मन और सोच का वास्तु ठीक करो।
अपने घर का वास्तु, अपने आप ठीक हो जाएगा ।
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कैसे सुधारें अपना व्यवसाय?
कोई भी भला इंसान
रातों-रात धनवान नहीं बन सकता। अतः इस बात पर विश्वास रखिए कि रातों-रात धनवान बनाने वाला हर
रास्ता गलत रास्ता ही है।
वे जो अपना काम करते हैं वे ‘नौकर’ खोजते हैं लेकिन जो दूसरों का
काम करते हैं वे ‘नौकरी’ खोजते हैं। भारत
के आर्थिक इतिहास में शायद यह पहली मर्तबा है कि भारत सरकार, ‘स्टार्ट अप इंडिया’ के अंतर्गत, नौकरी देने वालों को महत्व दे रही है। ‘नौकरी खोजने’ के बजाय ‘नौकरी देने’ वाला बनिये।
अगर आप अपना कोई
व्यवसाय-व्यापार प्रारम्भ करना चाहते हैं
तो पहला प्रश्न तो यही है कि कैसा व्यवसाय। यह प्रमुखतः हर व्यक्ति की अपनी क्षमता, ज्ञान और उपलब्ध संसाधनों पर ही निर्भर करता है कि वह कैसा व्यवसाय करे। लेकिन
सब व्यवसाय-व्यापार का मूलभूत आधार एक ही होना चाहिए – मानव कल्याण की भावना।
हर व्यापार का एक ही सिद्धान्त है -
मेहनत, लगन और समय। इनका मूल नियम भी एक ही है – कम में लेना
और ज्यादा में देना। इस लेन-देन के अंतर को ही लाभ कहते हैं और यह लाभ कानूनी और नैतिक दोनों रूप में वैध भी है और
आवश्यक भी। एक व्यापारी के लिए अपना व्यवसाय करना भी आध्यात्मिक विकास का एक सुअवसर
है। इसका उपयोग करना या इसे बर्बाद करना खुद पर निर्भर करता है। कैसे समाज और देश
का निर्माण करना है, यह भी आप पर ही निर्भर करता है। व्यवसाय
शुरू करने के पहले, श्रीअरविंद से जुड़े डॉ. रमेश
बीजलानी के इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं दें, आपको
दिशा स्वतः ही मिल जाएगी।
किस का व्यापार करें?
विचार करें कि क्या आपका व्यापार जरूरतमंदों की वास्तविक आवश्यकता
को पूरा करेगा?
क्या यह स्वास्थ्य, नैतिकता,
विकास को कुछ सकारात्मक बढ़ावा देगा?
क्या इसमें कुछ उत्पादन करना, सेवा
प्रदान करना, उचित सलाह देना या मार्ग दर्शन करना है?
अथवा यह मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्तियों को पूरा करेगा और यह
सिर्फ सट्टा है?
आपका व्यापार जीवन-प्रदान करता है या जीवन का क्षरण करता है?
याद रखें आपका व्यापार आपके विचार और चरित्र को भी दर्शाता है, और
आपके बच्चों को भी उसी पथ पर आगे बढ़ाता है।
ग्राहकों के प्रति कैसे विचार रखें?
क्या आप अपने ग्राहकों के
प्रति सद्भावना रखते हैं?
क्या आप अपने ग्राहकों को सिर्फ एक बटुआ (पर्स) मानते हैं जिसमें
से जितना संभव हो उतना निचोड़ना है?
ग्राहक से अधिकतम लाभ लेना है या उसकी सर्वोत्तम सेवा करनी है?
क्या आप यह मानते हैं कि वह हमें सेवा करने का अवसर दे रहा है और हमें उसे भरपूर
सेवा प्रदान करनी है, या
यह
मानते हैं कि वह हम पर आश्रित है और हमें
उसका शोषण करना है?
हमारी क्या ज़िम्मेदारी है?
क्या हमारी ज़िम्मेदारी केवल ग्राहक और शेयरधारकों के प्रति है? या
समाज के प्रति भी है?
क्या उचित मूल्य पर सामान और सेवाएँ प्रदान करना पर्याप्त है,
या
शेयरधारकों को अच्छा मुनाफा भी देना है? अथवा
हमें यह भी ध्यान रखना होगा और हमारी यह ज़िम्मेदारी भी बनती है कि
हमारा व्यवसाय पर्यावरण का विनाश या उसे प्रदूषित न करे, और
समाज
और देश के हित में हो?
श्रमिक,
कर्मचारी एवं अन्य सहयोगी के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो?
