मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

सूतांजली, अक्तूबर २०१७


सूतांजली                                              ०१/०३                                        ०१.१०.२०१७
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मजबूरी का नाम म** *धी
मजबूर! किसे कहते हैं मजबूर? उसे जो परिस्थितिवश बदल जाय  या उसे जो  परिस्थिति को बदल दे ? मैं पूरी तरह भ्रमित हूँ।

दक्षिण अफ्रीका पहुँचते ही वहाँ की रंग भेद नीति की गंध महसूस होने के बावजूद सब की सलाह को दरकिनारे करते हुवे रेल के प्रथम श्रेणी में सफर करने वाला इंसान मजबूर ही रहा होगा?
·        रेल में सफर करने वाले गोरे यात्रियों की परवाह न कर पुलिस के कहने पर भी तीसरे दर्जे में सफर करने  के बजाय प्लैटफ़ार्म पर फेंके जाने के लिए तैयार व्यक्ति मजबूर रहा होगा?
·     अदालत द्वारा पगड़ी को हटाने का निर्देश देने पर पगड़ी हटाने के बदले अदालत छोड़ कर जाने वाला इंसान मजबूर तो रहा ही होगा?
·     बीच सड़क पर अपने ही वतन के लोगों द्वारा इतनी पिटाई खाई की अगर गोरे बचाने नहीं आ जाते तो  वह शायद उसके जीवन का अंतिम दिन होता। कारण-वह अपने सिद्धांतो और विचारों सेमजबूर था।
·   गोरी सरकार और गोरों के हिंसात्मक विरोधों के बावजूद मय परिवार के वापस दक्षिण अफ्रीका पहुंचा। फिर से सड़क पर मार पड़ी। गोरे दोस्तों के कारण बचा। उसकी मजबूरी थी अपने देश वासियों के प्रति अपने उत्तरदायित्व और दिये गए वचन के निर्वाह की।
·    बनारस में मंच पर उपस्थित राजे-महाराजे एवं विशिष्ट-गणमान्य व्यक्तियों की परवाह  न कर उनके ही खिलाफ वक्तव्य देने की कोई तो मजबूरी रही होगी?
·     जब देश के सब साधन सम्पन्न शीर्ष एवं बड़े नेता चंपारण को अनदेखा कर रहे थे किसी मजबूरी के कारण ही वह वहाँ पहुंचा होगा।
·     चंपारण में नीलहे मालिकजिलाध्यक्षन्यायालय एवं सरकार द्वारा चंपारण छोड़ने के हुक्म को मनाने से इंकार करने की भी कोई मजबूरी रही होगी।
·     एक के बाद एक दो मुकदमों- न्यायालय की अवमानना और देशद्रोहमें अपने पर लगे इल्जाम को कबूलते हुवे कहा कि उसे कड़ी से कड़ी सजा सुनाई जाए।  बेचारा मजबूर इंसान।
·    जब पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था उस समय नोआखाली के मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश में जहां हिंदुओं का कत्लेआम किया गया था अपने मुट्ठीभर साथियों के साथ निहत्थे लेकिन निर्भय घूमने के पीछे भी कोई मजबूरी ही रही होगी?
·      नोआखाली में मुसलमानों का हिंदुओं द्वारा मुसलमानों को माफीनामादेने का प्रस्ताव”  रद्द कर कहा कि जघन्य अपराधियों को सबसे पहले बिना किसी शर्त के समर्पण करना चाहिए। कोईमजबूरी ही रही होगी इस निर्णय  की?
·      बिहार के दंगा ग्रस्त इलाके में  एक हिन्दू एक   मुसलमान परिवार की ह्त्या कर  उस परिवार के 2 माह के एक बच्चे को लाया आया और पूछा कि बताओ मैं इस बच्चे का क्या करूँउसने सुझाव दिया कि इस बच्चे के लालन पालन का उत्तरदायित्व तुम लो और इस बात का ध्यान रखो कि यह बच्चा बड़ा हो कर एक सच्चा मुसलमान बने।  क्या मजबूरी रही होगी इस फैसले  की ?

