मंगलवार, 1 जुलाई 2025

सूतांजली जुलाई 2025


 

  अपने प्रति ईमानदार रहो -               आत्म प्रवंचना नहीं

          भगवान् के प्रति सच्चे रहो -            समर्पण में सौदेबाज़ी नहीं

          मानवजाति के साथ सीधे रहो -        दिखावा और पाखण्ड नहीं

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विश्वधर्म की अवधारणा

          ‘विश्व धर्म’ की आवश्यकता और स्वरूप पर चिंतन और विचार-विमर्श विश्व भर में होता रहता है। इन विमर्श में विश्व के धार्मिक प्रतिनिधि, चिंतक, मनीषी, वैज्ञानिक अपने विचारों से हमारा परिचय कराते हैं और साथ ही इस बात पर अपनी प्रतिबद्धता भी दर्शाते हैं कि जो है वह न तो समुचित है और न ही विश्व एकता और शांति को लाने में सक्षम है। तब यह प्रश्न उठता है कि क्या धर्म की आवश्यकता है? लेकिन धर्म से तात्पर्य पंथ से नहीं स्वयं सिद्ध अनुशासन  से है। भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का व्यवहार उन मानवीय गुणों यथा सत्य, अहिंसा, करुणा, अपरिग्रह, आत्मसंयम, सन्तोष, शान्ति आदि को इंगित करने के लिए हुआ है जिनका सभी मनुष्यों द्वारा अपनाया जाना आवश्यक है। हर समाधान नये प्रश्न खड़े करती है।  यही कारण है कि हमें ऐसे विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

          यह स्वीकार्य है कि मनुष्य बिना धर्म के नहीं रह सकता, लेकिन वर्तमान धर्म उन हदों को पार कर चुके हैं जहां अब वे धार्मिक संघर्ष और टकराहट का त्याग कर मनुष्य को शान्ति प्रदान कर सकेंगे। तब पहले इस प्रश्न पर विचार करना है कि धर्म से मनुष्य की क्या और कैसी अपेक्षाएं हैं? कमोबेश हम सब चाहते हैं-

·      सभी प्रकार के भय और दुःखों से छुटकारा और चरम सुख-शान्ति पाना,  

·      अपने परिवार और समाज में मिलकर रहते हुए एक दूसरे की सहायता करना और सुख-दुख बांटना,  

·      इस सृष्टि का स्रोत और स्वयं अपने  जीवन का उद्गम जानना,  

·      सर्वोच्च ज्ञान पाना - ऐसा ज्ञान जिसे पा लेने के बाद कुछ और जानने को बाकी न बचे,

·      सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होना,  

·      अपने सच्चे स्वरूप को जानने के साथ जन्म और मृत्यु के रहस्य को भी जानना,

·      और अगर ईश्वर है तो उसके स्वरूप को भी जानना।

          आज के अधिकतर वैज्ञानिक ईश्वर को नहीं मानते, पर उच्च कोटि के कई ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जो न केवल ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं अपितु विज्ञान और ईश्वर में सामंजस्य बैठाने का प्रयास कर रहे हैं। आजकल वैज्ञानिक एक ‘थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग’ की तलाश कर रहे हैं जिसके अनुसार किसी एक सिद्धान्त के आधार पर सारे संसार की और इसके अन्दर होनेवाली घटनाओं की व्याख्या की जा सकेगी। यह देखना है कि क्या थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग मनुष्य के मन की भी व्याख्या कर सकेगी? जिस प्रकार ‘गॉड पार्टिकल’ को लेकर सारा विश्व उत्सुक हुआ उस से जाहिर है कि जनसाधारण के अवचेतन मन में यह धारणा विद्यमान है कि अन्ततोगत्वा विज्ञान और ईश्वर में सामंजस्य का सूत्र हासिल हो जाएगा।

