सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०९
🔊(21.54) अप्रैल
* २०२२
नव संवत्सर २०७९ चैत्र
शुक्ल प्रतिपदा
तदनुसार शनिवार २
अप्रैल २०२२
पर हार्दिक शुभकामनाएँ
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प्रभो, इस नये वर्ष का जन्म
हमारी
चेतना का भी नया जन्म हो।
अपने
व्यतीत को सुदूर पीछे छोड़ते हुए हम
उज्जवल
भविष्य की ओर तेजी से आगे बढ़ें।
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जन्म
नया ले, नयी चेतना, जन्म ले रहा
नव संवत्सर
पीछे
दूर छोड़कर गत को, दौड़े आगे भावी भास्कर
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बड़ा कौन मेरे विचार
शर्मा जी
कपड़े की एक बहुत बड़े कारखाने के मालिक थे। कुछ दिनों बाद शर्मा जी को प्रभु से लौ
लग गयी। उनके जीवन में ऐसा कुछ घटा कि उन्होंने अपना कारख़ाना और सारा कारोबार बंद
कर दिया और सन्त बन गए। अब लोग उन्हें संत के नाम से जानने लगे। अब शर्मा जी सिर्फ
प्रभु भक्ति करते, शाम को बैठते और अपने अनुयायियों को प्रवचन देते।
एक दिन शर्मा जी ने अपने अनुयायियों को
अपने व्यवसायी से संत बनने की घटना सुनाई। शर्मा जी
ने कहा, "एक दिन जब मैं अपने कारखाने में
बैठा था उसी समय एक कुत्ता घायल अवस्था में वहाँ आया। वह किसी गाड़ी से कुचल गया था
जिस से उसके तीन पैर टूट गए थे और वह सिर्फ एक पैर से घिसटते हुए कारखाने तक आया। मुझे बहुत
तरस आया और मैंने सोचा कि उस कुत्ते को किसी जानवरों के अस्पताल ले जाऊँ। मगर फिर
अस्पताल के लिए तैयार होते समय मेरे दिमाग़ में एक बात आई और मैं रुक गया। मैंने
सोचा कि अगर प्रभु हर किसी को खाना देता है तो मुझे अब देखना है कि इस कुत्ते को
अब कैसे खाना मिलेगा।
"रात तक दूर बैठे उसे मैं देखता रहा और
फिर अचानक मैंने देखा कि एक दूसरा कुत्ता कारखाने के दरवाज़े से नीचे घुसा और उसके मुँह
में रोटी का एक टुकड़ा था। उस कुत्ते ने वह रोटी उस कुत्ते को दी और घायल कुत्ते ने
किसी तरह उसे खाया। फिर यह रोज़ का काम हो गया। वह कुत्ता वहाँ आता और उसे रोटी
देता या कोई और खाने की चीज़ और वह घायल कुत्ता इस प्रकार खा-खा के चलने के क़ाबिल
बन गया।"
"मुझे यह देखकर
अपने प्रभु पर अब ऐसा भरोसा हो गया कि मैंने अपना कारख़ाना बंद किया, व्यापार पर ताला लगाया और प्रभु की
राह में निकल पड़ा। और संत बनने के बाद भी मेरे पास पैसे उसी तरह किसी न किसी बहाने
आते रहे जैसे पहले आते थे। ठीक वैसे जैसे उस कुत्ते को दूसरा कुत्ता रोटी खिलाता
था रोज़"।
शर्मा जी की ये कहानी सुनकर उनका एक
अनुयायी ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा। शर्मा जी ने जब वजह पूछी तो उसने कहा कि "आपने
ये तो देख लिया शर्मा जी कि प्रभु ने उस कुत्ते का पेट भरा मगर आप यह न समझ सके कि
उन दो कुत्तों में से ईश्वर का दूत कौन सा कुत्ता है? जो खाना
खा रहा है वह या जो कुत्ता उसे ला कर खिला
रहा है वह? एक ईश्वर की अनुकंपा पर
है और दूसरा ईश्वर का दूत। आप खाना खाने वाले घायल कुत्ते बन गए
और अपना कारोबार बंद कर दिया। जबकि पहले आप खाना खिलाने वाले कुत्ते थे क्यूंकि आपके
कारखाने से हज़ारों लोगों को खाना मिलता था। आप खुद बताइये कि पहले जो काम आप कर
रहे थे वह प्रभु की नज़र में बड़ा था या अब जो कर रहे हैं वह?"
