सूतांजली
~~~~~~~~
वर्ष : ०४ * अंक : ०९ 🔊(२२.३५) अप्रैल * २०२१
नव संवत्सर २०७८ चैत्र शुक्ल
प्रतिपदा
तदनुसार मंगलवार १३
अप्रैल २०२१
पर हार्दिक शुभकामनाएँ
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
नववर्ष का चमत्कार (🔉००.००-६.०३)
आज
ऑफिस का रूप-रंग देखने लायक है। ऑफिस का हर कर्मचारी उत्साहित और प्रफुल्लित है।
सबों में अतिरिक्त जोश और उमंग है। आज ऑफिस में नव-वर्ष का समारोह है जिसे एक
उत्सव के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन ऑफिस बंद नहीं रहती लेकिन कोई काम भी
नहीं होता। होता है, केवल खाना-पीना (दारू नहीं),
नाचना-गाना, हंसी-मजाक। सारे दिन यही चलता है और ऑफिस का हर
कर्मचारी – चपरासी से लेकर मालिक तक – सब एक साथ कंधे से कंधा मिला कर साथ-साथ
इसमें भाग लेते हैं।
लेकिन इस पूरे कार्यक्रम में सबसे ज्यादा आकर्षण रहता है ‘नव-वर्ष के चमत्कार’ का। कार्यक्रम का पटाक्षेप इसी चमत्कार से होता है। दरअसल यह, नव-वर्ष का उत्सव, पिछले कुछ वर्षों से मनाया जाता है। नहीं, आप गलत समझ रहे हैं। आज पहली जनवरी नहीं है। आज है चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, जिसे नवसंवत्सर भी कहते हैं। दर असल मेरी ऑफिस के मालिक नव-वर्ष चैत्र की शुक्ल प्रतिपदा को मनाने के पक्ष में थे। लेकिन यह किसी भी प्रकार नहीं हो रहा था। अत: उन्होंने यह नायाब तरीका ढूंढ निकाला और तब से ऑफिस के लिए यही नूतन वर्ष बन गया। हाँ, तो मैं बात कर रहा था ‘चमत्कार’ की। दरअसल यह एक ऑफिस लॉंटरी है। ऑफिस का हर कर्मचारी एक सौ रुपये देता है। लगभग तीन सौ कर्मचारी हैं; तीस हजार रुपए जमा हो जाते हैं। एक बड़ी मेज पर दो बक्से रखे जाते हैं। एक बक्से में हर कर्मचारी रुपए डालता है और दूसरे में वहीं पड़े कागज के चिट में अपना नाम लिख कर डालता है। कार्यक्रम के अंत में मालिक सब के सामने बक्से में से एक चिट निकालते हैं और जिसका भी नाम आता है पूरे रुपए उसे एक मुश्त दे दिये जाते हैं। जिसे मिलता है उसके लिए चमत्कार होने के कारण ही इसे लॉंटरी न कह कर चमत्कार कहते हैं। इस प्रकार इस का नामकरण हुआ ‘नव-वर्ष का चमत्कार’।
पूरी
ऑफिस उमंग में है, लेकिन मैं तनाव में हूँ। समझ नहीं आ रहा है कि
क्या करूँ? ऑफिस की सफाई करने वाली का
बेटा बेहद बीमार है। उसे रुपयों की सख्त जरूरत है। आज का चमत्कार कैसे उसके नाम से
निकले, समझ नहीं पा रहा हूँ। लड़खड़ाते कदमों से चलता हुआ
बक्से के पास पहुंचता हूँ। पॉकेट से सौ का एक नोट निकाल कर डालता हूँ। एक चिट उठाता
