सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०११ 🔊(30.15) जून * २०२२
सद्गुण एक प्रकार की बुद्धि है जिसे
सिखाया नहीं जा सकता और इसलिए यह ज्ञान नहीं है।
जो लोग यह दावा करते हैं कि यह एक
ज्ञान है और इसे सिखाया जा सकता है,
वे यह भूल जाते हैं कि उनके अच्छे काम
का परिणाम ज्ञान नहीं बल्कि
उनके सच्चे विचारों की देन है।
प्लेटो
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एक लम्बी लघु कथा
(इस लंबी कथा को आपने लघु कथा के रूप में जरूर सुनी और पढ़ी होगी।
फोटो देख कर इसका मजमून भी समझ गए होंगे। लेकिन
जरा ठहरिये! हाँ, बात वही है लेकिन अचलेश शर्मा की कलम को महसूस कीजिये, लगेगा की इसे आप पहली बार पढ़ रहे हैं। नहीं, पढ़ नहीं रहे हैं, महसूस कर रहे
हैं, इसे जी रहे
हैं। इसे ही कहते हैं कलम की ताकत। चाहें तो सुन लीजिये, तब भी एक अलग अहसास होगा।)
पत्नी जिद कर रही थी कि तुलसी लगाने के लिए उसे कुम्हार की दुकान से गमला चाहिए। उस दिन रविवार था, इसलिए नाश्ता करते हुए पति ने प्रस्ताव रखा, 'चलो आज हम वह तुलसी वाला गमला ले आते हैं और खाना भी बाहर ही करते आएंगे। पत्नी खुश। नव-दंपत्ती मिट्टी के सामान वाले कुम्हार की उस दुकान पर पहुँच गया जहाँ गमले और मिट्टी का सजावटी सामान बनाकर बेचा जाता था। हालांकि तिरपाल के तले और चारों तरफ पड़े सामान को देख कर उसे दुकान नहीं कहा जा सकता। पत्नी ने तुलसी के थांवले जैसा गमला पसंद कर लिया, लेकिन जब दाम पूछे तो वह आश्चर्य से लगभग चीख उठी, 'क्या? एक सौ बीस रुपये? एक सौ बीस रुपए का क्या है इसमें? मिट्टी का ही तो है!"
बेचारे कुम्हार ने
बहुत सारी दलीलें दी, जैसे मेहनत बहुत
करनी पड़ती है, बिकता भी कम है, महंगाई बहुत है, वगैरह-वगैरह, लेकिन पत्नी इतने पैसे
देने को तैयार ही नहीं थी। आखिर बहुत बहस करके अपनी पसंद का गमला लेकर और 100 रुपए कुछ इस भाव से
वहीं रख कर वह गाड़ी की तरफ चल पड़ी,
जैसे इतने रुपए भी वह कुछ ज्यादा ही दे रही है। कार में बैठते हुए
पति ने देखा कि कुम्हार ने एक बेबसी और उदासी भरे भाव से वे रुपए उठा लिए थे।
होटल में खाने के
लिए दिए गए ऑर्डर में पत्नी अपनी पसंद का आलू जीरा शामिल कराना नहीं भूली थी। कुछ
देर में खाना मेज पर सजा दिया गया। खाना खाते-खाते पति हौले से बोला, उस गमले के तुम्हें
पूरे पैसे दे देने चाहिए थे।'
"अरे
वाह, एक सौ बीस का
उसमें क्या है? भला लूट मचा रखी है। तुम भी न!’
