क्या है?”

युधिष्ठिर भी शांत चित्त हर प्रश्न का उत्तर दिये जा रहा था, “सत्य, सदाचार, प्रेम और क्षमा सुख का कारण है। असत्य, अनाचार, घृणा और क्रोध का त्याग शांति का मार्ग है”।

“सत्य पर नियंत्रण कैसे संभव है?”

“इच्छाएं और कामनायें चित्त में उद्वेग उत्पन्न करती हैं। इच्छाओं पर विजय चित्त पर विजय है”।

अगला प्रश्न, “सच्चा प्रेम क्या है?”

और उसका उत्तर, “स्वयं को सभी में देखना, सच्चा प्रेम है। सब को सर्व व्याप्त देखना, सच्चा प्रेम है। स्वयं को सभी के साथ एक देखना, सच्चा प्रेम है”।

“तब फिर मनुष्य सभी से प्रेम क्यों नहीं करता?”

“जो सभी में स्वयं को नहीं देख सकता, वह सभी से प्रेम नहीं कर सकता”।

“तो आसक्ति क्या है?”

“प्रेम में मांग, अधिकार, अपेक्षा आसक्ति है”।

“बुद्धिमान कौन है?”

“जिसके पास विवेक है”।

“नशा क्या है?”

“आसक्ति”।

“चोर कौन है?”

“इंद्रियों के आकर्षण जो इंद्रियों को हर लेते हैं, चोर हैं”।

“जागते हुए भी सोया कौन है?”

“जो अपने आप को नहीं जानता, वह सोया है”।

“कमल के पत्ते पर पड़े जल की तरह अस्थाई क्या है?”

“यौवन, धन और जीवन”।

“नर्क क्या है?”

“इंद्रियों की दासता नर्क है”।

“मुक्ति क्या है?” लगता है यक्ष के प्रश्न समाप्त हो रहे हैं।

लेकिन युधिष्ठिर धैर्य पूर्वक उत्तर दिये जा रहा था, “अनासक्ति ही मुक्ति है”।

“दुर्भाग्य का कारण क्या है?”

“मद और अहंकार”।

“सौभाग्य का कारण क्या है?”

“सत्संग और सबके प्रति मैत्री भाव”।

“सारे दु:खों का नाश कौन कर सकता है?”

“जो सब छोड़ने को तैयार हो”।

“मृत्यु पर्यंत यातना कौन देता है”।

“गुप्त रूप से किया गया अपराध”।

“दिन रात किस बात का विचार करना चाहिये?”

“संसारी सुखों की क्षण भंगुरता का”।

“संसार को कौन जीतता है?”

“जिसमें सत्य और श्रद्धा है”।

“भय से मुक्ति कैसे सम्भव है?”

“वैराग्य से”।

“मुक्त कौन है?”

“जो अज्ञान से परे है”।

“अज्ञान क्या है?”

“आत्म ज्ञान का अभाव ही अज्ञान है?”

“दु:खों से मुक्त कौन है?”

“जो कभी क्रोध नहीं करता”।

“वह क्या है जो अस्तित्व में है भी और नहीं भी?”

“माया

“माया क्या है?

“नाम और रूप धारी नाशवान जगत”।

“परम सत्य क्या है?” यक्ष उद्विग्न होने लगा।

युधिष्टिर ने हाथ जोड़ कहा, “ब्रह्म”।

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अंधेरा (🕩०७.२८-१२.२४)

·          अंधेरा, अंधकार, अँधियारा, तमस, रात, तम, तिमिर

·          अज्ञानता, मतिभ्रम, निराशा, अवसाद, रहस्य, अप्रसिद्धि, अपमान, मृत्यु

·          तमोगुण, काम, क्रोध, मद, लोभ

·          असत्य, अधर्म, अन्याय, पाप

·          प्रकाश उत्साह देता है तो अंधकार निराशा

·          सूर्य का आगमन नये दिन के शुरुआत की घोषणा करता है, तो अंधकार का आना दिन का नाश करता है

·          दिन में सूर्य प्रकाशित होता है तो रात्रि में चाँद, तारे, दीपक, मोमबत्ती, मशाल, बिजली अंधेरे का नाश करते हैं

·          जरा ठहरो, यानि प्रकाश के लिये किसी का होना आवश्यक है! चाहे वह सूर्य हो या चाँद-तारे, या दीपक, बिजली या कुछ और!