हूँ और दूसरों की नजर बचाकर उस पर अपना
नाम न लिखकर उस सफाई करने वाली का नाम लिख कर डाल देता हूँ। धीरे-धीरे घड़ी की सूई
टिक-टिक कर आगे बढ़ रही है। मुझे लगता है यह टिक-टिक नहीं धक-धक कर रही है। और आखिर, वह क्षण भी आ पहुंचा। मालिक आ गए हैं। वे कुछ कह रहे हैं, लेकिन मुझे कुछ भी नहीं सुन रहा। मैं हाथ जोड़ प्रार्थना कर रहा हूँ ‘हे ईश्वर! आज सचमुच कोई चमत्कार कर दे’। मुझे मालूम
है कि मैं नाउम्मीद की उम्मीद लगाए बैठा हूँ। तनाव अपनी चरम पर है, लग रहा है कि मेरा सर फट जाएगा, धड़कन बंद हो जाएगी।
तभी नाम की घोषणा होती है। अरे यह क्या? मुझे विश्वास नहीं
हुआ। वाकई चमत्कार हो गया। उसी के नाम की घोषणा हुई। कुछ क्षणों के लिए स्तबद्धता
छा गई और फिर गगनभेदी शोर। हर कोई ऐसे नाच रहा था, जैसे उसी
का नाम पढ़ा गया हो। मैं उठा, धीरे-धीरे चलता हुआ बक्से के पास पहुंचा। उसमें डाले गए चिट देखने लगा।
एक-दो, दस-बीस, मैं पागल हो गया। सब पर
उसी का नाम लिखा था। यानि केवल मैंने ही नहीं, हर किसी ने उसी का नाम लिखा था।
हाँ, ऐसा चमत्कार ईश्वर ही करते हैं। लेकिन उनके चमत्कार को धरती पर उतारने के लिए चमत्कारी व्यक्तियों की अवश्यकता होती है। बिना किसी और का इंतजार किए, बिना किसी और का मुंह जोहे, चमत्कारी व्यक्ति बनिए। देखिये आपको भी जीवन में चमत्कार दिखने लगेंगे।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अपने अंदर एंटिवाइरस हमें लगाना है (🔉०६.०३-१३.४४)
एक
बार हम, जो हमारे अंदर घटित होता है उन पर विचार करें। जब
भी हमारे दिमाग में कोई विचार प्रवेश करता है तब वह विचार हमारे अंदर एक अनुभूति
उत्पन्न करता है। यह अनुभूति पैदा करती है हमारी मनोवृत्ति को। और फिर हमारा कार्य
हमारी इस मनोवृत्ति पर निर्भर करता है। और जो कार्य हम बार बार करते हैं हमें उसकी
आदत पड़ जाती है। यही हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है। और हमारा यह व्यक्तित्व
ही हमारा भाग्य बन जाता है। यह है हमारे मन में आये विचार से लेकर हमारे भाग्य तक
का सफर। हम यह साफ महसूस कर सकते हैं कि हमारा भाग्य कोई और नहीं लिखता बल्कि हम
खुद अपने भाग्य के निर्माता हैं। यह साफ जाहिर है, हमारा हर विचार बेहद महत्वपूर्ण
है। लेकिन वह क्या है जो हमारे विचारों का निर्माण करता है? हम
सब सकारात्मक सोच की, निर्माण की बात करते हैं लेकिन
तब नकारात्मकता,विध्वंस क्यों हमारे अंदर अनजाने स्वाभाविक
रूप में प्रवेश कर जाती है?
