मंगलवार, 11 नवंबर 2025

सूतांजली नवंबर (द्वितीय) 2025




 

हम अनेक बार यह प्रतिक्रिया देते हैं कि पता नहीं यह व्यक्ति कौन सी दुनिया में रहता है, पता नहीं ये कौन से लोक के वासी हैं और इसी प्रकार से पढ़े-लिखों और अनपढ़ों की दुनिया, जवानों बूढ़ों और बच्चों की दुनिया, पुरुषों और महिलाओं की दुनिया? और भी न जाने कितनी दुनिया की रचना हम कर डालते हैं। अलग-अलग इतनी सारी दुनिया? कितनी दुनिया है? कैसी दुनिया है? आध्यात्मिक जीवन में आध्यात्मिक लोग इन अलग-अलग लोगों की अलग ढंग से चर्चा करते हैं लेकिन वहीं साहित्यिक लोग इसकी अलग ढंग से चर्चा करते हैं।

          सामान्यतः हम तीन लोकों की चर्चा करते हैं।

          पहला पाताल लोक जहां आसुरी शक्तियों का निवास मानते हैं। पाताल में दैत्य, दानव और नाग जैसे प्राणियों का निवास माना जाता है, जिनमें वासुकि प्रमुख हैं।

          दूसरा भू-लोक है, यानी वह स्थान जहां मनुष्य यानि मानवीय शक्ति निवास करते हैं। और यही प्रेरणा दी जाती है कि हम भू-लोक के निवासी अपने कर्मों से ब्रह्म लोक के वासी बनें।   

          और तीसरा बह्म लोक जहां देवी, देवताओं का वास है।

          कवीन्द्र रवीद्र ने इन से हट कर तीन भूमियों की चर्चा की है जहां हमारा  वास-स्थान है। और ये तीनों ही हमारी जन्म-भूमि है क्योंकि जन्म के साथ ही हम इन तीनों जगत में रहना प्रारम्भ कर देते हैं। पृथ्वी ही नहीं इसके अलावा और दो जगत हैं जहां हम जन्म से मृत्यु पर्यंत वहाँ रहते हैं। वे लिखते हैं हमारी तीन जन्म भूमियां हैं, और तीनों एक-दूसरे से मिली हुई हैं।

पहली जन्मभूमि है पृथ्वी - मनुष्य का वासस्थान पृथ्वी पर सर्वत्र है। ठण्डा हिमालय और गर्म रेगिस्तान, दुर्गम उत्तुंग पर्वत श्रेणी और बंगाल की तरह समतल भूमि - सभी जगह मानव का निवास है। मनुष्य का निवासस्थान वास्तव में एक ही है - अलग-अलग देशों का नहीं, सारी मानव जाति का। मनुष्य के लिए पृथ्वी का कोई अंश दुर्गम नहीं - पृथ्वी ने उसके सामने अपना हृदय मुक्त कर दिया है।

          मनुष्य का द्वितीय वासस्थान है स्मृतिजगत्। अतीत से पूर्वजों का इतिहास लेकर वह काल का नीड़ तैयार करता है - यह नीड़ स्मृति की ही रचना है। यह किसी विशेष देश की बात नहीं है, समस्त मानव जाति की बात है। स्मृतिजगत् में मानव मात्र का मिलन होता है। मानव का वासस्थान एक ओर पृथ्वी है, दूसरी ओर स्मृतिलोक। मनुष्य समस्त पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है और समस्त इतिहास में भी। अतीत में, वर्तमान में और फिर इन दोनों के संयोग से भविष्य बुनता है।

          उसका तृतीय वासस्थान है आत्मलोक। इसे हम मानवचित्त का महादेश कह सकते हैं। यही चित्तलोक मनुष्यों के आन्तरिक योग का क्षेत्र है। किसी का चित्त संकीर्ण दायरे में आबद्ध है, किसी के चित्त में विकृति है - लेकिन एक ऐसा व्यापक चित्त भी है जो विश्वगत है, व्यक्तिगत नहीं। उसका परिचय हमें अकस्मात् ही मिल जाता है - किसी दिन अचानक वह हमें आह्वान देता है। साधारण व्यक्ति में भी देखा जाता है कि जहाँ वह स्वार्थ भूल जाता है, प्रेम करता है, वहाँ उसके मन का एक ऐसा पक्ष है जो 'सर्वमानव' के चित्त की ओर प्रवृत्त है।

