सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०१ 🔊(22.41) अगस्त *
२०२१
शिकायतें करने से हम शिकायत करने लायक
परिस्थितियों को हो आकर्षित करेंगे।
जब हम अपनी हर बात, हर साँस, हर प्राप्ति, हर उपलब्धि के लिए धन्यवाद
देते हैं, तो धन्यवाद देने
योग्य अनुभवों को आकर्षित करते हैं।
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धन्यवाद
इस
अंक के साथ हम पाँचवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। यह आपके हौसला-अफजाई कारण ही हो सका है। कोरोना के कारण सूतांजली की छपाई का कार्य पिछले
वर्ष से रोक दिया गया है। इसे हम मेल, फ़ेस बूक, व्हाट्सएप्प और ब्लॉग की सहायता से लोगों
तक लगातार पहुँचा रहे हैं। इस तकनीक के प्रयोग के फलस्वरूप हमारे पाठकों की संख्या
और पत्राचार में वृद्धि भी हुई है। लेकिन ऐसे पाठक भी हैं जो इसे नहीं पढ़ पा रहे
हैं। कइयों का यह मानना भी है कि ऐसे गहन विषयों को पढ़ने और संभाल कर रखने का सुख
तो छपे कागज़ पर ही लिया जा सकता है। हम उनके सुझावों का आदर करते हैं और इस पर
गंभीरता से विचार करने का आश्वासन भी देते हैं।
आप से एक ही अनुरोध है, “मेल या ब्लॉग या व्हाट्सएप्प पर संपर्क बनाए रखें और अपने
सुझावों से हमारा मार्गदर्शन करते रहें।”
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विज्ञान और आध्यात्म मेरे विचार (🔉7.36)
चार्ल्स
टौएंस (Charles H. Townes-1915-2015) एक अमेरिकन भौतिकी (physicist) वैज्ञानिक थे, उन्हें 1964 में नोबल पुरस्कार से
नवाजा गया था। इन्होंने ‘मेसर’ (maser) का आविष्कार किया था। अपने इस आविष्कार के आधार पर ही लेज़र का आविष्कार
भी उन्होंने ही किया।
चार्ल्स टौएंस |
मेसर
क्या होता है न हमें पता है और न ही जानने की इच्छा है। हाँ लेज़र थोड़ा बहुत जानते
हैं, लेकिन और ज्यादा जानकर क्या करना है? अनेक अमेरिकन वैज्ञानिकों को नोबल पुरस्कार मिला है, तो इसमें क्या खास बात है? आप एकदम सही सोच रहे हैं, मैं भी यही सोच रहा हूँ। लेकिन उन्होंने कुछ बड़ी अजीबो-गरीब बातें कही
हैं। उन बातों में किसी भी वैज्ञानिक की कोई रुचि नहीं लेकिन हमारी पूरी रुचि उनकी
उन बातों में ही है। उन्होंने वैज्ञानिक खोजों और कार्यों तथा आध्यात्मिक चिंतन और
विश्लेषणों की तुलना की है, और दोनों में अद्भुत सामंजस्य
पाया है। उन्होंने कहा कि इनमें कोई विरोध नहीं है बल्कि दोनों को साथ-साथ कंधे से
कंधा मिलाकर काम करने की दरकार है।
वे
कहते हैं हम इस बात को नकार नहीं सकते कि इस ब्रह्मांड को बड़ी सावधानी और
बुद्धिमानी से स्थापित किया गया है। यह कोई साधारण कार्य नहीं है। इसे बनाने और स्थापित करने में भौतिकी
विज्ञान के विशेष नियम का बड़ी सावधानी से अनुपालन किया गया है। ठीक इसी प्रकार जीव
और उसके बनाने वाले सृष्टिकर्ता को स्थापित करना भी असाधारण प्रक्रिया है। बहुत से
लोग इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं कि विज्ञान भी अनेक प्रकार की कल्पनाओं के
आधार पर ही आगे बढ़ता है और यह विश्वास भी करता है कि विज्ञान के सब नियम सुचारु
रूप से चलेंगे। यह एक बहुत बड़ा विश्वास है। विज्ञान यह समझने की कोशिश कर रहा है
कि ब्रह्मांड कैसे कार्य करता है लेकिन आध्यात्म यह समझने का प्रयत्न कर रहा है कि
