शनिवार, 1 जुलाई 2023

सूतांजली जुलाई 2023

 


खुद को बेहतर बनाना ही

बेहतर गाँव, बेहतर शहर, बेहतर देश और बेहतर दुनिया

बनाने की ओर पहला कदम होता है।

पहला कदम उठाइये।

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आध्यात्मिक जीवन - लौकिक जीवन                                              एक चिंतन

हम जब आध्यात्मिक और लौकिक जीवन की चर्चा करते हैं तो प्रायः हमारे खयाल में  यही आता है कि ये एक-दूसरे से पृथक जीवन हैं। लौकिक जीवन हम अपने जीवन की रोज़मर्रा की क्रियाओं को मानते हैं और आध्यात्मिक जीवन में आध्यात्मिक गतिविधि, चर्चा, पठन-पाठन को मानते हैं। लेकिन थोड़ा विचार करें तो समझ आता है कि हमारी यह अवधारणा त्रुटिपूर्ण है और मूलतः  हमारे अज्ञान पर आधारित है।  वास्तव में आध्यात्मिकता हमारे श्वास की भांति पूर्णतः एक स्वाभाविक, सामान्य और दैनिक जीवन का कार्यकलाप ही है।

क्या हमारे ऋषियों, मुनियों, साधुओं ने केवल आध्यात्मिक जीवन जिया? क्या उनके जीवन में लौकिक जगत नहीं था? इनमें से कोई भी हिमालय की कन्दराओं या गुफाओं के निवासी नहीं थे, ये  प्रायः एक सामान्य गृहस्थी थे। उनका अपना एक भरा-पूरा परिवार था। हाँ, तपस्या आदि के लिए एकांतवास करते थे, ठीक वैसे ही जैसा हम आज शिक्षा, व्यापार के लिए दूर-दराज जाते हैं।  ये ऋषि-मुनि जीवन के हर पहलू पर ग्रन्थों की  रचना करते थे तथा गुरुकुल में छात्रों को जीवनोपयोगी अनेक विषयों की शिक्षा देते थे जिनमें अध्यात्म भी एक विषय हुआ करता था। इन सब गुरुकुलों में प्रायः रहने-खाने की सुविधा उपलब्ध रहती थी और आज ही की तरह ये प्रायः शहरों से दूर हुआ करते थे। छात्रों और उनके परिवार से वे गुरु-दक्षिणा के रूप में धन या अन्य सामग्री के अलावा अनुदान भी लिया करते थे।

अब आगे बढ़ने के पूर्व हम यह समझने की कोशिश करें कि हम किसे अध्यात्म जीवन मानते हैं? हम सब की अलग-अलग मान्यता हो सकती है, विचार हो सकते हैं। हमारे लिए इसे परिभाषित करना भी एक कठिन कार्य है। हमारे मन में इसकी एक धुंधली सी तस्वीर भी हो सकती है, जो सब के लिए अलग-अलग है। अतः बजाय यह बताने के कि आध्यात्मिकता क्या है? मैं कुछ प्रश्न करता हूँ, आप इनके उत्तर दें – केवल हाँ या ना में, शायद आपकी तस्वीर कुछ स्पष्ट  हो जाए।

क्या पूजा और उपवास ही आध्यात्मिकता है?                                           हाँ / ना

क्या मंदिर जाना और अनुष्ठान करवाना ही आध्यात्मिकता है?                      हाँ / ना

केवल भगवत चर्चा करना ही आध्यात्मिकता है?                                       हाँ / ना

क्या जरूरतमंदों की मदद करना आध्यात्मिकता है?                                   हाँ / ना

क्या बुरे इरादे रखना आध्यात्मिकता है?                                                 हाँ / ना

क्या स्वार्थी होना आध्यात्मिकता है?                                                      हाँ / ना

क्या स्वार्थ पूर्ति के लिए बेईमानी करना, झूठ बोलना आध्यात्मिकता है?         हाँ / ना

क्या मन का कलुषित होना आध्यात्मिकता है?                                          हाँ / ना

क्या ईमानदार होना आध्यात्मिकता है?                                                  हाँ / ना