क्या हमें उनकी आवश्यकता और लाचारी का शोषण करने से बचना चाहिए? और
उनके
विकास के प्रति भी सजग रहना चाहिए?
प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के संबंध में हमारा क्या दृष्टिकोण है?
क्या हम यह मानते हैं कि
हम जिस व्यवसाय में हैं, उसमें बने रहने का अधिकार हमारे प्रतिद्वंदियों को
भी है?
क्या हमें अपना ध्यान अपने विकास पर रखना चाहिए या उनकी बरबादी पर?
क्या हम अकेले विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं?
क्या हम यह मानते हैं कि विश्व में सब की आवश्यकताओं की, उनके लालच की नहीं, पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन
उपलब्ध हैं?
क्या
आप यह मानते हैं कि प्रतिद्वंद्विता के बजाय सहयोग से अधिक उत्पाद संभव है?
करों का भुगतान करते समय हमारी क्या नीति है?
क्या हम उतना भुगतान करते हैं जितना हमें करना चाहिए?
क्या हम इसे खुशी-खुशी करते हैं?
क्या हम यह मानते हैं कि सरकार को बुनियादी ढांचा तैयार करने में हमें
मदद करनी चाहिए?
क्या हमें सरकार को कुछ हद तक समानता और सामाजिक न्याय हासिल करने
में मदद करनी चाहिए?
क्या देश के लिए लाभ का एक हिस्सा खुशी-खुशी बिना छोड़े, सरकार यह कर पाएगी?
बिना
कोई योगदान दिए सरकार से हमें कितनी उम्मीद रखनी चाहिए?
कितना लाभ कमाना और इसका क्या उपयोग करना?
हम कितने लाभ की आशा रखते हैं और उसका क्या सदुपयोग करते हैं?
क्या हम उचित लाभ से संतुष्ट हैं,
अथवा
हम अनुचित लाभ कमाने के लिए ग्राहक को लूटने और उसकी अज्ञानता और लाचारी
का फायदा उठाने की प्रवृत्ति रखते हैं?
क्या हम अपने लाभ को सिर्फ स्वयं की संपत्ति और उसका मालिक मानते
हैं? या
हम खुद को उस संपत्ति के ट्रस्टी के रूप में मानते हैं?
क्या हमें यह एहसास है कि पैसा कमाना भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त अल्प
लोगों को दी गई एक प्रतिभा है? और
इसके
लिए ईश्वर के आभारी हैं?
अपनी योग्यता से अधिक पाने / खोने के पीछे किसका हाथ मानते हैं?
अपनी अप्रत्याशित सफलता या असफलता पर हमारी कैसी प्रतिक्रिया होती
है?
क्या आप यह मानते हैं कि व्यापार में यह दोनों ही स्वाभाविक हैं, और सच पूछा जाए तो ये हमारी आध्यात्मिक प्रगति में सहायक हैं?
जब हमें अप्रत्याशित सफलता प्राप्त होती है तब क्या हमें यह अनुभव
होता है कि यह हमारी काबिलीयत से ज्यादा है?
क्या हम इस सत्य के प्रति संवेदनशील हैं कि हमसे ज्यादा काबिलीयत
और मेहनती लोगों को हमसे कम सफलता मिली है?
अगर ऐसा है तब क्या हम इसके पीछे प्रभु का प्रेम देखते हैं? और
तब क्या हम अपनी कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में अपनी सफलता का फल उन
लोगों के साथ साझा करने के लिए तैयार हैं जो हमसे कम भाग्यशाली रहे?
और
यदि हमें कोई झटका लगता है, तो
क्या हम इसके पीछे ईश्वरीय प्रेम को भी देखते हैं, जो हमें
संकेत दे रहे हैं कि अब से जीवन किस रास्ते पर जाना चाहिए?
क्या
आप मानते हैं कि ईश्वर के करीब जाना एक ऐसा लाभ है जिसके लिए भौतिक हानि बहुत बड़ी
कीमत नहीं है।
कुल मिलाकर हमारा दृष्टिकोण क्या है?
क्या हम ईश्वर के उपकरण होने के प्रति सचेत हैं?
क्या हम कार्य करने में सक्षम बनाने वाली प्रतिभाएँ,
योग्यताएँ और परिस्थितियाँ देने के लिए ईश्वर के प्रति आभारी हैं?
क्या उस अदृश्य हाथ के प्रति सचेत हैं जिसके बिना हम सफल नहीं हो
सकते? और
क्या
अपनी असफलता में किसी को दोष देने के बजाय किसी बड़ी,
उच्चतर और व्यापक चीज़ का बीज देखते हैं?
