सूतांजली
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वर्ष : ०४ * अंक : ०८ 🔊(00.00-19.35) मार्च * २०२१
“क्या आप ईश्वर में
विश्वास करते हैं?”
“नहीं, मैं ईश्वर में
विश्वास नहीं करता।
मैं जानता हूँ कि ईश्वर है.”
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कैसा जीवन चाहिये? गुलाम का या मालिक का? (🔉00.00-04.37)
कैसा
जीवन खोजते हैं आप? – एक गुलाम जैसा या एक मालिक जैसा! बड़ा बेहूदा सा प्रश्न प्रतीत होता है। यह भी कोई पूछने वाली बात है! गुलामी
का जीवन भी कोई जीवन है? गुलामी में तो जीवन केवल जाता है, आता नहीं। गुलामी का जीवन बस एक आभास होता है, सपना
होता है, आशा रहती है, मिलेगा लेकिन
मिलता कुछ नहीं। तब फिर इस प्रश्न का क्या औचित्य है? आप का
जीवन मालिक का है या गुलाम का? कैसा भी हो, आप मालिक हैं–किसके, गुलाम हैं-किसके? यह आपको ही समझना है, आपको ही निर्णय लेना है।
मालिक से अर्थ है, ऐसे जीना जैसे जीवन अभी और यहीं है। कल पर छोड़कर नहीं, आशा में नहीं। मालिक के जीवन का अर्थ है, मन गुलाम हो, चेतना मालिक हो। होश मालिक हो, वृत्तियाँ मालिक न हो। विचारों का उपयोग किया जाये, विचार हमारा उपयोग न करें। विचारों को हम काम में लगा सकें, विचार हमें काम में न लगा दे। जीवन की लगाम हमारे हाथ में हो। जीवन वहीं जाये जहां हम उसे ले जाना चाहें। हमें अपने मन के पीछे घसीटना न पड़े।
गुलाम का जीवन बेहोशी का जीवन है। जैसे सारथी नशे में हो, लगाम ढीली पड़ी हो, घोड़ों की जहां मर्जी हो ले जायें। खड्डे में डालें, दु:ख-दर्द में डालें, रास्ते से भटक जायें और सारथी बेहोश पड़ा हो।
महाभारत में बड़ा अच्छा उदाहरण है। कुरुक्षेत्र के मैदान में कृष्ण सारथी हैं। कृष्ण को सारथी देखकर बड़ा अजीब सा लगता है। जब चैतन्य सारथी हो, जब हमारा जो श्रेष्ठतम है उसके हाथ में लगाम हो तब रथ सही दिशा में, सही रास्ते पर है। अर्जुन रथ पर बैठा है और कृष्ण सारथी हैं। अर्जुन कुछ नहीं है, कृष्ण सब कुछ हैं। उदाहरण सरल और समझने योग्य है। कौन है मालिक कौन है गुलाम? यही समझना है। हमारे अंदर जो कुछ नहीं है, कहीं वो सारथी नहीं बन जाये। हमारे अंदर जो सब कुछ है, वही सारथी बने।
ऊपरी तौर पर लगता है कि अर्जुन मालिक है और कृष्ण गुलाम। हमारी हालत उल्टी है, या गीता उल्टी है? हमें लगता है हम मालिक हैं, हमारी गीता सही है। लेकिन विचार करो। व्यास की गीता ही सही है। मन रथ में बैठा हो तो कोई हर्ज़ नहीं, अगर, ध्यान सारथी हो। तब मालिकपना आता है, तब हम मालिक बनते हैं, नहीं तो गुलाम ही हैं।
आप मालिक हैं या गुलाम? आप को ही मालूम है। आप को क्या बनना है - मालिक या गुलाम? निर्णय आपको ही लेना है।
हमारे देश में सन्यासी को ‘स्वामी’ कहते हैं। स्वामी का अर्थ मालिक, यानि जिसकी गीता सही है। अर्जुन रथ में बैठा है और कृष्ण सारथी हैं – वही स्वामी है।
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(ओशो के प्रवचन पर
आधारित)
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सुखी जीवन, आपकी मुट्ठी में (🔉04.37-12.10)