इस ब्रह्मांड को रचने के पीछे क्या कारण
है? ब्रह्मांड को रचने के पीछे क्या उद्देश्य है? अगर कोई उद्देश्य और कारण है तब इसकी प्रकृति उसी के अनुरूप होगी। जहाँ
विज्ञान उद्देश्य मूलक है वहीं आध्यात्म विषय मूलक है। विज्ञान की अपनी असंगतियाँ
हैं तो वहीं आध्यात्म अपने आप में एक पहेली है। हम यह सोचते हैं कि हम
अपने ढंग से सोचने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन विज्ञान हमें इसकी इजाजत नहीं देता
और न ही आध्यात्म। विज्ञान हो या आध्यात्म हमें असंगतियों के साथ ही जीना होगा
क्योंकि दोनों के पास ही सब प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। हम इस बात पर जितनी गहराई
से विचार करते हैं हमें लगता है कि ये
दोनों ही एक दूसरे के बहुत नजदीक हैं। लेकिन इसे समझने और इस पर विश्वास करने के
लिए दोनों में कई परिवर्तन करने होंगे। हमें यह स्वीकार करना होगा कि विज्ञान में
अनेक विरोधाभास हैं। उदाहरण के तौर पर अगर हम सापेक्षता का सिद्धान्त (theory
of relativity) और प्रमात्रा यान्त्रिकी (Quantum Mechanics) की बात करें तो दोनों के मध्य विसंगतियाँ हैं, एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन
फिर भी हम दोनों को सही मानते हैं। ऐसा ही आध्यात्म में भी होता है। अगर आध्यात्म के इतिहास पर विचार करें तो उसमें भी विसंगतियाँ और विरोधाभास हैं।
आध्यात्म
की ही तरह विज्ञान में भी रहस्योद्घाटन होते हैं लेकिन जिसे आध्यात्मिक गुरु रहस्योद्घाटन कह कर ईश्वर या प्रकृति की देन मानते हैं उसे ही हम
विज्ञान में अपना नया विचार, अपनी प्रतिभा की
चमक, अपना अनुसंधान बताते हैं। जब मेरे मन में लेज़र का विचार
आया तब मैं एक उद्यान में बैठा विचारमग्न था। एकदम से बिजली की तरह अचानक मेरे
दिमाग में यह बात कौंध गई कि यह ऐसे क्यों नहीं हो सकता? यह
विचार मेरे दिमाग में अचानक कैसे आया, कौन डाल गया! ईश्वर!
मुझे इसकी जरा भी भनक नहीं है। लेकिन हम इसकी चर्चा नहीं करते बल्कि यही कहते हैं
कि यह ‘मेरा विचार’ है। ऐसा केवल मेरे
साथ नहीं हुआ। प्राय: समस्त वैज्ञानिक खोज इसी प्रकार आकस्मिक ढंग से हुए। मैं यह
विश्वास करता हूँ कि आध्यात्म है। मैं ईश्वर को परिभाषित नहीं कर सकता लेकिन मैं
उसके अस्तित्व को हर जगह महसूस करता हूँ।
लोग
कहते हैं कि यह नहीं हो सकता क्योंकि हम
यह नहीं जानते। लेकिन मैं कहता हूँ कि हम यह नहीं जानते, क्योंकि हम यह नहीं जानते।
श्रीमती
नारायणी गणेश लिखती हैं इस ब्रह्मांड का अस्तित्व दो स्तरों पर है। जब हमारे अंदर
खाना पचता है, क्या यह हमारी क्रिया है? एक
रेखा हमारे शरीर और मन के कार्यों को विभाजित करती है। सचेतनता और जागरूकता अलग-अलग
धरातल पर कार्य करती हैं। एक भौतिकी है और
दूसरी मनोवैज्ञानिक। विज्ञान विघटन (analysis) करता है लेकिन
सचेतन (consciousness) संयोग (synthesis)। एक टुकड़े-टुकड़े कर के निष्कर्ष पर पहुंचता है तो दूसरा जोड़-जोड़ कर। अत: विज्ञान अकेले इस गुत्थी को नहीं सुलझा
सकता।
वैज्ञानिक
अपने सिद्धांतों को भी समय-समय पर काटते रहते है, बदलते रहते हैं, एक दूसरे के विरोधी मतों को
प्रतिपादित करते हैं और दोनों को स्वीकार भी करते हैं। स्टीफन हव्किंग ने कुछ समय
पहले ही ब्लैक होल संबन्धित अपने सिद्धांतों में परिवर्तन कर दिया और इसे स्वीकार
