सूतांजली
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वर्ष : ०४ * अंक : ११ 🔊(२३.५८) जून *
२०२१
जो इंसान खुद के लिए जीता है, उसका एक दिन मरण होगा
परंतु
जो इंसान दूसरों के लिए जीता है, उसका सदैव स्मरण
होगा।
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जीवन कैसे जिया जाये मैंने पढ़ा🔉(३.०४)
यूनान
के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात एक बार भ्रमण करते हुए एक शहर में पहुँचे। वहाँ उनकी
एक वृद्ध व्यक्ति से भेंट हुई। दोनों काफी घुल मिल गये। सुकरात ने उन वृद्ध
महानुभाव के व्यक्तिगत जीवन में काफी रुचि ली। काफी खुलकर बातें कीं। सुकरात ने
संतोष व्यक्त करते हुए कहा, ‘आपका विगत जीवन तो बड़े शानदार ढंग से बीता है,
पर इस वृद्धावस्था में आपको कौन-कौनसे पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, यह तो बताइये?’
सुकरात |
वृद्ध
की बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि आपने इस आयु में
जीवन कैसे जिया जाय, यह
बखूबी समझ लिया है।
(गीतप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण से)
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कैसे लें बुढ़ापे में आनंद? मेरे विचार 🔉(१२.५८)
९९
वर्षीय एक वृद्ध का साक्षात्कार (इंटरव्यू) लेने के बाद टेबल पर पड़े अपने सामानों
को बटोरते हुए पत्रकार ने उनकी सेहत की शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि उसे इस बात का
विश्वास है कि एक वर्ष बाद उनकी १००वीं वर्षगांठ पर भी वह उनका साक्षात्कार लेने
आयेगा। वृद्ध सज्जन ने तपाक से जवाब दिया, ‘हाँ, जरूर! क्यों नहीं। मुझे तो आप पूर्ण स्वस्थ लग
रहे हैं’। यह था आत्म विश्वास उस वृद्ध सज्जन का अपने स्वास्थ
के प्रति।
पुरस्कार ग्रहण करती मान कौर |
इरने ओ'शेय |
इरने
ओ’शेय (Irene O’Shea) १०२
वर्षीय वह महिला है जिसने १४००० फीट की ऊंचाई से आसमान में छलांग लगाई है।
इसके साथ ही वे विश्व की सबसे ज्यादा उम्र की आसमान में छलांग (स्काई डाईविन्ग)
लगाने वाली महिला बन गई हैं। यह उनका अपना जन्म दिवस मनाने का अनूठा तरीका है जिसे
वे अपनी १००वीं जन्मदिन से मना रही हैं।
इनके
विडियो अभी पिछले कुछ समय में, कोरोना काल के
दौरान, व्हाट्स एप्प पर साझा किये गये थे। आपने भी देखा होगा। हम तो, शायद, अभी उस उम्र से दूर हैं। तब, आप ही बताएं बुढ़ापा वरदान है या अभिशाप? दरअसल
बुढ़ापा वह नियामत है, तोहफा है, जिसे कुदरत ने हमें बिना मांगे दिया है। यह
अभिशाप कैसे हो सकता है! यही वह समय है जब हम
वह सब कर सकते हैं जिन्हें ता-उम्र नहीं कर पाये।
ईश्वर ने दिया तो वरदान ही है, लेकिन हमने खुद अपनी करनी
(कार्य) और बरनी (सोच) से इसे अभिशाप में परिणित कर लिया तो इसका जिम्मेदार कौन है?
