गलत गलत है, भले ही उसे सब कर रहे
हों।
सही
सही है, भले ही
उसे कोई न कर रहा हो।
दलाई
लामा
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प्रबंधन
प्रशांत की फोन पर अपनी ही कंपनी के एक
अन्य प्लांट मैनेजर संजय से तकरार हो रही थी, "संजय, मुझे दोष मत दो, यह
तुम्हारी गलती है.....।" लेकिन फोन
के दूसरे छोर पर गुस्से में संजय के जोर से चिल्लाने की आवाज के कारण प्रशांत आगे बात
नहीं कर सका। दोनों के बीच तीखी बहस हुई और आखिरकार प्रशांत ने गुस्से से कांपते
हुए फोन पटक दिया।
प्रशांत, एक बहुराष्ट्रीय इंजीनियरिंग कंपनी के युवा प्लांट मैनेजर, एक बेहद काबिल और समर्पित
अधिकारी हैं। उन्हें गुस्सा कभी आता ही नहीं है, क्योंकि वह
तो हर समय उनकी नाक पर ही मौजूद रहता है। अगर जाये तब तो आये। प्रशांत ने संजय से अपना
ध्यान हटा अपने एक पर्यवेक्षक (सूपर्वाइज़र), अशोक को फोन किया, "रोलेक्स
के बॉयलर प्रोजेक्ट में अभी कितना काम बाकी है?"
“दो दिन और लगेंगे सर।”
"दो दिन, क्या बकवास कर रहे हो? यह तो कल ही ख़त्म हो जाना चाहिये था", प्रशांत
का चेहरा फिर लाल हो गया और तीखे स्वर में बोला।
"लेकिन सर, हमारी वेल्डिंग मशीन में कुछ समस्या
है।"
"बहाने
मत बनाओ, मुझे नहीं पता कि तुम क्या और कैसे करोगे, लेकिन तुम्हें इसे आज ही खत्म करना होगा", और
प्रशांत ने फोन रख दिया।
लेकिन तभी प्रशांत का फोन बज उठा। उसे
अपने बॉस, गोपाल का परिचित कर्कश स्वर सुना, "तुम क्या कर रहे हो? मैंने कल भारत
फोर्जिंग्स के लिये तुम्हारा प्रोग्रेस चार्ट देखा। यह निर्धारित समय से पीछे है। तुम्हें
अपनी स्पीड बढ़ानी होगी"।
"लेकिन सर...... "
"बहाने
मत बनाओ और काम समय पर पूरा करो", और गोपाल ने लाइन काट
दी।
प्रशांत ने अपने भीतर के क्रोध को दबाते हुए फोन रख
दिया। अपने ठंडे चैंबर में भी प्रशांत
पसीने से लथ-पथ हो चुका था। अपने चेहरे को हथेलियों में लपेट लिया और
बुदबुदाया, "ओह, आखिर यह हो क्या रहा
है!" उसने डॉ.स्वामीनाथन, जो उसके
इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर थे, से मिलने का निश्चय और रात
करीब 8 उनके घर पर पहुंचा।
प्रोफेसर स्वामीनाथन कुछ मिनट तक अपने
शिष्य के चेहरे को देखते रहे और फिर स्नेह से पूछा, "तुम बहुत परेशान और थके हुए लग रहे हो। तुम्हें क्या परेशान कर रहा है?"
प्रशांत ने सारी बात बताई
और पूछा, "मैं अपने क्रोध पर
नियंत्रण क्यों नहीं रख पा रहा हूं। खुद पर नियंत्रण कैसे हासिल करूं?"