'चलो, थोड़ी देर के
लिए तुम्हारी बात मान लेते हैं कि उस गमले में एक सौ बीस का कुछ नहीं है। अब जरा
इस आलू जीरा की सब्जी को भी देखो। देखो, मेन्यू
में इसकी कीमत दो सौ चालीस रुपए लिखी है। अब यह भी देखो कि इसमें आलू कितना लगा
होगा। शायद आधा किलो भी नहीं। आज के बाजार भाव से देखें तो पांच रुपए के क़रीब आलू
लगे होंगे इसमें। अब मसाले,
गैस वगैरह भी लगा लो,
तो बहुत से बहुत पैंतीस-चालीस रुपए लग गए होंगे। लेकिन हम यहाँ होटल
वाले से नहीं कहते कि आलू जीरे की इस एक प्लेट में दो सौ चालीस का क्या है भला? चुपचाप इसे दो सौ चालीस
का ही स्वीकार कर लेते हैं। ऊपर से हम वेटर को टिप भी देकर जाते हैं। तुमको पता है
कि जो गमला तुमने लिया है इसे बनाने में उस ग़रीब ने कितनी मशक़्क़त की होगी?' पत्नी के चेहरे पर
उत्सुकता आ गई थी।
पति बोला, 'सबसे
पहले तो वह कहीं ख़ास जगह पर बनी एक ख़ास मिट्टी की खदान से मिट्टी खोद कर लाया
होगा। फिर उसमें पानी डाल कर उसने कई दिन तक कई बार उसे रौंदा होगा, तब जाकर वह मिट्टी इस
लायक हुई होगी कि उससे कुछ बनाया जा सके। फिर उसने अपने हाथों से बड़े ध्यान और
धीरज के साथ इस चौकोर आकार के खास गमले को तैयार किया होगा, क्योंकि चौकोर गमला चाक
पर नहीं बनाया जा सकता। फिर इसके गीला रहते हुए ही उसने इस पर नक्काशी की होगी।
फिर इसे सूखने के लिए रखा होगा, बहुत संभाल के।
इसके सूख जाने पर इसे उपलों के ढेर के अंदर रख कर, उन्हें जला कर इसे
पकाया होगा। फिर बड़ी सावधानी के साथ वह इसे अपने घर से ढो कर इस दुकान पर लाया
होगा। और उसकी दुकान देखी तुमने? ऊपर तिरपाल से ही तो ढकी है,
लेकिन चारों तरफ से खुली है। ऐसे खुले में वह तेज सर्दी, गर्मी, बरसात झेलते हुए वहीं
रहता है, वह खाट और उस पर
पड़ा उसका बिस्तर वहीं तो था, तुमने देखा होगा।'
पत्नी विस्मित भाव
से बड़े ध्यान से सुन रही थी। पति ने पत्नी की प्लेट में थोड़ा और आलू जीरा परोसते
हुए कहा, 'और यह होटल वाला बाजार से आलू मंगा कर कुक को सामान देकर आराम से
एसी में बैठा हुआ इसके हमसे दो सौ चालीस रुपए वसूल कर रहा है और हम कोई चूं-चपर
किए बिना उसे दो सौ चालीस भी दे रहे हैं और ऊपर से टिप भी।
पत्नी के चेहरे पर
उदासी उतर आई थी पति ने स्थिति को संभालते हुए कहा, 'नहीं डियर, मैं तुम्हारा
उपहास नहीं कर रहा हूँ। सोचने वाली बात यह है कि हम कुम्हार, सब्जी वाला, रिक्शा वाला और इसी तरह
के ग़रीब लोगों के साथ - इन मेहनतकश गरीब लोगों के साथ जो कि अपने को बचाए रखने के
लिए जूझ रहे होते हैं, इन्हीं के साथ
मोलभाव क्यों करते हैं, इन्हीं के साथ
पैसे कम करने की झिक-झिक क्यों करते हैं? सब्जी
की बात चली है, तो सब्जी वाले
को ही लो! तुमने देखा होगा कि शायद ही कोई ऐसा भला इंसान होगा, जो सब्जी वाले के साथ
पैसे कम कराने के लिए झिक-झिक न करता हो। लेकिन क्या कभी कोई सोचता है कि हमें
सब्जी उपलब्ध कराने के लिए वह कितनी मशक्कत करता है। हर रोज मुँह अंधेरे उठ कर वह