शर्मा जी
की आँखें खुल गयी, और
उन्होंने दूसरे ही दिन अपना कारोबार-कारख़ाना फिर से शुरू कर दिया और संत शर्मा जी
फिर से व्यवसायी शर्मा जी बन गए। अपने को ईश्वर का दूत समझ वैसी ही भावना से
कर्म-रत हो गए।
अपना कर्म करना न छोडें। सेवा और त्याग
दैवीय गुण अवश्य हैं मगर सेवा और त्याग का अभिमान ही जीवन का सबसे बड़ा रोग भी है।
सेवा और त्याग का गुण ही समाज में किसी मनुष्य के मूल्य अथवा उपयोगिता का निर्धारण
करता है। जिस मनुष्य के जीवन में सेवा और त्याग है, वही मनुष्य समाज में मूल्यवान भी है।
जो देता है वही देवता है। कोई मनुष्य जब समाज को देता है तो देवता के रूप में स्व-प्रतिष्ठित
भी हो जाता है।
गीता में भी कर्म की व्याख्या करते हुए
श्रीकृष्ण जीवन के अंत काल तक, सन्यासी
के लिए भी, नियत कर्म करने की आवश्यकता को प्रतिपादित किया है:
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते
।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः
परिकीर्तितः ॥18.7 ॥
(निषिद्ध
और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिये मोह
के कारण उसका त्याग कर देना तमस त्याग कहा गया है ॥ १८.७॥
छठे श्लोक
में यज्ञ, दान और तप तथा अन्य सम्पूर्ण कर्तव्य
कर्मों को नियत कर्म बताया गया है।
अगर
सामर्थ्य है तो ईश्वरीय से सहयोग न मांगे बल्कि ईश्वरीय-सत कार्य में ईश्वर के
सहयोगी बनें। ईश्वर का सहयोग स्वमेव प्राप्त होगा।
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(एक शिष्य के साथ श्रीमाँ के वार्तालाप से २८ फ़रवरी १९६७)
सोचने की एक पूरी श्रेणी होती है। जो लोग यह सोचते हैं कि उनको
बुद्धि वरतर है और जिस चीज़ को वे नहीं समझते उसे ठुकरा देते हैं,
ऐसों की भरमार है – भरमार । और यह ठेठ मूर्खता का लक्षण है! दूसरी ओर, ऐसे भी कई हैं लोग हैं जिन्हें सामान्यतया “सीधा-सादा" माना जाता है, लेकिन
मेरे हिसाब से ये ही सराहनीय हैं और मैं ऐसे भोले-भालों को ही पसन्द करती हूँ, उनमें
अन्तरात्मा की ऊष्मा होती है। ये लोग जिस चीज़ को नहीं समझते उसकी भी तारीफ़ करते हैं। उनके
अन्दर एक तरह की मूक सराहना होती है, जिसे
समाज में बेवकूफ़ी का दरजा दे दिया जाता है, लेकिन
उनके लिए न समझ में आने वाली चीज़ में भी सुन्दरता होती है। उनके अन्दर भरपूर
सद्भावना होती है। जब कि दूसरे, जो अपने आपको अपनी
तथाकथित बुद्धि के उच्च शिखरों पर आसीन मानते हैं, उनकी
समझ में जो चीज़ नहीं आती उसे वे बेकार घोषित कर देते हैं।
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आत्मा से तृप्त लोग.. मैंने पढ़ा
बस अड्डे पर बैठा मैं अपने शहर जाने
वाली बस का इंतजार कर रहा था। बस अभी अड्डे पर नहीं लगी थी! मैं बैठा हुआ एक किताब
पढ़ रहा था। मुझे देखकर लगभग 10
साल की एक बच्ची मेरे पास आकर बोली, "बाबू
पेन ले लो,10 के चार दे दूंगी। बहुत भूख लगी है, कुछ खा लूंगी।" उसके साथ एक छोटा-सा लड़का भी था, शायद भाई हो उसका।
मैंने कहा: मुझे पेन तो नहीं चाहिए!!
आगे उसका सवाल बहुत प्यारा सा था,
"फिर हम कुछ खाएंगे
कैसे?"
