सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०२ 🔊(२५.०५) सितंबर * २०२१
हमेशा त्रुटियों और गलत प्रवृत्तियों
को ही देखने से अवसाद आता है, और
श्रद्धा की हिम्मत टूट जाती है। अभी
के अंधेरे की ओर कम देखो,
अपनी आँखें ज्यादातर आने वाले प्रकाश
की ओर रखो।
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क्यों हो जाते हैं हम निराश? 🔉 (६.४२)
निराशा के गहनतम अंधकार में भी कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई आशा की रौशनी रहती है जो प्राणी को कर्म में लगाये रखती है। हमारी इच्छा-शक्ति ही इस आशा की किरण को प्रज्वलित रखती है और हमें लगातार आशान्वित करती रहती है। इस कारण हम ज्ञान प्राप्ति में लग जाते हैं जो हमारी आशाओं को फलीभूत करती है। हमारी ये आशाएँ कहाँ से और कैसे जन्म लेती हैं? इनका बीजारोपण हमारे पूर्वजन्म में होता है जहाँ से हम संस्कार लेकर ही इस जगत में आते हैं। और फिर परिवार, समाज, वातावरण, श्रवण, पठन-पाठन हमारी इन इच्छाओं को और मजबूत करता है और एक स्वरूप प्रदान करता है।
हमारी
ये इच्छाएँ ही हमें सदैव कर्म के लिए प्रेरित करती हैं। ऐसा नहीं है कि आशा केवल
हम मानव में ही होती है, यह विश्व के हर प्राणी में होती है। एक खूंक्खार
जानवर अपनी माँद से इसी आशा में निकलता है कि कोई-न-कोई जानवर उसके शिकंजे में आ
ही जाएगा, तो वहीं हिरण को यह आशा रहती है कि आज भी वह शेर
के पंजों से बच जाएगा। खेल के मैदान में हर खिलाड़ी को इस बात की आशा रहती है कि अंत में वही जीतेगा। वैसे ही
व्यापारी हो या संन्यासी, राजनीतिज्ञ हो या शिक्षाविद, संगीतज्ञ हो या चित्रकार सब को यही आशा रहती है कि वह सफल होगा। और जो इस
आशा को बनाए रखता है वह सफल भी होता है। अगर यह ‘आशा’ ही हमारे प्राण हैं और इसी के कारण हमारा अस्तित्व है तो फिर ऐसा क्या
होता है कि हम निराश हो जाते हैं, आशा का लोप हो जाता है? इसके कई कारण हैं: यथा,
1.
हम क्या और कैसी आशा
रखते हैं? कई बार हमारी आशा निरर्थक,
अविवेकपूर्ण, अनुचित या अन्यायपूर्ण होती हैं। हमारी आशा
हमारी क्षमताओं के तुलना में बहुत ज्यादा होती है। कई बार तो हम अपनी आशाओं को ठीक
ढंग से रूपायित ही नहीं कर पाते हैं। इन के कारण हम हताश और निराश हो जाते हैं। अपनी
आशाएँ सार्थक, विवेकपूर्ण, उचित, न्यायपूर्ण, क्षमतानुसार
एवं स्पष्ट होनी चाहिए। अगर हम इन बातों का ख्याल रखें, तब हमें ऐसी स्थिति
का समाना नहीं करना पड़े।
2.
बचपन से ही हम यह पढ़ते-सुनते
आए हैं कि हमारे जीवन का एक लक्ष्य होना चाहिए। लेकिन हम इसे गंभीरता से नहीं
लेते। सही मायने में हमारे सामने एक नहीं अलग-अलग कई लक्ष्य होने चाहिये
- क) पारिवारिक एवं घरेलू, ख) स्वास्थ्य - शारीरिक एवं मानसिक, ग) शिक्षा, घ) आध्यात्म एवं नैतिक, और च) आर्थिक एवं व्यवसायिक
या जीविका। इन सबों का अलग-अलग
लक्ष्य होना चाहिए। इन दूरगामी लक्ष्यों को फिर छोटे छोटे अल्पकालीन लक्ष्यों में
विभाजित करना और बार-बार इनका पुनर्वालोकन करते रहना भी आवश्यक है। ये हमारी
स्वधर्म को परिभाषित करती हैं और हमें जड़ता और निराशा में जाने से बचाती हैं।
3.
