सूतांजली
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वर्ष : ०४ * अंक : १२ 🔊(२१.५६) जुलाई *
२०२१
गहरी बातें समझने के लिए, गहरा होना पड़ता है और
गहरा होने के लिए, गहरी चोटें खानी पड़ती
हैं।
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ऋषि, ऋषिभाव, ऋषित्व
ऋषि, मुनि, संत, महात्मा, साधू जैसे कई शब्द हमारी भाषा में प्रचलित हैं और साधारणतया हम इनका प्रयोग भी समानार्थक शब्दों के रूप में एक-दूसरे
के बदले प्रयोग करते हैं। हिन्दी शब्दकोश में भी इन शब्दों का अर्थ प्राय:
पर्यायवाची शब्दों के रूप में ही उल्लखित है, यथा:
ऋषि
= शास्त्र प्रणेता, वेद-मंत्रों
का प्रकाशन, ज्ञान द्वारा संसार पार करने वाला।
मुनि
= मौन व्रती, महात्मा, ऋषि, तपस्वी, त्यागी
संत
= साधू, महात्मा, धर्मात्मा
महात्मा
= वह जिसकी आत्मा का आशय बहुत ऊंचा हो, बहुत
बड़ा साधू
साधू
= उत्तम कुल में उत्पन्न, मुनि, सज्जन, धार्मिक
लेकिन
अगर भाषा के शब्दकोश को छोड़ हम अपने ग्रन्थों,
वेदों और पुराणों को खंगाले तो इन शब्दों का भावार्थ समझ आता है और इनके भावार्थों
से साक्षात्कार होता है। इन्हीं शब्दों में एक शब्द ‘ऋषि’ है, इसी से बना है ऋषित्व और ऋषिभाव।
ऋगवेद
में एक कथा आती है। गोमती नदी के तटपर हिमवान पर्वत के प्रांत में एक राज्य था।
उसका राजा रथवीति अत्यंत धर्मवान, गुणनिधि, नीतिमान था। उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ को सम्पन्न करने
राजा ने अत्रिवंशज दाभर्य ऋषि को आमंत्रित किया। ऋषि अपने पुत्र के साथ राजा
रथवीति का यज्ञ सम्पन्न करने पधारे। यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ। यज्ञानुष्ठान
के दौरान ऋषि ने रथवीति की सुशील, सुंदर एवं गुणवती कन्या को
देखा। उसे देख उन्होंने विचार किया कि यह कन्या उनकी पुत्रवधु होने लायक है। अत:
यज्ञ समाप्ती के बाद ऋषि ने राजा से अपनी
इच्छा जाहीर की। ऋषि के इस प्रस्ताव पर राजा ने अपनी पत्नी के साथ इस पर
विचार-विमर्श कर ऋषि के पास आये। रानी ने ऋषि से कहा, “हे
ऋषिवर! अब तक हमारे वंश की कन्याएँ ‘ऋषिभाव’ प्राप्त सत्पुरुषों को ही प्रदान की गई हैं। इसलिए यदि ऋषिपुत्र ऋषित्व –
भाव को प्राप्त करले, तो उसका विवाह हम अपनी कन्या से
करायेंगे।”
रानी
के यह वचन सुनकर ऋषिपुत्र, श्यावाश्व ने ‘ऋषिभाव’ प्राप्त करने का संकल्प किया। तत्पश्चात कथा आगे बढ़ती है। श्यावाश्व दृड़
संकल्प के साथ घोर तपस्या और सत्यनिष्ठ आचरण सम्पन्न करने में मन-वाणी और कर्म से
प्रवृत्त हुए। ऋषिपुत्र की तपश्चर्या और साधना से यथासमय मरुद्गणों ने उन्हें
ऋषिभाव प्राप्ति का आशीर्वाद प्रदान किया।
श्यावाश्व
के ऋषिभाव प्राप्त होने के बाद, राजा रथवीति भी
परिवार समेत आकर ‘ऋषि श्यावश्व’
सम्बोधन के साथ ही उनका स्वागत किया और उन्हें गृहस्थाश्रम में प्रवेशहेतु अपनी
सुशील, सुयोग्य कन्या प्रदान की।
हमें
यहाँ यह विचार करना चाहिये की ऋषिभाव क्या है? और ऋषित्व
क्या है? ‘वेद’
