अपने जीवन को सत्य की सच्ची खोज में परिणत कर दो,
जीवन
जीने योग्य बन जायेगा।
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कर्म और ज्ञान
आज अचानक अपने एक सहपाठी से दशकों बाद मुलाक़ात हो गई। हमारा यह
सहपाठी मेधावी था, लेकिन ‘सुशील’ नहीं। उसके जुबान पर गालियाँ रहती, गंदे शब्दों का
प्रयोग करने में माहरत हासिल थी। मुक्त, मस्त, बिंदास। साधु, पंडित, पूजा, मंदिर से उसकी विशेष दुश्मनी थी, उन सब को जम कर
गली देना और उनकी खिल्ली उड़ना उसकी दैनिक क्रिया थी। उसका यह मत था कि आदमी उम्र
से नहीं दिमाग और शरीर से बूढ़ा होता है, अतः वह कभी बूढ़ा
नहीं होगा इसलिए उसे इसकी जरूरत नहीं है। इन सब कारणों से न वह हमारे दल में था न
ही शिक्षकों का प्रेम-पात्र।
इन सब के बावजूद, उसमें एक खास बात थी। वह कभी तनाव में नहीं आता था। परीक्षा के समय भी
वैसा ही निश्चिंत रहता। कहता, किस बात की चिंता? अपना काम पढ़ना और लिखना है, पढ़ रहा हूँ और परीक्षा
में लिख दूँगा। अंक देने का काम किसी और का है, यह वह जाने, मुझे क्या मतलब! हम कहते, ‘और
फेल हो गए तो?’ ‘फेल मैं नहीं, पढ़ाने वाला और नंबर देने वाला होगा मैं नहीं। और अगर नंबर कम आए, तब की तब सोची जाएगी, कल के बारे में सोच कर
आज का दिन क्यों खराब करूँ? उसकी बातें हमारी समझ में नहीं आतीं। समय गुजरता चला गया। विद्यालय के बाद हम सब
तितर-बितर हो गए।
एक जमाने बाद फेस
बुक-ट्वीटर-व्हाट्सएप आदि के चलते हम सब सहपाठी आपस में मिलते चले गए। इसी दौरान
पता चला कि उसने काफी उन्नति की। उच्च शिक्षा पाई,
अच्छे विश्वविद्यालयों में दाखिला मिला, बड़ी-बड़ी कंपनी में
उसे नौकरी मिली। लेकिन कहीं भी एक जगह टिक कर नहीं रहा। अतः जब अचानक उससे मुलाक़ात
हुई तो बात-चीत का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन वहाँ सड़क पर कितनी देर बात करते, फिर मिलने का समय और स्थान तय कर हम चल दिये। हम कई सहपाठी उससे मिलना
चाहते थे और उसकी जिंदगी के सफर को जानने के उत्सुक थे। मैंने औरों से संपर्क किया
और हम सब तय समय और स्थान पर एकत्रित हो गए।
देखते ही अपने
अंदाज़ में बोला, अबे! ...तूने तो पूरी क्लास जमा कर ली। मैंने
लक्ष्य किया, वह अब भी वैसा ही है,
बिंदास, लेकिन पहले से थोड़ा गंभीर। गालियाँ तो अब भी उसकी
जुबान पर थीं, लेकिन कभी-कभार अच्छे शब्द भी उच्चरित हो रहे
हैं। हम सबों को झटका तब लगा जब अचानक उसने ‘गीता’ की बात की। वह, और गीता! ये क्या हुआ? यह चिरयुवा बूढ़ा हो गया? हम सबों के चेहरे पर लटके
सवाल को समझ उसने फिर अपने अंदाज़ में कहा, ‘अबे, क्या बताऊँ, अचानक एक दिन
एक ढोंगी ने बड़ा झटका दे दिया’। हमने समझा जिंदगी में ठोकर
लगने पर टेढ़े-से-टेढ़ा आदमी भी सीधा हो जाता है, तब यह किस
खेत की मूली है। लेकिन बात कुछ और ही थी। उसने आगे बताया।
एक दिन कहीं जा
रहा था, अचानक तेज बरसात और तूफान के चलते एक परिचित के घर
में घुस गया। घुसते ही उसे लगा कि वह गलत समय पर आ गया है। कोई साधु बैठा था, पूरा परिवार जमा था, उनका स्वागत सत्कार चल रहा था।