यह चर्चा केवल प्रश्न उठाती है,
उत्तर नहीं दे रही है। क्योंकि, हर कोई जानता
है कि उत्तर क्या होने चाहिए। दूसरे शब्दों में, सही चुनाव
करने का ज्ञान हमारे भीतर है। आध्यात्मिकता के पुट के साथ भौतिकता के विकास की ओर ले जाने वाले विकल्पों को चुनने की
प्रतिभा हमारे भीतर है। विभिन्न प्रलोभनों के कारण, हम सही का
ज्ञान होने के बावजूद, उचित चुनाव करने में अकसर असफल हो जाते हैं। हमारी बुद्धि हमारी निम्न प्रकृति
पर हावी हो जाती है, और हमें सही चुनाव न करने का ज्ञान देती
है। भावनाएँ और बुद्धि इतना शोर मचाती हैं कि सबसे गहरे आत्मा की शर्मीली और फीकी
आवाज छिप जाती है, और हम उसे नजर अंदाज कर देते हैं। इसे नजर
अंदाज करने से हमें धन, शक्ति, नाम और
प्रसिद्धि का लाभ हो सकता है, लेकिन इसे नजर अंदाज करने से
हम मानसिक और भौतिक शांति खो देते हैं क्योंकि इससे समाज में एक गलत परंपरा, दोष, अपराध, शारीरिक और
मानसिक रोग फैलता है और हम खुद भी उसकी चपेट में आते हैं। प्रत्येक गलत विकल्प के
साथ, हम एक कदम पीछे हटते हैं।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को उद्धृत
करूँ तो -
“न जाने कब से सुनता आ रहा हूँ – तार्किकता का युग अपने साथ
खुशियाँ लाएगा, विज्ञान दुनिया में शांति स्थापित करेगा, आवश्यकताओं की वृद्धि उनकी पूर्ति के साधन उपलब्ध कराएगी। पर क्या ऐसा
हुआ? सच तो यह है कि इन सब चीजों का आना और दूभर होता जा रहा
है। ... क्या यह कहा जा सकता है कि पिछले दस-बीस दशकों में मनुष्य बेहतरी की तरफ
बढ़ा है? ... बेहतरी के लिए परिवर्तन का मतलब होता है
मनुष्य का उच्च आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों की ओर बढ़ने
की इच्छा से परिचालित होना। क्या ऐसा हो रहा है?...”
क्यों नहीं हुआ ऐसा? हमने अपने कारोबार को, व्यवसाय को, उद्योग को, पेशे को ‘धंधा’ बना लिया। अकाउंटेंट करों की चोरी कराने लगे,
उद्योग तंबाखू, हथियार, नशीले पदार्थ
बनाने लगे, वकील दोषियों को छुड़ाने में लग गए, व्यापारी ग्राहकों को लूटने और उनकी मजबूरी का फायदा उठाने में लग गए, डॉक्टर मरीजों का उपचार करने के बजाय उन्हें धन कमाने की मशीन के रूप में
देखने में लग गए। हम लालच के दलदल में बुरी तरह फंस कर अनुचित लाभ कमाने की होड़
में लग गए। रक्षक ही भक्षक बन गये।
अपने व्यापार में सात्विकता का तड़का लगाने के बजाय उसमें से
सात्विकता को निचोड़ कर निकाल दिया। सात्विकता
के साथ किए हुए व्यापार से तनाव उत्पन्न नहीं होता। इसके विपरीत हमने अपने मन को
समझा दिया कि बिना बेईमानी के व्यापार नहीं चल सकता और ईमानदारी को कुएँ में डाल
दिया। हमने यह अंगीकार कर लिया कि व्यापार का मकसद सिर्फ और सिर्फ अपनी भौतिक
आवश्यकताओं का ही नहीं बल्कि लालच की पूर्ति ही है, इसमें सात्विकता का कोई स्थान नहीं।
आध्यात्मिकता को जीवन के हर अंग में अपनाया जा सकता है। आध्यात्मिकता
को हर व्यवसाय में लाया जा सकता है। आध्यात्मिकता का अभ्यास करना सभी का सर्वोत्तम
व्यवसाय है। व्यवसाय में आध्यात्मिकता का समावेश हमें एक बेहतर समाज, बेहतर देश और बेहतर जगत प्रदान करता है। हमें बेहतर जीवन के लिए प्रेरित
होना होगा, स्वयं को बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि
व्यापार में भी सात्विकता हो सकती है, कुछ आध्यात्मिकता हो
