चाहे कोई सफलता की किसी
भी हद तक क्यों न पहुंचे,
जमीन से जुड़े रहना
जरूरी है।
जब आप आसमान छूएँ, शांत रहें। मितव्ययी
बनें। विनम्र रहें।
अमीर और मशहूर सम्मान
पाते हैं।
कीमती और महंगी गाड़ियों
से कृत्रिम नशा मिलता है।
लेकिन ओला / उबर से
आपको निश्चित रूप से शांति मिलती है।
दिखावे से ज़्यादा
सादगी को महत्व दें।
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वेलुमनी (थायरोकेयर के संस्थापक)
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अहंकार – सहायक भी, अवरोधक भी
प्रशांत, कॉलेज के एक युवा छात्र के आध्यात्मिक
गुरु हैं श्री स्वामीनाथन, जो एक महान विद्वान और तंत्र योग में निपुण हैं।
प्रशांत अपने गुरु के आश्रम का ही एक निवासी है। प्रशांत ने अपने गुरु को अपने एक
मानसिक संघर्ष के बारे में लिखा कि उसे अपने सहपाठियों से अपनी श्रेष्ठता की भावना
महसूस होती है। उसे लगता कि यह उसका अहंकार है लेकिन प्रशांत अपने को इससे मुक्त
नहीं कर पा रहा था।
उसके गुरु ने जवाब दिया, "इस भावना को बनाये रखो। अपने सहपाठियों पर श्रेष्ठता की गरिमापूर्ण भावना रखने में कुछ भी गलत नहीं है, बशर्ते तुम अपने मन में उच्च आदर्शों को बनाये रखो। यह भावना तुम्हें एक महान जीवन के लिये जागृत करता रहेगा। यह भावना तुम्हें तुम्हारे सहपाठियों के स्तर तक गिरने से रोकेगा और उन सभी हानिकारक आदतों और मूर्खतापूर्ण चीजों में फंसने से रोकेगा जो वे करते हैं।"
अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने
के बाद, प्रशांत आश्रम में अपने गुरु से मिलने पहुंचा।
स्वामीनाथन ने प्रशांत का गर्मजोशी से स्वागत किया और कहा कि उसने अपने जीवन का एक
पड़ाव पार कर लिया है और उसे अब यात्रा के अगले पड़ाव पर जाने की तैयारी करनी है।
प्रशांत ने बताया कि यही समझने और उनका सही मार्गदर्शन प्राप्त करने वह उनके पास आया
है। स्वामीनाथन कुछ देर मौन रहने के पश्चात बोले: "तुम्हारा
आध्यात्मिक झुकाव बहुत प्रबल है और तुम आध्यात्मिक आदर्शों के प्रति खुले हो।
तुम्हारे सामने दो विकल्प हैं-
१.
तुम नौकरी कर सकते हो, विवाह कर सकते हो और गीता में बताये गये
मार्ग के अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर सकते हो। अपने काम में ईमानदार और
कुशल बने रहो, धन कमाओ लेकिन निःस्वार्थ भाव से अपने परिवार और समाज के
गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करो। एक गृहस्थ के रूप में अपनी सभी जिम्मेदारियों को
ईमानदारी से पूरा करो। अपने काम के दौरान जो भी सुख, आराम या
विलासिता तुम्हें मिले, उसका आनंद लो। लेकिन इन सुखों को
लालच में न बदलने दो। दूसरों के साथ अपने रिश्ते में दयालु, परोपकारी
और क्षमाशील बनो। निरंतर ईश्वर को याद करो और अपने सभी कार्य, जीवन और कर्म ईश्वर को समर्पित करो। लेकिन,
२.