कर लिया गया। तब, जब
विज्ञान निरंतर अपनी बातों को बदलता रहता है, काटता
रहता है नित नए खोज कर नए सिद्धांतों को रचता रहता है और उनमें प्रगति करता है तब
उधर आध्यात्म भी तो यही करता रहता है। गुरु अलग-अलग विचारों को प्रतिपादित करते
रहते हैं, बदलते रहते हैं, एक दूसरे का
विरोध भी करते हैं और स्वीकार भी करते हैं। जब दोनों ही अपने-अपने ढंग से
अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर ढूंढ रहे हैं तब उनमें विरोध कहाँ है? दोनों ही तो अपने-अपने तरीके से उस परम सत्य को ही तो खोज रहे हैं।
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मेरी साइकिल दौड़ एक चिंतन (🔉 4.40)
क्या
शानदार सुबह थी वो! अभी-अभी वर्षा बंद हुई थी। सड़क हल्की-हल्की भीगी हुई थी। उस भीगी सड़क पर दौड़ती मेरी साइकिल से उत्पन्न हो रही
ध्वनि एक संगीत पैदा कर रही थी। पेड़ों से आ रही चिड़ियों की आवाज, ऐसा लग रहा था जैसे कोई पखावज बजा रहा है। पेड़-पौधे-घास ऐसा लग रहा था
जैसे अभी-अभी नहा कर सज-धज कर सड़क के दोनों किनारे बैठे-बैठे इस प्रकृति के संगीत पर झूम
रही है। अद्भुत नजारा था। कानों के सब मैल नकल गये थे, आँखें
हरियाली देख-देख हरी हो रही थी, मन
प्रफुल्लित था। मन्द-मन्द चलती बयार आँख, नाक, कान, मुँह हर जगह से शरीर के रोम-रोम को सहलाता
फेफड़े में प्रवेश कर स्फूर्ति पैदा कर रहा था। प्रकृति का भर पूर आनंद लेते, गुनगुनाते, साइकिल के पैडल पर पाँव मारते सीधी सड़क
पर घर की तरफ लौट रहा था। तभी दूर, बहुत दूर, सड़क की अंतिम छोर पर और एक साइकिल दीख पड़ी। शायद उसकी रफ्तार मेरी रफ्तार
से कुछ कम थी। मैंने अपनी रफ्तार थोड़ी बढ़ाई और अपनी नजरें उस पर गड़ा दी। हाँ, मुझे इत्मीनान हो गया कि मेरी रफ्तार उससे ज्यादा है। लेकिन शायद कुछ ही
ज्यादा। कुछ भी हो मैंने उससे आगे जाने का मन बना लिया। और बस मेरे और उसके बीच
साइकिल दौड़ शुरू हो गई। धीरे-धीरे मैं उसके नजदीक आने लगा। जैसे-जैसे हम दोनों की
दूरी कम होती जा रही थी, मेरा उत्साह बढ़ता जा रहा था। और
आखिर वह क्षण भी आ गया जब मैं उसके नजदीक पहुँच गया, उसके
बराबर। और ये लो, मैं उससे आगे बढ़ गया। लेकिन फिर मैंने
अनुभव किया कि मैंने वह दौड़ जीत ली जिसमें शायद मैं अकेला ही प्रतिस्पर्धी था। उसे
तो पता ही नहीं था कि कोई उसके साथ दौड़ लगा रहा है? बल्कि
मेरे आगे जाने पर उसने मुस्कुरा कर मेरा अभिवादन किया।
इस
दौड़ में मेरा पूरा ध्यान उस दूसरी साइकिल और उसके सवार पर था। प्रकृति, संगीत, बयार और तो और मेरा ध्यान मेरी मंजिल यानि
मेरे घर पर से भी हट गया था। क्योंकि इस दौड़ में, मैं इतना
मशगूल हो गया था कि मैं वर्षा से भीगी सड़क को पार कर सूखी सड़क पर आ चुका था, हरियाली को पार कर कंक्रीट के जंगल में था, यहाँ न
कोई पेड़ था न कोई पक्षी और तो और मैं वह मोड़ भी पार कर चुका था जहाँ से मुझे मेरी
मंजिल के लिये मुड़ना था। मुझे यह भी ध्यान आया कि इस अंजान दौड़ में ऐसे भी कई क्षण
आए थे जब मैं डगमगा गया था। मेरा पैर फिसला था, मैं गिर सकता
था, मैं किसी से कहीं भिड़ कर घायल हो सकता था।
मैंने
धीरे से साइकिल अपनी मंजिल की तरफ मोड़ ली। लौटते लौटते मैं सोच रहा था, यह मेरी आज की सुबह है या अपनी जिंदगी की सुबह?