सब्जी मंडी जाता है, वहाँ से सब्जी
तुलवा कर वह उसे अपने ठेले तक लेकर आता है,
सारी सब्जियों को धोता है,
उन्हें हमारे लिए ठेले पर सजाता है और सारे दिन ही नहीं रात को 8-9 बजे तक वहीं खुले में
खड़े-खड़े सब्जियां बेचता है - हर मौसम की मार झेलता हुआ, चाहे सर्दी हो, गर्मी हो, बरसात हो, आंधी हो। और हम उससे
कहते हैं कि दो रुपए कम कर दे, और हरा धनिया और मिर्च मुफ़्त में लेना तो जैसे हमारा जन्मसिद्ध
अधिकार बन गया है। इस होटल में खाने का एक हजार रुपए का बिल भरने वाला भी कोई एक
पापड़ मांग कर तो देखे, पापड़ की क़ीमत
तुरंत वह बिल में जोड़ देगा, लेकिन हम उससे यह नहीं कहेंगे कि हमने हजार रुपए का बिल भरा है तो
एक पापड़ तो दे दे। कभी नहीं कहेंगे। लेकिन सब्जी वाले से तो गुर्रा कर कहते हैं
कि हरी मिर्च डाल दे, धनिया डाल दे।
अरे भाई, हरी मिर्च और
धनिया क्या उसके घर में उगा था, वह भी तो उस ने मंडी से ख़रीद कर ही लाया होगा, फिर आप मुफ्त में क्यों
मांग रहे हैं। और विडंबना देखो कि पैसे से समर्थ व्यक्ति असमर्थ व्यक्ति से मुफ्त
में लेने की चाह रखता है। हम जैसे समर्थ लोग होटल, मॉल और कुबेरों की ऐसी ही पॉश जगहों पर यह देखते और महसूस करते हुए
भी कि हम मूंडे जा रहे हैं, चुपचाप उस मोटी
रकम का भुगतान करने में गर्व समझते हैं,
लेकिन गरीब को उसकी लागत और मेहनत के पैसे देने में मोलभाव करने और झिक-झिक करने में हमें
संकोच नहीं होता, बल्कि ऐसा करना हम
अपना अधिकार समझते हैं। अच्छा तो यह होगा कि हम लोग जो पैसे से समर्थ हैं, वे ग़रीबों के साथ मोलभाव बिल्कुल न करें, उनकी
मेहनत को, मशक्कत को सलाम करें और इसलिए हो सके तो बैरे को
टिप देने की तरह ही इन्हें भी ऊपर से कभी कुछ इनाम भी दें।'
पत्नी
के चेहरे पर 'ज्ञान प्राप्ति'
जैसे कुछ भाव तैरने लगे थे, और खाना खा लेने
पर आने वाले तृप्ति के भाव भी बाहर आने पर पत्नी ने अपने स्वर में आग्रह का भाव
लाते हुए पति से कहा, 'जरा एक बार फिर वहीं चलें?' पति ने मुस्कुरा कर सहमति दी। कुम्हार की उस दुकान पर वे फिर रुके। पत्नी
ने अपनी पसंद के कई और सामान लिए। किसी की भी कीमत पर कोई झिक-झिक नहीं की और पूरे
दाम चुकता कर दिए।
कुम्हार
खुश था कि आज अच्छी बिक्री हो गई थी। पति खुश था कि ग़रीब को उसके सामान के सही
दाम दिला सका और इसलिए भी कि पत्नी ने उसकी बात पर बहस करने के बजाय बात को समझने
की कोशिश की थी और सहजता के साथ आश्वस्त हो गई थी कि ग़रीब से मोल-भाव करना कोई
अच्छी बात नहीं है। पत्नी भी खुश थी कि अपनी पसंद का इतना सारा सामान ले लिया था
और इसलिए भी कि उसे एक व्यापक दृष्टिकोण और गहरी मानवीय सोच वाला पति मिला था।
(इसके साथ ही मुझे याद आ रहा है एक विदेशी महिला का भारत-भ्रमण
वृतांत। वे लिखती हैं। वे अपने पति और दूध-मुंहे बच्चे के साथ भारत भ्रमण पर आई
हुई थी और एक पांच सितारा होटल में ठहरे हुए थे। एक पर्यटक स्थल को देखने जाने के
