स्वतंत्र विचारक
वे लोग हैं जो बिना पक्षपात और पूर्वाग्रह के सोच सकते हैं और जिनमें उन चीजों को
भी समझने का साहस होता है जिनकी
उनके अपने
रीति-रिवाजों,
विशेषाधिकारों के साथ टकराहट होती है।
… सही चिंतन कर सकने के लिये यह बहुत आवश्यक है।
लियो टोल्स्तोय
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बाज़ारवाद का महाजाल
साहित्य
से रिक्त समाज,
संवेदनहीन मानवों का हुजूम होता है। वह अर्थपिशाचों का समाज होता है। जिसके जीवन
का एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना होता है – पैसा! पैसा!! पैसा!!! वैश्वीकरण के वेश में हमारी लक्ष्मण रेखाओं के
भीतर आ घुसा अमेरिका-यूरोप पोषित बाज़ारवाद इस पैशाचिक वृत्ति को हवा दे रहा है।
आज यदि शिक्षा और भौतिक विकास के साथ-साथ समाज में भ्रष्टाचार और अपराध भी बढ़ रहे
हैं तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण उदारीकरण के जबरदस्त दबाव में भारतीय समाज का अपनी
धरती के भाषा-साहित्य से, अपनी लोक सम्पदा से, अपनी सांस्कृतिक विरासत से कट जाना है। चीनी कहावत याद आती है कि यदि
छात्र हत्यारा बन जाता है तो उसके शिक्षक को मार डालो। भारतीय परिवेश में किसको
मारें? शिक्षक को या अभिभावक को या मीडिया को या...! यह समझ
में नहीं आता क्योंकि ये सब बाज़ारवाद के महाजाल में फंसे छटपटा रहे हैं।
बुद्धिनाथ मिश्र
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सबसे शक्तिशाली
एक पिता ने अपने
बेटे की बहुत अच्छी तरह से परवरिश की। उसे अच्छी तरह से पढ़ाया, लिखाया और एक सफल इंसान बनाया। बेटा एक बड़ा
अधिकारी बन गया। हजारों लोग उसके अधीन काम करने लगे। एक दिन पिता बेटे से मिलने उसकी
ऑफिस गये। बेटे के चेंबर में जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर अपने बेटे से पूछा, ‘इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान कौन है?’ बेटे ने
पिता को बड़े प्यार से हंसते हुए कहा, ‘मेरे अलावा कौन हो सकता है पिताजी।’
पिता को इस जवाब
की आशा नहीं थी, उसे विश्वास था कि उसका
बेटा गर्व से कहेगा पिताजी इस दुनिया के सब से शक्तिशाली इंसान आप हैं, जिन्होंने मुझे इतना योग्य बनाया। बेटे का जवाब सुनकर पिता की आंखें भर
आयीं। वे चेंबर के गेट को खोल कर बाहर निकलने लगे। उन्होंने एक बार पीछे मुड़ कर
पुनः बेटे से पूछा, ‘एक बार फिर बताओ
इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान कौन है?’
पुत्र ने इस बार
कहा, ‘पिताजी आप हैं, इस दुनिया के सबसे शक्तिशाली इंसान।’ पिता ये सुनकर
आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने कहा, ‘अभी
तो तुम अपने आप को इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान बता रहे थे, अब तुम मुझे बता रहे हो?’
