शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

सूतांजली अक्तूबर 2022

 सूतांजली

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वर्ष : 06 * अंक : 03                                                                अक्तूबर  * 2022

मुट्ठीभर संकल्पवान लोग,

जिनकी अपने लक्ष्य में दृड़ आस्था है,

इतिहास की धारा बदल सकते हैं

महात्मा गांधी

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पहली सीढ़ी...... शिक्षा का दायित्व....... वसंत                        मैंने पढ़ा

अभी-अभी दो कहानियाँ पढ़ीं, नवनीत में। दो नहीं बल्कि तीन। तीनों को एक साथ मिला कर पढ़ा, तीनों को एक दूसरे के साथ जोड़ कर पढ़ा। बहुत कुछ कहती हैं ये कहानियाँ-संस्मरण-घटनाएँ। मुझे लगता है आप भी समझ जाएंगे।

         पहली सीढ़ी

“एक राजकुमार जेन गुरु के पास शिक्षा प्राप्त करने पहुंचा और उन्हें प्रणाम कर बैठ गया और बोला - 'मुझे ज्ञान चाहिए और तुरंत' गुरु ने कहा- 'ठीक है कुछ प्रबंध करते हैं। पूछने पर पता चला कि राजकुमार को एक ही काम अच्छी तरह करना आता है और वह है शतरंज खेलना। जेन गुरू राजकुमार और अपने एक शिष्य, जिसे शतरंज का थोड़ा-बहुत ज्ञान था, के बीच एक बाजी का प्रस्ताव रखते हैं। शर्त यह होगी कि जो हारेगा उसका गला काट दिया जायेगा। खेल शुरू हुआ। राजकुमार शुरूआत से ही अपने प्रतिद्वंद्वी पर हावी हो गया। पर थोड़ी ही देर बाद उसके मन में विचार आया कि मेरे कारण इस बेचारे शिष्य को अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। उसे एक तरकीब सूझी कि वह जान-बूझकर गलत चालें चलेगा। लेकिन खराब खेलना उसने सीखा नहीं था। अतः खराब खेलने के लिए उसे बहुत एकाग्रता की ज़रूरत पड़ी। उस एकाग्रता के कारण वह पसीने से तर-बतर हो गया। जेन गुरु ने यह सब देखा तो खेल रुकवा दिया और बोले 'आज का पाठ समाप्त हुआ। आज तुमने दो महत्त्वपूर्ण बातें सीखीं - करुणा और एकाग्रता - यह शिक्षा की पहली सीढ़ी है।”

शिक्षा एक अमोघ शक्ति है जिसका प्रयोग विद्यार्थी अपनी क्षमता के अनुसार करता है। अतः उसके हाथ को मजबूत करने के पहले उसको साधना आवश्यक होता है, अन्यथा उस शिक्षा का प्रयोग निर्माण के बदले  विध्वंस के लिए होता है। हमने योग को योगा बना कर अधूरे ज्ञान को पूरे विश्व में फैला दिया। योग (अष्टांग योग) के आठ चरण हैं। पहला चरण है यम और दूसरा नियम। यम यानि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम यानि शौच (शुद्धता), संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान।  इन दो के बाद आता है तीसरा आसन और चौथा प्राणायाम। लेकिन इसके प्रथम दो मूल पाठ यम-नियम को छोड़ हम सीधे तीसरे और चौथे अध्याय आसन-प्राणायाम पर पहुँच गए।

यम-नियम से मरहूम विद्यार्थी को हमने सीधे आसन और प्राणायाम का पाठ पढ़ाना प्रारम्भ  कर दिया। फलस्वरूप शिक्षार्थी इस शक्ति का प्रयोग विध्वंस के लिए भी कर रहे हैं।  

अभी अपने पढ़ा जेन गुरु ने शिक्षा की शुरुआत कैसे की। और अब:

         शिक्षा का दायित्व

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक नाज़ी यातना शिविर में एक पत्र पाया गया था। पत्र में लिखा था, 'प्रिय अध्यापकों, मैं यातना-शिविर में बच जाने वालों में से एक हूँ। मेरी आंखों ने वह देखा है जो किसी को नहीं देखना चाहिए। पढ़े-लिखे इंजीनियरों ने गैस चैम्बर बनाये, उच्च शिक्षा प्राप्त डॉक्टरों ने बच्चों को ज़हर दिया, नवजात शिशुओं को मारने वाली नर्सें ही थीं। औरतों-बच्चों को मारने वाले स्नातक और स्नातकोत्तर थे। इसलिए मैं शिक्षा पर संदेह करता हूं। मेरी प्रार्थना है, अपने विद्यार्थियों को मनुष्य बनना सिखाइए। आपके प्रयास पढ़े-लिखे राक्षसों के निर्माण के लिए नहीं होने चाहिए। शिक्षा तभी महत्वपूर्ण है जब वह हमारे बच्चों को बेहतर इंसान बनाये।

शिक्षा के साथ-साथ शिक्षा का दायित्व बताना आवश्यक है। केवल अधिकार ही नहीं कर्तव्य का पाठ भी पढ़ना जरूरी है। क्या आप एटम बम बनाने की विधि हर किसी को बताएँगे? पश्चिमी विचारों के प्रवाह में पड़कर हमने इतना तो याद कर लिया कि सब को पढ़ना-लिखना सिखा देना चाहिए, पर उसके हानि लाभ का विचार नहीं करते। गांधी ने इसीलिए शिक्षा का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि शिक्षित करने के पहले हमें शिक्षित करने का उद्देश्य निश्चित करना होगा, यह जानना होगा कि किसे, क्या और क्यों पढ़ना है। पढ़े-लिखे दानव पैदा करने के बजाय अनपढ़ मानव बेहतर हैं।

यह सोच गलत है कि आज की शिक्षा से नम्रता-करुणा-दया-एकाग्रता अपने आप आ जाती है। हाँ, ये हर मनुष्य में हैं लेकिन इन्हें जाग्रत करना पड़ता है, इन्हें लाना पड़ता है। बसंत भी अपने आप नहीं आता, लाना पड़ता है। गलत कह रहा हूँ, तो अब तीसरी बात पढ़िये :

        वसंत को लाना पड़ता है

एक विरोधाभास-सा है, बाहर की दुनिया और भीतर कहीं उमंगे उत्साह में। मन मुस्काने का कर रहा है और कहीं कुछ है जो उसे रोक रहा है। भीतर, कहीं से एक आवाज़ सी उठती है यह कहती हुई कि वसंत आता कब है, उसे तो लाना पड़ता है। यह सही है कि ऋतुओं के क्रम में वसंत की अपनी जगह है। ऋतु के अनुरूप ही पत्ते भी चहकते हैं, फूल भी खिलते हैं। हवा भी महकती है। हां, यह सब दिख रहा है। पर वसंत तो तब उतरता है जीवन में, जब मन चहके, भीतर कहीं जीवन के प्रति उत्साह उमड़े और बहती हवा गाल थपथपाते हुए कहे..... कि दशाश्वमेध घाट का आखिरी पत्थर कुछ और मुलायम हो गया है, सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आंखों में एक अजीब सी चमक है, राह चलता हर व्यक्ति मुसकुराता सा प्रतीत होता है, यह चराचर में वसंत के उमड़ने की स्थिति है।

.....वसंत के बीज को हवा और पानी देने की आवश्यकता है, खाद देने की आवश्यकता है। यह हवा, यह पानी, यह खाद उस जिजीविषा का नाम हैं जो ज़िंदा होने और ज़िंदा रहने के अंतर को समझाती है। सांस तो आदमी लेता रहेगा, पर यह सांस सार्थक तब बनेगी जब सांस में आदमी उस गरमाहट को महसूस कर सकेगा जो मां की गोद में मिलती है। एक सुरक्षा का अहसास देती है यह गर्मी और आश्वासन भी कि जीवन को बेहतर बनाया जा सकता।