मेरे हाव-भाव को समझ इसके पहले कि चाचा कुछ कहते, साधु ने
मुझे बैठने कहा। बैठते-बैठते मैंने कहा, ‘तुम्हारा ज्ञान और नाटक इन बूढ़ों को ही दिखाओ, मैं न
बूढ़ा, न मूर्ख, तुम्हारा
नाटक मुझे नहीं देखना। साधु ने चाचा को रोकते हुए कहा, ‘इस अंधी-तूफान में कहाँ जाओगे? जब बंद हो जाये चले जाना। तब तक थोड़ी देर बैठ जाओ। मेरे पास भी कोई चारा नहीं था, उपेक्षा से वहीं सोफ़े पर बैठ गया।
साधु
मुझसे मुखातिब हुआ, ‘गीता का नाम सुना है?’
“कौन
सी गीता? गीता चौधरी, दास, खन्ना, जालान या वो कमसिन गीता?’
“महाभारत
वाली गीता”, साधु ने बिना परवाह के पूछा।
‘हाँ, नाम सुना है, बुढ़ऊ लोग बैठे-बैठे सुनते-पढ़ते रहते
हैं’, मैंने कहा।
साधु ने फिर पूछा,
‘क्या तुम बता सकते हो, यह गीता किसने
किससे कही थी?’
“एक
ग्वाले ने एक क्षत्रिय से कही थी जो हिंजड़ा बना जा रहा था”, मैंने उसे चिढ़ाने के लिए कहा।
वह
शांत बना रहा, ‘अच्छा यह भी बताओ कि गीता कहाँ पर और क्यों कही गई?’
मुझे
लगा बात मेरी गिरफ्त से बाहर होती जा रही है। मैं सीधा बैठ गया और बोला, ‘युद्ध के मैदान में, अर्जुन
को युद्ध के लिए उकसाने के लिए।’
‘गीता
सुन कर अर्जुन युद्ध छोड़ कर भाग गया और सन्यासी हो गया या युद्ध कर, विजयी हुआ,’ उनका अगला प्रश्न था।
मैं सोफे से उतर कर परिवार के साथ दरी पर बैठ गया और बोला, ‘अर्जुन लड़ा और युद्ध में विजयी हुआ।’
अब साधु ने कहा, ‘तुमने अभी-अभी कुछ बड़ी बातें कही हैं। पहला, गीता युद्ध के मैदान में कही गई। ऐसी जगह जहां निरंतर सतर्क और गतिमान
रहना होता है। घात से बचना और प्रतिघात करना। दूसरा,
गीता सन्यासी नहीं बनाती बल्कि युद्ध के लिए तैयार करती है। युद्ध बूढ़े और बुजुर्ग
नहीं लड़ते, युवा-वयस्क-तरुण लड़ते हैं। जीवन भी रण-क्षेत्र है।
शिक्षा के बाद जब मनुष्य संसार में प्रवेश करता है तब भी उसे पल-पल इस संसार से
युद्ध करना पड़ता है। तब गीता किसके लिए है – युवा के लिए या वृद्ध के लिए।
गीता कब चाहिए जीवन से विरक्ति के समय या जीवन में प्रवेश करते समय?’ इसके पहले कि मैं कुछ कहता उसने
बताया तूफान समाप्त हो चुका है और अब मुझे निकल जाना चाहिए। मुझे उठता न देख अपने
मिलने की जगह और समय बता उसने हाथ जोड़ लिए।
सहपाठी ने बात आगे
बढ़ाई। मुझे उससे मिलने की उत्सुकता पैदा हो गई थी। दूसरे दिन मैं उसके पास पहुंचा।
कई चमचे उसको घेरे बैठे थे। इशारे से उनको विदा कर मुझे बैठने कहा। मेरे कुछ कहने
के पहले ही उसने कल वाली बात आगे बढ़ाई, ‘तुम कह रहे थे कि तुम ज्ञानी हो? ज्ञानी किसे
कहते हैं?’ उसने एक प्रश्न मेरी तरफ
उछाला। मैंने बढ़ी होशियारी से उसका प्रश्न उसी की तरफ फेंक दिया, ‘आप ही बताओ’।
वह कहने लगा, “तुमने अपने जीवन में बहुत धन कमाया। रखने की सुरक्षित स्थान न होने के
कारण तुमने एक बैंक में बड़ा सा लॉकर लिया और बहुत सा धन उस में रख दिया। वह धन भले
ही लॉकर में हो लेकिन है तो तुम्हारा ही न!’