·          तब तो प्रकाश का अस्तित्व  किसी पर आश्रित है, परतंत्र है और अंधकार स्वत: है, स्वतंत्र है! किसी का न होना ही अंधकार है।

·          तब तो प्रकाश के कारण अंधकार नहीं, बल्कि अंधकार के कारण प्रकाश है? अगर अंधकार न हो तो प्रकाश का क्या मोल?

·          प्रकाश तो कठोर और अंहकारी भी प्रतीत होता है। उसे अंधकार से सख्त नफ़रत है। जहां भी जाता है उसे मार कर भगा देता है।

·          इसके विपरीत अंधकार सरल और नम्र है। प्रकाश को अधिकतम फैलाव देने के लिए शालीनता से दीपक के तलवे के नीचे सिमट जाता है, पेड़ों की ओट में दुबक जाता है, भवन के पीछे दुबक जाता है, और तो और पैरों के नीचे दब जाता है।

·          दिन के प्रकाश में मनुष्य अंहकारी, तनावग्रस्त होता है, मुखौटा लगाये  होता है। लेकिन अंधेरे में मानव सहज होता है, सरल होता है, बिना मुखौटे के होता है।

·          रात के अंधेरे में ही मानव के साहस का परिचय होता है, उसके चरित्र का पता चलता है। यही नहीं उसके गुणों – शक्ति, साहस, संयम, धैर्य, सहनशीलता – का विकास उजाले के बजाय अंधेरे में ही ज्यादा होता है।

·           तेज प्रकाश अंधेरा ही उत्पन्न करता है। दिन के प्रकाश में थक जाने के बाद विश्राम के लिए अंधेरे की ही आवश्यकता होती है।

·          सम्पूर्ण प्रकृति के सृजन का कार्य भी पूर्ण अंधकार में ही होता है चाहे वह माँ का गर्भ हो या मिट्टी के अंदर। यही क्यों सब उपलब्ध धातुएँ-खनिज का निर्माण भूगर्भ के गहन अंघेरे में ही तो हुआ है।

·          हमें ज्ञान और शांति भी अंधेरे में ही मिलती है। योग करें या मनन, दर्शन करें या चिंतन, पलक झपका कर आँखें बंद कर अंधकार ही तो करते हैं। हमारे मुनियों – ऋषियों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में ही क्यों जाना पड़ा। अंधेरा वह दे ने की क्षमता रखता है जिसे प्रकाश नहीं दे सकता।

·          यह सही है कि प्रकाश हमें दृष्टि देता है लेकिन अंधकार हमें अंतर्दृष्टि देता है।

·          मानव द्वारा की गई अनेक खोजें और आविष्कार भी अंधेरे में तीर चलाने की प्रक्रिया से ही उत्पन्न हुई। अगर तीर निशाने पर लगा तो नवीन खोज या निर्माण, नहीं तो अनुभव।

·          हाँ, यह भी सही है कि अंधेरे में भय उत्पन्न होता है। लेकिन यह भी उतना ही सही है कि भय ही हमें ईश्वर के नजदीक भी लाता है।

·          प्रकाश में हम भीड़ में होते हैं, औरों के साथ होते हैं। अंधेरे में हम अकेले होते है, स्वयं होते हैं। अंधकार आत्म मंथन और आत्म निरीक्षण का सुअवसर प्राप्त कराता है। 

·          प्रकाश में हम गोरे हैं, काले हैं, ब्राउन हैं। पुरुष–स्त्री हैं। हमारी जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय प्रकाश में ही दिखते हैं। अंधेरे में इनका अस्तित्व नहीं होता।

·          प्रकाश के जय जयकार में हम इतने व्यस्त रहे कि अंधेरे के महत्व को भूल गये। अंधेरे का सौंदर्य देख ही नहीं पाये। उसकी अस्मिता को भूल गये।

·          अंधकार भी प्रकाश की ही भांति सत्य है, सुंदर है, शिव है।

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कारावास की कहानी(🕩१२.२४-१७.१४)

