अपने
भीतर की चेतना और संवेदनशीलता को जाग्रत रखें। जिससे,
हर
घटना को गहराई से महसूस कर सकें,
गलत
को गलत और अंधेरे को अंधेरा कह सकें ।
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मौलिक
प्रश्न
बड़ा
विचित्र प्राणी है मानव। जहां उसे अपने जीवन का कुछ समय ही गुजारना है वहाँ के
बारे में उसे पूरी जानकारी चाहिये, लेकिन जहां उसे ता-उम्र व्यतीत करना है
उसके लिए उस में कोई जिज्ञासा नहीं।
“अच्छा!
क्या तुम्हारे मन में भी क्या कभी यह प्रश्न उठता है कि इस दुनिया का निर्माण
किसने किया? क्यों किया? यह दुनिया है क्या? क्या उद्देश्य है उसका? हमें क्यों भेजा है यहाँ? दुनिया के मालिक तो ईश्वर
हैं। हम उन्हें कितना जानते हैं? क्या उन्हें जानना आवश्यक
है?,” शून्य की तरफ देखते हुए विनोद ने प्रश्न किया।
प्रशांत
अपनी चिर-परिचित मुद्रा में गर्दन झुकाये, एकाग्र चित्त से विनोद के प्रश्न सुन रहे
हैं। उन्हें पता है ये प्रश्न पूछे नहीं गये हैं, सिर्फ बताये
गये हैं। कुछ वर्षों के परिचय में ही प्रशांत और विनोद में आपस में ऐसी समझ आ गई
है। हाँ, अभी सिर्फ सुनना है, ये उत्तर
की अपेक्षा वाले प्रश्न नहीं हैं। दोनों दोपहर
का भोजन और शाम की चाय प्रायः साथ-साथ लेते हैं और अध्यात्म,
मनोविज्ञान और संसार भर की हंसी-विनोद की बातें भी करते रहते हैं, खुल कर हँसते हैं। कभी-कभी उनके लिये अपनी हंसी पर लगाम लगाना भी दुष्कर
हो जाता है। उन्हें प्रातः ‘हास्य योगाभ्यास’ (लाफटर योग) की अलग से जरूरत नहीं है। अनेक बातों पर उनमें सहमति है तो
ऐसी भी अनेक विचार हैं जहां उनके मध्य 36 का आंकड़ा है। लेकिन वे कभी विरोधी बातों
पर चर्चा नहीं करते। व्यर्थ के विवाद में नहीं पड़ते।
प्रशांत
विनोद द्वारा सूत्रपात किये गए इस गंभीर चर्चा का सूत्र खोज रहे हैं। समझने में
समय नहीं लगा। अभी-अभी शारदा वहीं उनके साथ बैठी थी और बता रही थी कि उसने किसी अन्य
बड़ी कंपनी में जाने का मन बना लिया है। प्रशांत, शारदा के साथ विनोद कर रहे थे और विनोद, शारदा की बातें प्रशांत मन से
सुन रहे थे। शारदा बता रही थी कि उसने पता लगाया है कि वह किस की कंपनी है, क्या करती है, उसका बॉस कौन होगा – वगैरह-वगैरह।
बहुत उत्तेजित है और चहक-चहक कर बता रही थी।
तभी विनोद
ने हस्तक्षेप करते हुए कुछ प्रश्न पूछ लिये, मसलन क्या उसने यह भी पता लगाया है कि इस नयी कंपनी में उसका
कर्तव्य-उत्तरदायित्व क्या होगा? कंपनी को उसे से क्या
अपेक्षा है? कंपनी उसे क्यों रख रही है?.... ऐसे प्रश्नों से रानी उचट गई और हाथ हिला कर उठ गई। प्रशांत ने
मुसकुराते हुए कहा, “बेचारी को भगा दिया!”
