असहयोग और कुछ नहीं,
शासकों के पशुबल को हटाने का कर्त्तव्य है।
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युद्ध और गांधी
युद्ध
महाभारत
कौरव – पांडव
ऐसा कोई आयुध न बचा
जिसका प्रयोग न हुआ हो।
युद्ध की सभी विधाओं
का प्रयोग हुआ।
हाथी, घोड़े,
ऊंट, पैदल, रथ हर प्रकार की सेना थी।
एक ऐसा भयानक युद्ध
जिसमें सम्पूर्ण आर्यावर्त के राज्य अपनी-अपनी सेना के साथ लड़े-कटे-मरे।
द्वारकाधीश श्री कृष्ण
ने भी यादवों की अपराजेय चतुरंगिणी सेना के साथ युद्ध में भाग लिया।
18 दिन के इस भयानक
रक्तपात के बाद युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करवा श्रीकृष्ण अपने स्वर्ण जड़ित
गरुड़ध्वज से सुशोभित रथ में द्वारका वापस चले।
क्या
श्री कृष्ण अपनी मृदु-मुस्कान के साथ द्वारका में प्रवेश किए होंगे? क्या उनमें विजय की प्रसन्नता
रही होगी? उनकी चतुरंगिणी सेना किस हालत में वापस द्वारका आई
होगी? द्वारका के द्वार पर जन सैलाब तो जमा होगा, लेकिन क्या उनकी आँखें विजयी श्रीकृष्ण को खोज रही थीं या उनको जो अब तक
नहीं लौटे थे और अब कभी वापस लौट कर नहीं आने वाले थे?
श्रीकृष्ण के कानों में मंगल गान पड़ रहे होंगे या रोने की,
आर्तनाद की, चीख-पुकार की मार्मिक आवाजें आ रही होंगी?
युद्ध का कारण कुछ भी हो,
परिणाम कुछ भी हो, किसी भी पक्ष की विजय हो सत्य तो यही है
कि दोनों ही पक्ष पराजित होते हैं। विजयी पक्ष भी बहुत कुछ हार जाता है। अपरिमित जन-धन की क्षति होती है जिसकी पूर्ति असंभव है।
दिल में लगने वाले घाव कभी नहीं भरते।
जब द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा
रहे थे, देशों
के बीच तना-तानी चल रही थी, गांधी ने शांति बनाये रखने की गुजारिश की थी और युद्ध के अन्य
विकल्पों पर कार्य करने की सलाह दी थी। लेकिन न हिटलर और न ही मित्र देशों को उनका
सुझाव रुचा। उन्होंने अहिंसक प्रतिरोध करने का सुझाव दिया था। अहंकार में सराबोर दोनों
ही पक्षों को यह नागवार लगा। यह तो आत्मसमर्पण है, अपमान है?
4 वर्षों तक चले इस प्रलयंकारी युद्ध का
समापन अणुबम के विस्फोट से हुआ। युद्ध की समाप्ति के बाद विदेशी पत्रकारों का एक
दल गांधीजी से मिलने यह बताने पहुंचा कि युद्ध में मित्र देशों की विजय हुई और हिटलर मारा गया। गांधी ने पूछा कि उस युद्ध में कुल
कितने जन-धन का नुकसान हुआ? पत्रकारों ने एक दूसरे को देख गांधी को संख्या
बताई और कहा यह अभी तक के अनुमानित आंकड़े है। गांधी का अगला सवाल था कि अगर उनकी
बात मानी जाती तो नुकसान इससे कम होता या ज्यादा? कुछ देर की
चुप्पी के बाद उत्तर आया, ‘शायद इससे
कम होता लेकिन ......’ । गांधी ने बीच में ही रोक दिया ‘और हिंसा पर अहिंसा का राज होता। अभी, हिंसा पर
हिंसा की ही विजय हुई है, इसके दूरगामी परिणाम होंगे।’
कालांतर में,