‘हाँ, एकदम मेरा ही है, तुम्हारा नहीं’, मैंने तपाक से कहा।
‘कालांतर
में धीरे-धीरे तुम उस बैंक, लॉकर और उस में रखे धन के बारे
में बिलकुल भूल गए। यहाँ तक की कई बार उसकी चाबी भी तुम्हारे सामने आई लेकिन तुम
यह याद नहीं कर पाये कि यह चाबी किस की है। क्या अब वह धन तुम्हारा है?’ उसने पूछा।
मैं
असमंजस में पड़ गया और दुविधा में धीरे से लेकिन होशियारी से बोला, ‘जब तक मुझे उसकी याद नहीं आती उसका होना नहीं होना
मेरे लिए बराबर है, लेकिन जब भी याद आ जाए मेरा ही होगा, तुम्हारा नहीं’।
मुझे लगा यह मुझे फँसा रहा है।
‘ठीक है
चलो यह भी मान लेते हैं कि किसी प्रसंग वश शायद याद आ भी जाए। लेकिन, व्यापार में एक समय तुम्हें बड़ा अच्छा अवसर मिला जिसके लिए तुम्हें धन की
आवश्यकता थी। तुम बहुत खोजते रहे, मांगते रहे, लेकिन न किसी से मिला और न ही इस लॉकर में रखे धन की तुम्हें याद आई। अंततः
वह अवसर हाथ से निकल गया, उसके बाद अचानक इसकी याद आई। ऐसे
धन का होना-न-होना क्या एक जैसा नहीं है?’
‘हाँ, वह मौका तो निकल गया। लेकिन ऐसा तो नहीं कि वैसा मौका फिर नहीं आयेगा,’ मैंने शब्दों को चबाते हुए कहा।
उसने
अपनी बात स्पष्ट की, ‘वह धन जब तुमने कमाया, तुम्हारा था। फिर जब उसे भूल गए तब तुम्हारा नहीं रहा, और अगर वह वक्त पर काम न आया तो उसका होना-न-होना बराबर है। यही बात
ज्ञान का है। ज्ञान को ग्रहण करना, उसे धारण
करना, समय पर उसका स्मरण होना ये तीनों आवश्यक हैं। इसके
बिना ज्ञान भी अज्ञान बराबर ही है।’
मैं
विचारों में उलझ गया।
मुझे शांत देख वह आगे बोला, ‘श्रवण और पाठ से ज्ञान आता है, चिंतन और मनन से
ज्ञान धारण होता है, और ध्यान तथा पुनरावृत्ति से वक्त पर
स्मरण होता है। ये बातें मैं नहीं कह रहा। यह गीता
के ज्ञान में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया।’
मैंने गाली देते हुए सोचा, ....ले इसने मुझे अच्छी पटकनी दी है। यह कह सहपाठी
चुप हो गया। लेकिन हमारी कोलाहल भरी गोष्ठी में, सब विचारमग्न
हो गये और एकबारगी सन्नाटा छा गया।
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मुरिएल लेस्टर
(ब्रिटेन की मुरिएल लेस्टर विश्व की जानी-मानी महिला शांतिवादी और समाज
सुधारक थीं, जिन्हें नोबेल पुरस्कार के लिये दो बार नामित किया
गया। विश्व शांति के लिये कई आंदोलनों से जुड़ी मुरिएल महात्मा गांधी के
अहिंसा-दर्शन से बहुत प्रभावित थीं। अपनी 85 वर्ष की आयु तक मुरिएल ने महात्मा
गांधी की अनुयायी रहते हुए बहुत गहराई से उनके अहिंसा और शांति को समझा तथा उसको