          पर जिज्ञासा मानव-मात्र में होती है आम मनुष्यों में से बहुतों में ईश्वर के बारे में जिज्ञासा है। आम तौर से ईश्वर के बारे में लोग वही मानते हैं जो उनके धर्म ने उन्हें बचपन से सिखाया है। पर मानने और जानने में भेद है। जहाँ तक मानने की बात है, धर्म के क्षेत्र में विभिन्न धर्मों का मानना अलग-अलग है। यदि हमें बचपन से सिखा दिया गया है कि ईश्वर ने दस अवतार लिए जिनमें राम और कृष्ण प्रमुख हैं, या यह कि ईसा मसीह के रूप में ईश्वर का एक ही पुत्र था, या फिर यह कि हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के सबसे सच्चे और आखिरी पैग़म्बर थे तो हम जीवन भर इन मान्यताओं से चिपके रहेंगे और इन मान्यताओं से मुक्त होना प्रायः असंभव होग। हमारे धर्म हमारे ईश्वर से अधिक शक्तिशाली बन गए हैं। हममें से लगभग सभी का धर्म वही है जो हमें अपने परिवार से मिला है। इस तरह धर्म हमारे लिए एक जेल की तरह काम करता है जिसके बाहर जाने की बात हमारे मन में ही नहीं आती। जब कभी धर्मान्तरण के द्वारा कोई व्यक्ति दूसरा धर्म अंगीकार करता है तो वह एक जेल से दूसरी जेल में जाने जैसा ही होता है।

          संसार में झगड़े, टकराहट और हिंसक उपद्रव धर्म की मान्यताओं को लेकर हो रहे हैं न कि धर्म के वास्तविक स्वरुप को लेकर। हममें से प्रत्येक को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है सभी धार्मिक मान्यताओं से मुक्ति

                    मान्यताएँ बनती कैसे हैं? मनुष्य का मन भाषा के माध्यम में काम करता है। मनुष्य के हर चेतन क्षण में उसके अन्दर भाषा उत्पन्न होती रहती है। और उस भाषा पर उसका नियंत्रण नहीं के बराबर है। मनुष्य वह प्राणी है जो सोचता है। रेने देकार्त का प्रसिद्ध कथन "मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ (कॉजिटो एर्गो सुम)"भाषा के बारे में एक और बहुत विशेष बात। शब्द देश-काल में होते हैं, उनका अर्थ देश-काल के परे होता है। शब्दों की गिनती और विश्लेषण संभव है, अर्थ को न गिना जा सकता है, न उसका विश्लेषण किया जा सकता है। वक्ता और लेखक के मुख या कलम से केवल शब्द ही बाहर आते हैं, उसके शब्दों का अर्थ हम नहीं निकाल सकते। इसलिए वक्ता और लेखक अपने शब्दों का किन अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं यह जानने का कोई उपाय नहीं है, हम केवल अनुमान लगा सकते हैं जो अलग-अलग होते हैं। शब्दों के क्षेत्र में गलत समझने और धोखा खाने की प्रबल सम्भावना है। प्रसिद्ध भारतीय भाषा-दार्शनिक भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय में कहा है- कुशल अनुमान करनेवाले विद्वान बहुत यत्न से शब्दों का अर्थ निश्चित करने का प्रयास करते हैं, पर उनसे चतुर विद्वान उन्हीं शब्दों का अर्थ किसी दूसरी ही तरह करते हैं

          केवल संख्यावाची शब्द इसके अपवाद हैं। संख्या वाची शब्दों का अर्थ सदा एक-सा रहता है। धर्म का क्षेत्र प्रारंभ से अन्त तक मत का क्षेत्र है, तथ्य का नहीं। धर्म में किसी भी शब्द का अर्थ निश्चित नहीं है। आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि शब्द हमारी चेतना में गहरा असर रखते हैं। हम इन शब्दों का सही अर्थ नहीं जानते, और इन शब्दों का कोई सही अर्थ है भी या नहीं यह जानने का कोई उपाय भी नहीं है। एक संत मोक्ष पाने के लिए संसार को त्याग कर पहाडों की  कन्दराओं में रहता है तो दूसरा जन्नत में जाने के लिए अपना और औरों का जीवन नष्ट कर देता है।  जबकि कोई नहीं जानता कि मोक्ष या जन्नत है भी या नहीं, और है तो कैसा है। जिस मोक्ष और जन्नत के बारे में हमें कुछ पता ही नहीं है उसे लेकर संसार का त्याग या आत्महत्या और हज़ारों निर्दोष लोगों की हत्याएँ! ऐसा इसलिए है कि धर्म से जुड़े शब्द हमारी चेतना में गहरे संवेग (इमोशन) जगाते हैं, हम इनके आधार पर कभी भी सही तार्किक दृष्टिकोण नहीं अपना पाते। ऐसे शब्दों से भावनाएँ आसानी से भड़काई जा सकती हैं।