(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इस कड़ी में यहाँ इसका दूसरा अंश है।)

(२)

हमारे शौच की अतुलनीय व्यवस्था

निर्जन कारावास की पहली अवधि के बाद जब हमें एक साथ रखा गया तब मेरे सिविलियन अधिकारों का पृथकीकरण हुआ, अधिकारियों ने शौच के लिये अन्य उपकरण जुटाया । किंतु महीने भर में घृणा पर काबू पाने का अयाचित पाठ पढ़ लिया था । शौच की सारी व्यवस्था ही मानों इस संयम की शिक्षा को ध्यान में रखकर की गयी थी । पहले कहा है, निर्जन कारावास विशेष दण्ड में गिना जाता है और उस दण्ड का मूल सिद्धांत है यथासाध्य मनुष्य-संसर्ग और मुक्त आकाश-सेवन का वर्जन । बाहर शौच की व्यवस्था करने से तो यह सिद्धांत भंग होता अत: कोठरी में ही तारकोल पुती दो टोकरियां दी जाती थीं । सवेरे-शाम मेहतर साफ कर जाता, तीव्र  आंदोलन और मर्मस्पर्शी भाषण देने पर दूसरे समय भी सफाई हो जाती, किंतु असमय पाखाना जाने से घंटों-घंटों तक दुर्गन्ध भोगकर प्रायश्चित करना पड़ता । निर्जन कारावास की दूसरी अवधि में इसमें थोड़ा-बहुत सुधार हुआ किंतु सुधार होता है पुराने जमाने के मूलतत्त्वों को अक्षुण्ण रखते हुए शासन में सुधार। किं बहुना’, इस छोटी-सी कोठरी में ऐसी व्यवस्था होने से हमेशा, विशेषकर खाने के समय और रात को, भारी असुविधा भोगनी पड़ती थी । जानता हूं, शयनागार के साथ पखाना रखना प्रायः विलायती सभ्यता की विशेषता है किंतु एक छोटे-से कमरे में शयनागार, भोजनालय और पाखाना-इसे कहते हैं too much of good thing (भलाई की सीमा पार कर जाना) । हम ठहरे कु-अभ्यासग्रस्त भारतवासी, सभ्यता के इतने ऊंचे सोपान पर पहुंचना हमारे लिये कष्टकर है ।

 नहाने का सुख

गृह-सामग्री में और भी चीजें थीं : एक नहाने की बाल्टी, पानी रखने को एक टीन की नलाकार बाल्टी और दो जेल के कम्बल । स्नान की बाल्टी आंगन में रखी रहती, वहीं नहाता था । पहले हमारे भाग्य में पानी का कष्ट नहीं था पर बाद में यह भी भोगना पड़ा । पहले पास के गोहालघर के कैदी नहाते समय मेरी इच्छानुसार बाल्टी में  पानी भर देते थे, इसीलिये नहाने का समय ही था जेल की तपस्या के बीच प्रतिदिन गृहस्थ की विलासवृत्ति और सुखप्रियता को तृप्त करने का अवसर । दूसरे आसामियों के भाग्य में इतना भी नहीं जुटा था; एक बाल्टी पानी से ही उन्हें शौच, बर्तन-मंजाई, स्नान सब करना होता था । विचाराधीन कैदी थे इसीलिये,  इतना-सा विलास भी मिला हुआ था, कैदियों को तो दो-चार कटोरे पानी में ही स्नान  करना पड़ता था । अंग्रेज कहते हैं भगवत् प्रेम व शरीर की स्वच्छंदता प्रायः समान और दुर्लभ गुण हैं, जेलों में यह व्यवस्था, इस प्रवाद की यथार्थता को सिद्ध करने के लिये है या फिर अतिरिक्त स्नान के सुख से कैदियों की अनिच्छा-जनित तपस्या के रस भंग होने के भय से, प्रचलित की गयी है, यह निर्णय करना कठिन है।  आसामी अधिकारियों की इस दया को काक-स्नान कह खिल्ली  उड़ाते थे । मनुष्यमात्र ही है असंतोषप्रिय।

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सूतांजली नवंबर 2024

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