क्या प्रेमभाव रखना आध्यात्मिकता है?                                                   हाँ / ना

इसी प्रकार के अपने प्रश्न तैयार करते जाइए और सच्चाई से इनके जवाब देते जाइए। आध्यात्मिक जीवन की तस्वीर साफ होने लगेगी। 

          किसी समय लौकिक जीवन के कार्यकलापों को आध्यात्मिक जीवन के कार्यकलापों से अलग नहीं माना जाता था। ये दोनों आपस में गूँथे हुए थे, माला में मोती और धागे की तरह। लेकिन कालांतर में हमने इन्हें अलग-अलग ही नहीं किया बल्कि यह धारणा भी धारण कर ली कि किसी भी मानव का जीवन या तो आध्यात्मिक है या लौकिक है। इस कारण से हमारा और हमारे देश का पराभव हुआ। हमने लौकिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन को अलग कर दिया। यह कब-कहाँ हुआ इसका सटीक ज्ञान नहीं है लेकिन कइयों का यह मानना है कि इसका प्रथम उदाहरण, जिसका व्यापक प्रभाव पड़ा, वह है पृथ्वीराज चौहान के समय जयचंद। इसके बाद से हमारे लौकिक जीवन से अध्यात्म का लोप होना प्रारम्भ हुआ और हमारा अधोपतन होता रहा।

          शनैः-शनैः हम इस मनः स्थिति में पहुँच गए हैं जहाँ हमारे लौकिक में अनैतिकता का प्रवेश ही नहीं हुआ बल्कि मान्यता भी प्राप्त हो गई। एक साधारण व्यक्ति भी गाहे-बगाहे अनैतिकता का सहारा लेता है, यह सर्व-मान्य है,  इसमें हमें कोई दोष भी नहीं दिखता और इसका ठीकरा हम सरकार के सिर पर फोड़ देते हैं। ऐसे नियम-कानून हैं, शासन-प्रशासन हैं कि दैनिक व्यवहार में बिना अनैतिकता के हम रह ही नहीं सकते!

          यह सरकार कौन है? शासक-प्रशासक-विधायक? यह हम खुद ही हैं? अमूल के जनक स्वर्गीय वर्गीज़ कुरियन का नाम तो आपने सुना ही होगा। प्रधान मंत्रियों से उनके अच्छे संबंध थे। बिना किसी विशेष रोक-टोक के वे उनसे मिलने उनके कार्यालय में पहुँच जाते थे। इसके बावजूद उनकी फाइल, योजनाएँ, आवेदन पर विचार कर निर्णय लेने में अप्रत्याशित समय लगता था। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं कि एक बार इस विलंब के कारण वे बुरी तरह झुँझला गए और खुद अपने आवेदन की फ़ाइल लेकर संबन्धित अधिकारी के पास जा पहुंचे। अधिकारी ने पूरे मनोयोग से उनकी फ़ाइल देखी, उनकी पूरी बात सुनी और फिर अंत में कहा, आप यह फ़ाइल छोड़ जाइए, सरकार इस पर विचार करेगी। कुरियन साहब भरे हुए तो थे उन्होंने तपाक से प्रश्न किया, यह सरकार कौन है?’ अधिकारी एक बार तो सकपका गए लेकिन फिर धीरे से उच्च-अधिकारी की ओर इंगित किया। उन्होंने भी पूरी बात सुनने के बाद इस पर सरकार विचार करेगी का जुमला उछाल दिया। कुरियन साहब भी कहाँ मनाने वाले थे। उनके प्रश्न पर उस उच्च-अधिकारी ने भी उन्हें आगे भेज दिया। उस प्रकार अधिकारियों, विभागों, मंत्रियों के चक्कर लगाते-लगाते आखिर वे प्रधान मंत्री के सम्मुख पहुँच गए।  उन्होंने उनका स्वागत किया, उनकी पूरी बात सुनी लेकिन अंत में उन्होंने भी यही कहा आप यह फ़ाइल छोड़ जाइए, सरकार इस पर विचार करेगी। कुरियन साहब को आश्चर्य हुआ और बोले, पिछले छ: महीने से मैं सरकार को खोज रहा हूँ। मैंने सोचा था कि मैं अब सरकार के पास पहुँच गया। लेकिन आप भी सरकार नहीं है? आखिर यह सरकार है कौन? दरअसल यह सरकार और कोई नहीं खुद हम ही हैं।  जिस दिन हम यह समझ जाएंगे, उस दिन हम, हमारा देश बदलने लगेगा।