एक
बड़ी कंपनी में कार्यरत महिला लिखती हैं:
‘उस
वर्ष कंपनी में अनेक उठा-पटक हुए। अब कंपनी के कर्मचारियों का वार्षिक मूल्यांकन
चल रहा था। सभी बेहद तनाव में थे। चाय पर, भोजन पर, गलियारों में, आते-जाते सब केवल इसी की चर्चा कर
रहे थे। कौन रहेगा, कौन जाएगा, किसकी
तरक्की होगी, किसकी अवनति होगी? जितनी
मुंह उतनी बातें। मैं उस तनाव को झेल नहीं पा रही थी। अत: हरिद्वार एक आश्रम
में ‘ध्यान-शिविर’ में चली गई। दोपहर 1-2 बजे एक लड़का कमरा साफ
करने आया और बताया कि वह इसके पहले नहीं आ सकता क्योंकि उसे 50 कमरे साफ करने होते
हैं। मेरे चहरे पर आए भाव को पढ़ते हुए उसने आगे कहा कि यह उतनी खराब अवस्था नहीं
है जितना मैं समझ रही हूँ। उसने यह भी
बताया कि उसे यह काम करते अभी 3 दिन ही हुए हैं। इसके पहले वह एक गाड़ी
मरम्मत गराज़ में काम करता था जहां उसे मासिक 5000 रुपए मिला करते थे। वहाँ से उसकी
‘छुट्टी’ हो गई। मुझे झटका सा लगा।
लेकिन वह सामान्य बना आगे कहता रहा, इसमें चिंता की क्या बात
है! यह होना था तो हुआ। मैं अभी युवा हूँ और मेहनत कर सकता हूं। देर-सबेर कोई न
कोई अच्छी नौकरी मिल ही जाएगी। लेकिन मैंने कहा कि 5000 रुपए महिना कम नहीं होते।
वह हंसने लगा, रुपयों का क्या, वे तो
ऐसे ही आते – जाते रहते हैं। मैं सोचने लगी, यह ‘अनपढ़-अशिक्षित’ एकदम बे-फिक्र,
आनंदमग्न और मैं ‘पढ़ी-लिखी’ चिंता को न
झेल पाने के कारण भाग आई?
खुशी की परिभाषा व्यक्ति-व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। जब एक पाश्चात्य पत्रकार ने गांधी से उनकी खुशी का कारण पूछा तो उन्होंने ईशा उपनिषद के पहले श्लोक का हवाला देते हुआ कहा ‘त्याग और आनंद’ (renounce and enjoy)। त्याग में ही असली आनंद है। त्याग भौतिक वस्तुओं का, कामनाओं का, इच्छाओं का। लेकिन जब यही बात एक गणितज्ञ से पूछी गई तो उसने गणितीय भाषा में ही जवाब दिया – खुशी = साधन / आवश्यकता। जैसे जैसे हमारे साधन बढ़ते जाते हैं हमारी खुशी थोड़ी-थोड़ी बढ़ती जाती है लेकिन जैसे जैसे हमारी आवश्यकता कम होने लगती है, खुशी तेजी से बढ़ती है। और अगर आवश्यकता ‘0’ हो जाए, जो असंभव सी है, तो खुशी अनंत हो जाती है। यही प्रश्न जब एक दार्शनिक से किया गया तो उसने कहा, ‘जब हम अपने जीवन और वस्तुओं की तुलना दूसरों से करना बंद कर देते हैं हमारी खुशी में इजाफा होने लगता है। हमें ईश्वर का प्रसाद तीन तरह से मिलता है – प्रसन्नता, आनंद और सुख। भौतिक इंद्रियों से प्रसन्नता मिलती है, अच्छे लोगों से संबंध होने से आनंद की प्राप्ति होती है, लेकिन सच्चा सुख जब हमारा संबंध ईश्वर से स्थापित होता है तब मिलता है। ‘प्रसन्नता-आनंद-सुख’ वक्ताओं के शब्द हैं, इनके गोरख-धंधे में न पड़ कर भावार्थ पर ही ध्यान दें। इन तीनों ही अवस्थाओं में खुशी की मात्रा उस व्यक्ति के हाथ में ही है।