          मनुष्य विशेष प्रयोजनों के कारण घर की सीमाओं में बद्ध है, लेकिन महाकाश के साथ उसका सच्चा योग है। व्यक्तिगत मन अपने विशेष प्रयोजनों की सीमा से संकीर्ण होता है, लेकिन उसका वास्तविक विस्तार सर्वमानव-चित्त में है। वहाँ की अभिव्यक्ति आश्चर्यजनक है। एक आदमी के पानी में गिरते ही दूसरा उसे बचाने के लिए कूद पड़ता है। दूसरे की प्राण-रक्षा के लिए मनुष्य अपने प्राण संकट में डाल सकता है। हम देखते हैं कि मनुष्य अपनी रक्षा को ही सबसे बड़ी चीज़ नहीं गिनता। इसका कारण यही है कि प्रत्येक मनुष्य की सत्ता दूसरों की सत्ता से जुड़ी हुई है।

          हम सब एक हैं, अलग-अलग नहीं।

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यू ट्यूब पर सुनें : 

https://youtu.be/DV3Sw7MgcI8


शनिवार, 1 नवंबर 2025

सूतांजली नवंबर (प्रथम) 2025


परिवर्तन के लिए हाथ बढ़ाइए.....

लेकिन मूल्यों को हाथ से जाने मत दीजिये

दलाई लामा

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पुरातन - नूतन का नाता

          आचार्य महाप्रज्ञजी ने एक बार बताया –

          एक आदिवासी नगर में गया। उसने नगर को देखा। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं, बाज़ार, वस्तुएं, भोजन, आभूषण और साज-सज्जा देखी। उसे सब कुछ बहुत सुंदर लगा। जब वह लौट कर जंगल में अपनी झोंपड़ी में पहुंचा तो परिवार के लोगों ने जानना चाहा, नगर कैसा होता है?

          आदिवासी के पास इस सवाल का जवाब नहीं था। वह जानता तो था, पर बता नहीं सकता था। बताता भी कैसे? पूछने वालों ने कभी नगर नहीं देखा था। उन्हें झोंपड़ी के अलावा किसी विशाल घर का कुछ पता नहीं था। वे सूखी रोटियां जानते थे, पकवान क्या होता है, वे क्या जानें?

          यही हाल हमारी समझ का भी है। कुछ नया जानने के लिए पुराना संदर्भ तो होना चाहिए। हम उन सारे संदर्भों को भूलते जा रहे हैं। यही हमारे जीवन की व्यथा है। हमारा पिछला हर कदम हमारी आने वाली यात्रा की तरफ बढ़ाने वाला है। यह बात हमें समझनी होगी। तभी हम वह समझ सकेंगे, जो हम समझना चाहते हैं।”

          पावन कुमार गुप्त का यह मानना है कि अब हमें य समझना होगा कि हम पिछले कई शताब्दियों से जिस रास्ते पर चल रहे हैं अगर उस रास्ते पर चल कर हम सुखी हो रहे हैं, शुभ हो रहा है तो ठीक, वरना हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमने गलत रास्ता चुन लिया है, और साथ ही यह भी कि रास्ते और भी हैं।

हम अपने लोगों के साथ अपने विगत से अपनी वृत्ति, अपने चित्त को समझ कर उसके अनुसार अपना रास्ता चुन सकते हैं। पर क्योंकि कई लोगों को ऐसी बातों से कुछ ऐसा आभास होने लगता है कि पीछे जाने की बात हो रही है, इसलिए यह कहना ज़रूरी है कि पीछे जाना कुछ होता नहीं है। नवीनता तो एक बाध्यता है, ठीक उसी तरह जैसे कर्म एक बाध्यता है।