अपौरुषेय हैं और ऋषि वे हैं, जो वैदिक मंत्रों का, ऋचाओं का, मंत्रवाक्यों का साक्षात दर्शन करते हैं।
ऋषि वह है, जो त्रिकालदर्शी हैं। जो भूत, भविष्य और वर्तमान को एक ही समय में समग्र रूप से देखें। ‘ऋत’ का अर्थ है, सार्वलौकिक, सार्वकालीक, त्रिकाल – अबाधित सत्य और उस सत्य को
जानकर उस ज्ञानशक्ति से जगत-मिथ्यात्व-निश्चय को प्राप्त होनेवाला ही ऋषिभाव को
प्राप्त हो जाता है।
यहाँ
पर बोध के योग्य बात यह है कि ऋषिकुल में जन्म होना और ऋषि-भाव-परमभाव को प्राप्त होना – ये दोनों बातें अलग-अलग हैं।
ऋषिभाव की प्राप्त होने के लिए सत्यनिष्ठा,
तपश्चर्या, दृड़संकल्प, ज्ञानसाधना की
आवश्यकता है।
(गीतप्रेस,
गोरखपुर से प्रकाशित ‘बोध कथा’ अंक से)
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पैसों के मालिक नहीं, रखवाले
फिक्की
लेडीज़ और्गेनाइज़ेशिन (FLO) के चेयरपर्सन के एक इंटरनेशनल समारोह में सुधा मूर्ति
ने बतलाया था कि उन्हें जे आर डी टाटा से एक अनमोल सलाह तब मिली, जब उन्होंने अपने पति नारायण मूर्ति की स्टार्ट अप कंपनी इंफ़ोसिस में उनका
सहयोग करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी। टाटा ने कहा था, “यह याद रखना कि कोई भी पैसे
का मालिक नहीं होता, हम केवल पैसों के रखवाले हैं और यह हमेशा एक हाथ से दूसरे हाथ
में जाता रहता है। इसीलिए जब आप सफल हों तो इसे समाज को वापस लौटा दें, जिसने आपको
बहुत सद्भावना दी है”।
आजादी
के पहले अपने सपनों के भारत की कल्पना करते हुए महात्मा गाँधी ने ट्रस्टिशिप के
सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। मूलत: यह सिद्धान्त उनके मन में १९०३ में आया था
जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे। इस सिद्धान्त पर उन्होंने पूरी गहराई से विचार किया
था और इसके सब आयामों पर विचार कर विस्तार से इसे प्रतिपादित किया था। उनके इस
सिद्धान्त की जड़ यही है कि पूंजी का असली मालिक पूंजीपति नहीं बल्कि समाज है। उनका
मानना था कि पूंजीपतियों के पास जो पूंजी है उसका असली मालिक वह पूंजीपति खुद नहीं
है बल्कि समाज है। पूंजीपति तो सिर्फ उसका रखवाला है, समाज की वह पूंजी उसके पास धरोहर के रूप में है। महात्मा गाँधी के इस
ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संपत्ति का
संचय करता है, उसे केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु
संपत्ति के उपयोग का अधिकार है। शेष संपत्ति का प्रबंध उसे एक ट्रस्टी की हैसियत
से देखभाल कर समाज कल्याण पर खर्च करना चाहिए। महात्मा गाँधी यह स्वीकार करते थे
कि सभी लोगों की क्षमता एक सी नहीं होती है। किसी की पैसे कमाने की क्षमता अधिक होती है किसी की कम। अत:
जिनके पास कमाने की क्षमता अधिक है, उन्हें कमाना तो चाहिए
लेकिन अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद शेष राशि समाज के कल्याण पर खर्च करना
चाहिए। गाँधीजी के अनुसार पूंजीपतियों को अपनी जरूरतें भी सीमित करनी चाहिए तभी वे