स्वामीनाथन सहानुभूतिपूर्वक मुस्कुराये
और बोले, "नियंत्रण पाने से पहले
तुम्हें स्वयं के प्रति सचेत होना होगा। तुम पूछ रहे हो, 'मेरा
नियंत्रण’ 'क्यों नहीं' है?' लेकिन जब तुम क्रोध से भरे होते हो उस समय तुम्हारा वह ‘मैं’ वहाँ है ही नहीं, क्योंकि
तुम खुद ‘क्रोध’ में परिवर्तित हो चुके
हो। अतः अपनी भावनाओं पर नियंत्रण हासिल करने की प्रथम सीढ़ी है अपने 'मैं' को पुनः प्राप्त करना। तुम्हारा वह ‘मैं’ वहाँ से जा चुका है इसलिए क्रोध आता है। अतः जब
तुम में क्रोध हो, तब तुमको जागरूक और सचेत होना होगा कि 'मैं’ में ‘क्रोध’ है। यह ‘मैं’ और ‘क्रोध’ अलग-अलग हैं। तुम क्रोध नहीं हो।
क्रोध तुम्हारे अंदर घटित होने वाली एक आंतरिक गतिविधि है, तुम्हारे
अंदर होने वाली हलचल है, तुम वह नहीं हो, वे एक नहीं हैं, वे अलग-अलग हैं। यह नियंत्रण की
दिशा में दूसरा कदम है, तुम इसका अभ्यास करो। और जब तुम यह
कर लो तब फिर मिलेंगे।”
जैसे ही प्रशांत ने, प्रोफेसर स्वामीनाथन की बातों के
अनुसार अभ्यास करना प्रारम्भ किया, उसने अनुभव किया कि विचारों और भावनाओं के
प्रति सचेत होने का कार्य, कुछ हद तक उन पर नियंत्रण करने की
ओर ले जाता है। जब उसने प्रोफेसर को अपना अनुभव सुनाया, तो
स्वामीनाथन ने कहा, "बहुत अच्छे, अब तुम अपने
अंदर की एक क्षमता और शक्ति को पहचान गये हो जिसके बारे में तुम पहले अंजान थे। अब तुम जानते हो कि तुम्हारे अंदर
एक क्षमता है जो तुम्हारे ‘मैं’ को
तुम्हारे विचारों और भावनाओं से पीछे हट सकती है और उन्हें एक साक्षी के रूप में
देख सकती है। अगला कदम इस अलगाव को अधिक-से-अधिक पूर्ण और परिपूर्ण बनाना है। इसी
पर और अभ्यास करो, पीछे हटना और अपने संज्ञानात्मक
दिमाग को विचारों और भावनाओं के प्रवाह से पूरी तरह से अलग कर लेना। उन्हें समुद्र
में लहरों की तरह उठते और गिरते हुए देखना। अब जब फिर मिलेंगे तब हम आगे
चर्चा करेंगे।"
प्रशांत ने इसे व्यवहार
में लाने की कोशिश करना प्रारम्भ किया। उसे पता चला कि वह अपने बारे में कितना कम
जानता है और जानने के लिये कितना कुछ है। वह अपनी बढ़ती हुई आंतरिक स्वतंत्रता और
समझ का अनुभव कर रहा था जो बढ़ती आत्म-जागरूकता और आत्म-अनासक्ति से आती है।
रविवार को जब वह दोबारा अपने गुरु से मिला तो प्रशांत ने धन्यवाद देते हुए कहा, "मैं अब अधिक शांतिपूर्ण, सचेत, कम तनावपूर्ण और खुद के अधिक नियंत्रण में
हूं।"
स्वामीनाथन प्रसन्नता से
मुस्कुरा उठे और कहा: "बहुत अच्छा। लेकिन तुमने जो भी
प्राप्त किया है उससे संतुष्ट मत होना, निरंतर आगे बढ़ते रहना।
अधिक-से-अधिक सतर्क और जागरूक रहना और अपने विचारों, भावनाओं,
संवेदनाओं, आवेगों, इच्छाओं
और उद्देश्यों के अंतरतम स्रोत की खोज करने का प्रयास करना। जब भी तुम्हारे मन में
क्रोध या ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनाएँ आती हैं, तब अहंकार
या इच्छा के उन बिंदुओं को पहचानने का प्रयास करना जिनसे यह उत्पन्न होती हैं। तुम देखोगे कि अधिकांश
नकारात्मकताएँ और अशांति आहत अहंकार या असंतुष्ट इच्छा से आती है, और तब तुम यह अनुभव करोगे कि तुम्हारा यह साक्षी भाव केवल द्रष्टा नहीं
है उसके पास नियंत्रण की शक्ति भी है। यह शक्ति उन विचारों या भावनाओं को अस्वीकार
कर सकता है जिन्हें वह नहीं चाहता है और दूसरे नये विचारों और भावनाओं को उत्पन्न
कर सकता है जिन्हें वह विकसित करना चाहता है। और यह जीवन भर की एक आंतरिक यात्रा
और नई खोज होगी। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाओगे नये-नये अध्याय खुलते जायेंगे। यही
सनातन है, अनंत है जिसका कोई अंत नहीं। युगों से चलता रहा है, युगों तक चलता रहेगा, सनातन है।”
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प्रश्न पूछो ध्यान से .....