प्रशांत की
टिप्पणी को नजर अंदाज करते हुए विनोद अपनी ही रौ में कहते गए, “जो मूलभूत प्रश्न हैं उनके
उत्तर न हम जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं। ये मौलिक प्रश्न हमें अ-सहज कर
देते हैं। लेकिन ये ही वे प्रश्न हैं जो
हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं और दुनिया को एक बेहतर दुनिया बना सकती है।”
“हाँ विनोद, लेकिन ऐसा नहीं है कि लोग
इससे बेखबर हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने इस पर विचार किया है। सबों को एक जैसा
उत्तर नहीं मिला, मिल भी नहीं सकता। सबों को सब प्रश्नों के
उत्तर भी नहीं मिले। जो जितने गहरे गया उसे वैसे ही और उतने ही उत्तर भी मिले। किसी
ने अपना जीवन सुधारा किसी ने दुनिया को भी सुधारा,” प्रशांत
ने जोड़ा।
“ये प्रश्न
उतने कठिन भी नहीं हैं जैसा पहली नजर में प्रतीत होते हैं – ‘इस दुनिया का मालिक कौन है? उसकी हमसे क्या अपेक्षा है? वह हमसे क्या चाहता है? हमारा क्या उत्तरदायित्व है? हमारा क्या कर्तव्य है? हमारा क्या अधिकार है? हमारी क्या सीमाएं हैं? और फिर हम अपने उत्तरदायित्व का कितना और कैसा निर्वाह कर रहे हैं?’ जैसे-जैसे इस पर विचार करते हैं हमें हमारे सामर्थ्य के अनुरूप उत्तर भी मिलने लगते हैं और पथ प्रदर्शक भी। श्रीअरविंद का पथ प्रदर्शन ‘श्रीकृष्ण’ ने ही किया था,”
विनोद ने कहा।
“और ये वे मौलिक
प्रश्न हैं जिनके उत्तर मिलने लगते हैं तो दूसरे प्रश्न खुद-ब-खुद विलीन होने लगते
हैं। हमें इन पर विचार करना चाहिये”, प्रशांत ने आगे कहा, ‘हमें पहला कदम बढ़ाना होता है और अगर आगे मार्ग न सूझे तो आगे का मार्ग दिखाने
कोई-न-कोई आ ही जाता है।’
जो भी आया
है, वह जायेगा। साथ कुछ नहीं
लाया था, साथ कुछ लेकर नहीं जायेगा। या तो दे कर जाये या
छोड़कर जाये। बस यही दो विकल्प हैं हमारे पास। और यह स्पष्ट है कि कुदरत यही चाहता
है कि हम छोड़ कर नहीं, दे कर जायें। कुदरत को जो भी देना
होता है वह खुद नहीं देता किसी और से दिलवाता है। क्यों? संसार
देकर जाने वाले को ही याद करता है छोड़कर जाने वाले को नहीं। कुदरत अपना
नाम नहीं चाहता है, वह चाहता है कि आपका नाम हो, अतः छोड़ कर न जायें, दे कर जायें।
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उत्कृष्टता का
मोल
एक
बढ़ई किसी गाँव में लकड़ियों की अद्भुत कलात्मक सामग्री और कलाकृतियाँ बनाया करता
था। जब भी वह कुछ बनाता उसके मन में एक ही बात होती – वह ईश्वर के लिए बना रहा है और कार्य की समाप्ति के बाद वह
मानसिक रूप से अपनी कलाकृति को उन्हें ही भेंट कर देता था। उसकी हर सामग्री
उत्कृष्टता का नमूना थी। धीरे-धीरे उसकी ख्याति चारों तरफ फैल गई और अब वह कलाकृतियों
के साथ-साथ छोटे-मोटे भवन बनाने लगा। आस-पास के शहरों से सेठ आने लगे और अब वह महल
भी बनाने लगा। अब वह बढ़ई न रहकर कलाकार बन चुका था। वहाँ का राजा भी उसका हुनर
देखने पहुँचा। उसके कार्य को देख कर वह चमत्कृत रह गया। उसने उसे राजधानी में बुला
लिया और वहाँ उसने एक-से-बढ़कर-एक भवनों का निर्माण किया।
समय
के साथ वह वृद्ध हो चला, थकने लगा था। एक दिन उसने राजा से