सकती है, मानवता हो सकती है।
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लघु कहानी जो सिखाती है जीना पाप का गुरु
कई वर्षों तक काशी में शास्त्रों का
अध्ययन करने के बाद एक पंडित अपने गांव लौटा। गाँव के एक किसान ने उनसे पूछा,
‘पंडित जी आप हमें यह बताइए कि पाप का गुरु कौन है?’ प्रश्न सुन कर पंडित जी चकरा गए, भौतिक व आध्यात्मिक
गुरु तो होते हैं, लेकिन पाप का भी गुरु होता है? यह उनकी समझ और अध्ययन के बाहर था।
पंडित जी को लगा कि उनका अध्ययन अभी
अधूरा है इसलिए वे फिर काशी लौटे, अनेक गुरुओं से
मिले। मगर उन्हें किसान के सवाल का जवाब नहीं मिला। अचानक एक दिन उनकी मुलाकात एक
वेश्या से हो गई। उसने पंडितजी से उनकी परेशानी का कारण पूछा, तो उन्होंने अपनी समस्या बता दी।
वेश्या बोली,
‘पंडित जी, इसका उत्तर है तो बहुत ही आसान,
लेकिन इसके लिए कुछ दिन आपको मेरे पड़ोस में रहना होगा।’ पंडित जी के हाँ कहने पर उसने अपने पास ही उनके रहने की अलग से व्यवस्था
कर दी। पंडित जी किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाते थे, नियम
आचार और धर्म के कट्टर अनुयायी थे इसलिए अपने हाथ से खाना बनाते और खाते। इस
प्रकार से कुछ दिन बड़े आराम से बीते लेकिन सवाल का जवाब अभी नहीं मिला। एक दिन
वेश्या बोली, ‘पंडित जी
आपको बहुत तकलीफ होती है खाना बनाने में यहां देखने वाला तो और कोई है नहीं,
आप कहें तो मैं नहा धोकर आपके लिए कुछ भोजन तैयार कर दिया करूं। अगर
आप मुझे यह सेवा का मौका दें, तो मैं दक्षिणा में पांच
स्वर्ण मुद्राएं भी प्रतिदिन दूंगी।’ स्वर्ण मुद्रा का नाम
सुन कर पंडित जी को लोभ आ गया।
इस लोभ में पंडित
जी अपना नियम व्रत आचार विचार धर्म सब कुछ भूल गए। पंडित जी ने हामी भर दी और
वेश्या से बोले, ‘ठीक है तुम्हारी जैसी इच्छा लेकिन इस बात का
विशेष ध्यान रखना कि कोई तुम्हें मेरी कोठी में आते-जाते देखे नहीं।’ वेश्या ने पहले ही दिन कई प्रकार के पकवान बना कर पंडित जी के सामने परोस
दिया। पर ज्यों ही पंडित जी खाने को तत्पर हुए, त्यों ही
वेश्या ने उनके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली। इस पर पंडित जी क्रुद्ध हो गए और
बोले, यह क्या मजाक है? वेश्या ने कहा,
यह मजाक नहीं है पंडित जी यह तो आपके प्रश्न का उत्तर है, ‘यहां आने से पहले आप भोजन तो दूर, किसी के हाथ का पानी भी नहीं पीते थे, मगर स्वर्ण
मुद्राओं के लोभ में आपने मेरे हाथ का बना खाना भी स्वीकार कर लिया। यह लोभ
ही पाप का गुरु है।’
मछली आटे के लोभ में आकर अपना गला फंसा देती है।
भौंरा सुगन्धी के लोभ में आकर कमल में बन्द हो अपनी जान से हाथ धो
बैठता है !
प्रकाश के लोभ में आकर पतंगा जान दे बैठता है!
दान चुगने के लोभ में आकर पक्षी जाल में फंस जाते हैं!
अब
पशु पक्षी थोड़े से प्रलोभन में आकर बंधन में पड़ कर प्राण दे बैठते हैं तो हम तो
पूर्णतया लोभ कषाय में ही रंगे हुए हैं हमारी न जाने क्या दशा होगी।
अगर संसार के चक्कर से बचना चाहते
हैं, कर्मों की कुण्डी खोलना चाहते हैं, शांति स्वरूप को प्राप्त कर चलना चाहते हैं मुक्ति पथ की ओर, तो इस संसार के महा पिशाच लोभ का त्याग इसी क्षण कर दें!
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ट्यूब पर सुनें : à