कलमबद्ध किया।)
८ फरवरी १८८३ के
दिन इंग्लैंड में एक धनवान परिवार में मुरिएल का जन्म हुआ था। जब गांधी इधर दक्षिण
अफ्रीका और भारत में अपने हक की लड़ाई,
स्वतन्त्रता संग्राम और समाज सुधार में लगे थे उसी समय मुरीएल लेस्टर ने
लंदन में स्वेच्छा से गरीबी को अपनाया; धन, घर, संपत्ति को छोड़ लंदन के एक अत्यंत गरीब इलाके
में आ कर बस गई। अपने पिता की सहायता से एक पुराने
से प्रार्थना-घर को खरीदा – ‘किंग्सले हौल’। इधर भारत में गांधी दलितों-अछूतों से होने वाले व्यवहार से पीड़ित और
किसानों की दुर्दशा से दुखी होकर उनके अधिकारों के लिए मुहिम चला रखे थे। स्वेच्छा
से भंगी बस्ती में ठहरते थे, कम से कम वस्त्र पहनते थे, मिष्ठान्न का त्याग कर आवश्यक अन्न ही ग्रहण करते थे।
लेस्टर और गांधी की कार्य प्रणाली में काफी समानता थी, सोच भी निराली थी लेकिन दोनों को एक दूसरे की खबर नहीं थी। न गांधी को
मालूम था कि उधर लंदन में भी कोई महिला अकेली गरीबों की ताकत बढ़ाने के काम में लगी
है और न उधर लेस्टर को गांधी की कोई खबर थी। जब अपने एक मित्र से उन्हें गांधी के
बारे में खबर मिली तो वे उनसे मिलने १९२६ में भारत पहुँच गई,
उस गांधी से मिलने जो वही सब कुछ, उन्हीं सब तरीकों से कर
रहा था जिसे वे लंबे समय से इंग्लैंड में
कर रही थीं। वे भारत आईं, तेरह सप्ताह रहीं, गांधी से मिलीं और उनसे गहरा रिश्ता
बनाया। ऐसा रिश्ता जिस कारण जब गांधी गोल मेज परिषद में भाग लेने लंदन
पहुंचे तब लेस्टर के निमंत्रण पर,
सुरक्षा की परवाह किए बिना, वहाँ की सरकार से लड़ झगड़ कर, हर प्रकार की असुविधा की चिंता किए बिना किंग्सले हाल में ही ठहरे।
इधर गांधी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के देशभक्त छात्रों को
संबोधित करते हुए कह रहे थे, ‘आप लोग अपने विश्वविद्यालय पर गर्व करते हैं और खुश हैं। आप यह सोच कर खुश
हैं कि आपको यहाँ जो कुछ भी मिल रहा है, उसके लिए आप विदेशी
सरकार के कर्जदार नहीं है क्योंकि यह सब आपके देशवासियों द्वारा प्रदत्त है। लेकिन
मैं बता दूँ कि आप गलती पर हैं। आप अपने सर्वाधिक गरीब किसान के कर्जदार हैं।
ये रैयत हैं जो आपको यहाँ रखते हैं, खाना-कपड़ा देते हैं। इन
भव्य सभा-भवनों को गरीबों ने बनाया है। यह स्थान कामगारों के खून पसीने से बना है।
आप इनके ऋण से तभी मुक्त हो सकते हैं, जब यहाँ से
निकलने के बाद आप अपना शेष जीवन उनकी सेवा में लगा दें।’