बची हुई आमदनी को जरूरत मंदों पर खर्च कर सकेंगे।
दुर्भाग्यवश
देश के बुद्धिजीवी, उद्योगपति और व्यवसायियों के बड़े वर्ग ने, गाँधी के इस सिद्धान्त पर ‘काल्पनिक आदर्शवाद’ का बल्ला लगा इसे अव्यवहारिक बता इसकी खिल्ली उड़ाई। लेकिन महात्मा गाँधी
इससे विचलित नहीं हुए और लगातार और बराबर देश के पूँजीपतियों और धनी व्यक्तियों से
इसपर चर्चा करते रहे। अनेक उद्योगपतियों ने इस पर विचार किया और इसे अपनाया।
ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का पालन करने वाले अनेक उद्योगपतियों में परिवार सहित
सादगीपूर्ण रहन-सहन अपनाने वाले जमनालाल बजाज को महात्मा गाँधी का सबसे प्रिय
उद्योगपति शिष्य माना जाता है।
जे आर डी टाटा |
ध्यान
रखें आपके पास जो है वह आपका नहीं बल्कि समाज या ईश्वर का है। आप उसमें से सिर्फ
अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति,
इच्छाओं की नहीं, लायक पूंजी निकालने के अधिकारी हैं। बाकी
पूंजी समाज या ईश्वर के कार्यों में लगाकर उन्हें समर्पित करना आपका कर्तव्य है।
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सामाजिक कार्यकर्त्ता
(श्री प्रमोद शाह अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच के संस्थापक
अध्यक्ष रह चुके हैं। अपने कार्यकाल के पश्चात उन्होंने अपने अनुभवों को ‘एक रचनात्मक यात्रा’ नामक
पुस्तक में सँजोया है। उसी पुस्तक के कुछ अंश)
प्रमोद शाह |
एक
पल, शायद कुछ भी नहीं, शायद बहुत
कुछ। साहिर लुधयानवी ने कहा :
उम्र भर रेंगने से कहीं बेहतर
हैं,
एक लम्हा जो तेरी
रूह में वुसअत (विस्तार) भर दे
इसी एक पल पर किसी ने यह भी लिखा है:
तारीख की नजरों से वो दौर
भी गुजरे हैं
लम्हों ने खता की थी
सदियों ने सज़ा पायी।
एक
सामाजिक कार्यकर्त्ता और उस पर भी अगर अधिकारी हैं, तब उसके हर पल का महत्त्व स्पष्ट रूप से रेखांकित है।
सार्वजनिक
मंच पर कार्य करने से पहले अपने युग के काल-खंड को ठीक से समझ लेना आवश्यक है।
अर्थात अपने आसपास के वातावरण तथा देश व समाज की
परिस्थितियों पर एक विहंगम दृष्टिपात करना परम आवश्यक होता है। बदलते दौर
पर चिंतन-मनन कर यदि हम समाज के लिए कुछ करेंगे तो हमारे श्रम का फल बहुत अधिक
मिलेगा। कूप-मंडूक रहकर समाज को गहराई नहीं दे पाएंगे। अत: एक वैज्ञानिक दृष्टि का
विकास करना वक्त की माँग है।
सामाजिक
कार्य करनेवालों के लिए मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी ने, दो टूक अंदाज़ में, तीन बहुत महत्वपूर्ण बातें कही
हैं –
१।
जो लोग इन्सानों के दु:ख दर्द को मिटाने के ठेकेदार बनते हैं, वे ही लोग इन्सानों के दु:ख की ओर सबसे कम ध्यान देते हैं।
२।
यह विचित्र बात है कि जो लोग समाज के बारे में या सामाजिक समस्याओं के संबंध में
सोचने और कार्यान्वित करने में व्यस्त रहते हैं, वे व्यक्तियों से प्रेम नहीं कर पाते।
३।
संसार में जीवन व्यवस्था का भी एक स्थान है किन्तु उचित या अच्छी जीवन