..... धूप, हवा, पानी, यह सब तो प्रकृति देती है हमें, पर जो जादुई और रासायनिक क्रिया इन्हें जीवन का संबल बना देती है, उसे सक्रिय करना हमारे अपने हाथ में है। सच बात तो यह है इस सक्रियता का रहस्य इस बात को समझने में है कि जीवन ऋतुओं का इंद्रधनुष है। इस इंद्रधनुष के रंग अपने समय पर चहकते-महकते तो हैं पर इस प्रक्रिया का अनुभव करना पड़ता है- कोशिश करनी पड़ती है। इस अनुभव को जीने की। यह अनुभव तब होता है जब हम जीवन को वसंत-मय बनाने के प्रति सजग होते हैं। विपरीत परिस्थितियां एक चुनौती हैं इस सजगता के लिए। इस चुनौती को स्वीकार करना ही जीना कहलाता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तब जीवन में वसंत खिलता है। आता नहीं है वसंत, जीवन में उसे लाना पड़ता है

तब साहब, वसंत आता नहीं है लाया जाता है। समयानुसार प्रकृति तो वसंत में सज जाती है लेकिन  हाँ उसके साथ समरस नहीं हुए तो वसंत नहीं आता। पिछले दो वर्षों में महामारी के चलते वसंत आया तो सही लेकिन पता ही नहीं चला। शिक्षा हासिल कर ली तो शैक्षिक उपाधि तो मिली लेकिन अगर हृदय समरस नहीं हुआ, निर्माण का उत्साह नहीं बना, तो शिक्षित नहीं हो पाये।

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....वाद पर विवाद                                                        मेरे विचार

 वाद!.... न जाने कितने और कैसे-कैसे। और-तो-और  वाद पर विवाद भी। व्यक्ति-वाद, समाज-वाद, राष्ट्र-वाद, साहित्य-वाद, विचार-वाद! पूरब, पश्चिम और मध्य वाद; पूर्व-मध्य, मध्य-पूर्व, पश्चिम-मध्य, मध्य-पश्चिम वाद भी हैं। अपने दस दिशाएँ मानते हैं। तीन पर कब्जा हो चुका है, सात अभी भी उपलब्ध हैं। देर-सवेर वे भी शायद किसी-न-किसी की संपत्ति हो जायेंगी। कोई एक को मानता है तो कोई दूसरे को। इन में कट्टर-वादी और नरम-वादी भी हैं। इनमें तीखी बहसें भी होती हैं, और जब बहस में उतरते हैं तब न अच्छा-अच्छा रहता है और न बुरा-बुरा। न यह ध्यान रहता है कि तर्क है या कुतर्क।  क्या सही है और क्या गलत की अनदेखी कर, बस एक ही मुद्दा रहता है सामने वाले को गलत और अपने को सही सिद्ध करना। एक को केवल अच्छाई-ही-अच्छाई दिखती है तो दूसरे को केवल बुराई-ही-बुराई। इस तथ्य का विस्मरण हो जाता है कि हर किसी में अच्छाई और बुराई साथ-साथ होती है। दूसरे की अच्छाई को स्वीकार करने में हीनता और अपनी बुराई मनाने में अपमान का अनुभव होता है।

          नित्शे का कहना है, आत्मा हमारी चेतना से कहती है – यह कष्ट है; इसे महसूस करो, और हम यातना महसूस करने लगते हैं। वह कहती है – यह सुख है और हमें वह सुख लगने लगता है  लेकिन फसाद की जड़ तो यह है कि एक की आत्मा को जिसमें सुख दिखता है, दूसरे की आत्मा को उसी में दुःख नजर आता है। बस फिर वे दोनों आत्मा-यें बिना विचार किए आपस में भीड़  जाती हैं।