लिए गाड़ी से निकलना था और रास्ता कुछ लंबा था। निकलते-निकलते उसे ध्यान में आया कि
बच्चे के लिए दूध लेना भूल गई है। होटल के बिल का भुगतान करते हुए उसने बच्चे के
लिए दूध मांगा और बच्चे की खाली बोतल बढ़ा दी। जल्दी ही बैरा एक सुंदर सी ट्रे में
दूध भरी बोतल और तीन अंकों वाला बड़ा सा
बिल लेकर हाजिर हो गया। महिला ने भुगतान किया और निकल पड़े। कुछ देर में बच्चे ने
दूध पी लिया। अब तक वे शहर से बाहर सून-सान सड़क पर आगे बढ़ रहे थे। बच्चे ने रोना शुरू किया। उसे फिर से भूख लग गई
थी। हजार उपाय करने के बाद भी बच्चे का रोना नहीं रुक रहा था, बल्कि बढ़ ही रहा था। महिला लिखती है, हार कर मैंने ड्राईवर को अपनी परेशानी बताई। अगले गाँव पर उसने
गाड़ी रोकी और मेरे हाथ से बोतल लेकर एक झोंपड़ी में घुसा। कुछ ही देर बाद दूध से
भरी बोतल लेकर बाहर निकला, उसके पीछे-पीछे
एक युवक भी आया, एक युवती वहीं
दरवाजे पर खड़ी रही। मुझे थोड़ी घिन-सी तो आई लेकिन मेरे पास कोई उपाय नहीं था। बोतल
लेते-लेते मैंने सौ एक नोट बढ़ाया। लेकिन मैं विस्मित रह गई। उस युवक ने कुछ भी लेने से साफ मना कर दिया, “बच्चे के दूध लेकर मुझे नर्क में नहीं जाना है”। तभी मैंने देखा
झोंपड़ी से वही महिला आ रही थी। उसके हाथ में और एक बोतल है जिसमें दूध भरा था, ‘सफर में बच्चे
को फिर से भूख लग सकती है, इसे रख लीजिये’। मैं कुछ समझ नहीं पाई। मुझसे रहा नहीं गया। उस महिला को अपनी
बाहों में भर कर मैं रोने लगी।)
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मन का योग
(योग-दिवस पर)
बरसों तक कभी कंदराओं में कैद रहा योग, योगा बनकर आज घर-घर
घूमता हुआ विश्व पटल पर पसर गया है। योग की महत्ता बहुत गहरी है, परंतु सतही समझ ने
इसे शरीर के स्वास्थ्य तक ही सीमित कर इसे योगा बना दिया है। निःसंदेह इससे
थोड़ा स्वास्थ्य तो सुधरा है, परंतु आधुनिक जीवनशैली की चकाचौंध से ग्रसित मन के भटकाव ने योग से
मिलने वाले संपूर्ण लाभों से वंचित कर दिया है। मन की बढ़ती चंचलता ने मनुष्य को
यंत्रवत बनाते हुए, दुःख के थाल
परोस दिए हैं। आज समस्त साधनों और भीड़ से घिरा आदमी, स्वयं को इसीलिए अकेला
महसूस कर रहा है क्योंकि उसका मन उसके साथ नहीं है, शरीर यहाँ और मन कहीं और, इस
अलगाव को रोकने का नाम है योग। योग का शाब्दिक अर्थ ही है ‘जोड़’ यानि जुड़ना। परमात्मा से जुड़ने से पहले खुद से जुड़ना जरूरी है। खुद का
परमात्मा से एकात्म हो जाना ही 'योग' है। कण-कण में परमात्मा
का भोगी ही योगी होता है।
मन की उपस्थिति के
बिना संपन्न हुए कार्य में न तो गुणवत्ता होती है और न ही उपयोगिता की सुगंध। बालपन
के बाद से ही मन की चंचलता बढ़ती जाती है। दैनिक कार्यों की समस्त गतिविधियों, प्रायः मन की गैर
हाजिरी के साथ यंत्रवत ही होती रहती हैं और इसीलिए कार्य करने का फल और आनंद पूरी
तरह से नसीब नहीं हो पाता। अधूरे मन से किया गया कार्य कभी फलदायी नहीं