भविष्य में युद्ध रोकने के लिए बने वैश्विक संगठन शक्तिहीन हो गये। अनेक समझौते
हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ भी बना। विश्व दो गुटों में विभक्त
हो गया। हर समय, कहीं-न-कहीं बम के गोले, टैंकों की गरगराहट, गोलियों की आवाज चलती ही रहती
है। युद्ध थमने का नाम ही नहीं ले रहे। पूरा विश्व बारूद की ढेर पर है, कब कहाँ धमाका होगा पता नहीं। इन आमने-सामने के युद्ध के अलावा गुमनाम और
अब खुल्लम-खुल्ला आतंकवाद के निरंतर युद्ध से पूरी दुनिया खौफ में है। यह मत
सोचिये जब हम युद्ध की बात कर रहे हैं तब केवल दो देशों के मध्य युद्ध की चर्चा कर
रहे हैं। हर देश, कौम, जाति, धर्म और तो और हर इंसान भी दूसरे इंसान से युद्ध कर रहा है।
जब
तक यह नफरत की आग समाप्त नहीं होगी युद्ध समाप्त नहीं होंगे। शांति का एकमात्र
उपाय प्रेम, मुहब्बत, सौहार्द, सद्भावना ही है।
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(काँग्रेस की बैठक में अपने ‘असहयोग’ आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृत कराने के लिए
गांधी ने बड़ी मेहनत की और बड़े ज़ोरदार और तार्किक ढंग से अपनी बात रखी। ‘गांधी-मार्ग’ पत्रिका ने इतिहास में गोता लगाकर सामग्री
एकत्र कर उसे प्रकाशित किया, इससे गांधी को समझा जा सकता है। उसी के कुछ अंश।)
गांधी की इतनी छवियां
गढ़ दी गई हैं कि गांधी कहीं खो ही गये हैं! हमारे हाथ बचे हैं
या तो 'सुविधा के गांधी' या 'दुविधा के गांधी।' गांधी इन दोनों
से दूर, काल की दूरियों को पार कर हर उस जगह खड़े मिलते हैं जहां स्वतंत्रता-समता का
संघर्ष है। उनके तरकश में सत्य है, तो सत्याग्रह भी है; सहमति
की आतुरता है तो असहमति की दृढ़ता भी है; सबको साथ लेने का धीरज है तो
सबको छोड़ अकेले निकल पड़ने की तीव्रता भी है, वे सबके साथ, सब तरह का सहयोग करने को
तत्पर मिलते हैं तो असहयोग का ब्रह्मास्त्र चला कर सबको घुटनों पर भी ला देते हैं। यह योद्धा गांधी आज की जरूरत है।
1920 का काल था। 1915 में भारत लौटे 46 वर्ष के गांधी ने केवल पांच सालों में भारत
के सार्वजनिक जीवन को अपनी मुट्ठी में कर लिया था, और असहयोग आंदोलन की व्यापक योजना
कांग्रेस के सामने रख दी थी। काँग्रेस का हृदय गांधी के साथ था,
दिमाग कुछ दूसरा कह रहा था। सर्वश्री विपिन चंद्र पाल, मुहम्मद
अली जिन्ना, एनी बीसेंट, मदनमोहन मालवीय, जमनादास द्वारकादास आदि
सबने गांधी के असहयोग से सहयोग करने से इंकार करते हुए, उनके प्रस्ताव पर हर तरह की
आपत्तियां उठाई थीं... गांधी ने दृढ़ता से एक-एक आपत्ति का जवाब देते हुए उनकी निरर्थकता
ही उजागर नहीं कर दी बल्कि यह भी संकेत दे दिया कि अब देश रुकने-थमने को तैयार नहीं
है- "हम, जो भारत का नेतृत्व करते हैं उनमें भी वे गुण नहीं हैं, तो भारत को कभी