          लौकिक जीवन हमें स्व की तरफ मोड़ता है और आध्यात्मिक जीवन सर्व की तरफ। सैद्धांतिक रूप में हमें आध्यात्मिकता का विचार आकर्षित करता है लेकिन व्यावहारिक रूप में हम उसे अमल में नहीं लाते। अगर हमारे जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश केवल सैद्धान्तिक रूप में है तो ऐसी आध्यात्मिकता निरुद्देश्य है।  लौकिक और आध्यात्मिक जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। एक को अपनाने का अर्थ दूसरे को छोड़ना नहीं है।

          विशेषकर, युवाओं के जीवन में आध्यात्मिकता का विकास महत्वपूर्ण है, सिद्धांत रूप में नहीं, व्यावहारिक रूप में  जीवन में निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रयास आवश्यक है। स्वामी विवेकानंद सेवा की पवित्र भावना से प्रेरित थे। स्वामीजी मानते थे कि मानव सेवा ही सच्ची सेवा है। मानव के प्रति निश्छल प्रेम से यदि आपका हृदय परिपूर्ण है तो वही ईश्वर की सच्ची पूजा है। प्रेम अपने आप में पूर्ण है, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इसका स्रोत क्या है। अगर आप अपने आप को बदलना चाहते हैं, अपने परिवार को बदलना चाहते हैं, अपने समाज को बदलना चाहते है, अपने देश को बदलना चाहते हैं तो अपने लौकिक जीवन में आध्यात्मिकता, सैद्धान्तिक रूप में नहीं, व्यावहारिक रूप में अपनाइये। शुरुआत अपने से कीजिये, दूसरों की प्रतीक्षा मत कीजिये।

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स्वयं से संवाद

          किंवदंती है, एक अच्छा श्रोता ही एक अच्छा वक्ता बन सकता है। अगर हम ध्यान से सुन नहीं सकते, समझ नहीं  सकते तब हम अपनी बात भी दूसरों तक नहीं पहुंचा सकते। प्रायः यह देखने में आता है  कि हम आतुर हैं, बोलने के लिए, अपने बारे में। बिना यह सोचे समझे कि सामने वाला मुझ में कितना रुचि रखता है। इसके बजाय अगर हम सामने वाले के बारे में बात करें तो उसके दो अद्भुत लाभ होंगे। हम अहंकार से मुक्त होंगे और सामने वाला भी यह जान कर प्रसन्न होगा कि हम उसके बारे में जानना चाहते हैं, हमें उसकी चिंता है। उसके लिए हम उसके शुभचिंतकों की श्रेणी में आ जाएंगे। वह हमारी प्रशंसा करने लगेगा। अगर हमारी प्रशंसा कोई दूसरा करता है तो उसका कोई अर्थ भी होता है। अपने मियां मिट्ठू बनने का तो कोई अर्थ नहीं और नकारात्मक भी है।  इस पद्धति से हमारे मित्रों की संख्या भी बढ़ेगी।  यही नहीं जानकारी और सूचना देने के बजाय, मिलने लगेगी।

          व्यक्तित्व निर्माण का यह बहुत महत्वपूर्ण पहलू है कि हम किसे ज्यादा महत्व देते हैं – स्वयं को या अन्य को। यही स्वभाव हमारे बोलने का ढंग तय करती है और समाज में हमारा स्थान तय करती है। हम क्या हैं, यह हम तय नहीं करते, समाज तय करता है। सब अच्छे कार्य मैंने किए और  सब गलत कार्यों का ठीकड़ा किसी और के सर पर फोड़ने वाला अपने आप के प्रति ईमानदार नहीं हो सकता। और जो स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं वह दूसरों के प्रति ईमानदार कैसे हो सकता है? अपनी गलतियों को मान लेने का अर्थ है, अपने सुधार का मार्ग खुला रखना। इससे अपने सुधरने की  संभावना हर समय बनी रहती है।