होता। चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। दूषित कार्यों में रसिक मन का
सानिध्य अधिक होता है।
योग, मन और कृत्य को जोड़ने
का काम करता है। योग के नाम पर केवल ऊँचा-नीचा,
टेढ़ा-बाँका और हाँपू-धाँपू होते रहना, योग नहीं है। योग एक
वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें यम
और नियम को पालना पहली आवश्यकता है, आसन और प्राणायाम बाद की बात है। इनकी प्रवीणता के पश्चात्
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में योग
की पूर्णता होती है। सामान्यजन के लिए सारी सीढ़ियाँ चढ़ पाना संभव नहीं है, विशेषकर भागमभाग वाली
इस आधुनिक जीवनशैली में।
यम यानी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
को अपने दैनिक जीवन में साधना। अपने मन को इन मूल्यों की समझ के साथ व्यवहार में
उतारना । नियम यानी शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर
प्राणिधान योगाभ्यास में शुचिता को साधे बगैर सीधे आसन और प्राणायाम पर जाने से, श्रम के कारण शरीर भले
ही सुधर जाए, लेकिन व्यक्ति नहीं सुधर पाता। इनके बिना किये हुए
योग में न सात्विकता है न आध्यात्मिकता, इनके बिना किया हुआ
योग अपूर्ण ही है। इस प्रकार के योग से मिलता-जुलता योग तो भोर से लेकर संध्या के
बाद तक, सभी
स्त्री-पुरुष किया करते थे, जब वर्तमान में
उपलब्ध साधनों सुख-सुविधाओं का नितांत अभाव था तब उनके श्रम और लगन ने उन्हें
शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मीठी और गहरी नींद भी परोसी, जो आज ढूँढ़ने से भी
नहीं मिल पाती है। यम-नियम के अभाव में योगाभ्यास कर शारीरिक बल और एकाग्रता हासिल
कर दानव-आतंकवादी भी बना जा सकता है। योग के लिए आध्यात्मिकता की उपस्थिति आवश्यक
है। यम-नियम से मुँह मोड़कर आपाधापी को धारण करने वाले लोगों के कारण सामाजिक
स्वास्थ्य बिगड़ता हुआ, विक्षिप्तता की
ओर जा रहा है। अर्थवान योग के लिए अपने अहंकारिता - बिगड़ैल मन का प्रक्षालन करना
अत्यंत जरूरी है। निर्मल मन का साथ यदि बना रहे, तो प्रायः सभी व्याधियों से पार पाया जा सकता है। जीवन में
सात्विकता की प्रधानता योग का आधार है। वासनामुक्त चित्त के साथ फल-रहित कर्म की
डगर कंटकाकीर्ण नहीं होती।
कदाचित, आसन और प्राणायाम में
भी हमारा ध्यान-मन यानी विचार, हमारे साथ रहें तो लाभ प्राप्ति में शीघ्रता रहेगी जो उपयोगिता के
संदर्भ में स्व के साथ सर्वोपयोगी भी होगा। प्राण-प्रण के साथ किया गया कार्य
फलीभूत होता ही है। जो भी आसन किया जाए, पूरा
मन उसके साथ जुड़ा होना चाहिए, तभी उस आसन से लाभ मिलना संभव
है। आसन यानी स्थिति विशेष में बैठना,
उपयुक्तता के साथ बैठने का कृत्य। मन सदैव उड़ता ही रहता है, उसे अपने पास बिठा लें,
तो हर कृत्य में हम आनंद के आस-पास होंगे। प्राणायाम में श्वास को
साधना होता है। श्वास ही प्राण है। प्रत्येक श्वास यदि मन के साये में बनी रहे, तो प्राण के आयाम का