मैंने कहा: मुझे पेन तो नहीं चाहिए पर
तुम कुछ खाओगे जरूर..!!
मेरे बैग में बिस्कुट के दो पैकेट थे, मैंने बैग से निकाल एक-एक पैकेट
दोनों को पकड़ा दिए, पर मेरी हैरानी की कोई हद न रही जब उसने
एक पैकेट वापिस करके कहा,"बाबू जी ! एक ही काफी है,
हम बाँट लेंगे"।
मैं हैरान हो गया जवाब सुनकर ! मैंने
दुबारा कहा: "रख लो, दोनों। कोई बात
नहीं।"
मेरी आत्मा को झिंझोड़ दिया उस बच्ची के जवाब ने, उसने कहा ... "तो फिर आप क्या खाओगे"?
इस संसार में करोड़ों अरबों कमाने वाले लोग जहाँ उन्नति
के नाम पर इंसानियत को ताक पर रखकर लोगों को बेतहाशा लूटने में लगे हुए हैं, वहाँ एक भूखी बच्ची ने मानवता की
पराकाष्ठा का पाठ पढ़ा दिया। मैंने अंदर ही अंदर अपने आप से कहा, इसे कहते हैं आत्मा से तृप्त लोग, लोभवश किसी से इतना भी मत लेना कि उसके हिस्से का भी हम खा जाएं.....।
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माँ ईश्वर का प्रतिरूप है मैंने पढ़ा
(क्या आप ईश्वर के अस्तित्व में
विश्वास करते हैं? बिलकुल नहीं! इसे पढ़ें)
डॉ० Wayne Dyer (वायन डायर) का Your Sacred Self' (योर सैक्रेड सेल्फ)-में दिया निम्नलिखित दृष्टान्त 'ईश्वर'
की अवधारणा-सम्बन्धी सर्वश्रेष्ठ व्याख्याओं में से एक माना जाता है:
एक
माता के गर्भ में दो बच्चे थे। एक दूसरे से पूछता है, 'क्या तुम प्रसव के बाद जीवन में
विश्वास रखते हो?'
'निरर्थक बात', पहला वाला कहता है। ‘प्रसव के बाद कोई जीवन नहीं है,
कैसा जीवन होगा वह!!!’ दूसरा कहता है,
'मैं नहीं जानता, लेकिन वहाँ पर यहाँ से अधिक
प्रकाश होगा। सम्भव है, हम अपने पैरों पर चलें, मुँह से खायें। हो सकता है हमारी अन्य इन्द्रियाँ हों, जिन्हें हम अभी नहीं समझ सकते।'
पहला जवाब देता है, ‘बेतुकी बात, चलना
असम्भव है और मुँह से खाना? हास्यास्पद । नाभिनाल से ही हमें हमारा पोषण और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति
होती है, लेकिन नाभिनाल तो बहुत छोटी है। इसलिये प्रसव के बाद जीवन तर्कसंगत
नहीं बैठता।'
दूसरा
आग्रह करता है, 'ठीक है, पर मुझे लगता है कि वहाँ पर यहाँ से अलग होगा। हो सकता है कि हमें इस
नाभिनाल की जरूरत ही न पड़े।'
पहला
जवाब देता है, 'असंगत बात, अच्छा मान भी लें कि वहाँ जीवन है तो वहाँ से कभी कोई लौटकर क्यों नहीं आया? सच यही है कि
प्रसव जीवन का अन्त है और प्रसव के बाद
कुछ नहीं है; है तो सिर्फ अँधेरा, खामोशी
और विस्मरण। यह हमें कहीं और नहीं ले जाता।'
'ठीक है, मैं नहीं जानता', दूसरा बोला, 'लेकिन हम निश्चित रूप से 'माँ' से मिलेंगे और वह हमारा देखभाल करेगी।'
पहला
चौंकता है, "माँ!!', तुम 'माँ' में विश्वास रखते
हो! यह तो हास्यास्पद है। अगर 'माँ' है
तो इस समय वह कहाँ है?'