ईस्टवुड |
८८
वर्षीय इस्टवुड से उनकी सेहत का राज पूछा गया तो उन्होने कहा, “मैं रोज सुबह जब उठता हूँ तब बुढ़ापे को अपने अंदर घुसने नहीं देता। और
फिर उन्होंने एक गाने की धुन तैयार की। उस गीत के बोल हैं ‘बुढ़ापे को अंदर आने मत
दो’(Don’t let the old man in)।
मनोहर अठवाणी ने अच्छे पारिवारिक संबंध बनाये रखने के रहस्य पर बड़े आकर्षक ढंग से हमारा
ध्यान खींचा है। वे कहते हैं कि :
एक
उम्र के बाद हमें कम बोलना या चुप रहना सीखा लेना चाहिए,
यह
मान कर मत चलिये कि हमारी सब इच्छाएं पूरी होंगी,
घमंड
से दूर रहें,
बेटे-बेटी-बहू
के कार्यों में बेवजह दखलंदाज़ी न करें उन्हें अपनी ज़िंदगी खुद जीने दें,
उनसे
यह अपेक्षा न करें कि वे हर कार्य हमसे
पूछ कर ही करेंगे,
अपने
जीवन को एक साँचे में ढालें,
खाने-पीने
में संयम रखें,
किसी
भी बात के लिए ज़िद न करें,
अगर
बीमार या कष्ट है तो भी हर समय उसकी चर्चा न करें,
अपने
कार्य और इच्छा को सर्वोपरी न मानें,
अपने
घर की बातें दूसरों को न बताएं,
छोटे
बच्चों की तरह बेटे-बेटी-बहू के कटु वचन का न प्रत्युत्तर दें –
न
उसका बुरा मानें और न ही उसे दिल में बैठा कर रखें,
उनसे
स्नेह रखें, प्रभू को धन्यवाद दें तथा खुश मिजाज रहें,
न
फिजूल की शिकायतें करें न ही अपने किये का गुणगान करें,
अपनी
सोच को छोटी न करें,
बच्चों
का कुछ बताना ही उनका पूछना समझें,
अगर
सोच तंग हुई तो समझ लें कि जंग हुई,
संयम
से रहें, लोभ-मोह-लालच से दूर रहें।
ये
हैं वे कुछ ‘बरनी’ जो बुढ़ापे को हमारे
अंदर नहीं घुसने देतीं।
लेकिन वह विडियो जिसने मुझे यह लिखने पर मजबूर किया वह था एक बुजुर्ग का विडियो। पाश्चात्य सभ्यता का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपने बुढ़ापे की व्यवस्था खुद करनी चाहिए, बच्चों के भरोसे नहीं रहना चाहिए, अगर वे देखभाल करते हैं तो उसे बोनस समझना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर
भी बच्चों को अपने वृद्धावस्था के लिए बचाया हुआ धन नहीं देना चाहिये। उनका यह कथन मुझे उद्वेलित कर गया। मेरी रात की नींद उड़ गई। हाँ, यह बात सही है कि समय को देखते हुए अपनी व्यवस्था करना उचित है, बच्चों पर बोझ न पड़े इसका ख्याल रखना चाहिये, लेकिन बच्चे हमारी देख-भाल नहीं करेंगे! यह मान कर चलना, अपनी तरफ से जंग का बिगुल बजाना ही है। निवेश करने वाली संस्थाएं तो निरंतर यही सीख देती रहती हैं कि हमारी ज़िम्मेदारी केवल हमारे बच्चों तक है। अपने परिवार के प्रति नहीं, क्योंकि वे माँ-बाप को परिवार का हिस्सा नहीं मानतीं। और इस प्रकार यही कहती हैं कि आप अपनी चिंता कीजिये, माँ-बाप की नहीं। माँ-बाप ने अपनी चिंता खुद की होगी और अगर नहीं की है तो वे खुद भोगें, वे ही इसके जिम्मेदार हैं। इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि हमें अपनी व्यवस्था रखने का भरसक प्रयास करना चाहिये। लेकिन उनकी बात के विपरीत मैं उन बुजुर्ग से यही कहूँगा कि शिक्षा यही दें कि हमें इस