निखरना तय है। प्राणायाम के साथ प्रत्याहार और धारणा सधते हैं। इनके सध जाने से
ध्यान की उरवर्कता बलवती होती है, जिसमें मन का कोई स्थान नहीं है। मन की शून्यता से ध्यान की गहनता
उर्ध्वगामी होकर समाधि का द्वार खटखटाती है और परमात्मा से मिलन संभव हो जाता है।
सामान्य जन के लिए
इतनी लंबी और कठिन यात्रा तो संभव नहीं है,
परंतु अपने प्रत्येक कृत्य के साथ मन को जोड़े रखना, संभव अवश्य है - यदि
पूर्णता के साथ अभ्यास करें तो। यदि मन के साथ रह पाना संभव न हो, तो भी यह ध्यान रखना
कारगर होगा कि इस समय मन-चित्त कहाँ पर है यानी हमेशा होश में रहने का यत्न करें।
अभ्यास के रूप में एक गिलास पानी पीने या लघुशंका जैसी छोटी-सी घटना में
ध्यानपूर्वक मन को साथ रहने के लिए मना लिया जाए और जब रोम-रोम से निर्दोष मन
झाँकने लगे, तो फिर प्रेम
करने जैसी महान घटना भी घटित हो सकती है। हो यह रहा है कि जहाँ हम होते हैं, वहाँ मन हमारे साथ नहीं
होता और जहाँ मन होता है, वहाँ हम नहीं
होते। शरीर और कृत्य के एकाकार मन से योग को प्राण वायु मिलती है। मन-रहित निर्जीव
योग, उससे मिलने वाली
संभावनाओं को हर लेता है। परिष्कृत मन की गहनता के साथ योग को आत्मसात करने पर
संवेदना के पंख लग सकते हैं, करुणा की बाढ़ आ सकती है,
ज्ञान-कर्म-भक्ति के भाव के साथ मनुष्यता ऊँचाइयाँ छू सकती है और
इसके फलस्वरूप आनंद की वर्षा कर सकती है। इसीलिए अनेक दिवसों के साथ-इस
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर भी, हम साधें - मन का योग ।
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महावीर
योगानन्दी पर आधारित
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संवेदना
लघु कहानी - जो सिखाती है जीना
तूरीन
मार्शल का एक बड़ा हट्टा-कट्टा अर्दली था। अर्दली का एक दुबला-पतला दोस्त था स्टीफन, वह भी मार्शल के घर पर ही नौकर था।
एक दिन मार्शल तूरीन खिड़की से झुक कर बाहर देख रहे थे उसी समय अर्दली कमरे
में आया और उनकी पीठ पर ज़ोर से घूंसा जमा
बैठा। तूरीन गुस्से से पीछे मुड़े। जब अर्दली ने उन्हें देखा तो उसके होश हवास गुम
हो गए। मालिक के कदमों पर गिर पड़ा, हाथ
जोड़ कर माफी माँगते हुए बोला, “सर,
सौ-सौ बार माफी चाहता हूँ, रात के अँधेरे में मुझे लगा कि
स्टीफन खड़ा है। मुझे पता नहीं था कि आप खड़े हैं..........”। अर्दली को वाक्य पूरा
नहीं करने दिया तूरीन ने, उसे जमीन से उठा कर बाँहों में
भरते हुए मुस्कुरा कर बोल उठे, “अरे भाई! अगर स्टीफन भी होता
तो भी इतनी ज़ोर से तो नहीं मारना चाहिए था। यह घूँसा उसकी पीठ पर पड़ा होता तो
बेचारे की क्या हालत हुई होती”।
अर्दली तो शर्म से पानी-पानी हुए जा रहा
था। उसे लगा कि धरती फट कर उसे अपने अंदर समा क्यों नहीं लेती। उसकी हालत देख
मार्शल ने उसके कंधे को दबा कर ठोड़ी ऊपर उठाते हुए कहा, ‘अरे! अब मेरी पीठ भी तो सहलाओ जरा, कैसी झनझना रही है!”