अगर तुमको लगता है कि तुम इसके
लिये तैयार हो, तो इस चरण को छोड़ आश्रम में पूर्ण आध्यात्मिक
जीवन के लिये शामिल हो जाओ। लेकिन अगर तुम इसके लिये तैयार हो तब मुझे अपने गुरु से
तुम्हारे बारे में पूछना होगा।
लेकिन कोई भी निर्णय लेने से पहले
इन विकल्पों पर ध्यानपूर्वक विचार कर लो।
प्रशांत
ने गुरु की बातें ध्यान से सुनीं, विचारमग्न मौन रहने के बाद उसने
कहा, "लेकिन मेरा सांसारिक जीवन में
कोई झुकाव नहीं है। मैं इस आश्रम में शामिल होना चाहता हूं और अपने गुरु के मार्ग
पर चलना चाहता हूं।"
स्वामीनाथन ने मुसकुराते हुए कहा, "जल्दबाजी
में कोई निर्णय न लो। तुम यहाँ के शांत वातावरण में कुछ दिन रहो। इससे तुम्हारा मन भी शांत होगा। मैंने
जो कहा उस पर चिंतन-मनन करो। ईश्वर से प्रार्थना करो कि तुम्हें ईश्वर की इच्छा के
अनुरूप सही विकल्प चुनने में सहायता मिले।"
प्रशांत ने अगला दिन लगभग पूरी तरह से
चिंतन में बिताया। तत्पश्चात, उसने अपने गुरु से निश्चय के
साथ कहा, "सर मुझे गहराई से लगता है कि आपने जो रास्ता
चुना है, वही मेरे लिये सही रास्ता है। मुझे वैवाहिक शादीशुदा जीवन में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
स्वामीनाथन ने कहा अब जब तुम इसके लिये अंदर से तैयार हो, मैं अपने गुरु से बात करूंगा। एक हफ़्ते बाद, प्रशांत
को अपने गुरु से एक पत्र मिला, तो उसने बड़ी उम्मीद और चिंता
के साथ पत्र खोला। पत्र में स्वामीनाथन ने सूचना दी थी कि गुरु ने उसके चयन को
मंजूरी दे दी है। प्रशांत के माता-पिता महान आत्मा वाले थे। उन्होंने प्रशांत की
आत्मा के चयन को मंजूरी दी और उसे जाने दिया।
आश्रम
में आने के कुछ महीने बाद, एक दिन स्वामीनाथन ने अपने शिष्य से कहा,
"प्रशांत, यहाँ तुम्हारा पहला आंतरिक
कार्य अपनी चेतना से श्रेष्ठता की भावना को खत्म करना है। इसका एक भी निशान वहाँ
नहीं रहना चाहिये।" प्रशांत हैरान था क्योंकि यह उसके गुरु द्वारा कही गई
बातों के विपरीत था,"लेकिन सर, जब
मैं कॉलेज में था, तब आपने मुझे अपनी श्रेष्ठता की भावना को
बनाये रखने के लिये कहा था।" स्वामीनाथन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "क्योंकि
उस वातावरण में यह तुम्हारी गरिमा और चरित्र को बनाये रखने में मददगार था और
तुम्हें आस-पास के वातावरण के निम्न स्तर पर जाने से रोकता। लेकिन अब तुम एक
बिल्कुल अलग अवस्था में प्रवेश कर चुके हो। तुम आध्यात्मिक पथ पर कदम रख चुके हो;
इस पथ पर तुम्हें जो विकसित करना है वह सच्ची विनम्रता है न कि
श्रेष्ठता की भावना। यदि तुम श्रेष्ठता की भावना को बनाये रखोगे, तो यह केवल तुम्हारे अहंकार को बनाये रखेगा और तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति
को अवरुद्ध करेगा।"
प्रशांत ने पूछा, "क्या इसका मतलब यह है कि जो चीज एक स्तर पर सहायक है, वह अन्य स्तर पर बाधा बन जाती है?"