          गाँधी कइयों को बड़ा सुख देते हैं तो बहुतों को कष्ट। दोनों तरफ कट्टर-वादियों को कमी भी नहीं है। गाहे-बगाहे, उनके बीच वाद-विवाद होते ही रहते हैं। दुःख की बात तो यह है कि इनमें से अधिकतर तो ऐसे लोग हैं जिन्हें गांधी के बारे में जो भी थोड़ी-बहुत जानकारी है वह सिर्फ व्हाट्सप्प और सोशल मीडिया से मिली विकृत जानकारी है। मेरे अपने अनेक दोस्त, मित्र और परिचित हैं। वे मेरे वाद से परिचित हैं। जब भी मौका मिलता है मुझे उकसाते हैं, मैं कुछ बोलूँ, बहस करूँ। लेकिन मैं चुप-चाप सुन लेता हूँ। कुछ देर में समझ जाते हैं कि मैं उनके साथ बहस नहीं करूंगा, कुछ नहीं बोलूँगा। और हम मुसकुराते हुए अन्य विषयों पर मुड़ जाते हैं। 

          एक बार गाँधी बंगाल के किसी प्रांत में एक सभा को संबोधित कर रहे थे। तभी उस सभा-स्थल के नजदीक से मार्क्सवादियों का एक जुलूस निकला। नारे लगा रहा था – गाँधी-वाद मुर्दाबाद’, गाँधी-वाद का नाश हो। गाँधी वहीं सभा स्थल से ही बोले, ठहरो, ठहरो मैं भी आता हूँ। मैं भी तुम्हारे साथ हूँ क्योंकि गाँधी-वाद जैसी न कोई विचार-धारा है न ही कोई वाद

          गांधी कहते हैं, न मैंने कोई नई बात कही है और न ही ऐसे किसी वाद का समर्थक या प्रचारक हूँ। सत्य, अहिंसा, सौहार्द, अपरिग्रह.... जैसी बातें मेरी नहीं हैं। ये सदियों से चली आ रही हैं। विश्व के विभिन्न धर्मों से ही मैंने ये बातें सीखी हैं और मैं इन पर अमल करता हूँ। अपने अनुभव से जो समझा हूँ, सीखा हूँ वही करता हूँ, कहता हूँ। इतना ही नहीं, मैं यह भी कहता कि मैंने जो कहा वह अंतिम नहीं है। मैं रोज-रोज सीख रहा हूँ। इस कारण मेरे कहे में विरोधाभास भी मिलेगा। मैं यही कहता हूँ कि मैंने जो बात अंत में कही है उसे ही सही मानी जाए। क्योंकि जैसे-जैसे मैं  सीखता गया, जानता गया, समझता गया, मेरे विचरों को भी नई दिशा मिलती गई। और अंत में जो कहा वह भी अंतिम सत्य नहीं है। मैं यहीं तक पहुंचा हूँ, तुम्हें यहाँ रुकना नहीं है, आगे बढ़ना है और इसके आगे का सत्य जानना है। इस अवस्था में  क्या गाँधी-वाद जैसे किसी वाद का स्थान है? गाँधी-वादी तो वे हैं जो वहीं रुक गए। उसे ही अंतिम सत्य मान लिया। उन्होंने सत्य के प्रयोग को आगे बढ़ाया ही नहीं।  

          अभी कुछ समय पहले एक मैनेजमेंट गुरु का वीडियो काफी प्रचलित हुआ जिसमें उन्होंने अपने किसी इंटरव्यू की चर्चा की। उनसे पूछा गया कि क्या वे गाँधी-वादी हैं? उन्होंने प्रति-प्रश्न किया कि गाँधी-वाद क्या है? अब, जब प्रति-प्रश्न किया गया और बात आगे बढ़ानी भी है, तो जो है ही नहीं, उसके व्याख्या कर दी गई। गुरु ने उस व्याख्या को पकड़ कर यह घोषणा कर दी कि न राम  गाँधी-वादी थे, न कृष्ण और न मैं गाँधी-वादी हूँ। वे न गांधी को समझ सके, न कृष्ण को न राम को।