अपनी जिंदगी में मैं ऐसे ही निरर्थक दौड़ में लगा रहता हूँ। दौड़ अपनों से साथ, परिवार वालों के साथ। पड़ोसियों, रिशतेदारों, परिचितों और अपने शुभेच्छुओं के साथ भी हर समय एक प्रतिस्पर्द्धा
में लगा रहता हूँ,
अपने को उनसे ज्यादा अच्छा साबित करने के लिए, अपने को उनसे
ज्यादा सफल सिद्ध करने के लिए, अपने आप को उनसे ज्यादा
महत्वपूर्ण दिखाने के लिये। उनसे की जाने वाली इस निरर्थक स्पर्द्धा में मैं क्या-क्या
खो रहा हूँ इसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता। क्या मैं अपने जीवन के आनंद को
बरकरार रखते हुए मंजिल पर ध्यान एकाग्र कर पाऊँगा?
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साधारण बनना ही खास बनना है लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना (🔉1.24)
कहते
हैं कि रूस देश की महारानी कैथरीन द्वितीया ने एक दिन अपने नौकर को बुलाने के लिए
घण्टी बजाई, वह न आया, दुबारा घण्टी
बाजी। नौकर महाशय तभी भी नहीं आये। आखिर वे उठीं, अपने कमरे
से निकल कर उस तरफ गईं जहाँ नौकर-चाकर रहा करते थे। वहाँ उन्होंने उसे ताश खेलते
पाया। वह कोई अचूक चाल चलने के लिए गहरी सोच में डूबा हुआ था। महारानी के आने
की भनक वहाँ बैठे किसी भी व्यक्ति को नहीं
मिली। ऐसे तल्लीन थे वे सब तास के खेल में। महारानी भी चुपके से उसके पीछे जाकर
खड़ी हो गईं। ताश के पत्तों पर एक नज़र डाल, एक पत्ता निकाल कर
चलते हुए बोलीं, “लो, तुम्हारी यह
चाल चल कर मैंने तुम्हें जीता दिया, अब तुम मेरा काम करो”।
(अग्निशिखा से)
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी
धारावाहिक (🔉6.47)
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक
धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी आठवीं किश्त है।)
(८)
मुकदमा शुरू हुआ
इस
अवस्था को घनीभूत होने में कुछ दिन लगे। इसी बीच मैजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा शुरू
हुआ। नीरज कारावास की नीरवता से हठात बाह्य जगत के कोलाहल में लाये जाने पर
शुरू-शुरू में मन बड़ा विचलित हुआ, साधना का धैर्य टूट गया और पाँच-पाँच घंटे तक मुकदमे के नीरस और
विरक्तिकर बयान सुनने को मन किसी भी तरह राजी नहीं हुआ। पहले अदालत में बैठ कर
साधना करने की चेष्टा करता, लेकिन अनभ्यस्त मन प्रत्येक शब्द
और दृश्य की ओर खिंच जाता, शोरगुल में वह चेष्टा व्यर्थ चली
जाती, बाद में भाव परिवर्तन हुआ,
समीपवर्ती शब्द और दृश्य मन से बाहर ठेल सारी चिंतन शक्ति को अंतर्मुखी करने की
शक्ति जनमी, किन्तु यह मुकदमे की प्रथम अवस्था में नहीं हुआ, तब ध्यान धारणा की प्रकृति क्षमता नहीं थी। इसलिए यह वृथा चेष्टा त्याग, बीच-बीच में सर्वभूतों में ईश्वर के दर्शन कर संतुष्ट रहता, बाकी समय विपत्ति के साथियों की बातों और उनके कार्य-कलापों पर ध्यान
देता, दूसर कुछ सोचता, या कभी नॉर्टन
साहब की श्रवण योग्य बात या गवाही को सुनता। देखता की निर्जन कारागृह में समय
काटना जितना सहज और सुखकर हो उठा है, जनता के बीच और इस
गुरुतर मुकदमे के जीवन-मरण के खेल के बीच समय काटना उतना सहज नहीं। अभियुक्त लड़कों