विश्वास के साथ बढ़ना चाहिये कि हमारे बच्चे हमारा ख्याल रखेंगे और हम वृद्धावस्था के लिए बचाया हुआ धन उन्हें बोनस के रूप में देकर जाएंगे। यही नहीं अगर वे देख-भाल रखते हैं तब हमें भी फिजूलखर्ची से बचना चाहिये और उनके लिए जमा किये गये बोनस को अपने ऊपर खर्च न कर या तो उनके ऊपर खर्च करें या उनके लिए बोनस के रूप में ही छोड़ कर जाएँ। यह सोच, हमारे जीवन को बदल देगा, हमारे सम्बन्धों को बदल देगा। हमें यह स्वीकार करना चाहिये कि ताली एक हाथ से नहीं बजती। बच्चे वही सीखेंगे जैसा हम करेंगे। वे वैसा ही सोचेंगे जैसा हम सोचेंगे।
मैं यह सोचता रहा कि क्या मैं गलत हूँ? मैं गलत सोच रहा हूँ? श्याम मानव ही ठीक कह रहे हैं? मेरी दुविधा दूर की और यह सब लिखने का साहस जुटाया एक अन्य विडियो ने जिसे बनाया था किसी बहू या बेटी ने। वे कहती हैं कि हम जब बाहर खाने जाते हैं तब सब कुछ देखते हैं लेकिन प्यार नहीं, लेकिन जब घर पर खाते हैं तो और कुछ नहीं देखते सिर्फ प्यार ही देखते हैं, खिलाने वाले का प्यार। वे कहती हैं कि हम अपने घर के हर बुजुर्ग को अपने हाथ से खिलाएँ, यानि रसोई में भले ही कोई सहायता लें लेकिन वहाँ से उनकी थाली तक समान पहुँचने वाला घर का ही कोई सदस्य होना चाहिये। सोच भोजन करने-कराने की रखें, भोजन निपटाने की नहीं। हमारे बच्चे जो देखेंगे वही सीखेंगे।
बहुत
लोग मानते हैं कि धन है तो सब कुछ है। मैं कुछ वक्त पहले ऑस्ट्रेलिया में था, लंबे समय के लिए। वहाँ अवैतनिक ‘सेवाकार्य’ करने की इच्छा से कई जगहों पर आवेदन दिया। एक वृद्धाश्रम से बुलावा आया।
वहाँ के संचालक से बातचीत हुई। उन्होंने कहा, ‘यहाँ, वृद्धों का सब कार्य करने के लिए लोग हैं, उनके कपड़े बदली करना, स्नान कराना, मंजन कराना, सफाई करना, गाना
या गीत सुनाना, पुस्तक पढ़ना आदि कोई भी काम कहें सब होता है
लेकिन सब यंत्रवत। उनके साथ बैठ कर उनसे बात करना, उनकी
सुनना और अपनी सुनाने वाला कोई नहीं। हाँ पैसे से ऐसे लोग भी मिलते हैं लेकिन
महेशजी उनसे ये लोग अपने परिवार की ही बात करना चाहते हैं,
दूसरे जहाँ की नहीं। और हम, उनके साथ बाकी पूरी दुनिया की
बात कर सकते हैं लेकिन उनके परिवार की नहीं। अगर हम समय दें तो उनकी जिंदगी बदल
जाये, वे स्वस्थ हो जायें। वे लोग जो यूरोप-अमेरिका का उदाहरण देते हैं, वे एक बार वहाँ के बुजुर्गों
के साथ रहें तब पता चलेगा कि वे ज़िंदगी जी नहीं रहे हैं,
जिंदगी काट रहे हैं। कई बार ऐसे यूरोपिएन-अमेरीकन बुजुर्गों के साथ रहने का मौका
मिला है, वे अपने परिवार की, बच्चों की
ही बात करते हैं। उन्हें भारतीय परिवार देख कर अच्छा लगता है, कइयों की आँखों में तो आँसू तक आ जाते हैं।
श्री
सुदर्शन बिड़ला ने एक सभा में कहा, ‘हम अपने बच्चों के लिए कितना धन छोड़ कर जाएंगे? १००
करोड़, १००० करोड़, १०००० करोड़? कितना भी छोड़ें एक पीढ़ी के लिए कम पड़ सकता है। एक,
और केवल एक ही चीज है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती है, और वह है
