रविवार, 13 मई 2018

सूतांजली, मई २०१८


 सूतांजली                       ०१/१०                                                            मई, २०१८

४ लाख - करोड़ - अरब की गलीच जिंदगी

अभी कुछ समय पहले मासिक पत्रिका अहा!जिंदगी में ऋतु रिचा की लिखी कहानी गलीच जिंदगी पढ़ी। कहानी कोई खास नहीं है लेकिन लिखी बड़ी प्रभावोत्पेदक ढंग से है और इसलिए प्रभावित करती है।

कहानी तो बस इतनी ही है कि एक बच्चा अपनी सौतेली माँ के व्यवहार से तंग आकर घर छोड़ कर भाग जाता है और शनै: शनै: एक भिखारी बन जाता है। रोज सुबह सुबह उठ कर नियत जगह पर जाकर बैठना और भीख मांगना। दिन भर झींकन, चिड़चिड़ाना, झुञ्झुंलाना और कोसना। मन में तमन्ना कि कुछ रुपये जमा हों तो कुछ अच्छा पहने और खाये। नहीं तो वही चिथड़े पहनना और जूठन खाना। बस ऐसे ही अचानक एक दिन भीख मांगते मांगते वहीं लुढ़क गया और फिर कभी नहीं उठा। पुलिस आई, लाश को ठिकाने लगाई और उसके झोंपड़े की साफई की। वहाँ जमीन में दबी एक थैली मिली, बहुत भारी। खुचरे रुपयों और रेजगारी से भरी। थाने ले जाकर गिना गया तो पूरे ४ लाख रुपए निकले।

पहले पढ़ी या सुनी हुई है न! थैली मिली पढ़ते ही पूरी बात भी शायद समझ गए होंगे। कोई आश्चर्य की बात नहीं है, कुछ नया भी नहीं। बहुत हुआ तो एक बड़ा सा नि:स्वाश, और शायद एक गाली भी, ये ४ लाख का कंगाली!!! 

लेकिन ठहरें, जरा नजर उठा कर अपने समाज को देखें, आड़ोस – पड़ोस को देखें, गाँव-कस्बा- शहर पर नजर डालें। क्या आपको ४ लाख ही नहीं ४ करोड़ और ४ अरब के कंगाली दिखाई पड़ रहे हैं? अकूत धन, लेकिन फिर भी सुबह उठने से रात देर सोने तक दोनों हाथों से बटोरने में लगे लोग दिखे? दिन भर झींकन, चिड़चिड़ाना, झुञ्झुंलाना, कोसना और सोचना कि कुछ रुपए हाथ आ जाए तो .......... करूँ। यूं ही सोचते, कहते, करते अचानक एक दिन लुढ़क जाना। दिखे ऐसे लोग? कहीं आप भी तो उनमें एक नहीं?

खुल कर मुस्कुराएं, प्रसन्न रहें, आशीर्वाद दें, मुक्त हस्त बांटे और उन्मुक्त हो कर जीयें। और फिर जीयें ४ लाख में ४ खरब की खुशहाल जिंदगी।

हाँ, है मुझ में दम

गांधीजी की पुण्य तिथि पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में २०१४ में आयोजित एक सभा को सम्बोधित करते हुए श्री गोपाल कृष्ण गांधी ने कहा था, “आज कोई यह नहीं क़हता कि भाई मुझ से गलती हुई है। मैं अपनी गलती कुबूल कर रहा हूँ। आगे मैं अपने आप को सुधारने की कोशिश करूंगा। .... आज हर राजनीतिक हैसियत, राजनीतिक दल और साथ ही वे भी जो अपने को सामाजिक आंदोलन का कर्ता धर्ता मानते हैं – ये सब हिमालय जैसी भूलें कर रहे हैं, पर इनमें से एक भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं”। उन्होने आगे कहा, “गाँधी में चार चीजें ऐसी थीं, जो उन्हे एकदम अनूठा बनाती थीं: उन्हे मृत्यु का भय नहीं था,  पराजय का भय नहीं था,  कहीं कोई उन्हे मूर्ख नहीं मान  ले - इसका उन्हे डर नहीं था और  चौथी बात, सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने से डर नहीं था। आज इन चारों बातों को अगर हम मापदंड के तौर  पर लें और पूछें कि कौन है जो इस  मापदंड पर खरा उतरता है तो बहुत कम लोग मिलेंगे। इसी में  हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है”।