बेटे ने हंसते हुए उन्हें अपने सामने
बिठाते हुए कहा, ‘पिताजी
उस समय आप का हाथ मेरे कंधे पर था, जिस पुत्र के कंधे
पर पिता का हाथ हो वो तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान ही होगा ना।’
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लाजवाब जीवन यात्रा मेरे विचार
(शीत-ऋतु और पिकनिक का तो जैसे चोली-दमन का साथ था। इस दौरान न
जाने कितने पिकनिक आयोजित होते थे जिनमें हम बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। आज की तरह
की सुविधाएं मौजूद नहीं थीं लेकिन आनंद हर्सो-उल्लास आज से कहीं ज्यादा थे। सब आपस
में घुल-मिल जाते और मिल कर सारी व्यवस्था करते। इवैंट मैनेजर नहीं थे, जो भी था परिवार या दोस्तों का समूह, उसी में ही कोई ज़िम्मेदारी लेता और सब मिलकर करते। बच्चे-तो-बच्चे
बड़े-बूढ़े भी बच्चे बन जाते। स्कूल के समय पकड़े हुए क्रिकेट और बैडमिंटन के बैट फिर
से एक बार हाथ में पकड़ अपना जौहर दिखाने बड़े शौक से मैदान में उतर जाते थे, यह एक अलग बात है कि शाम को पैर-कंधे-हाथ विद्रोह कर बैठते थे। पॉण्डिचेरी
आश्रम का वार्षिक पिकनिक तो इनसे अलग था। वंदना जी का लिखा उस पिकनिक यात्रा का
विवरण पढ़ा तो लगा की यह तो मानव की जीवन यात्रा है। पढ़िये शायद आपको भी इसमें उसकी
खुशबू मिल जाये।
दक्षिण में, पॉण्डिचेरी के पास जिंजी-दुर्ग है जो आज भी - ‘खण्डहर
बता रहे हैं इमारत बुलन्द थी' को चरितार्थ करता है। छत्रपति
शिवाजी का यह दुर्ग बहुत मायने रखता है और अंग्रेजों ने तो इसे 'Troy of
East’ का दर्जा दे दिया था। आज यह एक राष्ट्रीय स्मारक है और
पुरातात्त्विक विरासत के संरक्षकों के रख-रखाव में है, अतः
एक अच्छा-खासा पर्यटक स्थल बन गया है। लेकिन आज से करीब ५० वर्ष पहले इसका इतना नाम
नहीं था, हाँ एक पिकनिक स्थल जरूर था, जहां
सैलानी,आश्रमवासी, विद्यालय के छात्र
छात्राएं इत्यादि शीत ऋतु में पिकनिक पर यहाँ चले जाते थे, तब
चहल-पहल से यह क्षेत्र गूंज उठता था। चलें चलते हैं आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व ऐसी
ही एक पिकनिक उर्फ जीवन यात्रा में।)
"पिकनिक'
नाम सुन कर किस की बांछे नहीं खिल जाती? भई,
मेरे जैसों का न केवल मुखमण्डल बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि सर्वांग
खिल उठता है। और फिर वार्षिक 'पिकनिक'!
वह ठहरी लाजवाब। लेकिन इस बार दिल में हलकी धुकधुकी हो रही थी, कारण भी था - पिकनिक के साथ-साथ पैर तुड़ाई थी, यानी
पॉण्डिचेरी से जिंजी- ७३ कि.मी. का रास्ता पैदल तय करना था। यह तो हर साल का
कार्यक्रम है। हाँ, फ़र्क बस इतना था कि इस साल पैदल चलने
वालों की संख्या कुछ तगड़ी थी - ९० बच्चे-बड़े-युवा जब एकत्र हुए तो ऐसा लगा मानों
किसी राजा की छोटी-मोटी टुकड़ी कूच की तैयारी में हो। इनमें जो पहली दफा इस यात्रा
में भाग ले रहे थे उनकी आँखों में एक तरह की शंका, कुछ भय
पढ़ा जा सकता था, कुछ की बत्तीसी खिली जा रही थी, आँखों से आत्मविश्वास फूट रहा था। लम्बे अन्तराल के बाद पैदल यात्रा में