का हँसी-मज़ाक और आमोद-प्रमोद सुनना और देखना बड़ा अच्छा लगता,
नहीं तो अदालत का समय केवल विरक्तिकर महसूस होता। साढ़े चार बजे कैदियों की गाड़ी
में बैठ सानंद जेल लौट आता।
ठाठ-बाट क्रमश: कम होने लगा
पंद्रह-सोलह
दिन की बंदी अवस्था के बाद स्वाधीन मनुष्य-जीवन का संसर्ग और एक दूसरे का मुख देख
दूसरे कैदी आनंदित हुए। गाड़ी में चढ़ते ही उनकी हँसी और बातों का फव्वारा फूट पड़ता
और जो दस मिनट उन्हें गाड़ी में मिलते थे उसमें पल-भर को भी वह स्त्रोत न थमता।
पहले दिन हमें खूब सम्मान के साथ अदालत ले गए। हमारे साथ ही थी यूरोपियन
सार्जेंटों की छोटी पलटन और उनके साथ थी गोलीभरी पिस्तौलें। गाड़ी में चढ़ते समय
सशत्र पुलिस की एक टुकड़ी हमें घेरे रहती और गाड़ी के पीछे परेड करती, उतरते समय भी यही आयोजन था। इस
साज-सज्जा को देख किसी-किसी अनभिज्ञ दर्शक ने निश्चय ही सोचा होगा कि ये
हास्य-प्रिय अल्पवयस्क लड़के न जाने कितने दु:साहसी विख्यात महायोद्धाओं का दल है।
न जाने उनके प्राणों और शरीर में कितना साहस और बल है जो खाली हाथ सौ पुलिस और
गोरों की दुर्भेद्य प्राचीर भेद, पलायन करने में सक्षम हैं।
इसलिए उन्हें इतने सम्मान के साथ इस तरह ले गये। कुछ दिन यह ठाठ चला, फिर क्रमश: कम होने लगा, अंत में दो-चार सार्जेंट
हमें ले जाते और ले आते। उतरते समय वे ज्यादा खयाल नहीं करते थे कि हम जेल में
घुसते हैं; हम मानों स्वाधीन भाव से घूम-फिर कर घर लौटे हों, उसी तरह जेल में घुसते। ऐसी असावधानी और शिथलता देख पुलिस कमिशनर साहब और
कुछ सुपरिंटेंडेंट क्रुद्ध हो बोले, “पहले दिन पच्चीस-तीस
सार्जेंटों की व्यवस्था थी, आजकल देखता हूँ चार-पाँच भी नहीं
आते”। वे सार्जेंटों कि भर्त्सना कर और रक्षण-निरीक्षण की कठोर व्यवस्था करते; उसके बाद दो-एक दिन और दो सार्जेंट आते और फिर वही पहले जैसी शिथलता आरंभ
हो जाती। सार्जेंटों ने देखा हम बम-भक्त बड़े निरीह और शांत लोग हैं, पलायन में उनका कोई प्रयास नहीं, किसी पर आक्रमण
करने या हत्या करने की भी मंशा नहीं, उन्होंने सोचा कि हम
क्यों अपना अमूल्य समय इस विरक्तिकर कार्य में नष्ट करें। पहले अदालत में घुसते और
निकलते समय हमारी तलाशी लेते थे, उससे हम सार्जेंटों के कोमल
कर-स्पर्श का सुख अनुभव करते थे, इसके अलावा इस तलाशी से
किसी के लाभ या क्षति की संभावना नहीं थी। स्पष्ट था कि इस तलाशी की आवश्यकता
में हमारे रक्षकों की गंभीर अनास्था है।
दो-चार दिन बाद यह भी बंद हो गयी। हम अदालत में किताब,
रोटी-चीनी जो इच्छा होती निर्विघ्न ले जाते। पहले-पहल छिपा कर, बाद में खुले आम। हम बम या पिस्तौल चलाएँगे, उनका
यह विश्वास शीघ्र ही उठ गया। किन्तु मैंने देखा कि एक भय सार्जेंटों के मन से नहीं गया। कौन जाने किसके मन में कब
मैजिस्ट्रेट साहब के महिमान्वित मस्तक पर जूते फेंकने की बदनीयत पैदा जो जाए, ऐसा हुआ तो सर्वनाश। अत: जूते भीतर ले जाना विशेषतया निषिद्ध था, और उस विषय में सार्जेंट हमेशा सतर्क रहते और किसी तरह की असावधानता के
प्रति आग्रह नहीं देखा।
(क्रमश:, आगे अगले अंक में)
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