सूतांजली
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वर्ष : 06 * अंक : 05
दिसम्बर
* 2022
श्रद्धा, प्रसन्नता, अंतिम विजय में विश्वास,
ये
चीजें हैं जो सहायता देती हैं और
प्रगति
को ज्यादा आसान और तेज़ बनाती हैं।
तुम्हें
जो अच्छी अनुभूतियाँ होती हैं उन्हें ज्यादा महत्व दो।
श्रीमाँ
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बड़ी-बड़ी छोटी-छोटी बातें मेरे विचार
(कई दशक पहले)
सेव क्या भाव? 20 रुपए
और नारंगी?
15 रुपये
मौसमी? 15 रुपये
सफेदा (चीकू)?
18 रुपए
अंगूर?
25 रुपये
सब 2-2 किलो तौल दो।
फल-वाला बहन जी को देखता रह गया। असमंजस
में पड़ा फलवाले ने सब तौल दिये, बहन जी, किलो के हिसाब से रुपए पकड़ा कर चल दी। फलवाला
कुछ देर तक अंगुलियों के बीच रुपए को दबाये बहन जी की तरफ देखता रहा इस आशा से कि
बहन जी शायद कुछ कहेंगी। लेकिन बहन जी तो थैला उठा कर जा चुकी थी। बात यह थी कि
बहन जी की खरीद-दारी में कुछ के भाव किलो के थे तो कुछ के दर्जन के। बहन जी को
इसकी जानकारी नहीं थी। यह जानकारी थी उसकी माँ-सासू माँ को जो अब बाजार जाने लायक
नहीं रह गई थीं। धीरे-धीरे ऐसे बहनों की संख्या बढ़ती गई और दर्जन भी किलो में
परिवर्तित हो गया। यह भी सही है कि कुछ समय बाद भाव भी किलो के हिसाब से ही
व्यवस्थित हो गया। परिवार के बुजुर्गों को
इसकी जानकारी है। प्रारम्भ में यह परिवर्तन धीरे-धीरे ही हुआ होगा लेकिन फिर अचानक
एक विस्फोट सा हुआ, (धमाका नहीं) – अचानक लगा कि सब जगह यही
हो रहा है और आप भी उसका ही हिस्सा बन गए।
घर
पर मरम्मत के काम के लिए बालू, सीमेंट और स्टोन चिप्स चाहिए थे। घर के
पास ही दुकान पर सब समान लिखा दिया और बताया कि सामान ऊपर छत पर चढ़ाना है। पूछने
पर बताया कि छत तीन तल्ले पर है। उसके चेहरे पर असमंजस के भाव आ गए, कहा, ‘आपका तो मकान पुराना है चार तल्ले के बराबर की ऊंचाई है।’ मैंने विरोध किया और बताया कि कोरोना के बाद भी छत का काम हुआ था और तब भी
इसको लेकर कोई बात ही नहीं थी। लेकिन मोंटू सहमत होता नहीं दिख रहा था, उसने पेन छोड़ दिया और एक निःश्वास छोड़ता हुआ बोला, ‘समय
बदल गया है’। उसने पैसे नहीं लिए, बोला मजूरा (मजदूर) को भेज कर पता लगाने
के बाद ही हिसाब करेगा, पैसे माल पहुँचने के बाद ले लेगा। मैं
समझ नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है। खैर,
पूरा सामान लिखवा कर वापस चला आया। सामान दूसरे दिन सुबह आना था।
सुबह
की सैर पर था कि फोन की घंटी बजी, पता चला की मजदूर समान लेकर आ गए हैं। उधर
से मजदूर की आवाज आई, ‘आपनादेर बाड़ी तो तीन तौलार, छत तो चार तौलाते’। (आपका मकान तो तीन तल्ले का है और छत
चार तल्ले पर है)। वह स्थानीय भाषा बंगला में बोल रहा था। मैं बात तुरंत समझ गया।
मैंने बंगला में जवाब न देकर हिन्दी में बोला, ‘नहीं
मेरा मकान दो तल्ले का है और छत तीन तल्ले पर है।
माल चढ़ाने के पहले खुद जा कर देख लो फिर चढ़ाना’।
सैर से लौट कर आया तब तक पूरा माल तीन तल्ले पर चढ़ चुका था। उसने मेरी बात मान ली
थी। राहत की सांस ली।
यहाँ
यह बताता चलूँ कि यह पूरा खेल भाषा का हुआ। बात यह है कि अँग्रेजी में ग्राउंड
फ्लोर के बाद 1-2-3 फ्लोर शुरू होते हैं। हमारी हिन्दी में ग्राउंड फ्लोर का कोई, बोलचाल का शब्द नहीं है लेकिन हिन्दी में भी नीचे के तल्ले को छोड़ कर ही
1-2-3 तल्ले शुरू होते हैं। भारत की अन्य भाषा में क्या है मुझे जानकारी नहीं
लेकिन बंगला में ग्राउंड फ्लोर एक तल्ला है,
यानि सब मकानों के ऊंचाई एक-एक तल्ला बढ़ जाती है। विचार करने पर मुझे लगा कि कहीं
पर मजूरी जोड़ते समय इस बंगला के हिसाब से ऊंचाई जोड़ कर पैसे लिए और दिये गए। किसी
ने विरोध नहीं किया और फिर एक तल्ले की मजूरी फाऊ में मजदूरों को मिलने लगी। किसी
ने विरोध किया तो मान लिया नहीं तो .....
