सूतांजली
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वर्ष : 06 * अंक : 04
नवंबर * 2022
गलत
आस्थाओं से बड़ा
कोई
दैत्य नहीं हो सकता, और
झूठी
मर्यादाएं
सबसे
ज्यादा भयानक होती हैं
नित्शे
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अस्तित्व मेरे विचार
हे मेरे आराध्य, मैं बहुत परेशान
हूँ, दुखी हूँ, मेरे पास लोगों के
उत्तर नहीं हैं। सब पूछते हैं कि अगर ईश्वर है तो वह कहाँ है? दिखता क्यों नहीं? आता क्यों नहीं? सब इसे मेरी कपोल कल्पना बताते हैं, मेरा ही नहीं
तुम्हारा भी मज़ाक उड़ते हैं। एक बार- सिर्फ एक बार तो आ जाओ,
सब को दिखा दो कि हाँ तुम हो, तुम दिखते हो, तुम आते हो। कहते हैं कि भगवान भक्तों के तारणहार हैं, भक्तों की सुनते हैं, भगवान से भगवान के भक्त का
स्थान ऊंचा है, तब आ
जाओ, एक बार आ जाओ.......
तभी एक मृदुल-कोमल स्वर प्रस्फुटित हुआ, ‘मैं कहाँ नहीं हूँ, कहाँ
नहीं दिखता हूँ, कहाँ नहीं आता हूँ? अब
अगर देखते हुए भी कहो कि नहीं दिख रहे हो, तो इसमें मेरा
क्या दोष?
सेव के बीज में क्या तुम्हें सेव का पेड़ दिखता है? वही मैं हूँ,
अणु और परमाणु दिखते हैं? उसकी
ताकत मैं ही तो हूँ।
रेडियो की तरंगों में तैरने वाले शब्द दिखते हैं? वे मैं ही तो हूँ।
पानी में छिपी बिजली कौन है? मैं ही
तो हूँ।
यही नहीं बादलों में छिपी गर्जना और बिजली कौन है? मैं ही तो हूँ।
तुम्हारी रसोई में जलने वाली गैस का ताप भी मैं ही तो हूँ।
तुम भले ही मुझे सीधे-सीधे नहीं देख रहे हो लेकिन मेरे हर कार्य को
होते हुए तो देख ही रहे हो। तुम मुझे मंदिर, गिरजा, गुरु-द्वारा, चर्च, मस्जिद
वगैरह में देख रहे हो, लेकिन मैं तो वहाँ हूँ ही नहीं। तु म
मुझे वहाँ देखो जहाँ मैं हूँ। तुम मुझे उन पाँच तत्वों में खोजो, जो इस सृष्टि के अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं। ये हैं:
१.
धरती माँ, जिसने इस सृष्टि के निर्माण के लिए सब कुछ दिया और
सब सह लेती है,
२.
जल, जो हर जीव-जानवर-पेड़ के जड़ में जाकर उन्हें आवश्यक
पोषक तत्व प्रदान करता है,
३.
सूर्य, अपनी गरमी से प्राणी मात्र को विकसित, अंकुरित और परिपक्व करता है,
४.
वायु, जीवन के लिए आवश्यक श्वास प्रदान करता है, और
५.
आकाश, इस सृष्टि को बनाये रखता है।
मैं
हर किसी को, हर जगह, हर समय बिना किसी
भेद भाव के मिलता हूँ। अतः मेरे अस्तित्व को समझ ही नहीं पाते।
अगर मैं हर किसी में हूँ तब तुम मुझे अलग से बाहर क्यों देखना
चाहते हो? क्या
तुम इतना भी नहीं समझते कि अगर मैं सब में से बाहर आ जाऊँ तो यह पूरी सृष्टि, तुम्हारे समेत नष्ट हो जाएगी?
तब मुझे कौन देखेगा? मुझे देखने के लिए
कौन बचेगा?