हमारी इस यात्रा
में अनेक कठिनाइयाँ और रोड़े आते हैं। हमें
हारने-विफल होने का डर सताने लगता है। ऐसी अवस्थाओं में हम प्राय: अपने लक्ष्यों
का पुनर्मूल्यांकन करते हुए अपनी आशाओं को ‘घटा’ देते हैं और जोखिम को आवश्यकता से ज्यादा महत्व दे देते हैं। होने वाले
लाभ के बदले जोखिम हमें भारी लगने लगता है और इस प्रक्रिया में लाभ का मूल्यांकन
कम और जोखिम को ज्यादा आँकने की गलती कर बैठते हैं। सही मूल्यांकन करें, लक्ष्य को घटाने पर नहीं रोडों को हटाने पर ध्यान केन्द्रित करें।
4.
होने वाले लाभ को
कमतर और जोखिम को अधिक आँकने का कारण हमारा अज्ञान ही होता है। अपनी क्षमताओं का
सही आकलन करने और अपने आप पर पूरा भरोसा रखने के लिए ज्ञान आवश्यक है। अभी वर्तमान
समय में कोविड टीकाकरण के दौरान टीका लगवाने में हिचकिचाहट एक बहुत ही ज्वलंत और
प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है। अपने अज्ञान के कारण ही प्रारम्भ में टीका
लगवाने में हिचकिचाहट हो रही थी। हमारा अज्ञान और अहंकार ही इसके लिये उत्तरदायी
है जिसका निराकरण ज्ञान से ही होता है।
5. परम सत्य और सापेक्ष सत्य को न समझने तथा इनमें विश्वास न होने पर भी आशा क्षीण होती है। सापेक्ष सत्य हमारे वर्तमान अल्पकालीन लक्ष्य को हासिल करने के लिए सही हो सकता है लेकिन इसके सहारे परम सत्य को समझना और वहाँ तक पहुँचना आशा को सबल करती है।
अगर
इन बातों पर अपनी नजर बनाये रखें तो आशा का लोप नहीं होता है, निराशा प्रवेश नहीं करती है।
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एक भावपूर्ण प्रार्थना
और दृढ़ विश्वास 🔉(३.०२) मैंने पढ़ा
संत
रामदासजी जब प्रार्थना करते थे तो कभी उनके होंठ नहीं हिलते थे।
शिष्यों
ने पूछा, ‘हम प्रार्थना करते हैं तो
होंठ हिलते हैं। आपके होंठ नहीं हिलते? आप पत्थर की मूर्ति
की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं अंदर से? क्योंकि, आप अंदर से भी कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ
ही जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है।’
सम्राट
उससे पूछा – बोलो क्या चाहते हो?
उस
भिखारी ने कहा – “अगर आपके द्वार पर खड़े होने से मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं। क्या कहना है? मैं
द्वार पर खड़ा हूँ, मुझे देख लो मेरा होना ही मेरी प्रार्थना
है।”
संत
रामदसजी ने कहा, ‘उसी दिन से मैंने प्रार्थना
बंद कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूँ। वह देख लेंगे। मैं क्या कहूँ? अगर मेरी परिस्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द
क्या कह सकेंगे? अगर वे मेरी परिस्थिति नहीं समझ सकते, तो मेरे शब्द को क्या समझेंगे?’