 अगर इसे ही मजबूर इंसानकहते हैं तो हे ईश्वर! हे परवरदिगार! या अल्लाह! अगर तू कहीं है और मुझे सुन रहा है तो हमें ऐसा ही एक, सिर्फ एक ही मजबूर व्यक्ति दे दे।


                                                                           मैंने पढ़ा
गांधी जी का सेव                          (कुरजां से साभार)
वर्धा के गांधी आश्रम में बुनियाद शिक्षा का मसौदा बन रहा था। डॉ. जाकिर हुसैन, के.टी.शाह, जे.बी.कृपलानी, आशा देवी आदि कई लोग मौजूद थे। बापू ने पूछा, “के.टी. अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर रहे हो? सब चुप रहे। के.टी. ने पूछा, “बापू, आप ही बताइये कि कैसी शिक्षा हो? बापू ने कहा, “के.टी., अगर मैं किसी भी कक्षा में जाकर पूछूं कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपए में बेचा दिया तब मुझे क्या मिलेगा? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा यह कहे कि आपको जेल मिलेगी, तब मानूँगा कि आजाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है।बापू के इस सवाल पर सब दंग रह गये। वास्तव में किसी व्यापारी को यह हक नहीं कि वह चार आने के चीज पर बारह आने लाभ कमाये। इस प्रकार बापू ने एक प्रश्न के जरिये नैतिक शिक्षा का संदेश बिना बताये ही दे दिया।

एक विश्लेषण के अनुसार भारत की  प्रथम १०० कंपनियों (निजी एवं सरकारी मिलाकर) का वर्ष २०१६ में शुद्ध लाभ ३,७४,५५७.८१ करोड़ थायानि औसतन ३७४५.५८ करोड़। इस आंकड़े के  १००वां प्रतिष्ठान का दैनिक लाभ २ करोड़ रुपये है।  इन आंकड़ों को गांधी के विचारों के साथ जोड़ कर  समझने की आवश्यकता है। यह न किसी सरकार से संभव है न किसी कानून के तहत। गांधी की  आर्थिक आजादी तो जागरूकता के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।


अहा जिंदगी, जुलाई 2017, अनुपमा ऋतु, पृ. 11
आज दुनिया भर के अर्थशास्त्री पूंजी के नये मायने तय कर रहे हैं। उनकी नई परिभाषा में सबसे ऊपर है मानवीय पूंजी यानि मनुष्यता। दूसरे नंबर पर है सामाजिक पूंजी यानि रिश्ते। तीसरे पर है प्राकृतिक पूंजी यानि पर्यावरण। चौथे पर मानवनिर्मित पूंजी यानि इन्फ्रास्ट्रक्चर और सबसे निचली पायदान पर है आर्थिक पूंजी यानि मुद्रा। 2010 में हुवे एक शोध में यह निष्कर्ष दिया गया कि किसी भी समाज के सुख का मुख्य कारण वैयक्तिक पूंजी नहीं सामाजिक जुड़ाव है। पर विडम्बना यह है कि हमारी दौड़ इस आखरी पायदन पर आकर ठहर गई है।
महात्मा गांधी ने जब कहा कि यंत्र और उद्योग कि परवशता और उससे जन्मी अर्थ पिपासा का इलाज होना चाहिए,तब वे भी हमें विकास, प्रगति और सुख के इन्ही मायनों पर पुनर्विचार के लिए आग्रह कर रहे थे जिनके लिए आज विज्ञान कर रहा है।

हमें अंग्रेजों का राज्य तो चाहिए पर अंग्रेज़ नहीं चाहिए। इस बाघ  का  स्वभाव तो चाहते हैं पर बाघ को नहीं चाहते। मतलब यह कि हम हिंदुस्तान को अंग्रेज़अँग्रेजी तौर-तरीकेशक्ल सूरतवाला बनाना चाहते हैं। पर तब तो वह हिंदुस्तान नहीं इंगलिस्तान कहलाएगा। मैं ऐसा स्वराज नहीं चाहता।

आजादीलेकिन किसकी आजादीकिससे आजादी और कैसी आजादीयह भी तय करना पड़ेगा क्योंकि इसके बिना आजादी आती नहीं हैगुलामी ही रूप बदल कर आ धमकती है।

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