संस्कार। अपने बच्चों को संस्कारित कीजिये, उन्हें संस्कार
दीजिये।
लानत
है उस जिंदगी पर जिसमें हमारे पास अपने माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी,
सास-श्वसुर के लिए समय नहीं। लानत है उस समाज पर जिसमें यह सब हो रहा है और हम उसे
चुप-चाप सह रहे हैं। इस मामले में हम कम-से-कम उस सरकार का धन्यवाद तो कर ही सकते
हैं कि उसने माँ-बाप की देखभाल करना बच्चों का उत्तरदायित्व ठहराया है और न करने
पर सजा की भी व्यवस्था की है। लेकिन यह समाधान नहीं है। कानून पैसे दिलवा सकता है, प्यार नहीं। समाधान तो हमारे और आपके हाथ में ही है, जमा किये गए पैसों में समाधान नहीं, मजबूरी
है।
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कारावास की
कहानी-श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक(🔉७.५२)
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। ‘अग्निशिखा’ में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के
रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी छठवीं किश्त है।)
(6)
‘गवर्नमेंट होटल’
अलीपुर
के गवर्नमेण्ट होटल का जो वर्णन मैंने किया है वह निजी कष्ट-भोग की विज्ञप्ति के
लिये नहीं वरन् सुसभ्य ब्रिटिश राज्य में विचाराधीन कैदियों के लिये कितनी अदभुत
व्यवस्था थी, निर्दोषों को
दीर्धकालव्यापी कितनी यंत्रणा भोगनी पड़ सकती है, यह बतलाने
के लिये ही है यह वर्णन। कष्टों के जो कारण दिखलाये हैं, वे
तो थे ही किंतु भगवान् की दया दृढ़ थी इसलिये थोड़े दिनों
तक ही कष्ट अनुभव किया, उसके बाद तो मन उस दु:ख से अतीत हो
कष्ट अनुभव करने में असमर्थ हो गया था। इसीलिये मन में
जेल की स्मृति जगने पर क्रोध या दुःख नहीं, हंसी ही आती है।
पहले-पहल जब जेल की विचित्र पोशाक पहन अपने पिंजरे में घुसकर रहने का बन्दोबस्त
देखा था तब यही भाव मन में उदित हुआ था। मन-ही-मन हंस रहा था। अंग्रेज जाति का
इतिहास और आधुनिक आचरण का निरीक्षण कर बहुत पहले ही मैंने उनके विचित्र और रहस्यमय
चरित्र को समझ लिया था, इसीलिये अपने लिये उनकी ऐसी व्यवस्था
देखकर भी जरा भी आश्चर्यान्वित या दुःखी नहीं हुआ। साधारण दृष्टि से हम लोगों के
साथ उनका ऐसा व्यवहार अतिशय अनुदार व निंदनीय था। हम सब थे कुलीन घरानों के,
बहुत-से थे जमींदारों के बेटे, कितने ही वंश,
विधा, गुण और चरित्र में थे इंग्लैण्ड के
शीर्षस्थानीय व्यक्तियों के समकक्ष! हम जिस अपराध में पकड़े
गये थे वह भी सामान्य खून, चोरी,
डकैती नहीं था, था देश के लिये विदेशी सरकार
के विरूद्ध युद्ध-चेष्टा षड़यंत्र। तिसपर कइयों को दोषी
ठहराने में प्रमाण का नितांत अभाव था; पुलिस का संदेह ही था
उनके पकड़े जाने का एकमात्र कारण। ऐसे स्थान में सामान्य चोर-डकैतों की तरह रखना - चोर डकैत ही क्यों, पशुओं की तरह पिंजरे में रख, पशुओं का अखाद्य आहार
खिलाना, जलकष्ट, धूप, वर्षा व शीत सहन कराना - इससे ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश जाति की गौरव-वृद्धि नहीं होती। यह है किंतु उनका जातीय चरित्रगत दोष। अंग्रेजों