स्वराज्य नहीं मिलेगा।" मैं अच्छी तरह जानता हूं कि इस महान
सम्मेलन के समक्ष यह प्रस्ताव रखने का जो अवसर मुझे दिया गया है, उससे मेरे कंधों पर
कितनी गंभीर जिम्मेवारी आ पड़ी है। मैं यह भी समझता हूं कि आप
यह प्रस्ताव मंजूर कर लेंगे तो मेरी अपनी और आपकी भी मुश्किलों में कितनी वृद्धि हो
जाएगी। मेरा प्रस्ताव मंजूर करें तो इसका अर्थ होगा कि अब तक
जनता अपने हक और सम्मान की रक्षा के लिए जो नीति अपनाती रही, उसे हम बिलकुल बदल रहे
हैं। मैं पूरी तरह जानता हूं कि हमारे बहुत से नेता इसके विरुद्ध
हैं - ऐसे नेता, जिन्होंने मातृभूमि की सेवा में मेरी अपेक्षा
कहीं अधिक समय और शक्ति लगाई है। यह सब पूरी तरह समझकर मैं आपके
सामने खड़ा हुआ हूं। मैं यह प्रस्ताव परमेश्वर से डरते हुए और
स्वदेश के प्रति अपने धर्म के भाव से प्रेरित होकर पेश कर रहा
हूं। मैं चाहता हूं कि आप उसका स्वागत करें। आप
घड़ी भर के लिए मुझे भूल जाइये। मुझ पर यह आरोप है कि मैं बड़ा
'महात्मा' हूं और तानाशाही चलाना चाहता हूं। मैं साहसपूर्वक कहता
हूं कि मैं आपके पास 'महात्मा' बनकर या हुकूमत करने की आकांक्षा से नहीं आया हूं। मैं तो आपके सामने अनेक वर्षों के अपने आचरण में असहयोग के जो अनुभव
मुझे हुए, उसे उपस्थित करने खड़ा हुआ हूं। मैं इस बात को मानने
से इनकार करता हूं कि असहयोग देश के लिए बिलकुल नयी चीज है। हजारों
की भीड़ वाली, सैकड़ों सभाओं ने असहयोग को स्वीकार किया है। मैं
फिर आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप इस महत्व के प्रश्न पर विचार करने में धीरज और शांति
से प्रस्ताव के गुण-दोषों पर अपना मत निश्चित कीजिये।
सहनशक्ति की तालीम : प्रस्ताव को महज मंजूर कर लेने से आप छूट नहीं जाएंगे। जो धारा जहां लागू होती हो, वहां उस पर अमल शुरू कर देना पड़ेगा। मेरा अनुरोध है कि आप धीरज रखकर मेरा कहना सुन लीजिये, तालियां भी न बजाइये और आवाज-कशी भी मत कीजिये, तालियों से विचारों का प्रवाह रुकता है और आवाज-कशी करने से बोलने
और सुनने वालों के बीच जुड़ा हुआ तार टूट जाता है। असहयोग में
तो अनुशासन और त्याग की साधना की बात है। विरोधी के मत को धीरज
और शांति से समझ लेना असहयोग का लक्षण है। बिलकुल ही विरुद्ध
विचारों को भी सह लेने की वृत्ति जब तक हम पैदा नहीं कर लेंगे, तब तक असहयोग असंभव
है। क्रोध के वातावरण में असहयोग चल ही नहीं सकता। मैं कड़वे अनुभव से एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ सीखा
हूं कि क्रोध को दबा दिया जाये तो जैसे
दबाकर रखी गई उष्णता में से शक्ति उत्पन्न होती है वैसे ही संयम
में रखे गए क्रोध से भी ऐसा बल पैदा किया जा सकता है कि सारे संसार में हलचल मचा दे। हम मत-विरोध के बावजूद एक-दूसरे को सहन करना सीख लें तो इससे अधिक
अनुशासन और क्या हो सकता है?