गीता के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण के विश्व रूप दर्शन का
प्रसंग है। इसके पूर्व के अध्याय में भगवान अपनी विभूतियों का वर्णन करते हैं। इसे
सुन अर्जुन के मन में भगवान के उस स्वरूप के दर्शन की इच्छा जागृत होती है और वे
श्रीकृष्ण से उस स्वरूप के दर्शन कराने का अनुरोध करते हैं। अर्जुन के इस अनुरोध
को स्वीकार करते हुए भगवान उसे उस स्वरूप का दर्शन कराते हैं। प्रारम्भ में अर्जुन
को भगवान के ‘विकराल’ रूप का दर्शन
होता है। इस स्वरूप को देख कर अर्जुन भयभीत हो जाता है, व्याकुल हो जाता है। अर्जुन को जो स्वरूप
दिखा उसकी उसे कल्पना नहीं थी, अर्जुन ने उसका विस्तृत वर्णन
किया। भय के कारण उसका मतिभ्रम तक हो जाता है और पूछता है कि ‘आप हैं कौन’, उन्हें बारंबार प्रणाम कर पूछता है कि
मैं आप कि प्रवृत्ति को जानना चाहता हूँ। अलग-अलग सम्बोधनों से अर्जुन उनकी स्तुति
करता है और यह भी कहता है कि आपके इस स्वरूप को देख कर मैं हर्षित भी हो रहा हूँ लेकिन साथ ही मेरा मन भय से व्याकुल
भी हो रहा है अतः आप मुझे अपना चतुर्भुज स्वरूप दिखाइये। भय से किंकर्तव्यविमूढ़
हुआ अर्जुन अब अपनी प्रारम्भिक शिष्टाचार को भूल कर सीधे-सीधे चतुर्भुज स्वरूप के
दर्शन की इच्छा जाहिर करता है।
कौन से
शिष्टाचार की? आइये एक बार गौर करते हैं
अर्जुन के पहले प्रश्न पर। अर्जुन सीधे अपनी इच्छा
जाहिर नहीं करता, वह कहता है कि –
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर |
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम || 11.3||
हे परमेश्वर! आप वास्तव में वही हो जिसका आपने मेरे समक्ष वर्णन किया है!,
किन्तु हे परम पुरुषोत्तम! मैं आपके विराट रूप को देखने का इच्छुक
हूँ।
यहाँ
अर्जुन यह स्वीकार करता है कि श्री कृष्ण वैसे ही हैं जैसा उन्होंने अपना वर्णन
किया है। लेकिन उसी एक ही सांस में वह उनके उस स्वरूप को देखने की इच्छा भी प्रकट करता
है। लेकिन इसके तुरंत बाद उसे अपनी भूल का अहसास होता है कि बिना यह जाने-समझे कि
वह उसके दर्शन का अधिकारी है या नहीं, केशव
उसके दर्शन करवाना चाहते हैं या नहीं इस प्रकार से अपनी इच्छा जाहीर करना उचित
नहीं और तब वह अपने प्रश्न को संशोधित करते हुए आगे जोड़ता है :
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।11.4।।
हे प्रभो! यदि मेरे द्वारा आपका
वह रूप देखा जाना सम्भव है – ऐसा आप मानते हैं, तो
हे योगेश्वर मुझे आपके उस अविनाशी स्वरूप का दर्शन कराइये ।
यानि अगर श्री कृष्ण चाहते हों और अगर अर्जुन उस स्वरूप के दर्शन
करने के अधिकारी हों तब वह श्रीकृष्ण के उस स्वरूप का दर्शन करना चाहते
हैं।
तब श्री कृष्ण उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए पहले विकराल
और फिर चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन कराते हैं। तभी कहा गया है –
“प्रश्न पूछो ध्यान से , उत्तर मिलेगा ज्ञान से”
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विशिष्टता संस्मरण जो सिखाती है जीना