अत:
सच्चे भाव और दृड़ विश्वास ही परमात्मा की याद के लक्षण हैं, यहाँ कुछ मांगना शेष नहीं रहता? आपका प्रार्थना में
होना ही पर्याप्त है।
(जब हम अपना जीवन एक अंजान डॉक्टर के हाथ में देने से नहीं
हिचकिचाते तब हमें क्या चाहिए और हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है; क्या यह हम परमात्मा से ज्यादा अच्छा समझते हैं? अगर नहीं, तो निर्णय उसी पर क्यों नहीं छोड़ सकते? श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा से प्रकाशित पत्रिका कर्मधारा से। )
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जन्मदिन 🔉 (६.२४) मेरे विचार
आज माधव बहुत प्रसन्न है। मुस्कुराहट उसके चेहरे पर बार-बार दिखाई दे रही है। उसे नींद भी नहीं आ रही है। आज की रात कितनी लंबी है, खत्म ही नहीं हो रही है। कल उसका जन्मदिन है, अरे नहीं ‘हैप्पी बिर्थडे’ है। सबों कों चहक-चहक कर बता रहा है। सब दोस्तों को बार-बार याद दिलाया है, कहीं कोई भूल नहीं जाये। सपनों में देख रहा है कि उसके लिये कौन क्या गिफ्ट लाया है। उसके लिये जन्मदिन, उपहार लेने का दिन है, दोस्तों के साथ मस्ती करने का दिन है, केक काटने का दिन है, लोगों से जन्मदिन की बधाई लेने और उन्हें धन्यवाद देने का दिन है। यह सोचते और देखते कब आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला।
माँ ने जगाया तो हड़बड़ा कर उठा। माँ ने उसे जन्मदिन के ढेर सारे आशीर्वाद दिये और जल्दी तैयार होने के लिये कहा, ‘क्यों? अभी तो देर है, पार्टी तो शाम को है’, उसने सोचा। माँ ने बताया कि उसे अभी कई नए लोगों के पास जाना है और उन्हें जन्मदिन के गिफ्ट देने हैं। माधव को यह बड़ा अजीब सा लगा। जन्मदिन पर तो गिफ्ट मिलते हैं, लेकिन माँ गिफ्ट देने की बात कर रही है! माँ ने समझाया, ऐसे बहुत से लोग हैं जो न गिफ्ट लेने आते हैं और न ही देने। लेकिन वे हमें जानते हैं और हम उनको। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें उसके जन्मदिन का पता नहीं है और हम उन्हें बुलाते भी नहीं। क्या माधव उन्हें गिफ्ट नहीं देगा? उन्हें नहीं बताएगा कि आज उसका जन्मदिन है? माधव खुश हो गया, ‘तब तो बहुत मजा आयेगा’। जल्दी जल्दी नहा धोकर, दूध पीकर तैयार है। माँ ने बताया, उन पड़ोसियों का नाम जिनके यहाँ उनका आना-जाना नहीं के बराबर है, उन कर्मचारियों के नाम, जैसे दरवान, मासी, दूध वाला, अखबार वाला, सफाई वाला....., पास पड़ोस के उन दूकानदारों के नाम जिनके सामने से रोज गुजरते हैं उनसे कभी कुछ खरीदते हैं कभी देखते भी नहीं, घर के दरवाजे के पास खड़ा रिक्शावाला, टैक्सीवाला, गाड़ी धोने वाला, पास पड़ोस के ड्राईवर और भी न जाने कितने लोगों के बारे में उसने बताया। यह सुनकर माधव ने भी मुहल्ले के कई बच्चों के नाम जोड़ दिये। लेकिन उसे जाना थोड़ा अजीब सा लगा और संकोच भी हो रहा था। माँ ने कहा शुरू के कुछ लोगों के पास वह भी साथ चलेगी। माधव चल पड़ा जन्मदिन मनाने, गिफ्ट लेने के बजाय गिफ्ट देने के लिये। जब वह किसी को गिफ्ट देता, लेने वाले की आँखों की खुशी और चेहरे के आश्चर्य से वह अछूता नहीं रहा सका। कई लोगों ने तो उसे गिफ्ट के बदले गिफ्ट दिये भी। उसे शाम की पार्टी के बजाय सुबह की यह पार्टी ज्यादा रोचक और रोमांचकारी लगने लगी। वह अब समझ गया कि जन्मदिन ‘गिफ्ट लेने’ का नहीं ‘गिफ्ट देने’ का दिन होता है। यह सिलसिला कई वर्षों से चल रहा है। दूर-दराज के लोग उसे जानने लगे। वह अब माँ-बाप के बेटे के रूप में नहीं बल्कि उसके माँ-बाप की पहचान उससे होने लगी।