कांग्रेस और अल्पमत : मुझसे कहा गया है कि मैं तो बस विनाश का ही कार्य
करता रहता हूं। अपने प्रस्ताव से मैं देश
के राजनीतिक जीवन में दरार डाल रहा हूं। कांग्रेस किसी खास दल
की संस्था नहीं है। संख्या थोड़ी है, इसीलिये किसी दल को कांग्रेस छोड़कर जाने की जरूरत
नहीं। उन्हें समय पाकर देश के लिए अपना मत रुचिकर बनाकर अपना
ही बहुमत बना लेने की आशा रखनी चाहिए। हां, कांग्रेस द्वारा निंदित किसी भी नीति को कांग्रेस के नाम से कोई अख्तियार नहीं कर सकता। आप मेरा ढंग नापसंद करेंगे तो मैं कोई कांग्रेस छोड़कर नहीं
चला जाऊंगा। आज मेरे विचारों का अल्पमत हो, तो जब तक वह बदलकर
बहुमत नहीं बन जायेगा तब तक मैं कांग्रेस को समझाता ही रहूंगा।
असहयोग एकमात्र उपाय : पंजाब पर सितम ढाये गए और यह समझ लीजिए कि जिस दिन एक भी पंजाबी को
पेट के बल चलना पड़ा, उस दिन सारा भारत पेट के बल चला। यदि हम
भारत की योग्य संतान हैं तो हमें यह कलंक का टीका मिटा ही डालना होगा। इन जुल्मों का न्याय कराने के लिए हम महीनों से जूझ रहे हैं, परंतु
अभी तक हम ब्रिटिश सरकार को रास्ते पर नहीं ला सके। क्या लोग
अब तक, इतना सब कुछ करने के बाद, इतना जोश और लगाव प्रकट करने के बाद, केवल अपनी क्रोध
की भावना का थोथा प्रदर्शन करके ही बैठे रहना पसंद करेंगे? अगर कांग्रेस अनिच्छुक अधिकारियों
को न्याय करने के लिए विवश नहीं कर पाती तो फिर वह अपने अस्तित्व की सार्थकता कैसे
सिद्ध करेगी? अपने सम्मान की रक्षा कैसे करेगी? और उनके खून से सने हाथों से कोई मेहरबानी
स्वीकार करने से पहले यदि वह उनसे अपने किये पर पश्चाताप नहीं
प्रकट करा पाती तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उसने न्याय प्राप्त कर लिया या अपने सम्मान
की रक्षा कर ली?
असहयोग की सर्वोत्तम योजना : इसी कारण मैं असहयोग की
अपनी योजना आपके सामने रख रहा हूं। मैं
आपसे यह इसलिये नहीं कहता कि मुझे अपनी योजना का आग्रह है। मेरे कहने का मतलब यह है कि आप मेरी योजना को जब खूब विचार करके देख
लेने पर दूसरी कोई योजना आपको इससे बढ़कर मालूम न हो, तभी मंजूर
कीजिये । मैं यह दावा करता हूं कि इस योजना को लोगों का काफी
समर्थन मिला है लेकिन मैं आपसे फिर यह कहने की हिम्मत करता हूं कि इस पर अमल करें तो
एक ही वर्ष में स्वराज्य ले सकते हैं। यह विराट समाज इस प्रस्ताव
को केवल पास कर दे, इतना ही काफी नहीं है। देश की मौजूदा हालत
को ध्यान में रखकर दिन-दिन अधिक जोश के साथ लोग उस पर अमल करें, तभी वह फलदायी हो सकता
है।
त्याग और अनुशासन असहयोग के सिवा एक और मार्ग लोगों के सामने था और वह था तलवार उठाने
का, परंतु भारत के पास इस समय तलवार नहीं है। यदि उसके पास तलवार
होती तो मैं जानता हूं कि वह असहयोग की इस सलाह को सुनता तक नहीं, परंतु मैं तो आपको
यह बता देना चाहता हूं कि आप अनिच्छुक शासकों के हाथों रक्तपात के मार्ग द्वारा जबरन
न्याय प्राप्त करना चाहते हों, तो उस मार्ग में भी आवश्यक अनुशासन और त्याग के बिना
आपका काम नहीं चलेगा। मैंने आज तक नहीं सुना कि जिसमें कोई तालमेल
न हो ऐसी किसी भीड़ ने कभी लड़ाई जीती हो। कवायदी सेना को लड़ाई
जीतते मैंने और आपने भी देखा है। ब्रिटिश सरकार या यूरोप की सम्मिलित
ताकत से लोहा लेना हो तो हमें अनुशासन और त्याग पैदा करना ही होगा। मैं
लोगों को उस अनुशासन और त्याग की स्थिति में पहुंचा हुआ देखने का उत्सुक हूं। उस स्थिति को देखने को मैं उतावला हूं। बुद्धिबल
में हम पिछड़े हुए नहीं हैं, परंतु मैं देखता हूं कि राष्ट्रीय पैमाने पर अभी तक हममें
त्याग और अनुशासन नहीं आया है। कौटुंबिक
क्षेत्र में तो हमने अनुशासन और त्याग का जितना विकास किया है उतना संसार के और किसी राष्ट्र ने नहीं किया। उसी वृत्ती को राष्ट्रीय व्यवहार में भी दिखाने
का इस समय मैं आपसे अनुरोध कर रहा हूं।
अंततः काँग्रेस ने गांधी का असहयोग
प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।
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