दूसरा
कहता है, "वह' हमारे चारों तरफ है, हम 'उससे'
घिरे हुए हैं। हम 'उसके' हैं। हम 'उसी' के अन्दर रहते
हैं। उसके बिना यह दुनिया न होती और न हो सकती थी।'
पहला
कहता है, ‘लेकिन मुझे तो वह नहीं
दिखती। इसलिये तर्कसंगत यही है कि 'उस' का अस्तित्व नहीं है।'
अब
दूसरा समझाता है, 'कभी-कभी, जब तुम शांत हो और ध्यानपूर्वक सुनो, तब तुम ‘उस' की उपस्थिति महसूस कर सकते हो और तुम 'उस' की प्यार भरी आवाज भी सुन सकते हो, जो ऊपर से तुम्हें पुकारती है।'
(क्या आप ईश्वर के अस्तित्व में
विश्वास करते हैं? शायद हाँ!)
कल्याण- बोध कथा अंक से (प्रेषक
– श्री प्रशान्तजी अग्रवाल)
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नम्रता लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना
प्रसिद्ध
लेखक किपलिंग ने किसी पहाड़ी पर एक घर खरीदा और अपनी पत्नी के साथ गर्मियों के मौसम
में उसमें रहने के लिए चले गए। एक दिन पति-पत्नी पहाड़ की ढलान पर सैर करते हुए एक
छोटी सी झोंपड़ी के पास जाकर रुके जिसमें एक बूढ़ी स्त्री अकेली रहती थी। वृद्धा
उन्हें देख कर बहुत खुश हुई और बोली, “वह
मकान आपका ही है न जिसकी खिड़कियाँ इस तरफ खुलती हैं”?
“जी”, किपलिंग ने जवाब दिया।
“रात को उसमें रौशनी दिखलाई देती है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। यहाँ चारों तरफ के सन्नाटे में वह प्रकाश बहुत सुखद लगता है। जीवन ‘धड़क रहा है’ इसकी खुश-खबरी सुनाता है। तुम लोग कुछ दिन और यहाँ रहोगे और उन खिड़कियों वाले कमरे में बत्तियाँ जलाया करोगे न”? वृद्धा की खुशी आँखों में छा गयी थी।
“जी
हाँ, हम कुछ दिन तो यहाँ जरूर ठहरेंगे, हो सकता है ज्यादा भी रुक जाएँ, और उस कमरे में हर
रोज बत्तियाँ भी जरूर जलाया करेंगे”, किपलिंग ने नम्रता के
साथ हाथ जोड़ कर कहा। पति पत्नी को असीस
देते हुए विदा किया वृद्धा ने।
कुछ
दिनों के बाद सर्दियों में जब वे दोनों वहाँ से लौटने लगे तो किपलिंग ने घर की
निगरानी करने वाले नौकर को खास हिदायत दी कि उस कमरे कि बत्तियाँ रोज देर रात तक
जलती रहने दे और साथ ही उस कमरे के परदे भी उतार दे ताकि उस अकेली वृद्धा को
ज्यादा रौशनी के साथ-साथ दूर से धड़कता हुआ जीवन भी दिखाई दे।
(अग्निशिखा से)
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी (16) धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद
कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया
है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
इसी कड़ी में यहाँ इसकी सोलहवीं किश्त है।)
(16)
मजिस्ट्रेट के कोर्ट में एकमात्र विशेष
उल्लेखनीय घटना थी नरेन्द्रनाथ गोस्वामी की गवाही। उस घटना का वर्णन करने से पहले
अपनी विपदा के संगी युवक आसामियों के बारे में कहता चलूं। कोर्ट में इनका आचरण देख
अच्छी तरह समझ गया था कि बंगाल में नवयुग आ गया है, नयी सन्तति माँ की गोद में वास करना आरम्भ कर चुकी है।
तत्कालीन बंगाली लड़के दो तरह के थे, या तो थे शान्त,
शिष्ट, निरोह, सच्चरित्र,
भीरु, आत्मसम्मान और उच्चाकांक्षा से शून्य:
या दुश्चरित्र, दुर्दान्त, अस्थिर,
ठग, संयम और साधुता से शून्य ! इन दो