          क्या आप मुझे बताएँगे कि कौन से धर्म में सत्य, अहिंसा, सौहार्द, अपरिग्रह.... नहीं है? कौन सा समुदाय, संप्रदाय, सभ्यता, संस्कृति इनसे इंकार करेगी? हाँ, यह जरूर है कि अपने-अपने देश-काल के अनुसार किसी ने सत्य पर ज़ोर दिया तो किसी ने अहिंसा पर, किसी ने किसी और पर। लेकिन सब में कम या ज्यादा इन सब का संपुट है।

हम गाँधी से प्रश्न करते हैं, उन्हें उलाहना देते हैं:

अहिंसा तो कमजोरों के लिए हैं, इसने तो हमें निपुंसक बना दिया।

सत्य से क्या फायदा, आज के जुग में यह नहीं चलता।

सौहार्द भाई चारा अतीत की बातें हैं, हम मिट जाएंगे।

“अगर तुम्हारे गाल पर एक थप्पड़ मारे तो तुम अपना दूसरा गाल आगे बढ़ा दो।

इनमें से एक भी गाँधी की देन नहीं हैं। उन्हें गांधी ने गीता से, बाइबिल से, कुरान से, ग्रंथ साहिब से तथा अन्य धर्मों से ही लिया है।  फिर प्रश्न गांधी से ही क्यों करते हैं? सीधी सी बात है – धर्म पर सीधे प्रश्न करने से डर लगता है, भयभीत हो जाते हैं। साहस की ओट में दुर्बल लोग हैं ये। 

हर धर्म कहता है इनका पालन करो, इन्हें अपनाओ, इन्हें मानो। ये सब केवल प्रवचन दे कर ही अपने दायित्व का निर्वाह मान लेते हैं। और हम भी एक कान से सुन कर दूसरे से निःसंकोच निकाल देते हैं। सभा में सब सुन कर उसे वहीं छोड़ कर चले आते हैं। लेकिन गाँधी कहने पर रुके नहीं, इन्हें माना, अपनाया। यहाँ तक तो शायद ठीक था, वे इससे एक कदम आगे बढ़ जाते हैं और  दूसरों को यथासंभव इसे मानने और अपनाने के लिए बाध्य किया। यहीं से एक बड़े तबके ने उन्हें सिर-माथे पर बैठाया और दूसरे ने उनका विरोध किया।

          मानव का मनोविज्ञान कहता है – हम जिसे सही जानते हैं, उसे सही मानते नहीं। हम जिसका आदर करते हैं, उसकी सुनते नहीं। हम मानते कुछ हैं, चाहते कुछ और। हम हर पल इस द्वंद्व में जी रहे हैं। हम दोहरी जिंदगी जीते हैं। स्वयं को छोड़ बाकी पूरी दुनिया ईमानदार हो, सत्यवादी हो। स्वयं के लिए झूठ बोलना, बेईमानी करना व्यावहारिक होना है, दूसरों के लिए नहीं। घूस ले कर काम करवाने में बड़ा आनंद आता है लेकिन जब देना पड़ता है तब खीज होती है। हम जब इस द्वंद्व से निकल जाएंगे, तब बस एक ही रह जाएगा।

गांधी ने जिसे सही जाना, उसे ही माना, वही किया और वही करने को कहा। और बस यहीं गांधी से विरोध शुरू हो गया।

अंत में गीता के १८वें अध्याय का ६७वां श्लोक :

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥

तुझे यह गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तप रहित मनुष्य से कहना चाहिये, न भक्ति रहित और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिये; तथा जो मुझमें दोष दृष्टि रखता है उससे भी नहीं कहना चाहिये।  

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सूतांजली नवंबर 2024

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