व्यवस्था चाहना एवं उसके लिए प्रयत्नशील होना कभी भी सज्जनता
और प्रेम का स्थान नहीं ले सकते।
इन
तीन बातों का निचोड़ यही है कि एक सामाजिक कार्यकर्ता में मानवता के प्रति
सहानुभूति, सज्जनता तथा व्यक्तियों से प्रेम की भावना का होना
आवश्यक है। इसी प्रकाश में हम देखें तो पाएंगे कि एक कार्यकर्ता या पदाधिकारी में
सबको साथ लेकर चलने की भावना, दूसरे की भावना को समझना, सहनशीलता, विशाल
सहृदयता तथा विपरीत परिस्थितियों में विचलित न होना जैसे बुनियादी गुण आवश्यक हैं।
इन
गुणों में सबसे बड़े बाधक हैं – अहंकार और अति महत्वाकांक्षा। अहंकार, जहां व्यक्ति को स्व-केन्द्रित कर देता है, वह अपने
को धूरी मानकर सारे निर्णय लेता है, वहीं अति महत्वाकांक्षा, भले-बुरे का विवेक खो देता है। महत्वाकांक्षा को मनीषियों ने कुछ शर्तों
के साथ फिर भी स्वीकृति दी है किन्तु अति-महत्वाकांक्षा तो प्रत्येक स्थिति में
त्याज्य है। दोनों में मुख्य अंतर यही है कि हम जो कुछ हो सकते हैं वह करने के लिए
परिश्रम करना, उन संभावनाओं का विकास करना, उसे लक्ष्य बनाना, उसे पाने के लिए उचित माध्यमों
का प्रयोग करना महत्वाकांक्षा है। किन्तु हम जिस योग्य नहीं हैं, उसे जबरन हासिल करने की कुचेष्टा करना, महज अपनी
इच्छापूर्ति के लिए, सही या गलत हर तरह के उपाय करना, चाहे वह सबके लिए अहितकर ही क्यों न हो, अति
महत्वाकांक्षा है। यह अहितकर ही नहीं, घातक भी है।
इन
बातों पर यदि ठीक से अध्ययन, चिंतन और मनन न
किया जाए तो पूरी मेहनत बेकार हो जाती है। इनके अभाव में भवन खड़ा करना, बिना नींव के मकान खड़ा करने समान है।
‘फिराक’ के अंदाज़में बात समाप्त करते हैं:
दिल का एक काम जो बरसों से
उठा रक्खा है,
तुम ज़रा
हाथ लगा दो तो हुआ रक्खा है।
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और हाँ, ऐसे
बच्चे भी होते हैं! लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना
वार्षिक
त्यौहार पर मेरे बड़े भाई ने तोहफे में मुझे एक नई गाड़ी दी। मैं खुशी से झूम उठा और
हाथों हाथ गाड़ी लेकर शहर घूमने निकल पड़ा। परिवार के सदस्यों के लिए भी मैंने अनेक
तोहफे खरीदे। मैं जब उन्हे लेकर अपनी नई गाड़ी की तरफ बढ़ा तो देखा एक छोटा सा बच्चा
बड़ी हसरत भरी नजरों से मेरी चमचमाती गाड़ी को देख रहा था। मुझे गाड़ी के पास खड़ा देख
कर बच्चे ने पूछा, “जी, क्या यह गाड़ी आपकी है”? मैंने बताया कि ‘हाँ मेरी ही है और इसे मेरे बड़े भाई ने मुझे दी है, क्यों? – मैंने प्रश्न किया। मेरी बात सुनकर वह
बच्चा विचारों में खो गया। मैंने सोचा शायद वह सोच रहा होगा,
“मेरा भी एक ऐसा ही बड़ा भाई होता”! लेकिन उसने जो कहा मैं चौंक गया और अब मेरे
विचारों में खो जाने की बारी थी। उसने कहा, “काश! मैं
भी अपने छोटे भाई को ऐसा ही कोई उपहार दे पाता”।
सोच, देने की रखें, लेने की नहीं ।
(अग्निशिखा में छपी एक कहानी पर आधारित। हम अपने बच्चों को ऐसे
संस्कार दे सकते हैं – जहां वे महत्व लेने का नहीं देने का समझें!)