सवाल यह है कि 'क्या करें?' सवाल यह भी नहीं है कि आगे जाएं या पीछे। चूंकि आगे ही जाया जा सकता है, इसलिए चुनाव सिर्फ इस बात का करना है कि किस प्रकार की नवीनता का प्रयास किया जाए या किस रास्ते पर आगे जाया जाए। हर समाज की अपनी-अपनी नवीनता होती है। पर जिन समाजों का अपने विगत से सहज संबंध होता है वे समाज सहज होते हैं और उनमें एक मजबूती, एक आत्मविश्वास दिखता है। उनका विगत ही वह धरातल देता है जिससे उनके समाज को मजबूती  मिलती है। इसी की वजह से नए विचारों और प्रभावों की आंधी में मजबूत समाजों के पाँव नहीं उखड़ते, बल्कि अपने विगत से इन नई बातों का मेल बिठा कर वे अपने लिए एक सहज नवीनता का निर्माण कर लेते हैं। इस प्रक्रिया में, कुछ विगत का और कुछ नवीन विचारों और प्रभावों का अंश छूटता जाता है और साथ ही दोनों के मिलन से कुछ नए का सृजन भी होता रहता है। यही प्रक्रिया विगत से नाता रखते हुए, समाज को नित नवीन बनाती रहती है।

आधुनिक विचारों, यंत्रों और प्रभावों का आना नियति है। हर समाज इन नए विचारों, यंत्रों और प्रभावों का अपने-अपने तरीके से अपने विगत के साथ मेल बैठाता है और अपनी एक विशिष्ट नवीनता का सृजन करता है। विगत और वर्तमान के योग में एक संगीत होता है। इसके विपरीत हमारे जैसे समाज, जिनका अपने विगत से सहज संबंध नहीं रह गया है - या यह संबंध चोरी-छिपे होता है - वे शंकालु, हर समय स्पष्टीकरण देते, अपने को प्रगतिशील दिखाने की फिराक में नकलची या फिर झूठी शान बघारते दिखते हैं। ये सभी कमज़ोरी की निशानियाँ हैं।

जिस प्रकार मनुष्य और मनुष्य के बीच समानताएं होते हुए अनेक प्रकार की विशिष्टताएं भी हैं, उसी प्रकार अलग-अलग संस्कृतियों, समाजों और सभ्यताओं में भी समानताएं और विशिष्टताएं दोनों एक साथ विद्यमान रहती हैं। इन विशिष्टताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। जब-जब इनकी अनदेखी की जाती है, तो फिर उन्हीं सभ्यताओं, समाजों और संस्कृतियों की मान्यताएं हावी हो जाती हैं जो उस कालखंड में ताकतवर होती हैं।

'वसुधैव कुटुंबकम्' का अर्थ यह नहीं है कि दुनिया के सभी समाज किसी एक ताकतवर सभ्यता के रास्ते पर चलें। बल्कि इसका अर्थ यह है कि सभी को शुभ के अर्थ में अपने तरीके से, सहजता से जीने की छूट हो। सभी अपनी सीरत, अपनी विशिष्टताओं के आधार पर अपनी दुनिया बना सकें।

          मान्यता और वास्तविकता के इस भेद का सामना हमें करना ही पड़ेगा। काफी समय से हम इसे देख कर भी अनदेखा करते रहे हैं। हमें वास्तविकता और अनुभव के सत्य को स्वीकारते हुए इन नई गढ़ी गई मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न लगाना होगा। हिम्मत जुटानी होगी कि उन गढ़ी हुई मान्यताओं को वास्तविकता के आधार पर, ज़रूरत पड़े तो, अस्वीकार कर दें। फिर अनुभव के ही आधार पर इस वास्तविकता को स्वीकार करें कि हमारी और दूसरी सभ्यताओं के बीच समानता होते हुए भी हमारी अपनी अलग विशिष्टताएं हैं। हम अपने विगत को पहचान कर उससे अपने चित्त को समझते हुए कुछ समझ पैदा करें। समझें कि हम कैसे अपने आपको, अपने परिवेश को, पेड़-पौधों, नदी-नालों, पशु पक्षियों, अपने लोक को देखते हैं। यह हमारे लिए श्रेयस्कर तो होगा ही, सहज भी होगा। हमारे लिए यह एक अवसर है कि हम अपनी खोई हुई स्मृति को फिर से जगा कर अपनी दृष्टि से इस जीव-जगत को देखें और विगत से अपना सहज संबंध स्थापित करते हुए अपने अनुभव पर आधारित मान्यताओं के आधार पर अपना जीवन जिएं।

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https://youtu.be/rq46IKoToBo


सूतांजली दिसम्बर (द्वितीय) 2025

  किसने मारा – मैंने या तूने ?           आदित्य राज्य की सेना का सेनापति और शिव का परम भक्त था। युद्ध कला में   कौशल वह राज्य और प्रजा में...