अब्राहम लिंकन अमेरिका के उन गिने-चुने
राष्ट्रपतियों में से एक हैं जिन्हें आज भी पूरा विश्व याद कर श्रद्धा से नत मस्तक
हो जाता है। जब अमेरिका गृह युद्ध में बुरी तरह उलझा हुआ था, वे लिंकन ही थे जिन्होंने बड़े धैर्य और साहस के साथ अपने देश का नेतृत्व
किया और देश की किश्ती को उस तूफान से निकाल कर लाये। उनके जीवन की अनेक छोटी-छोटी
घटनाएँ प्रचलित हैं जो उनकी सफलता का राज तो खोलती ही हैं साथ ही हमें भी जीवन का
पाठ पढ़ाती हैं। वैसी ही अनेक घटनाओं में से एक है यह घटना।
सबसे निचले स्तर का एक अमेरिकी सैनिक अपने
देश के लिए गृहयुद्ध लड़ रहा था। उसकी पत्नी एक बड़ी झील में डूब गई और उसे किसी भी
तरह उसके शव को निकालने और उसे उचित तरीके से दफनाने में मदद करने वाला कोई नहीं
मिला। किसी ने उसे अब्राहम लिंकन से मदद मांगने का सुझाव दिया जो उस समय अमेरिका
के राष्ट्रपति थे। लिंकन की व्यवस्था में, सेना के
किसी भी रैंक का सैनिक उनसे मिल सकता था।
सैनिक लिंकन के पास गया और अपनी समस्या
बताई। लेकिन उस समय लिंकन, गृहयुद्ध की एक महत्वपूर्ण घटना से निपटने की
कठिनाइयों और जिम्मेदारियों में उलझे हुए थे। उन्होंने हल्की उपेक्षा के भाव से कहा,
"क्या मुझे ऐसी साधारण सी चीजों के बारे में चिंतित होना
पड़ेगा"। अपने देश के राष्ट्रपति के इस कथन से सिपाही बहुत निराश हुआ और हतोत्साहित
होकर चला आया। उसके लिए यह घटना साधारण नहीं थी। वह बड़ी आशा लेकर उनसे मिलने गया
था।
लिंकन ने सैनिक से जो कुछ कहा वह वैध हो
सकता है, इसलिए नहीं कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति थे,
बल्कि इसलिए कि वे एक देश का नेतृत्व कर रहे थे जब वह गंभीर संकट से
गुजर रहा था। इतनी बड़ी जिम्मेदारी का बोझ उठाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए
सैनिक की समस्या क्या मामूली नजर नहीं आती? लेकिन लिंकन
दयालु, कोमल हृदय वाले दुर्लभ नेताओं में से एक थे। गृहयुद्ध
की उस समस्या से फारिग होने के कुछ समय बाद लिंकन को लगा कि उन्होंने उस सैनिक से
जो कहा वह बहुत निर्दयी और अमानवीय था। अमेरिका के राष्ट्रपति तुरंत उसे अपने शिविर
में बुलाने के बजाय खुद युद्ध क्षेत्र में पहुंचे और सैनिक के तंबू में घुस गये। लिंकन
ने सैनिक से कहा, "मुझे दुख है,
मैंने तुम्हारे साथ एक निर्दयी व्यवहार किया है। मुझे बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या
कर सकता हूं?" सैनिक
की समस्या को धैर्यपूर्वक सुनने के बाद लिंकन ने सैनिक की पत्नी का शव बरामद करने
और उसे दफनाने की पूरी व्यवस्था की।
केवल वही व्यक्ति जो अपने गहरे हृदय में
रहता है वह महसूस कर सकता है जो लिंकन ने महसूस किया। उनके मन में बसने वाला कोई
अन्य नेता, चाहे वह कितना भी महान, सुसंस्कृत
और परिष्कृत क्यों न हो, उस तरह महसूस नहीं किया होगा जैसा लिंकन
ने एक "महत्वहीन" सैनिक की "तुच्छ" समस्या के लिए महसूस किया।
इसका अहसास होना और फिर उस पर अमल करना ही हमें विशिष्ट बनाता है।
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