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प्रकृति की शक्तियाँ मेरे
विचार
हम इस धरा को स्थिर मानते हैं। यह कहा भी जाता है कि धरती
की तरह स्थिर रहो, गंभीर रहो। जिस धरातल पर हम खड़े है, बैठे हैं, चल रहे हैं एवं दिन भर अनेक अन्य कार्य कर रहे हैं अगर उसमें जरा भी गति
आ जाए तो क्या हम वह सब सुचारु रूप से कर पाएंगे जिन्हें हम निरंतर कर रहे हैं? चलती रेल में, गाड़ी में, हवाई
जहाज में, घूमते स्टेज पर हमारा संतुलन बिगड़ जाएगा। हमारा
ध्यान-एकाग्रता तिरोहित हो जाएगी। लेकिन
क्या यह धरा स्थिर है? इसकी गति है 1000 मील प्रति घंटा यानी
450 मीटर प्रति सेकेंड। यह तो केवल एक गति है, अपनी धुरी पर
घूमने की। इसके अलावा यह सूर्य के भी चारों ओर चक्कर लगाती रहती है, अनवरत। लेकिन इसके बावजूद हमें इसका भान तक नहीं होता। क्यों? इसका कारण है धरती की विशालता। इसकी इस विशालता के कारण हमें यह धरती
स्थिर प्रतीत होती है। हमारे अपने आकार और
धरा के आकार की कोई तुलना नहीं की जा सकती और इसी सापेक्षता के कारण हमें इसकी गति
का अनुभव नहीं होता।
कहा जाता
है कि प्रकृति की शक्तियाँ अन्धी और उग्र होती हैं। लेकिन बात ऐसी बिलकुल नहीं है।
हम अपने सापेक्ष अनुपातों के आधार पर 'प्रकृति’ के बारे में ऐसा निर्णय कर बैठता है। ज़रा
ठहरो, एक उदाहरण लें। जब भूकम्प आता है तो बहुत से
टापू पानी में डूब जाते हैं और हजारों आदमी मर जाते हैं। हम कहते हैं: “यह प्रकृति
दैत्य है।" मानवीय दृष्टि से यह 'प्रकृति' दैत्य है। उसने किया क्या? वह
एक विभीषिका ले आयी। लेकिन ज़रा देखो, ज़रा कूदने या दौड़ने या ऐसा ही कुछ करने में
जब हमें अच्छी चोट लग जाये तो हम काले, नीले हो उठते हैं। हमारे कोषाणुओं के लिए यह
ऐसी ही चीज़ है जैसे भूकम्प। हम बहुत सारे कोषाणुओं को नष्ट कर देते हैं। यह
अनुपात का प्रश्न है। हमारे लिए, हमारी छोटी-सी चेतना के लिए, बहुत ही छोटी चेतना के लिए
यह बहुत भयानक चीज़ मालूम होती है, लेकिन आख़िर तो यह धरती पर (विश्व में भी
नहीं), किसी
जगह अस्त-व्यस्तता ही है। हम केवल धरती की बात कर रहे हैं। यह क्या है? कुछ
भी नहीं, विश्व
के अन्दर एक ज़रा सा खिलौना। और अगर हम इस विश्व की बात करें तो लोकों का गायब हो
जाना भी क्या है? - बस, जरा-सी अस्त व्यस्तता। यह कुछ भी नहीं है। अगर
हम अपनी चेतना को जरा सा विकसित करें तब बात तुरंत समझ आ जाती है कि ये प्राकृतिक
आपदाएँ धरती की दृष्टिकोण से ही, विश्व दृष्टिकोण न लें तो भी, नगण्य सी
हैं, अति साधारण हैं। ठीक ऐसी ही जैसे हाथी पर एक मक्खी बैठ
जाए तो हाथी को इसका भान तक नहीं होता। अगर हो सके तो हमें अपनी चेतना को
विस्तृत बनाना चाहिये।
एक व्यक्ति था जो अपनी चेतना को विस्तृत करना
चाहता था। उसने एक तरकीब खोज निकाली थी। वह रात को खुले में लेट जाता और तारों को