गोपिकाएं यमुना में पानी से भरी भारी मटकियों को बड़ी कठिनाई से सर पर उठा रही थीं। कृष्ण दूर से देख रहे थे लेकिन उन्होंने उनकी सहायता करने का कोई प्रयास नहीं किया। लेकिन थोड़ी ही देर बाद जब वे उसे उतारने लगीं, तब कृष्ण उनकी सहायता के लिए उठ खड़े हुए। कृष्ण के इस व्यवहार से गोपियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कृष्ण ने कहा मेरा कार्य मानव का ‘बोझ’ बढ़ाना नहीं, उनका बोझ उतारना है। हम ईश्वर से प्राय: वे वस्तुएँ - नाम, दाम, काम - मांगते हैं जो वे हमें देना नहीं चाहते क्योंकि वे हमारा बोझ बढ़ाती हैं, हमें सुख नहीं देतीं। सत्यसाईं बाबा कहा करते थे ‘कम सामान, ज्यादा आराम, सुहाना सफर’। जिंदगी के इस सफर में हमारे पास आवश्यकता जितनी कम होगी सफर उतना ही ज्यादा आरामदायक होगा। असली त्याग धन-संपत्ति का दान नहीं; इच्छाओं एवं कामनाओं को छोड़ना ही असली त्याग है। यह हमारे हाथ में ही है।
मानवीय चेतना की तीन विशेषताएँ हैं – भला दिखना, भला अनुभव करना और भला होना। हम सब अपनी अपनी सोच के मुताबिक इनमें से कुछ भी अपना सकते हैं। लेकिन तीनों में बड़ा फर्क है और ये हमें तीन अलग अलग गंतव्यों तक पहुँचातेहैं। भला दिखना यानि भौतिक एवं वैचारिक स्तर पर। वैश्विक बाजार को हमारे ‘दिखना’ में ही ज्यादा रुचि है। इसमें कोई बुराई नहीं है। भला दिखने की कोशिश में हम स्वत: इससे आगे बढ़ जाते हैं – ‘अनुभव’ और ‘होने’ की क्रिया की तरफ। लेकिन बहुत बार तो ‘दिखने’ की चिंता या अंधी दौड़ में हम अपना जीवन दुखों से भर लेते हैं। उसी प्रकार भला अनुभव करना भी ‘होने’ की तरफ ही अग्रसर होना चाहिए; अन्यथा: यह हमारी भौतिक क्रिया ही बन कर रह जाए, हमें नशे की आदत डाल दे। नशा किसी का भी हो सकता है – दारू का, नशीली पदार्थ का, धन का, नाम का, शक्ति का। लेकिन जब हम ‘दिखना’ और ‘अनुभव’ से आगे चल कर ‘होना’ की परिस्थिति में आ जाते हैं तब हमें परम सुख की अनुभूति होने लगती है और इस की सुगंध भी चारों दिशा में फैलने लगती है, दूसरों को भी प्रभावित करती है, उन्हें भी सुख की प्रतीति होती है।
गहराई से विचार करें तो समझ आती है सुख कहें या शांति, आनंद कहें या खुशी, या कोई और भी नाम दें, ये सब हमारे अंदर ही है, हमारे हाथ में ही है। न तो यह बाहर है और न ही किसी दूसरे के बस में। जो भी करना है हमें करना है। दूसरे मंजिल दिखा सकते हैं, उस पर चलना तो हमें ही होगा।
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गुरु पर भरोसा (🔉12.10-14.42)
भयानक
कार दुर्घटना में अपना बायाँ हाथ खो चुकने के बाद भी १० वर्षीय जतिन की जूडो सीखने
की तीव्र इच्छा थी। एक दिन वह एक बूढ़े जापानी जूडो गुरु के पास पहुंचा। साहस
जुटाकर उसने उनसे जूडो सीखाने का आग्रह किया। गुरु ने उसे अपने शिष्यों में शामिल
कर लिया। अगले दिन से वह नियमित अभ्यास में शामिल होने लगा। वह खूब मन लगाकर अच्छी
तरह से सीख रहा था। लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि पिछले तीन महीने से वह एक ही
पैंतरा क्यों सीख रहा है? एक दिन उसने अपने गुरु से पूछ ही लिया, ‘क्या मुझे और पैंतरे नहीं सीखने चाहिए”?