          हम अपने जीवन क्रम में बहुत व्यस्त हैं। सुख की तलाश में, जीवन भर दौड़ते-भागते रहते हैं, परेशान रहते है। इसी भाग दौड़ में पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। क्या इस भाग दौड़ से हमें वह सुख मिला जिसके लिए हम परेशान रहे? या फिर हमें पता ही नहीं चला, हम कब सुख को पीछे छोड़, दुख के पीछे ही भागने लगे? इस संदेह का निराकरण जरूरी है। जो मिल रहा है उसका आकलन करना आवश्यक है। और जो नहीं मिल रहा है – क्या नहीं मिल रहा है और वह कैसे मिलेगा – का चिंतन-मनन करना भी आवश्यक है। साधारण भाषा में इसे ही हम “स्वयं से संवाद” भी कह सकते हैं।

          स्वयं से वार्तालाप बहुत ही आसान और सहज है। लेकिन फिर भी हम इससे बचते हैं, कतराते हैं। क्योंकि अपने से बात करने में सबसे बड़ी असहजता है “हम दुनिया से झूठ बोल सकते हैं, स्वयं से नहीं बोल पाते दुनिया से भाग लेते हैं, लेकिन खुद से भाग नहीं पाते। सत्य को देख कर हम चौंक जाते हैं, हमारा परिचय बदल जाता है। हमारी हमसे मुलाक़ात होती है, और हम जैसे हैं वैसे अपने को देखना नहीं चाहते। अपने परिचय को सही करने के लिए दृड़ता पूर्वक संकल्प लेना पड़ता है।   हमारा सारा दिन दूसरों की बातें करने में गुजरता है, वैश्विक व्यापार-राजनीति, गुण-अवगुण, की बातें करने और उन पर नज़र रखने में गुजर जाता है। दूसरा क्या कर रहा है, इसको लेकर हम ज्यादा चिंतित रहते हैं, हमें क्या करना है इसका हमें भान ही नहीं होता। जब हम स्वयं से बातचीत करते हैं तब हमें एक ही शरीर में दो अलग-अलग लोग नज़र आते हैं, जिनके बीच संवाद होता है। और तब हमें अपने दायित्व का बोध होता है, क्या किया और क्या नहीं इसका पता चलता है। जो किया कैसे किया, क्या वह सही था? जो रह गया, वह क्यों छूट गया, क्या वह हमारा दायित्व था, उसके लिए कौन जिम्मेदार है, हमारे लक्ष्य प्राप्ति में उसकी क्या भूमिका थी? हमें अपने कार्यों में नीति-अनीति के दर्शन होते हैं, उन्हें बदलने और सही करने की प्रेरणा भी मिलती है। ये सब प्रश्न हम अपने आप से करते हैं, और इसके उत्तर भी हम ही देते हैं।

          इस प्रकार के निरंतर चिंतन से हमारा परिचय बदल जायेगा। रात्री सोने से पहले, आज क्या किया इस पर विचार करें। प्रातः उठने पर बिस्तर छोड़ने के पहले, आज क्या करना है इस पर विचार करें। रात की बातों को याद करें, अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अपने संकल्प को दोहराएँ। हाँ शुरू- शुरू में बड़ी दिक्कत होगी, बार-बार छोड़ कर भागने की इच्छा होगी। लेकिन दृड़ता से बने रहें।  याद करें बालपन में दो पैरों पर खड़ा होना कितना कष्ट साध्य लगा होगा, पढ़ना कितना खराब लगा होगा, गाड़ी चलाने में रक्तचाप बढ़ा होगा, घुड़सवारी में गिर कर हड्डियाँ तोड़ी होंगी, माँ-बाप-शिक्षक से मार-डांट पड़ी होगी। लेकिन इन सब बाधाओं को पार कर हम आज यहाँ तक पहुँच गए। अब अगर हम एक और बाधा पर कर लें, अपने से बातचीत करने लगें तब हम उस सुख का, उस शांति का, उस चैन का रसास्वादन कर लेंगे जिसके लिए हमने अपनी नींदें हराम की।

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