क्या पता कल मजदूर इस बात पर अड़ जाए और मजदूरी एक तल्ले की ज्यादा देनी पड़े।
ये
तो हमारी दिनचर्या की छोटी-छोटी बातें हैं जो हमारे देखते-देखते बदल जाती हैं। पहले
कुछ लोग करते हैं और फिर देखा-देखी सब वैसे ही हो जाते हैं। हमारा भी इसी प्रकार
क्रमिक विकास हुआ। वैज्ञानिक खोज के अनुसार बंदर का विकास होकर मानव बना। लेकिन एक
बार यह विकास हो जाने के बाद अब कोई बंदर मानव नहीं बन रहा है और न ही कोई मानव
बंदर। यानी विकास होता है पतन नहीं। और ऐसे क्रमिक विकास का विस्फोट सा होता है, यानी पहले धीरे-धीरे और फिर अचानक सर्वत्र फैल जाता है।
विज्ञान यही मानता है कि ब्रह्मांड में
सब परिवर्तन – स्वरूप हो या भाव या चिंतन – ऐसे ही होता है। विश्व के किसी एक कोने
में अचानक कुछ परिवर्तन होता है, धीरे-धीरे वे परिवर्तन बढ़ते जाते हैं और
जब एक निश्चित प्रतिशत या मात्रा में यह परिवर्तन हो जाता है तब अचानक एक विस्फोट
सा होता है और सारा विश्व उसकी चपेट में आ जाता है। इसका इस बात से कोई सरोकार
नहीं है कि ये परिवर्तन अच्छे हैं या बुरे,
सात्विक हैं या तामसिक, दैवी हैं आसुरी – इसका सरोकार होता है
केवल संख्या से, अनुपात से।
शायद
यही कारण है कि सामूहिकता पर ज़ोर दिया जाता है – संख्या बल बढ़ाने के लिए। लेकिन इस
संख्या का प्रभाव तभी होता है जब सब प्रक्रिया से जुड़ें,
केवल उपस्थित होना नाकाफी है। दुर्जन मन से जुड़ते हैं और सज्जनों में अलगाव रहता
है, मन का जुड़ाव नहीं होता है। राम-कृष्ण की कथा में शायद आपने पढ़ा-सुना होगा
कि जब भी अवतार आए कभी अकेले नहीं आए, अपने सभी गणों को उन्होंने भेजा। क्यों? क्या वे समर्थ नहीं थे? कारण केवल एक था दुर्भावना को कमजोर करना
और सद्भावना को सुदृड़ करना। अगर भावना पवित्र हो जाए तब फिर अंजाम देना सहज होता
है और उसका प्रभाव भी लंबे समय तक रहता है।
आज
की वर्तमान घटना अमेरिक-रूस-यूक्रेन और कुछ ही वर्ष पहले की घटना अमेरिका-उत्तर
कोरिया के घटनाक्रम पर दृष्टिपात करें। रूस-यूक्रेन में बम-गोली-मिसाइल, मौतें-विध्वंस,
जान-माल की हानि के बाद भी कोई परिणाम
नहीं निकला है, और अमेरिका-उत्तर कोरिया बिना एक गोली छोड़े,
बिना कोई बम-मिसाइल दागे, बिना किसी जान-माल की हानि के सब कुछ
सहजता से सम्पन्न हो गया। आज की, रूस-यूक्रेन की,
घटना की हम लंबी चर्चा करते हैं,
अनवरत। अमेरिका-उत्तर कोरिया को हमने
नजरंदाज किया। चर्चा करनी ही है तो शांति और अहिंसा की कीजिये, अशांति और हिंसा की नहीं। जिसकी चर्चा ज्यादा होगी, उसी की बढ़ोतरी होगी।
हमें
खुद को विचार करना है हम क्या चाहते हैं, कैसे चाहते हैं और उसके लिए क्या कर रहे
हैं। यह कभी मत सोचिए कि आप अकेले क्या कर सकते हैं,
आप न तो अकेले हैं और न ही कमजोर। एक अकेले में भीड़ से ज्यादा ताकत होती है।
सकारत्मकता में विश्व को बदलने की क्षमता
है। इन बड़ी-बड़ी छोटी-छोटी बातों में आणुविक ऊर्जा होती है,