एक मशहूर अमेरिकन फिल्म अभिनेत्री बताती हैं कि उनका बचपन गरीबी में गुजरा। उसे सर्कस देखने का बड़ा शौक था लेकिन उसके पिता के लिए सर्कस के टिकट खरीदना मुश्किल था। एक वर्ष उसने अपने जन्मदिन के तोहफे के रूप में सर्कस देखने की तमन्ना बताई। उस वर्ष से उसके पिता हर वर्ष उसे उसके जन्मदिन पर उसे सर्कस ले जाने लगे। उसे इस दिन का बड़ा इंतजार रहता। एक वर्ष इसी प्रकार वे सर्कस देखने के लिए टिकट की लाइन में खड़े थे। उनके आगे हर उम्र के आठ बच्चे अपने माँ-बाप के साथ खड़े थे। बच्चे बेहद खुश थे। उनकी बातों से साफ जाहीर था कि यह उनके जीवन का पहला सर्कस है। आखिर उनके पिता टिकट खिड़की पर पहुँच गए। उन्होने बताया कि उन्हें आठ बच्चों की और दो माँ-बाप की टिकट चाहिए। टिकट की रकम सुन कर उनके चेहर पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उनके पास उतने पैसे नहीं थे, बच्चों को क्या कहें यह भी समझ नहीं आ रहा था। अभिनेत्री के पिता ने पूरी बात भाँप ली। उन्होंने झट अपने पॉकेट से बीस डॉलर का एक नोट नीचे गिरा दिया और फिर उसे उठा कर उस सज्जन को देते हुए बोले, ‘यह नोट शायद आपके पॉकेट से गिरा है’। दंपत्ति को बात समझते देर नहीं लगी, लेकिन उन्होंने देखा कैसे उनके आत्मसम्मान की रक्षा की गई है, उनके आँखों में आँसू आ गए। काँपते हाथों से उन्होंने वह नोट ले लिया। फिल्म तरीका आगे लिखती हैं कि अब उसके पिता ने उसकी तरफ देखा। उसे बात समझ आ गई। उसने खुशी-खुशी सर्कस न देखने का निर्णय लिया, और वे बिना सर्कस देखे लौट आये। वे कहती हैं कि उन्हें बस सिर्फ यही एक जन्मदिन याद है, इससे बड़ा तोहफा उसने न कभी दिया न कभी उसे मिला।
दूसरों
के आत्म सम्मान की रक्षा करते हुए उनकी सहायता करें, बच्चों को लेना नहीं, देना सिखाएँ।
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कर्म 🔉(२.१३) लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना
वह एक तूफानी संध्या थी। बस्ती को तूफान ने घेर रखा था। बस्ती के रहने वाले अपने-अपने घरों में छुपे बैठे अपने पापों से तौबा कर रहे थे। बस्ती के धर्म-स्थल का धर्माध्यक्ष बस्ती वालों की मुक्ति के लिये दुआ मांग रहा था। ऐसे समय में धर्म-स्थल के द्वार पर दस्तक हुई और अध्यक्ष की अनुमति पाकर एक ऐसी स्त्री अंदर आई, जो उस बस्ती में रहती थी, परंतु उसका धर्म बस्ती वालों से भिन्न था। भयंकर तूफान ने उस स्त्री को भयभीत कर दिया था। वह काँपते हुए कदमों से आगे आई। फिर उसने अध्यक्ष के चरणों में गिरकर कहा कि, श्रीमान मैं आपके धर्म से भिन्न धर्म को मानने वाली हूँ। यह बताइये कि क्या मेरे लिए इस तूफानी संध्या में आपके यहाँ स्थान है?
धर्माध्यक्ष
ने उपेक्षा से उस स्त्री की ओर देखा और चीखकर कहा, “ऐ दुष्टा, यहाँ से चली जा। क्या तू नहीं जानती कि
मुक्ति का मार्ग केवल उनके लिए है, जो मेरा धर्म मानते हैं।
मेरे धर्म से किनारा करने वालों के लिए ही यह तूफान भड़का हुआ है।” स्त्री काँपती
हुई वापस जाने के लिए मुड़ी और ऐन उसी क्षण भयानक गरज के साथ बादलों में बिजली
कौंधी और लहराती हुई धर्म-स्थल पर गिरी। बस्ती के लोग जब उसकी आग बुझाने के लिये
भागे हुए आए, तो उन्होंने देखा कि पवित्र धर्माध्यक्ष जलकर
राख़ हो चुका था और उनकी बस्ती की दूसरे धर्म को मानने वाली स्त्री जंग लगी बाल्टी
हाथ में लिए रोती जाती है और उस स्थान की आग बुझाती फिर रही है।
(‘उजाले
के गाँव में’ से)
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी 🔉(५.३६) धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक
धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी नौवीं किश्त है।)
(९)
मुकदमे के विचित्र जीव
मुकदमे का स्वरूप कुछ विचित्र था। मैजिस्ट्रेट, परामर्शदाता, साक्षी, साक्ष्य, साक्ष्य-सामग्री (exhibits), आसामी सभी विचित्र। दिन-पर-दिन उन्हीं गवाहों और साक्षी-सामग्री का अविराम प्रवाह, उसी परामर्शदाता का नाटकोचित अभिनय, उसी बालक-स्वभाव मैजिस्ट्रेट की बालकोचित चपलता और लघुता। इस अपूर्व दृश्य को देखते-देखते बहुत बार मन में यह कल्पना उठती कि हम ब्रिटिश विचारालय में न बैठ किसी नटकगृह के रंगमंच पर या किसी कल्पनापूर्ण औपन्यासिक राज्य में बैठे हैं। अब उस राज्य के सब विचित्र जीवों का संक्षिप्त वर्णन करता हूँ।
इस नाटक के प्रधान अभिनेता थे सरकार बहादुर के परामर्शदाता नॉर्टन साहब। प्रधान अभिनेता ही क्यों, इस नाटक के रचयिता, सूत्रधार और साक्षी-स्मारक भी थे, - ऐसी वैचित्रमयी प्रतिभा जगत में विरल है। परामर्शदाता नॉर्टन थे मद्रासी साहब, इसीलिए शायद थे बंगाली बैरिस्टर-मंडली की प्रचलित नीति और भद्रता से अनभ्यस्त एवं अनिभज्ञ। वे कभी राष्ट्रीय महासभा के नेता रहे थे, शायद इसीलिए विरोध और प्रतिवाद सह नहीं सकते
थे और विरोध को शासित करने के आदी थे। ऐसी प्रकृति को लोग कहते हैं हिंस्रस्वभाव। नॉर्टन साहब कभी मद्रास कार्पोरेशन के सिंह रहे की नहीं, नहीं कह सकता पर हाँ, अलीपुर कोर्ट के सिंह तो थे ही। उनकी कानूनी अभिज्ञता की पैठ पर मुग्ध होना कठिन है – वह थी मानों ग्रीष्मकाल की शीत। किन्तु वक्तृता के अनर्गल प्रवाह में, बात की चोट से राई को पहाड़ बनाने की अद्भुत क्षमता में, निराधार या आधार लिए हुए कथनों को कहने की दु:साहसकिता में, साक्षी और जूनियर बैरिस्टर की भर्त्सना में और सफ़ेद को काला करने की मनमोहिनी शक्ति में नॉर्टन की अतुलनीय प्रतिभा देख मुग्ध होना ही पड़ता था। श्रेष्ठ परामर्शदाताओं की तीन श्रेणीयाँ हैं – जो कानून के पाण्डित्य से और यथार्थ व्याख्या के साथ साक्षी से सच्ची बात उगलवा और मुकदमे-संबंधी घटनाओं और विवेच्य विषय का दक्षता के साथ प्रदर्शन कर जज या जूरी का मन अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं; और जो ऊँची आवज में, धमकियों से, वक्तृता के प्रवाह से साक्षी को हतबुद्ध कर, मुकदमे से विषय को चमत्कारी ढंग से तोड़-मरोड़, गले के ज़ोर से जज या जूरी की बुद्धि भरमा मुकदमे जीत सकते हैं। नॉर्टन साहब थे तीसरी श्रेणी में अग्रगण्य। यह कोई दोष की बात नहीं। वे ठहरे परामर्शदाता व्यवसायी आदमी, पैसा लेने वाले, जो पैसा दे सके उसका अभीप्सित उद्देश्य सिद्ध करना है उनका कर्त्तव्य-कर्म। आजकल ब्रिटिश कानून प्रणाली में सच्ची बात बाहर निकालना वादी या प्रतिवादी का असल उद्देश्य नहीं, किसी भी तरह मुकदमा जीतना ही है उद्देश्य। अतएव, परामर्शदाता वैसी ही चेष्टा करेंगे, नहीं तो उन्हें धर्मच्युत होना होगा। भगवान द्वारा अन्य गुण न दिये जाने पर जो गुण हैं उनके बल पर ही मुकदमा जीतना होगा, अत: नॉर्टन साहब स्वधर्म पालन ही कर रहे हैं। सरकार बहादुर उन्हें हर रोज हजार रुपए देती थी। यह अर्थ व्यवस्था वृथा जाने से सरकार बहादुर की क्षति होती, यह क्षति न हो इसके लिए नॉर्टन साहब ने प्राणपन से चेष्टा की थी। पर राजनीतिक मुकदमे में आसामी को विशेष उदारता के साथ सुविधा देना और संदेहजनक एवं अनिश्चित प्रमाण पर ज़ोर न देना ब्रिटिश कानून पद्धति का नियम है। नॉर्टन साहब इस नियम को सदा याद रखते, तो मेरे खयाल में, उनके केस की कोई हानि नहीं होती। ...
(क्रमश:, आगे अगले अंक में)
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