“सिर्फ
यही एक पैंतरा है जिसे तुम जानते हो और यही वह पैंतरा है जिसे तुम्हें जानना
चाहिए”, गुरु ने जवाब दिया।
उसे बात समझ नहीं आई, लेकिन अपने गुरु पर विश्वास करते हुए उसने उस एक पैंतरे का अभ्यास जारी रखा। कुछ महीनों बाद, गुरु जतिन को एक प्रतियोगिता में ले गया। जतिन ने पहले दौर में जीत हासिल कर ली। दूसरे दौर को भी जतिन ने आसानी से जीत लिया। तीसरे दौर में उसका मुक़ाबला एक वरिष्ठ, मजबूत और अनुभवी खिलाड़ी से होना था। जतिन उसकी तुलना में छोटा था और अपरिपक्व भी। उसे चोट न लग जाए इसलिए रेफरी ने खेल को रोकने का आदेश दिया। गुरु ने बीच में टोकते हुए कहा, ‘नहीं, उसे खेलने दीजिये’। जल्दी ही, रिंग में दूसरा खिलाड़ी हारने लगा। अंत में उसने प्रतियोगिता जीत ली। घर लौटते समय लड़के ने जिज्ञासा से अपने गुरु से पूछा, ‘गुरुजी, मैं सिर्फ एक ही पैंतरा से प्रतियोगिता कैसे जीत गया’? गुरु ने जवाब दिया, ‘तुम दो कारणों से जीते’। पहला, तुमने जूडो के सबसे कठिन पैंतरे में माहरत हासिल की। और दूसरा यह कि तुम्हारे उस पैंतरे से बचने के लिए प्रतिद्वंदी को तुम्हारा बायाँ हाथ पकड़ना पड़ता है’।
सही
शिक्षा हर कमजोरी को ताकत में बदलने की क्षमता रखती है।
(‘उजाले
के गाँव में’ से)
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कारावास की कहानी -श्री अरविंद की जुबानी(🔉14.42-19.35)
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक वर्णन
किया है। ‘अग्निशिखा’ में इसके रोचक
अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर
रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसका तीसरा अंश है।)
(3)
पानी की व्यवस्था
नहाने
की व्यवस्था से पीने के पानी की व्यवस्था और भी निराली थी। गर्मी का मौसम, मेरे छोटे-से कमरे में हवा का प्रवेश
लगभग निषिद्ध था। किंतु मई महीने की उग्र और प्रखर धूप बेरोक-टोक घुस आती थी ।
कमरा जलती भट्टी-सा हो उठता था । इस भट्टी में तपते हुए अदम्य जलतृष्णा
को कम करने का उपाय था वही टीन की बाल्टी का अर्घ-उष्ण जल । बार-बार
वही पीता था, प्यास तो नहीं ही बुझती थी वरन् पसीना छूटता और
कुछ देर में फिर से प्यास लग आती थी । पर हां, किसी-किसी के
आंगन में मिट्टी की सुराही
रखी होती, वे अपने पूर्वजन्म की तपस्या का स्मरण कर अपने को
धन्य मानते । घोर पुरुषार्थवादी को भी भाग्य में विश्वास करने को बाध्य होना पड़ता
था, किसी के भाग्य में ठण्डा पानी बदा था तो किसी के भाग्य
में प्यास, सब था भाग्य का फेर । अधिकारीगण, पूर्ण पक्षपात-रहित हो कलसी या बाल्टी वितरण करते थे । इस यदृच्छा-लाभ से
मेरे संतुष्ट होने या न होने से भी मेरा जल-कष्ट जेल के सुहृदय डाक्टर बाबू को
असह्य हो उठा । वे कलसी जुटाने में लगे किंतु क्योंकि इस बंदोबस्त में उनका हाथ
नहीं था इसलिये बहुत दिन तक इसमें सफल नहीं हुए, अंत में
उनके ही कहने से मुख्य जमादार ने कहीं से कलसी का आविष्कार किया । उससे पहले ही
तृषा के साथ अनेक दिन के घोर संग्राम से मैं पिपासा-मुक्त हो चला था ।
शयन सुख
इस
तप्त कमरे में बिस्तर के नाम को थे दो जेल के बने मोटे कम्बल । तकिया नदारद, एक कम्बल को नीचे बिछा लेता और दूसरे
की तह करके तकिया बना सोता । जब गर्मी असह्य हो उठती और बिस्तर पर न रहा जाता तब
मिट्टी में लोट लगा, बदन ठण्डा कर आराम पाता था । माता
वसुन्धरा की शीतल गोद के स्पर्श का क्या सुख है यह तभी
जाना । फिर भी, जेल में उस गोद का स्पर्श बहुत कोमल नहीं
होता, उससे निद्रा के आगमन में बाधा आती अतः कम्बल की शरण
लेनी पड़ती । जिस दिन वर्षा होती वह दिन भारी आनंद का दिन होता । इसमें भी एक
असुविधा यह थी कि झड़ी-झंझा होते ही धूल, पत्ते और तिनकों से
भरे प्रभंजन के ताण्डव नृत्य के बाद मेरे पिंजरे के अंदर बाढ़-सी आ जाती । ऐसे में
रात को भीगा कम्बल ले कमरे के एक कोने में दुबकने के सिवा कोई चारा न रहता ।
प्रकृति की इस विशिष्ट लीला के समाप्त होने पर भी जलप्लावित धरती जबतक सूख नहीं जाती थी तबतक
निद्रादेवी की आशा छोड़ विचारों का दामन पकड़ना पड़ता था । एकमात्र सूखी जगह थी शौच
के आसपास किंतु वहां कम्बल बिछाने की प्रवृत्ति न होती
। इन सब असुविधाओं के होते हुए भी झड़ी-झंझा के दिन भीतर खूब हवा आती और कमरे की
जलती भट्टी का ताप दूर हो जाता इसलिये झड़ी-झंझा का सादर स्वागत करता।
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