में क्षत्रियोचित गुण होते हुए भी शत्रु या विरुद्धाचरणकारी के साथ व्यवहार करते समय वे
हैं सोलह आने बनिये। मेरे मन में तब विरक्ति की भावना ने स्थान नहीं पाया बल्कि मुझमें और देश
के साधारण अशिक्षित लोगों में कुछ भेद नहीं रखा गया यह देखकर कुछ आनंदित हुआ, और फिर
इस व्यवस्था ने तो मातृभक्ति के
प्रेमभाव में आहुति का काम किया । मैंने इसे योग-शिक्षा और द्वंद्व-जय का अपूर्व
उपकरण और अनुकूल अवसर माना, तिसपर मैं था चरमपंथी दल का जिनके मत
में प्रजातंत्र एवं धनी-दरिद्र का साम्य है राष्ट्रीय भाव
का एक प्रधान अंग। याद हो आया - मत को कार्यान्वित करना अपना कर्तव्य समझ सूरत
जाते समय सभी ने एक साथ तीसरे दर्जे में यात्रा की थी। कैंप
में नेतागण अपना-अपना अलग प्रबंध न कर सबके साथ एकभाव से, एक ही
कमरे में सोते। धनी, दरिद्र, ब्राम्हण, वैश्य, शुद्र, बंगाली, मराठी, पंजाबी, गुजराती
- सब दिव्य भ्रातृभाव से एक साथ
रहते, सोते, खाते।
जमीन पर सोना, दाल-भात, दही
खाना, सब चीजों में था स्वदेशी का बोलबाला ।
कलकत्ते और बंबई के विदेश से लौटे हुए लोग और
मद्रास के तिलकधारी ब्राम्हण सब एक साथ मिल-जुल गये थे।
इस अलीपुर जेल में रहते समय अपने देश के कैदी, अपने
देश के किसान, लुहार, कुम्हार, डोम के समान
आहार, समान रहन-सहन, समान
कष्ट, समान मान-मर्यादा पा समझा कि
सर्वशरीरवासी नारायण ने इस साम्यवाद, इस एकता, इस
देशव्यापी भ्रात्रृभाव से सहमत हो मानों मेरे जीवन-व्रत पर अपनी मुहर लगा दी हो ।
जिस दिन जन्मभूमि-रूपिणी जगज्जननी के पवित्र मण्डप में सारा देश भ्रात्रृभाव में
एक प्राण हो जगत् के सामने उन्नतमस्तक हो खड़ा होगा, सहवासी
आसामी और कैदियों के प्रेमपूर्ण आचरण एवं सरकार के इस साम्यभाव में, इस
कारावास में उस शुभ दिन का हृदय में पूर्वाभास पा कितनी ही बार हर्षित व पुलकित हो
उठता था। अभी उसी दिन पूना के "Indian
Social Reformer” ने मेरी
एक सहज बोधगम्य उक्ति पर व्यंग्य कसते हुए कहा था, ''जेल में
तो भगवत्सान्निध्य की बड़ी बाढ़-सी आ गयी दीखती है।'' हाय रे मान-सम्मान के अन्वेषी, अल्प
विधा से, अल्प सदगुण
से गर्वित मनुष्य के अहंकार और क्षुद्रता! जेल में, कुटीर
में, आश्रम में, दुःखी
के हृदय में भगवान् प्रकट नहीं होंगे तो क्या धनी के विलास-भवन में, सुखान्वेषी
स्वार्थाध संसारी की सुख-शय्या पर होंगे? भगवान्
विधा , सम्मान, लोकमान्यता, लोकप्रशंसा, बाह्य स्वच्छंदता
व सभ्यता नहीं देखते। वे दुःखी के सामने ही दयामयी माँ का रूप धरते हैं। जो मानवमात्र में, जाति
में, स्वदेश में, दुःखी-गरीब, पतित-पापी
में नारायण को देख उनकी सेवा में जीवन समर्पित करते हैं, उन्हींके हृदय में आ बसते हैं नारायण
और उथ्थानोधत पतित जाति में, देश-सेवक
की निर्जन कारा में ही संभव है भगवत्-सान्निध्य की बाढ़।
(क्रमश: आगे अगले अंक में)
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