"बिलकुल",
स्वामीनाथन ने उत्तर दिया, "हमारे गुरु
की एक सूक्ति इस सिद्धांत को सरल और प्रभावशाली शब्दों में प्रस्तुत करती है: 'अहंकार सहायक है, अहंकार ही बाधा है। इच्छा ही सहायक
है, इच्छा ही बाधा है। इसमें
विकास के चरणों का वर्णन है। पहला चरण वह है जहाँ अहंकार और इच्छा सहायक होते हैं।
सभी आध्यात्मिक गुरुओं ने अहंकार और इच्छा के त्याग का उपदेश दिया। लेकिन यह नहीं
पहचाना जाता है कि यह सलाह केवल दूसरे चरण में आध्यात्मिक साधकों पर लागू होती है
और इसे पूरी मानवता के लिये एक नियम या सिद्धांत के रूप में प्रचारित नहीं किया जा
सकता है, क्योंकि मानवता का एक बड़ा हिस्सा अभी भी पहले चरण
में है जहाँ अहंकार और इच्छा सहायक हैं। दूसरे, हम मनुष्य कई
सहस्राब्दियों से अहंकार और इच्छा से प्रेरित हैं। आध्यात्मिक गुरुओं के कहने से
एक झटके में और अचानक इच्छा का त्याग करना आसान नहीं है, क्योंकि
अहंकार और इच्छा के सभी सहस्राब्दी संस्कार हमारे भीतर हैं, अवचेतन
में अंतर्निहित हैं। उन्हें पहले व्यक्ति के प्रगतिशील विकास के लिये इस्तेमाल
किया जाना चाहिये और फिर एक सचेत आंतरिक अनुशासन के माध्यम से समाप्त किया जाना
चाहिये।" व्यक्ति को पहले चरण से क्रम-बद्ध तरीके से दूसरे चरण में लाने के
बाद ही अहंकार का त्याग संभव है।
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परोपकार का सिद्धान्त
डेविड राकॉफ़ लिखते हैं “परोपकार जन्मजात भावना है, लेकिन यह भावना सहजता से जागृत
नहीं होती। हर कोई इसके लिए तैयार तो रहता है, लेकिन इसे
जागृत करना होता है।”
परोपकार, यानि
दूसरों की निस्वार्थ भलाई करना, सेवा करना, चिंता करना। यह एक ऐसा आदर्श है जो सुनने में अच्छा तो लगता है लेकिन
भौतिक जगत में शायद ही इसका कोई अस्तित्व है। अक्सर सबसे नेक इन्सान में भी, जो पूरी तरह से निःस्वार्थी प्रतीत होता है,
कहीं-न-कहीं अतिसूक्ष्म रूप में ही सही, स्वार्थ छिपा होता
है। ‘स्वार्थरहित’ होना ‘निःस्वार्थी’ होने से एक कदम आगे है। स्वार्थ-रहित होने का मतलब है अहंकार को जड़ से उखाड़ देना जो दुनिया को दो
हिस्सों में बांटती है: एक तरफ मैं अकेला और दूसरी तरफ बाकी पूरी दुनिया। इस
अहंकार का पूरी तरह से खत्म होना आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा की पहचान है।
स्वार्थ
इस बुनियादी तथ्य पर आधारित है कि मैं जीना चाहता हूँ लेकिन मैं हर तरफ अन्य अनंत
विविध जीवों से घिरा हुआ हूँ और वे भी जीना चाहती हैं। दूसरों के जीने की इच्छा
मेरे अस्तित्व के साथ संघर्ष में हो सकती है। मानव मन को पूर्ण स्वार्थी जीवन में
कम-से-कम तीन चीजें दोषपूर्ण लगती हैं-
पहला, मैं
अपने अस्तित्व के लिए उन अन्य जीवों पर निर्भर करता हूँ; इसलिये,
अगर मुझे जीना है, तो कम-से-कम उन सभी जीवन
रूपों को जीना होगा जिन पर मेरा अस्तित्व निर्भर करता है।
दूसरा, तर्कसंगत
होने के नाते, मैं तर्क भी देता हूँ कि जैसे मुझे जीने का
अधिकार है, वैसे ही दूसरों को भी जीने का अधिकार है। और,
तीसरा, दूसरों
के अस्तित्व और कल्याण से बेपरवाह होना मुझे कहीं गहरे में असहज महसूस कराता है।
इस
प्रकार, जब भी
मैं दूसरों के कल्याण के बारे में सोचता हूँ, तो मैं अपनी
कुछ भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक ज़रूरतों को पूरा करता हूँ।