          श्री अरविन्द ने कहा है कि विकास की प्रक्रिया में बढ़ते हुए मनुष्य मन की अवस्था पर पहुँचा है, पर उसे मन की अवस्था पर रुकना नहीं है। मनुष्य को मन के ऊपर उठकर अतिमानस की अवस्था की ओर प्रगति करनी है। जे. कृष्णमूर्ति भी यही बात कहते हैं - मनुष्य को मन और अहंकार दोनों के ऊपर उठना है।

          विश्व धर्म कोई सर्वथा नई अवधारणा नहीं है। प्राचीन भारतीय परम्परा को देखें तो यहाँ प्रारम्भ से विश्व धर्म पर दृष्टि रही है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द और रोमाँ रोला ने विश्व धर्म के लिए आवाज़ उठाई थी। संसार के राजनैतिक वातावरण के कारण उस आवाज़ को बल नहीं मिला। पर आज फिर उस आवाज़ को उठाने की आवश्यकता है।

          जिस विश्व धर्म की संकल्पना की जा रही है वह किसी भी वर्तमान सिद्धान्तों, व्यक्ति, संस्थापक, पवित्र पुस्तक पर आधारित नहीं होगी। किसी भी अनुष्ठानों (रिचुअल) पर आग्रह नहीं रहेगा मनुष्यों को चरम सत्य को अपने ही अन्दर खोजने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

          विश्व धर्म का तात्पर्य यह नहीं है कि लोग अपने-अपने धर्मों को छोड़ देंगे। धर्म का एक बाहरी पक्ष है और दूसरा आन्तरिक। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, पर्व-त्यौहार, तीर्थ-यात्रा आदि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान धर्म के बाह्य पक्ष हैं। ये अपनी-अपनी जगह चलते रहेंगे। अपने-अपने रीति-रिवाज का पालन अपनी-अपनी तरह से होते रहेंगे। पर धर्म के आन्तरिक पक्ष में सभी मनुष्य साधना की ओर उन्मुख होंगे। इसके लिए आवश्यक है कि हम सभी प्रकार की मान्यताओं से मुक्त हों जिनके कारण भ्रान्ति और टकराहट पैदा होती है।

          कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं - चिन्तन कभी स्वतंत्र हो ही नहीं सकता। हमारा चिन्तन सदा किसी प्रतिक्रिया के रूप में उदित होता है। उसमें हमारे पहले के सभी संस्कार प्रतिबिम्बित होते हैं। हम उन संस्कारों की सीमा के अन्दर ही सोचते हैं। उन संस्कारों से मुक्त होने का विचार भी हमारे अन्दर नहीं उठता। स्वतंत्र चिन्तक होने के लिए हमें, कृष्णमूर्ति के अनुसार, ज्ञात से मुक्ति (फ्रीडम फ्रॉम द नोन) पानी होगी। यह धर्म के क्षेत्र में भी आवश्यक है और विज्ञान के भी। यही कारण है कि डेविड बॉम जैसे मूर्धन्य भौतिकीविद् भी कृष्णमूर्ति के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हैं। जब तक हम अब तक जाने-सोचे हुए सभी कुछ से मुक्त नहीं होते तब तक हम मन के बन्धन में बने रहेंगे।



                    विश्व धर्म सभी लोगों को मन, भाषा और चिन्तन के स्तर से ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करेगा। यदि हम इस दिशा में प्रयास करें तो हम धार्मिक झगड़ों और दंगा फसादों से ऊपर उठ अपने अन्दर चरम शान्ति, चरम सुख, चरम ज्ञान और अमरत्व का स्रोत भी पा सकेंगे। यह मार्ग सभी मनुष्यों को समान रूप से उपलब्ध है।

          आशा करनी चाहिए कि हम संसार में शान्ति, सद्भावना और सौहार्द के साथ अपना विकास कर सकेंगे।

(अनिल विद्यालंकार के लेखन पर आधारित)

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https://youtu.be/9mm4Bt83kXE

सूतांजली जुलाई 2025

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