हिस्सा लेने वालों में न आत्मविश्वास का अतिरेक था न थी भय से सर्वथा मुक्ति।
आरम्भ में चारों
तरफ़ उत्साह ही उत्साह उफन रहा था - नियत स्थल 'कॉर्नर
हाउस' से ज्यों ही
हम बाहर आये कि शुभ कामनाओं से लदा-फैदा बन्धु-बान्धवों का बड़ा सा काफिला इन्तजार
करता दिखा। ज़ोर-ज़ोर से बतियाते हँसते चहकते समूह को देख हर रास्ते चलते की आँखों
में कुछ आश्चर्य, कुछ प्रश्न-सा उभरता, लेकिन हम इन सबसे बेख़बर ‘बायें-दायें बायें-दायें ’ की लय में
आगे बढ़ते चले जा रहे थे।
अब हम छह घण्टे
निरन्तर चल चुके हैं, यानी रात के नौ बजे हैं। दृश्य काफ़ी बदल गया है।
सबसे पहले जिंजी पहुंचने का निश्चय लिये दो चार युवकों के उत्साह के साथ-साथ दूसरे
कई उस धारा में उनके साथ हो लिये हैं। जो पीछे रह गये हैं उनके भी उपदल बन गये हैं
और अन्त में मुख्य कप्तान के साथ चल रहे हैं कुछ ऐसे जिन्होंने चाय पीने के स्थान -
'माइलम' के बाद, मन-ही-मन,
जिंजी तक बस में जाने का निश्चय कर लिया है।
प्यास के मारे हलक
सूखा जा रहा है लेकिन कप्तान है कि पानी की एक घूंट तक पीने की अनुमति नहीं दे
रहे। इस समय उनका आदर्श वाक्य बन गया है- 'चलते
रहो, बढ़ते रहो। आखिर एक-एक सन्तरा सबको बाँटा गया, लगा रेगिस्तान में पानी मिल गया, लेकिन ज़रा-सा
सन्तरा, ऊंट के मुँह में जीरा वाली कहावत चरितार्थ कर बैठा।
लीजिये,
तय कर लिया आधा सफ़र गरम-गरम चाय और जैम लगी डबलरोटी खाकर सबने
तृप्ति की साँस ली-तभी कप्तान का स्वर सुनायी दिया जो थक गये हैं उन्हें वापस
पॉण्डिचेरी ले जाने के लिए बस खड़ी है, लेकिन यहाँ से चल
पड़ने के बाद हम जिंजी पहुँच कर ही दम लेंगे। चारों तरफ़ खुसुर-पुसुर चलने लगी,
यहाँ तो पासा पलटा जा रहा है। जिंजी की बजाय वापस पॉण्डिचेरी। थकान
से चूर-चूर होने की शिकायत करने वालों ने सिर खुजाया, कप्तान
को दबी ज़बान से कोसा, उनसे बस से जिंजी जाने की अनुनय-विनय
तक की, लेकिन उन्हें टस-से-मस होते न देख कर आख़िर मन मसोस
कर हरएक अपने-अपने कपड़े झाड़ आगे बढ़ने के लिए प्रस्तुत हो गया।
घनी नहीं फिर भी
अँधेरी रात, तन से थका, लेकिन मन में एक
बार फिर उत्साह का रंग लिये आगे की ओर बढ़ता दल, कोई थकान
शब्द के काले बादल को मन के इर्द-गिर्द से भगाने के लिए जोर जोर से गीत ही गाने
लगा है, कुछ अधिक शर्मीले उसके साथ-साथ गुनगुनाने लगे हैं तो
किसी दल के लोग आपस में पहेलियाँ बुझा रहे हैं। उधर पिछड़े दल को कप्तान बायें-दायें
बायें-दायें के स्पष्ट बोलों पर बाक़ायदा कवायद करवाये लिये चले आ रहे हैं। अभी तो
चाय नाश्ता हुआ, लेकिन दो घण्टों के बाद ही चारों तरफ से भूख-भूख
की गुहार मचने लगी। लो, यह कप्तान भी लाजवाब हैं, जो आधे रास्ते तक हमें दाने-दाने को तरसा रहे थे अब उन्होंने खाने की बात
मुँह से निकलते-न-निकलते सरस खीरे और पक्के-पक्के केले झटपट निकाल कर दे दिये।
रात के साथ-साथ
धीरे-धीरे हमारा दल भी आगे बढ़ रहा है। रात के तीसरे पहर के साथ ठण्डी-ठण्डी बयार
भी बहनी शुरू हो गयी है। हवा में हलकी-सी खुनकी, रात्रि की निस्तब्धता, आकाश से आशीर्वाद की तरह हम