इन्हें नजरंदाज मत कीजिये। इनसे जुड़िये। लोग अपने आप जुड़ेंगे। दुनिया बदल जाएगी।
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परमात्मा यानी क्या ? मैंने पढ़ा
परमात्मा
- जो समझ में नहीं आता है, उसी का नाम परमात्मा है। जो समझ में आ जाता है,
उसका नाम संसार है। जो समझ में नहीं आता, वह
भी है। समझ पर ही अस्तित्व की परिसमाप्ति नहीं है। समझ के पार भी अस्तित्व फैला
हुआ है, इस बात की उद्घोषणा ही परमात्मा है। परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं है।
इसलिए जो परमात्मा
को व्यक्ति मानकर खोजने चलेंगे, व्यर्थ ही भटकेंगे,
कहीं न पहुंचेंगे। परमात्मा तो अज्ञात का नाम है। अज्ञात का ही नहीं
वरन अज्ञेय का। जिसे जानो तो जान न पाओगे, जिसे जितना जानने
की चेष्टा करोगे, उतना ही पाओगे कि अनजाना हो गया। लेकिन फिर
भी एक और द्वार से परमात्मा में प्रवेश होता है, उस द्वार का नाम ही प्रेम है। जानने से नहीं जाना जाता, लेकिन प्रीति से जाना जाता है, प्रेम से जाना जाता
है।
जानना ही अगर
जानने का एकमात्र ढंग होता तो परमात्मा से संबंधित होने का कोई उपाय न था लेकिन एक
और ढंग भी है। बुद्धि ही नहीं है तुम्हारे भीतर सब कुछ, हृदय का भी स्मरण करो। सोच-विचार
ही सब कुछ नहीं है तुम्हारे भीतर, भाव की आर्द्रता को भी
थोड़ा अनुभव करो। आँखें सिर्फ कंकड़-पत्थर ही नहीं देखती है, उनसे
प्रीति के आंसू भी झरते हैं। अगर विचार पर ही ठहरे रहे तो परमात्मा नहीं है। इसलिए
नहीं कि परमात्मा नहीं है, बल्कि इसलिए कि विचार की क्षमता
नहीं है परमात्मा को जानना।
बुद्धि पदार्थ को
जान सकती है परमात्मा को नहीं। हृदय परमात्मा को जान सकता है, पदार्थ को नहीं। कान संगीत सुन सकते हैं, रोशनी
नहीं देख सकते। आँखें रोशनी देख सकती हैं, गंध का अनुभव नहीं
कर सकते। प्रत्येक अनुभूति का अपना द्वार है और प्रत्येक अनुभूति केवल अपने ही
द्वार से उपलब्ध होती है।
इस जीवन का सब कुछ
तो हम विचार से सुलझा लेते हैं। और इसलिए एक भ्रांति पैदा होती है कि जब विचार से
सब कुछ सुलझ जाता है, गणित सुलझ जाता है, भाषा
सुलझ जाती है, तर्क सुलझ जाता है, दर्शन
सुलझ जाता है, भूगोल, इतिहास, राजनीति, विज्ञान सब बुद्धि से सुलझ जाता है - तो एक आशा बंधती है कि इस बुद्धि से हम
परमात्मा को भी सुलझा लें। और इसी आशा में उपद्रव हो जाता है। इसी आशा में हमारी
निराशा के बीज हैं। इसी आशा में हमारी विफलता है। और विद्यालय से लेकर
विश्वविद्यालय तक तुम्हें बुद्धि की शिक्षा दी जाती है। इस जगत में कहीं भी तो कोई
स्थान नहीं है जहां हृदय का प्रशिक्षण होता है। इसलिए मैं कहता हूं, यह जगत मंदिरों, मस्जिदों, गिरजा
घरों से भरा है, फिर
भी ये सब इस जगत से समाप्त हो गये हैं। क्योंकि ये हैं वह जगह, जहां हृदय का प्रशिक्षण मिलना चाहिए।
तुम्हारे मंदिर भी
बुद्धि से भर गये हैं। वे भी पाठशालाएं हैं। वहां धर्मशास्त्र समझाया जा रहा है।