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कारावास की
कहानी-श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक
(७)
भगवान मंगलमय हैं
मेरे निर्जन कारावास के समय डाक्टर डैली और सहकारी सुपरिंटेंडेंट साहब प्राय: रोज मेरे कमरे में आ दो-चार बातें कर जाते। पता नहीं क्यों, मैं शुरू से ही उनका विशेष अनुग्रह और सहानुभूति पा सका था। मैं उनके साथ कोई विशेष बात न करता, वे जो पूछते उसका उत्तर-भर दे देता। वे जो विषय उठाते वह या तो चुपचाप सुनता या केवल दो-एक सामान्य बात कह चुप हो जाता। तथापि वे मेरे पास आना न छोड़ते। एक दिन डैली साहब ने मुझ से कहा मैंने सहकारी सुपरिन्टेंडेंट को कह कर बड़े साहब को मना लिया है कि तुम प्रतिदिन सवेरे-शाम डिक्री के समाने टहल सकोगे। तुम सारा दिन एक छोटी सी कोठारी में बंद रहो यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इससे मन खराब होता है और शरीर भी। उस दिन से मैं सवेरे-शाम डिक्री के आगे खुली जगह में घूमने लगा। शाम को दस, पंद्रह, बीस मिनट घूमता, लेकिन सवेरे एक घंटा, किसी-किसी दिन दो घंटे तक बाहर रहता, समय की कोई पाबंदी नहीं थी। यह समय बहुत अच्छा लगता। एक तरफ जेल का कारख़ाना, दूसरी तरफ गोहालघर – मेरे स्वाधीन राज्य की दो सीमायें। कारखाने से गोहालघर, गोहालघर से कारखाने तक घूमते-घूमते या तो उपनिषद के गंभीर, भावोद्दीपक, अक्षय शक्तिदायक मंत्रों की आवृत्ति करता या फिर कैदियों के कार्यकलाप और यातायात देख ‘सर्वघट में नारायण’ हैं इस मूल सत्य को उपलब्ध करने की चेष्टा करता। वृक्ष, गृह, प्राचीर, मनुष्य, पशु, पक्षी, धातु और मिट्टी में, सर्वभूतों में ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ मंत्र का मन-ही-मन उच्चारण कर इस उपलब्धि को आरोपित करता। यह करते-करते ऐसा भाव हो जाता कि कारागार और कारागार न लगता। वह उच्च प्राचीर, वह लौह कपाट, वह सफ़ेद दीवार, वह सूर्य-रश्मि-दीप्त, नील-पत्र शोभित वृक्ष, वह छोटा-मोटा सामान मानों अब अचेतन नहीं रहा, सर्वव्यापी, चैतन्यपूर्ण हो सजीव हो उठा, ऐसा लगता कि वे मुझसे स्नेह करते हैं, मुझे आलिंगन में भर लेना चाहते हैं। मनुष्य, गौ, चींटी और विहंग चल रहे है, उड़ रहे हैं, गा रे हैं। बातें कर रहे हैं, पर है यह सब प्रकृति की क्रीडा; भीतर एक महान निर्मल, निर्लिप्त आत्मा शांतिमय आनंद में निमग्न हो विराजमान है। कभी-कभी ऐसा अनुभव होता मानों भगवान उस वृक्ष के नीचे खड़े आनंद की वंशी बजा रहे हैं, और उस
जेल की कोठारी के बाहर का बरामदा |
(क्रमश:, आगे अगले अंक में)
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