पर छिटकता शीतल प्रकाश-समाँ कुछ ऐसा बंध गया कि सब धीरे-धीरे शान्त से होने लगे।
उस दिन साक्षात् नींद को आँखों में उतरते महसूस किया। पलकों की चिक अनायास आँखों
पर ढलने-ढलने को है और हम हैं कि नींद को भरसक खदेड़ने के प्रयत्न में लगे हैं।
कैसी विडम्बना है, दूसरी रातें अपने नरम बिस्तरों में दुबक
कर पलकें बिछाये आप निंदिया रानी की बाट जोहते-जोहते करवटों-पर-करवटें बदलते रह
जायें और आज ये बिन बुलाये मेहमान की तरह कैसी दनदनाती हुई घुसी चली आ रही हैं।
नींद-नींद का राग
अलापते, शराबियों की तरह इधर से उधर झटके खाते हम किसी तरह
आगे बढ़ रहे हैं, यह कहना ज़्यादा सच होगा कि हमें आगे
बढ़ाया जा रहा है। जी नहीं, सब को नहीं, एक दल जो शुरू से आगे निकल गया है वह तो अब तक अपने गन्तव्य स्थान पर शायद
पहुँच गया होगा। कुछ पर नींद ऐसी हावी हो गयी है कि वहीं चलती सड़क पर लेट जाने के
लिए मचल रहे हैं, दृश्य कुछ ऐसा अलबेला है कि कप्तान एक को
उठायें तो दूसरा बैठने को प्रस्तुत, दूसरे को उठायें तो
तीसरा लम्बलेट हो जाने को तैयार। अन्त में ऐसे लोगों के लिए कप्तान ने दूसरों को आदेश
दे दिया कि जो कोई यूं बीच राह में बैठ
जाये उसे उसके साथी जबरदस्ती उठा कर दौड़ायें। लो, कप्तान के
साथ-साथ अब साथियों की भी गलियाँ सुननी पड़ रही है। कोई बात नहीं, चार-पाँच मील का सफर बाकी है तब तक या तो कानों में रूई ठूंस लो या चिकना
घड़ा बन जाओ।
धीरे-धीरे आकाश के
तारे धुंधले होकर विलीन हो रहे हैं, प्राची
में रंगोत्सव की तैयारी चल रही है। सवेरे के साथ-साथ रात की खुमारी भी आँखों से
छिटक कर दूर जा गिरी ७० कि.मी. मंजिल पार कर ली बाकी है अन्तिम तीन कि.मी.। काम पर
जाते पुरुष, कुँए पर जाती पनिहारिनें – सब रुक-रुक कर हमारे
लंगड़दीन दल को फटी-फटी निगाहों से देखे जा रहे हैं। कोई सलाह दे रहा है अगली बार
बस करके आना, ज्यादा पैसे नहीं लगते बस में! दूसरे के दिमाग
में किसी तरह यह बात नहीं बैठ पा रही कि बिना किसी मकसद के ये लोग यूँ अपने ऊपर
अत्याचार क्यों कर रहे हैं भला? स्त्रियों का कोई दल हमें
निरा बावरा समझ, दाँतों में पल्लू दाबे खी खी खी हंसा चला जा
रहा है। लेकिन अब हमें किसी के उपहास की रत्ती भर परवाह नहीं - लक्ष्य जो करीब है।
लीजिये आ गया जिंजी।
पहले पहुंचे साथियों की तेल मालिश चल रही
है, हम भी निश्चिन्त होकर पसर गये हैं आकर। बस से आया दल हमारी आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़
रहा - हाथ के इशारे-भर की देर है गरमागरम चाय और नाश्ते से सजी तश्तरियाँ हाज़िर
हैं। थकान से चूर-चूर होने पर भी सब की आँखों से प्रसन्नता फूट रही है। रास्ते में
कप्तान को सबसे ज्यादा दुःखी करने वाले, उन्हें रास्ते भर
कोसने वाले अब मंजिल पर पहुंच जाने के बाद उन्हें धन्यवाद देते-देते नहीं अघाते।
इतना ही नहीं, अगली बार फिर से आने का वादा भी कर रहे हैं।
जो थक कर बैठ गया
वह रह गया, लेकिन जो हिम्मत नहीं हारे उन्हें मंजिल मिल गई।
जीवन चलने का नाम,
चलते रहो सुबह शाम
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