तुम्हारे मंदिर भी मस्तिष्क के ही आवास हो गये हैं। अब वहां हृदय नहीं नाचता,
अब वहां प्रेम की बांसुरी नहीं बजती, अब तो
वहां भी तर्क के जाल फैलाये जा रहे हैं। हिन्दू है, वह
मुसलमान के खण्डन में लगा है, मुसलमान है, वह हिन्दू के खण्डन में लगा है। आर्यसमाजी सनातनी का खण्डन कर रहा है,
सनातनी आर्यसमाजी का खण्डन कर रहा है। मंदिरों में भी खण्डन-मण्डन
हो रहा है। प्रीति का फूल खिले तो खिले कहाँ? मस्जिदों में
भी प्रेम की शराब नहीं ढाली जा रही है, वहाँ भी तर्क और तर्क
के सहारे ही जितना दूर तक जाया जा सकता है, उतनी दूर तक जाने
की कोशिश की जा रही है।
तर्क तो ऐसा जैसे
अंधे के हाथ में लकड़ी। थोड़ा टटोल लेता है। और अंधे के हाथ में लकड़ी फिर भी थोड़ा काम
आती है। एकदम व्यर्थ है, ऐसा मैंने कहा भी नहीं, ऐसा
मैं कहूंगा भी नहीं उसकी अपनी सार्थकता है। अंधा आदमी है तो लकड़ी से टटोलकर अपने
घर आ जाता है, दरवाजा खोज लेता है,
अपने जूते तलाश कर लेता है, टकराता नहीं। मगर अंधे की लकड़ी
उसकी आंख नहीं बनती, और न आँख बन सकती है। और अगर आंख मिल
जाए तो लकड़ी को तत्क्षण छोड़ देना होगा। फिर कौन चिन्ता करता है लकड़ी की!
इसलिए जिन्होंने
हृदय को थोड़ा खुलने का अवसर दिया, हृदय
की कली को फूल बनने दिया, उन्होंने फिर तर्क की बकवास छोड़
दी। फिर वे परमात्मा में जीने लगे। वे परमात्मा के लिए प्रमाण नहीं देते फिर वे स्वयं परमात्मा के
प्रमाण हो जाते हैं। उनका उठना, उनका बैठना, उनका बोलना --सब परमात्मा की अभिव्यक्ति हो जाती है उनका सारा जीवन परमात्मा
का एक गीत हो जाता है। उनके जीवन से एक सुवास उठती है।
तुम्हारे जीवन में
भी वैसी सुवास उठ सकती है। हकदार तुम भी हो। उतने ही मालिक हो तुम, जितना कोई बुद्ध, जितना कोई कृष्ण, जितना कोई क्राइस्ट। उतने ही मालिक हो तुम, जितने
महावीर, जितने मुहम्मद, जितनी मीरा ।
तुम्हारी मिल्कियत जरा भी कम नहीं है। मगर, अगर तुम दीवाल से
निकलने की चेष्टा करोगे और न निकल पाओ, तो अपने भाग्य को
कसूर मत देना। दरवाजा है तो दीवाल से निकलने की चेष्टा क्यों कर रहे हो? क्यों दीवाल पर सिर मार रहे हो? और सिर से जितने भी
काम होते हैं, बस वे दीवाल से सिर मारने जैसे हैं।
तुम्हारे भीतर एक और भी अंतरंग जगत है।
तुम्हारे भीतर भाव का भी एक लोक है। बहुत कोमल, बहुत
नाजुक। और चूंकि कोमल है, नाजुक है, इसलिए
बहुत छिपाकर रखा गया है। जितनी बहुमूल्य चीज होती है, उतना
ही तो गहरा हम खोदकर जमीन में उसे गाड़ देते हैं! कि चोरी न हो जाए। बुद्धि तो ऊपर-ऊपर
है, क्योंकि कचरा है। हृदय बहुत गहरे में है, क्योंकि वहीं तुम्हारी संपदा है, वहीं तुम्हारी समाधि छिपी है,
और वहीं तुम्हारे समाधान हैं। बुद्धि कामचलाऊ है; बाजारू है, सस्ती है। हृदय तुम्हारे जीवन का मूल
आधार है।
ओशो
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