जब मैं किसी दान के लिए चेक लिखता हूँ, तो इससे मुझे मिलने
वाली संतुष्टि मेरे लिये दूसरों के लिये किये जाने वाले अच्छे काम से ज़्यादा
महत्वपूर्ण हो सकती है।
‘अहंकार’
और ‘परोपकार’ विपरीत प्रतीत होते हैं,
लेकिन परोपकार में अहंकार का एक तत्व छिपा होता है। विचारों और
भावनाओं को शुद्ध करने के साथ-साथ अपने परोपकारी कार्यों से अहंकार के तत्व को
समाप्त करने की आवश्यकता महसूस होती है। परोपकार का यह कार्य यथासंभव गुप्त रखकर
किया जा सकता है। लेकिन इस ठोस कदम से भी अधिक महत्वपूर्ण है आंतरिक कार्य जो
परोपकारी कार्यों के साथ आने वाली प्रवृत्ति को प्रभावित करता है:
पहला, मैं जिसे दे रहा हूं उस पर कोई
उपकार नहीं कर रहा हूं, जिसे दे रहा हूं वह मुझे सेवा करने
का अवसर देकर मेरा उपकार कर रहा है।
दूसरा, मैं देने वाला नहीं हूं,
मैं केवल उस चीज को आगे बढ़ाने का एक साधन हूं जो मुझे ईश्वर ने दी
है। और,
तीसरा, मैं ईश्वर का आभारी हूं,
जिनकी कृपा से मुझे देने की भूमिका सौंपी गई है।
देनहार कोई और है देवत है दिन रैन
भाग्य
में बस एक छोटे से बदलाव से,
देने वाला और लेने वाला एक दूसरे की जगह हो सकते थे।
अंत
में, देने
वाले और लेने वाले का अलग-अलग व्यक्ति होना केवल एक आंशिक वास्तविकता है। वास्तव
में, दोनों एक हैं, और दोनों की स्थायी
वास्तविकता ईश्वर ही है। आध्यात्मिक अर्थ में, यह
ईश्वर द्वारा ईश्वर को दिया जाने वाला दान है, जो ईश्वर को
दिया जाता है। यह ईश्वर से आता है, और ईश्वर के पास ही लौटता
है। यह अहंकार के विघटन के साथ होने वाली अनुभूति है
जो आध्यात्मिक विकास के शिखर पर पहुँचती है।
क्या किसी व्यक्ति को वास्तव में परोपकारी
कार्य करने में सक्षम होने से पहले विकास के इस स्तर तक पहुँचना आवश्यक है? नहीं, यह
केवल आवश्यक नहीं है, बल्कि ऐसा क्रम बहुत अवास्तविक है।
आध्यात्मिक विकास एक सतत प्रक्रिया है, जिसे परोपकारी
कार्यों द्वारा सहायता प्राप्त होती है। प्रेम का कोई भी कार्य, किसी भी प्रकार का आत्म-दान, भले ही अपूर्ण रूप से
किया गया हो, आध्यात्मिक विकास की ओर एक कदम है। जैसा कि
स्वामी विवेकानंद ने कहा था, जब भी आप किसी और के बारे में
प्रेम से सोचते हैं, तो आप ईश्वर की ओर एक कदम बढ़ाते हैं।
आध्यात्मिक पथ पर प्रगति ऐसे कदमों का संचयी परिणाम है। आध्यात्मिक पथ पर जितना
आगे बढ़ा जाता है, परोपकारी कार्यों में अहंकार का तत्व उतना
ही कम होता जाता है।
परोपकार, एक मानवीय आवश्यकता है। सवाल यह नहीं है कि हमें
दूसरों के बारे में चिंतित होना चाहिए या नहीं, बल्कि यह
केवल परोपकार का आधार है। जैसा कि श्री अरविंद ने कहा है, "जीवन आत्म-पूर्ति है जो पारस्परिकता के आधार पर आगे बढ़ता है; इसमें एक दूसरे द्वारा पारस्परिक सहयोग, और अंत में
सभी के द्वारा सभी का सहयोग शामिल है। अहम प्रश्न यह है कि क्या यह सहयोग अहंकार
के निम्न स्तर यानि संघर्ष, घर्षण और टकराव के साथ किया
जायेगा? या क्या यह हमारे अस्तित्व के उस उच्च स्तर यानि
सामंजस्य, मुक्त पारस्परिकता और एकता के साधन द्वारा किया
जायेगा?"
हमारा
चुनाव ही यह सिद्ध करेगा कि हम दानव बन रहे हैं या मानव?
(डॉ रमेश बीजलनी की रचना पर आधारित)
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