देखा करता था, उनके साथ तादात्म्य करने की कोशिश करता था और
विशाल जगत् की गहराई में चला जाता था और इस तरह अनुपात का भाव पूरी तरह खो देता
था। वह धरती और उसकी सभी छोटी-मोटी चीज़ों की व्यवस्था भूल कर आकाश के जैसा विशाल
बन जाता था - हम इसे विश्व के जैसा विशाल नहीं कह सकते क्योंकि हम विश्व के एक
छोटे-से टुकड़े को ही देखते हैं, लेकिन वह तारों भरे आकाश जैसा विशाल बन जाता
था और तब, सामयिक
रूप में सभी छोटी-मोटी अ-पवित्रताएँ झड़ जाती हैं और तब हम चीज़ों को एक बड़े
पैमाने पर समझ सकते हैं। यह एक बड़ी अच्छी दिमागी कसरत है।
ये बहुत अच्छी
कसरत है, आवश्यक भी। अपनी तुच्छता का
अनुभव करने के लिए, अपनी चेतना को विस्तृत करने के लिए। दोनों
में तुलना करने की कोशिश करो तब हम देखेंगे - हम एक सड़क पर चल रहे हैं। चींटियों
की एक सेना एक बिल से दूसरे बिल की ओर जा रही है (हम किसी से बातें कर रहे हों और
नीचे नहीं देखते); बड़ी लापरवाही से एक पैर रखते हैं, फिर
दूसरा, और
हम जाने बिना ही सैकड़ों चींटियों को मार डालते हैं। अगर हम चींटी होते तो कहते:
“क्या ही दुष्ट और पाशविक शक्ति है यह!" हम तो सिर्फ़ चल रहे हैं, धीरे-धीरे,
बेखबर, हमने ध्यान नहीं दिया। ऐसी सत्ताएँ भी हैं जिनके लिए
हम केवल छोटी-छोटी चींटियों के समान हैं। वे रखती हैं, पहला
कदम और फिर दूसरा, और हजारों आदमी मर जाते हैं। उन्हें इसकी
ख़बर तक नहीं होती! उन्होंने यह जान-बूझकर नहीं किया है। वे बस चल रही थीं। बस, इतना
ही।
जब हम
लड़ते हैं तो इसका मतलब है युद्ध। छोटे युद्ध होते हैं और बड़े युद्ध होते हैं।
धरती पर मनुष्यों का यह युद्ध है क्या? अगर उन सत्ताओं की दृष्टि से देखा जाये जिनके
लिए मनुष्य चींटी से बढ़ कर नहीं हैं...। जब हम चींटियों का युद्ध देखते हैं तो वह
हमें बिलकुल स्वाभाविक लगता है! हम कह सकते हैं, “देखो, चीटियाँ
लड़ रही हैं।" तो विश्व की विशाल शक्तियों के लिए धरती पर युद्ध करते हुए
मनुष्य लड़ती हुई चीटियों जैसे हैं, यह कुछ भी नहीं है। हमें चीज़ों का मूल्यांकन
मानवीय चेतना के माप से नहीं करना चाहिये...। मनुष्य के लिए प्रकृति विकराल वस्तु
है। । वह अत्यन्त विकट है। सभी शक्तियाँ उसकी सेवा में हैं, सभी
क्रियाओं की सृष्टि वही करती है। और हम बस उतना ही जानते हैं जो इस धरती पर हो रहा
है! हम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, एक
प्रकार के अनुमानात्मक ज्ञान से यह जानते हैं कि बाक़ी विश्व में क्या हो रहा है।
ये मानवीय चेतना के अनुपात में विकट और विकराल शक्तियों की क्रीड़ाएँ और संघर्ष
हैं। ये ऐसी चीजें हैं जो मानवीय अवधि की तुलना में अनन्त काल तक रहती हैं। तो ये
काल में विशाल हैं, देश में विशाल हैं और मानवीय चेतना के लिए ये