(अग्निशिखा से)
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद
कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया
है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
इसी कड़ी में यहाँ इसकी अठारहवीं किश्त है।)
(18)
शुरू में किसी ने भी गोसाईं को यह पता
न लगने दिया कि सभी उनकी अभिसन्धि भाँप गये हैं। वे भी इतने नासमझ निकले कि बहुत
दिन तक कुछ भी न समझ सके, वे समझते थे कि मैं
खूब छिपे-छिपे पुलिस की मदद कर रहा हूँ। किन्तु कुछ दिन बाद यह हुकुम हुआ कि हमें
अब और निर्जन कारावास में न रख एक साथ रखा जायेगा तब, उस
नूतन व्यवस्था से रात दिन पारस्परिक मेल-जोल और बातचीत से कुछ भी ज्यादा दिन छिपा
न रहा। उन्हीं दिनों दो एक लड़कों के साथ गोसाई का झगड़ा हुआ, उनकी बातों से और सब के अप्रीतिकर व्यवहार से गोसाई समझ गये कि उनकी
अभिसन्धि किसी के लिए भी अज्ञात नहीं रही। जब गोसाई गवाही देते तो कुछ एक अंग्रेजी
अखबारों में यह खबर छपती कि आसामी इस अप्रत्याशित घटना से चमत्कृत और उत्तेजित
हुए। कहना न होगा, यह थी रिपोर्टरों की कोरी कल्पना बहुत दिन
पहले ही सब जान गये थे कि इस तरह की गवाही दी जायेगी। यहाँ तक कि किस दिन कौन-सी
साक्षी दी जायेगी उसका भी पता था। ऐसे समय एक आसामी गोसाई के पास जाकर बोले,
"देखो भाई, अब और नहीं सहा जाता, मैं भी approver (मुखबिर) बनूंगा, तुम शमसुल आलम को कहो कि मेरी रिहाई की भी व्यवस्था करें।" गोसाईं
राजी हो गये। कुछ दिन बाद उनसे कहा इस विषय में गवर्नमेंट की चिट्ठी आयी है इस
आसामी के निवेदन के अनुकूल निर्णय (favourable consideration) की सम्भावना है। यह कह गोसाईं ने उन्हें उपेन आदि से कुछ इस तरह की आवश्यक
बातें निकलवाने को कहा, जैसे- गुप्त समिति की शाखा कहाँ थी,
कौन थे उसके नेता इत्यादि। नकली approver आमोदप्रिय
एवं रसिक आदमी थे, उन्होंने उपेन्द्रनाथ के साथ परामर्श कर
गोसाईं को कुछ एक कल्पित नाम जता दिये कि मद्रास में विश्वम्भर पिल्लै, सतारा में पुरुषोत्तम नाटेकर, बम्बई में प्रोफेसर
भट्ट और बड़ौदा में कृष्णाजीराव भाऊ थे इस गुप्त समिति की शाखा के नेता। गोसाईं ने
आनन्दित हो यह विश्वासयोग्य संवाद पुलिस को दे दिया। पुलिस ने भी मद्रास में
कोना-कोना छान मारा, बहुत से छोटे-बड़े पिल्लै मिले, लेकिन एक भी पिल्लै विश्वम्भर या अर्द्ध विश्वम्भर तक न मिला, सतारा में पुरुषोत्तम नाटेकर भी अपना अस्तित्व घने अन्धकार में छिपाये रहे,
बम्बई में एक प्रोफेसर भट्ट मिल गये, किन्तु
वे थे निरीह राजभक्त सज्जन, उनके पीछे कोई गुप्त समिति होने
की सम्भावना नहीं थी। फिर भी, गोसाईं ने गवाही देते समय,
उपेन से पहले कभी सुनी बात के आधार पर कल्पना-राज्य के निवासी
विश्वम्भर पिल्लै इत्यादि षड्यन्त्र के महारथियों की नॉर्टन के श्री चरणों में बलि
चढ़ा अपनी अद्भुत prosecution theory (अभियोग सिद्धान्त) को
पुष्ट किया। वीर कृष्णाजीराव भाऊ को लेकर पुलिस ने और एक रहस्य रचा। उन लोगों ने
बागान से बड़ौदा के कृष्णाजीराव देशपाण्डे नाम किसी "घोष" द्वारा
प्रेषित टेलीग्राम की नकल प्रस्तुत की। उस नाम का कोई आदमी था कि नहीं, बड़ौदावासियों को इसका कोई सन्धान नहीं मिला, लेकिन
सत्यवादी गोसाई ने बड़ौदावासी कृष्णाजीराव भाऊ की बात कही है तो निश्चय •
कृष्णाजीराव भाऊ और कृष्णाजीराव देशपाण्डे हैं एक ही व्यक्ति और कृष्णाजीराव
देशपाण्डे हों या न हों, हमारे श्रद्धेय बन्धु केशवराव
देशपाण्डे का नाम चिट्ठी-पत्री में मिला था। इसलिए निश्चय ही कृष्णाजीराव भाऊ और
कृष्णाजीराव देशपाण्डे एक ही व्यक्ति हैं। इससे यह प्रमाणित हो गया कि केशवराव
देशपाण्डे हैं गुप्त षड्यन्त्र के एक प्रधान पण्डा। ऐसे सब असाधारण अनुमानों पर
प्रतिष्ठित थी नॉर्टन साहब की वह विख्यात theory (परिकल्पना)।
(क्रमश:, आगे अगले अंक में)
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