कहा कि उसने अनेक निर्माण किए हैं, लेकिन अब उसका शरीर, आँखें, हाथ पहले की तरह सक्षम नहीं रहे अतः अब वह
अपने गाँव जा कर बची-खुची जिंदगी वहीं अपने परिवार के साथ बिताना चाहता है। अतः
उसे सेवा निवृत्त कर दिया जाये। राजा ने कहा कि जाने के पहले वह उनके लिए एक अंतिम
भवन का निर्माण कर दे। राजा के कहने पर वह अंतिम भवन के निर्माण कार्य में जुट गया। लेकिन इस बार उसकी
इच्छा नहीं हो रही थी, बे-मन से बना रहा था। कई जगहों पर
उसने कार्य की उत्कृष्टता से समझौता किया, प्रयोग में ली गई
लकड़ियों एवं अन्य वस्तुओं से भी समझौता किया।
खैर, निर्माण कार्य पूरा हुआ और वह राजा को सूचित करने दरबार में
पहुंचा। राजा ने प्रसन्नता से कहा, “तुमने हमारे राज्य के
लिये अनेक भवनों का निर्माण किया है लेकिन अपने खुद के लिए कभी कोई भवन नहीं
बनाया। यह भवन राज्य की तरफ से तुम्हें पुरस्कार में दिया जाता है। अपने समस्त
परिवार को यहीं बुला लो और सब साथ में यहीं रहो। अपने जीवन के इस अंतिम निर्माण पर
अब वह पछता रहा था। औरों के लिए उसने एक-से-एक उत्कृष्ट निर्माण किये लेकिन अपने
खुद के निर्माण में वह चूक गया था।
अपने
हर कार्य को ईश्वरार्पण करें,
उत्कृष्टता में कभी कमी न करें।
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ईश्वरीय अनुकम्पा कहानी जो
सिखाती है जीना
सुकरात
समुद्र तट पर टहल रहे थे। उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी, प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ
फेरकर पूछा तुम क्यों रो रहे हो ? लड़के ने बताया मेरे हाथ में जो प्याला है मैं उसमें इस समुद्र को भरना चाहता हूँ पर यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं।
बच्चे
की बात सुनकर सुकरात विस्माद में चले गये और स्वयं रोने लगे, अब पूछने की बारी बच्चे की थी, ‘आप भी मेरी तरह रोने लगे पर आपका प्याला कहाँ है?’
सुकरात
ने जवाब दिया, ‘बच्चे, तुम इस प्याले में समुद्र भरना चाहते हो, मैं अपनी बुद्धि में सारे संसार की जानकारी भरना चाहता
हूँ। आज तुमने सिखा दिया कि मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा। यह सुन बच्चे ने प्याले को
दूर समुद्र में फेंक दिया और बोला, ‘सागर, अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो, मेरा प्याला तो तुम्हारे में समा सकता है।’
इतना
सुनना था कि सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले बहुत कीमती सूत्र हाथ लगा है। हे परमात्मा! आप तो मुझ में नहीं समा सकते पर मैं तो आपमें लीन हो सकता हूँ।
ईश्वर
की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान उस बालक में समा गए। सुकरात का
सारा अभिमान ध्वस्त कराया, जिस सुकरात से
मिलने के लिए सम्राट समय मांगते थे वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में लेट गए। ईश्वर जब आपको अपनी
अनुकम्पा में लेते हैं तब आपके अंदर का ‘मैं’ सबसे पहले मिटता है। शायद मैंने उल्टी
बात कह दी। जब आपके अंदर का मैं मिटता है तभी ईश्वर की अनुकम्पा होती है।
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यू
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