चरमावस्थाओं के बीच नानारूप जीव बंग-जननी की गोद में जनमे थे, लेकिन आठ-दस असाधारण प्रतिभावान् शक्तिमान, भविष्य
के पथ-प्रदर्शकों को छोड़ इन दो श्रेणियों के अलावा तेजस्वी आर्य सन्तान प्रायः
देखने में नहीं आती थी। बंगाली में बुद्धि थी, मेधाशक्ति थी
लेकिन शक्ति नहीं थी; मनुष्यत्व नहीं था। लेकिन इन लड़कों को
देखते ही लगता था मानों अन्य युग के अन्य शिक्षाप्राप्त, उदारचेता,
दुर्दान्त तेजस्वी पुरुष फिर से भारतवर्ष में लौट आये हैं। वह
निर्भीक सरल दृष्टि, वह तेजपूर्ण वाणी, वह चिन्ताशून्य आनन्दमय हास्य, इस घोर विपद् के समय
भी वह अक्षुण्ण तेजस्विता, मन की प्रसन्नता विमर्शता,
चिन्ता या सन्ताप का अभाव, उस समय के तम:
क्लिष्ट भारतवासी का नहीं, नूतन युग का, नूतन जाति का, नूतन कर्मस्त्रोत का लक्षण है। ये यदि
हत्यारे हों तो कहना पड़ेगा कि हत्या की रक्तमयी छाया उनके स्वभाव पर नहीं पड़ी। क्रूरता,
उन्मत्तता और पाशविक भाव उनमें कतई नहीं था। उन्होंने भविष्य की या
मुकद्दमे के फल की जरा भी चिन्ता न कर कारावास के दिन बालकोचित आमोद में, हंसी में, खेल में, पढ़ने-सुनने
में, समालोचना में बिताये। बहुत जल्दी ही उन्होंने जेल के
कर्मचारी, सिपाही, कैदी, यूरोपीय सार्जेंट, जासूस, कोर्ट
के कर्मचारी सभी के साथ मैत्री का नाता जोड़ लिया था। एवं शत्रु-मित्र, बड़े-छोटे का विचार न कर सब के साथ बातचीत, हंसी-मजाक
करने लग गये थे। कोर्ट का समय उन्हें बड़ा विरक्तिकर लगता, क्योंकि
मुकद्दमे के प्रहसन में रस बहुत कम आता था। यह समय काटने के लिए उनके पास न पढ़ने
को किताब थी न बात करने की अनुमति। जो योग करना शुरू कर चुके थे, उन्होंने तब तक गुल- गपाड़े में ध्यान करना नहीं सीखा था, उनके लिए समय काटना पहाड़ हो जाता। शुरू में दो-चार जन पढ़ने के लिए किताब
अन्दर लाने लगे, उनकी देखा-देखी बाकी सब ने भी उसी उपाय का
सहारा लिया। उसके बाद एक अद्भुत दृश्य देखने को मिलता - मुकद्दमा चल रहा है,
तीस-चालीस आसामियों के समस्त भविष्य को ले खींचा तानी चल रही है,
उसका फल हो सकता है फांसी के तख्ते पर मृत्यु या आजीवन कालापानी,
किन्तु उस ओर दृष्टिपात न कर उनमें से कोई बंकिम का उपन्यास,
कोई विवेकानन्द का राजयोग या Science of Religions, कोई गोठा, कोई पुराण तो कोई यूरोपीय दर्शन एकाग्र मन
से पढ़ रहा होता। अंग्रेज सार्जेंट या देशी सिपाही कोई भी उनके इस आचरण में बाधा
नहीं देता। वे सोचते थे कि यदि इससे ही इतने सारे पिंजराबद्ध व्याघ्र शान्त रहें तो
हमारा काम भी कम होता है और इससे किसी की क्षति भी नहीं होती। लेकिन एक दिन बर्ली
साहब की दृष्टि खिंच गयी इस दृश्य की ओर, असह्य हो उठा
मजिस्ट्रेट साहब को यह आचरण। दो दिन तो वे कुछ नहीं बोले लेकिन और ज्यादा सह न सके,
पुस्तकें लाने की मनाही कर दी। असल में बर्ली इतना सुन्दर विचार कर
रहे थे कि उसे सुनकर कहाँ तो सब को आनन्द लेना चाहिये था, उल्टे
पढ़ रहे थे सब पुस्तकें। यह तो बर्ली के गौरव और ब्रिटिश जस्टिस की महिमा के प्रति
घोर असम्मान प्रदर्शित करना था, इसमें सन्देह नहीं।
(क्रमशः, आगे अगले अंक में)
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