लगभग अबोधगम्य हैं। लेकिन इन शक्तियों के लिए मानवीय आकार और गतियों का सचमुच वही
अनुपात है (शायद उससे भी कम) जो हमारे लिए चींटियों के झुण्ड का है।
उदाहरण के
लिए, आँधी को लो जो चला करती है।
वैज्ञानिक हमसे कहते हैं, “आँधियाँ प्रकृति की शक्ति की अभिव्यक्तियाँ
हैं और अमुक-अमुक घटनाओं का परिणाम हैं।” वे गरमी और ठण्ड, ऊँचे
और नीचे आदि की बात करेंगे और हमसे कहेंगे: “आँधी चलने का यह कारण है; ये वातावरण में पैदा होने वाली हवा की लहरें हैं।" लेकिन बात ऐसी
नहीं है। उनके पीछे सत्ताएँ होती हैं। वे इतनी बड़ी हैं कि उनका रूप हमसे बच
निकलता है। यह ऐसा ही होगा जैसे किसी चींटी से कहा जाये कि मनुष्य के रूप का वर्णन
करे - वह न कर पायेगी, कर पायेगी क्या? वह
अधिक-से-अधिक छोटी उँगली की छोटी-सी पोर को देखती है और पैर पर चलती है—यह एक
लम्बी यात्रा है और वह यह न जान पायेगी कि मनुष्य का आकार कैसा होगा। तो यहाँ भी
वही चीज़ है। ये शक्तियाँ जो आँधी, मेह, भूकम्प आदि ले आती हैं, अभिव्यक्तियाँ
हैं - चाहो तो संकेत कह लो इन्हें—इस प्रकार की सत्ताओं की गतियों की
अभिव्यक्तियाँ हैं जो भयावह रूप से भीमकाय हैं। हम मुश्किल से ही उनके पैर का
अन्तिम सिरा देखते हैं और उनके विस्तार का अन्दाज़ा नहीं लगा सकते।
हम
जैसे-जैसे अपनी चेतना का विकास करते जाते हैं हमारा दृष्टिकोण भी विशाल होता जाता
है। अति महत्वपूर्ण घटनाएँ भी नगण्य और सूक्ष्म प्रतीत होने लगती हैं। हमारा
प्रकृति से, उन सत्ताओं से साक्षात्कार होने लगता है, दृष्टि
विशाल हो जाती है।
(श्रीमाँ के उत्तरों पर आधारित)
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रहम के देवता
ईश्वर
प्रेम, आस्था और विश्वास का तालमेल है। यह रहम है, रहमान है। दीनबंधु है, दयानिधि है। अगली बार कभी मन
में ईश्वर की तलाश का प्रश्न उभरे तो किसी को माफ करके देखिएगा......आपको अपनी रहम में ही उस खुदा के
दीदार होंगे। किसी रोते हुए के चेहरे पर हंसी की रंगोली बनाकर निहारिए, यक्नीनन जगदीश्वर आपकी आँखों के सामने होंगे। उनका कोई आकार नहीं है। वे
कण-कण में व्याप्त हैं.... हर दुखियारे की हंसी में, प्रेम
की तलाश में भटकते हृदयों में, स्वयं के पूर्ण होने की
यात्रा कर रहे साधकों में, संगीत की झंकार में, गायन की मिठास में...... ।
एक धर्माचार्य कहते थे – सुहृद के
आत्म-बल में ईश्वर विराजते हैं, क्योंकि सद्गुणों
के, सतप्रवृत्तियों के, श्रेष्ठताओं के
समुच्चय हैं। यह बात राम और कृष्ण के रूप में प्रमाणित भी हो चुकी है। मनुष्य योनि
में जन्मे श्री राम और श्री कृष्ण ने अपने गुणों को उस ऊंचाई तक विकसित किया, मानवता की इस तरह से रक्षा की कि ईश्वर माने गए.....सो आप दृढ़ हों तो खुद
को भी ईश्वरत्व की ओर ले जा सकते हैं।
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ट्यूब पर सुनें : à