हमारे अपने अनुभवों से हमारे विचार प्रभावित होते हैं। विशेष कर सुबह उठते ही और रात को ठीक सोने के पहले हमने जो पढ़ा-सुना उसका सबसे ज्यादा असर होता है। किसी समय सुबह उठ कर अखबार पढ़ना और सोने के पहले समाचार देखना सही होता रहा होगा। अब नहीं। इससे बचें।
इन दो के अलावा वह तीसरी बात जिसका सबसे ज्यादा महत्व है वह है हमारी अपनी मान्यता, हमारा अपना विश्वास और जीवन शैली। हमारा शरीर एक कम्प्युटर है जिसमें हमारी आत्मा इस कम्प्युटर पर कार्य करने वाला ऑपरेटर है और विश्वास इसका ऑपरेटिंग सिस्टम। कौनसा सॉफ्टवेर इस पर काम करेगा और कैसे करेगा यह पूरी तरह इस ऑपरेटिंग सिस्टम पर ही निर्भर करता है। हम यह जानते हैं और बताते रहते हैं कि कौनसा सॉफ्टवेर किस ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करेगा और कौनसा नहीं। यह मशीन महत्वपूर्ण है और उसे चलाने वाला भी लेकिन ऑपरेटिंग सिस्टम उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है; कम्प्युटर से उत्पादन उसी के अनुसार होता है। यह शरीर और हमारी आत्मा प्रमुख है लेकिन हमारी अपनी मान्यताएँ हमारा विश्वास उससे भी ज्यादा प्रमुख है और वही हमारे भाग्य का निर्माण करता है। लेकिन इसमें एक और सॉफ्टवेयर अपना कार्य करता है और वह है वाइरस। जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम में एक छोटा सा वाइरस कम्प्युटर की पूरी कार्यप्रणाली को बदल देता है उसी प्रकार एक छोटा सा दूषित विचार हमारी कार्यप्रणाली और हमारे भाग्य को बदल देता है। कम्प्युटर में जिस प्रकार वाइरस से बचने के लिए एंटिवाइरस लगाते हैं वैसे ही आध्यात्म मानव के लिए एंटिवाइरस है जो हमें दुश्विचारों के प्रदूषण से बचाता है। जिस प्रकार कम्प्युटर में अगर एंटिवाइरस न लगाया जाय तो कम्प्युटर बार बार बंद हो जाता है, सॉफ्टवेर ठीक से काम नहीं करते, डाटा खराब हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार मानव में आध्यात्म की कमी उसे अपने मार्ग से भटका देती है।
शिबानी बेन |
ऐसी अवस्था में हमारा सबसे पहला कर्तव्य है अपने आप को बचाना। एक स्वस्थ्य व्यक्ति ही दूसरे की सहायता कर सकता है। हवाई जहाज के उड़ान भरने के पहले बताया जाता है कि आपद अवस्था में ऑक्सीज़न का मास्क पहले अपने नाक-मुंह पर लगाएँ, फिर अपने बच्चे की सहायता करें। अपने आप को स्वस्थ्य रखना पहली आवश्यकता है। हम तभी दूसरों की सहायता कर सकते हैं। अगर किसी के व्यवहार से हमें कष्ट हुआ, उसने हमारे पास वाइरस भेजा तो पहले हमें अपने एंटिवाइरस से उसे निरस्त करना है। इसके बाद ही उसकी जांच पड़ताल करनी है। हो सकता है कि उसके इस व्यवहार का कारण उस पर हुए किसी अन्य व्यक्ति के वाइरस के कारण हुआ हो। अगर हम खुद स्वस्थ्य नहीं हों, तो हो सकता है उसका दर्द दूर न कर हम अपनी तरफ से एक वाइरस उसकी तरफ भेज दें। हमारे चारों तरफ रहने वालों का व्यवहार, उनकी स्वीकृति और रजामंदी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। हम पर उनका प्रभाव पड़ता है; हाँ इस प्रभाव की तीव्रता कम-ज्यादा हो सकती है लेकिन हमें इसका ध्यान रखना ही पड़ता है। इसलिए हम किन और कैसे लोगों के बीच रहते हैं यह बहुत महत्वपूर्ण है।
(टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित, शिवानी बेन एवं सुरेश ओबेरॉय के मध्य हुई बात के
आधार पर)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
पहचान (🔉१३.४४-१५.०६)
एक
युवक ईश्वर से मिलना चाहता था। उसने प्रार्थना की, ईश्वर मुझसे बात करो। तभी एक चिड़िया चहचहाई, लेकिन
युवक ने नहीं सुना। उसने फिर ईश्वर से कहा, मुझसे बात करो।
तब आकाश में तूफानी गर्जन हुई। युवक ने फिर ध्यान नहीं दिया। उसने फिर कहा, ‘ईश्वर मैं आपको देखना चाहता हूँ’। तभी आकाश में एक सितारा चमका, लेकिन युवक का ध्यान
दूसरी ओर था। अब युवक चिल्लाया, ईश्वर मुझे कोई चमत्कार दिखाइये। तभी अचानक उसके सामने एक गिलहरी आई, लेकिन वह इस बात को नहीं जान
पाया। अब वह रोते रोते कहने लगा, भगवान मुझे छूएँ ताकि मुझे
पता लगे कि आप यहाँ हैं। तब ईश्वर नीचे पहुंचे और उन्होंने युवक को छुआ, लेकिन युवक
ने हाथ पर बैठी तितली को हटाया और अपने रास्त चल दिया।
ईश्वर
अलग-अलग रूप में सामने आते हैं, हम
ही उन्हें पहचान नहीं पाते।
(‘उजाले
के गाँव में’ से)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कारावास की कहानी – श्री अरविंद
की जुबानी (🔉१५.०६-२२.३४)
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। ‘अग्निशिखा’ में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के
रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसका चौथा अंश है।)
निर्जन
कारावास का सुख
कंबल, थाली-कटोरी का प्रबंध कर जेलर के चले जाने पर कंबल पर बैठ मैं जेल का
दृश्य देखने लगा। लालबजार की हवालात की अपेक्षा यह निर्जन कारावास अधिक अच्छा लगा।
वहाँ उस विशाल कमरे की निर्जनता मानों अपनी विशाल काया को विस्तारित करने का अवकाश
पा निर्जनता को और भी गहन कर दे रही थी। यहाँ छोटे से कमरे की दीवारें मानों
बंधु-रूप में पास आ, ब्रह्ममय हो,
आलिंगन में भर लेने को तैयार थीं। वहाँ दो तल्ले के कमरे की ऊँची-ऊँची खिड़कियों से
बाहर का आकाश भी नहीं दिखता था, इस संसार में पेड़-पत्ते, मनुष्य, पशु-पक्षी, घर-द्वार
भी कुछ हैं, बहुत बार उसकी कल्पना करना भी कठिन हो जाता था।
यहाँ आँगन का दरवाजा खुला होने पर, सरियों के पास बैठने से
बाहर जेल की खुली जगह और कैदियों का आना-जाना देखा जा सकता है। आँगन की दीवार से
सटा वृक्ष था, उसकी नयनरंजन निलिमा से प्राण जुड़ जाते। छह
डिक्री के छह कमरों के सामने जो संतरी घूमता रहता उसका चेहरा और पदचाप बहुत बार
परिचित बंधु के चलने-फिरने की तरह प्रिय लगती। कोठरी के पार्श्ववर्ती गोहालघर के
कैदी कोठरी के सामने से गौएँ चरने ले जाया करते। गौ और गोपाल थे प्रतिदिन के प्रिय
दृश्य। अलीपुर के निर्जन कारावास में अपूर्व प्रेम की शिक्षा पायी। यहाँ आने से
पहले मनुष्यों के साथ मेरा व्यक्तिगत प्रेम अतिशय छोटे घेरे में घिरा था और पशु-पक्षियों
पर रुद्ध प्रेम-स्त्रोत तो बहता ही नहीं था। याद आता है, रवि
बाबू की एक कविता में भैंसे के प्रति एक ग्राम्य बालक का गंभीर प्रेम बहुत सुंदर