उधर लोगों ने लेस्टर के कार्यों के बारे में ध्यान से सुना, जो उनकी स्वैच्छिक गरीबी का नतीजा थी, कि एक
सम्पन्न उत्तराधिकारी ने कैसे अपना सब कुछ गंवा कर जमीन का एक टुकड़ा खरीद कर पड़ोस
के लोगों को भेंट कर दिया तथा उस पर लगी तारों की बाड़ तथा ‘अनधिकार
प्रवेश दंडनीय है’ की तख्ती हटाकर उसे ‘सब के लिए खुला’ कर दिया; कि
कैसे एक अन्य ने वयस्क होने पर अपने उस हिस्से को उस अखबार को बचाने में लगा दिया
जिसकी आर्थिक हालत इसलिए बिगड़ चुकी थी कि वह सत्य को प्रकट करने का संघर्ष कर रहा
था; कि कैसे एक अन्य सदस्य ने इसलिए अपना हिस्सा कामगारों को
सौंप दिया कि एक या दो पीढ़ी पहले उसे उनके इलाके से ही कमाया गया था। इसे ‘प्रत्यर्पण कोश’ का नाम दिया गया तथा दानपत्र में
कहा गया कि ‘कोष –दाता का यह विश्वास है कि इस आय को स्वीकार
करने का उसे कोई हक नहीं है जबकि उसके पड़ोसी अपनी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहे
हैं। उनका यह मानना है कि अपनी जरूरतों से बहुत ज्यादा
रखने की इजाजत देने वाले इस सांसारिक कानून के बजाय सबों को मुक्त
हस्त से देने वाला ईश्वरीय कानून ज्यादा विवेक पूर्ण तथा उदार है; इसलिए
यह संपत्ति लोगों को लौटाई जा रही है ताकि उनका सामूहिक जीवन अधिक सम्पन्न और
विस्तृत हो सके।’
श्रीअरविंद भी यही मानते थे कि हमें अपनी आवश्यकता से अधिक रखने का
कोई अधिकार नहीं बल्कि यह चोरी है। और इसलिए अपने मासिक वेतन से आवश्यकतानुसार धन
अपने लिए रख बाकी वहीं एक मेज पर खुला छोड़ देते थे ताकि जिसे जरूरत हो वह वहाँ से बिना
संकोच और बिना किसी से पूछे उठा सके।
विश्व में हर इंसान के लिए
आवश्यक संसाधन, खाद्यान्न, निवास, वस्त्र, जल तथा वायु
उपलब्ध है। फिर भी यहाँ का अधिकतर इनसान इससे महरूम क्यों है?
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खुश हैं बॉडी बनकर? बातें
जो सिखाती है जीना
जिस पल आपकी मृत्यु हो जायेगी है,
उसी पल से आपकी पहचान एक बॉडी बन जायेगी। अरे बॉडी लेकर आइये,
बॉडी को उठाइये, बॉडी को सुलाइये, ऐसे शब्दों से आपको पुकारा जायेगा। वे लोग भी आपको आपके नाम से नहीं पुकारेंगे,
जिन्हें प्रभावित करने के लिये आपने अपनी पूरी जिंदगी खर्च कर दी।
इसीलिए इधर-उधर से ज्यादा इकट्ठा करने की जरूरत नहीं है। अच्छे से कमाओ, अच्छे से खाओ, अच्छे से सोओ, जीवन
में आने वाले हर चुनौती को स्वीकार करो और अच्छे से बांटो। परवाह अपने शरीर
(भौतिकता) की नहीं आत्मा (आध्यात्मिकता) की करो।
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