ढंग से वर्णित हुआ है। पहली बार पढ़ने पर वह जरा भी हृदयंगम नहीं हुई थी, भाव-वर्णन में अतिशयोक्ति और अस्वाभाविकता का दोष देखा था। अब पढ़ने पर
उसे दूसरी दृष्टि से देखता। अलीपुर में रहकर समझ सका कि सब तरह के जीव, मनुष्य के प्राणों में कितना गंभीर स्नेह स्थान पा सकते हैं। गौ, पक्षी, चींटी तक को देख कितने तीव्र आनंद के स्फुरण
में मनुष्य का प्राण अस्थिर हो सकता है।
अद्भुत भोजन और कुशल-क्षेम
कारावास
का पहला दिन शांति से कट गया। सभी कुछ नया था, इससे
मन में स्फूर्ति जगी। लालबजार की हवालात से तुलना करने पर इस अवस्था में भी
प्रसन्नता हुई और भगवान पर निर्भर था इसलिए यहाँ की निर्जनता भी भारी नहीं पड़ी।
जेल के खाने की अद्भुत सूरत देख कर भी इस भाव में कोई आघात नहीं पड़ा। मोटा भात, उसमें भूसी, कंकड़, कीड़ा, बाल आदि कितने तरह के मसालों से पूर्ण – स्वादहीन दाल में जल का अंश ही
अधिक, तरकारी में निरा घास-पात का साग। मनुष्य का खाना इतना
स्वादहीन और निस्सार हो सकता है यह पहले नहीं जानता था। साग की यह विषण्ण गाढ़ी
कृष्ण मूर्ति देख कर ही डर गया, दो ग्राम खा उसे भक्तिपूर्ण
नमस्कार कर, एक ओर सरका दिया। सब कैदियों के भाग्य में एक ही तरकारी बदी थी, और
एक बार कोई तरकारी शुरू हो जाए तो अनंत
काल तक वही चलती थी। उस समय साग का राज्य था। दिन बीते,
पखवारे बीते, माह बीते किन्तु दोनों समय वही साग, वही दाल, वही भात। चीज़ें तो क्या बदलनी थीं, रूप में भी कतई परिवर्तन नहीं होता था। उसका वही नित्य, सनातन, अनाद्यनन्त,
अपरिणामातीत अद्वितीय रूप। दो दिन में ही कैदियों में इस नश्वर माया-जगत के
स्थायित्व पर विश्वास जनमने लगेगा। इसमें भी अन्य कैदियों की अपेक्षा मैं
भाग्यशाली रहा, यह भी डाक्टर बाबू की दया से। उन्होंने
अस्पताल से मेरे लिए दूध की व्यवस्था की थी, इससे कुछ दिन के
लिए साग-दर्शन से मुक्ति मिली।
उस रात जल्दी सो गया। किन्तु निश्चिंत निद्रा निर्जन कारावास का नियम नहीं है, उससे कैदियों की सुखप्रियता जग सकती है। इसीलिए नियम है कि जितनी बार पहरा बदले उतनी बार कैदी को हाँक मार कर उठाया जाता है और हुंकारा न भरने तक छोड़ते नहीं। जो-जो छ्ह डिक्री का पहरा देते थे उनमें से बहुत-से इस कर्तव्य-पालन से विमुख थे। सिपाहियों में प्राय: ही कठोर कर्तव्य-ज्ञान की अपेक्षा दया और सहानुभूति अधिक थी, विशेषत: हिंदुस्तानियों के स्वभाव में। किन्तु कुछ लोगों ने नहीं बख्शा। वे हमें इस तरह जगा यह कुशल संवाद पूछते : “बाबू, ठीक हैं तो?” यह असमय का हँसी-मज़ाक सदा नहीं सुहाता पर समझ गया कि जो ऐसा करते हैं वे सरल भाव से नियम वश ही हमें उठाते हैं। कई दिन, विरक्त होते हुए भी, इसे सह गया। अन्तत:, निद्रा की रक्षा के लिए धमकी देनी पड़ी। दो-चार बार धमकाने के बाद देखा कि रात को कुशल-क्षेम पूछने की प्रथा अपने-आप ही उठ गयी। (क्रमश:, आगे अगले अंक में)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको सूतांजली कैसी लगी और क्यों, नीचे दिये गये ‘एक टिप्पणी भेजें’ पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।