मनुष्य से गलती होना स्वाभाविक है। लेकिन अपनी गलती को स्वीकार न करना, अपराध है। यह मानव को पशु तुल्य बनाती है। मुझे  याद है, हमें यही शिक्षा दी जाती थी कि जीवन में गलतियाँ होंगी, लेकिन अपनी गलती को स्वीकार करो और उसके लिए दिल से क्षमा मांगो । लेकिन आज हर जगह घर हो या विद्यालय, प्रबंधन संस्थान हो या व्यापार जगत, राजनीति या सामाजिक क्षेत्र ठीक इसकी उल्टी शिक्षा दी जाती है – कभी अपनी गलती स्वीकार मत करो। इसी का यह परिणाम है कि पहले जिसे गलती समझी जाती थी अब वही व्यवस्था बन गई है। बड़े ठसक के साथ हम नियम, कायदे, कानून का उल्लंघन करते हैं और कभी यह मानने को भी तैयार नहीं होते कि हाँ, हमसे गलती हुई है’, क्षमा मांगना तो बहुत दूर की बात है। बल्कि इतना और जोड़ देंगे कि कौन अपनी गलती मानता है?’ पहले “वे” माने तब मैं सोचूँ। अब उनसे पूछें कि यह “वे” कौन कौन हैं? कौन बताएगा? उस वे ने गलती मानी या नहीं, इसका निर्णय कौन करेगा?

लेकिन, निराश मत होइए! जिस नई पीढ़ी को हम कोसते रहते हैं, जिनसे हम कोई आशा नहीं रखते, उसी पीढ़ी ने बीड़ा उठाया है इस शिक्षा को फिर से पटरी पर लाने का और उदाहरण प्रस्तुत करने का। हम और कुछ नहीं तो कम से कम इन नौजवान बच्चों के हिम्मत की दाद तो दे ही सकते हैं। यह तो कह ही सकते हैं “मेरे बच्चों रखना इसे संभाल के”।

क्रिकेट जगत में आस्ट्रेलिया का  अपना एक स्थान है। इसी आस्ट्रेलिया के जाने माने खिलाड़ी और कप्तान स्टीव स्मिथ ने स्वीकार किया, हाँ, मैंने  गलती की और इसका मुझे दुखहै। अपनी भूल के लिए उन्होने  माफी मांगी। पत्रकार सम्मेलन में स्मिथ का मनोबल बढ़ाने के लिए उसके पिता पीटर उसके साथ खड़े थे। भारतीय क्रिकेटर कपिल देव ने 
दैनिक अखबार टेलीग्राफ की खबर

टिप्पणी की, मेरा आदर उनके प्रति ज्यादा है जो अपनी गलती को स्वीकार करते हैं”। स्टीव स्मिथ २८ वर्ष का युवा है। 

व्यापार एवं उद्योग जगत में फ़ेस बुक के मालिक मार्क जुकेरबर्ग एक जाना पहचाना प्रतिष्ठित नाम है। उनके व्यापारिक साम्राज्य का मूल्य कई हजार करोड़ रुपए है। उन्होने भी सबके सामने अपनी गलती स्वीकार की और क्षमा याचना की। अपने गलत कार्य के कारण सुर्खियों में आने के बाद से उनकी कंपनी का मूल्य लगातार गिरता जा रहा था। लेकिन जूरी के सामने अपनी गलती स्वीकार करते ही उनकी कंपनी के शेयर का मूल्य गिरने के 
सन्मार्ग की रिपोर्ट

टेलीग्राफ की रिपोर्ट

बजाय बढ़ना शुरू हुआ। मार्क जुकेरबर्ग ३३ वर्षीय युवा ही हैं।

इस कड़ी में एक भारतीय भी है। राजनीति से जुड़े, दिल्ली के मुख्य मंत्री, अरविंद केजरीवाल। अपनी गलत बयानी और अशोभनीय टिप्पणियों के कारण हर समय  विवादों में घिरे रहे, मानहानि के मुकदमे लड़ते रहे लेकिन आखिर उन्हे भी समझ आई कि लड़ना नहीं बल्कि गलतियों के लिए माफी मांगना ही असली विजय है। और फिर लिखित में अपनी गलती को स्वीकारा और माफी मांग ली। नतीजा – मानहानि के मुकदमे हटा लिए गए। उनका कद छोटा होने के बजाय बढ़ गया। और स्वत: ही अपनी जबान पर काबू भी पा लिया। ४९ वर्षीय अरविंद को भले ही युवा न समझें लेकिन बुजुर्ग के श्रेणी में तो हरगिज नहीं आते।

२०, ३० और ४० के लोगों ने अपनी भूल सुधारने की कोशिश की और गलती स्वीकार की। आवश्यक  है औरों को आगे बढ़ कर कहने की,हाँ, मुझ से गलती हुई, मुखे दुख है, मैं माफी मांगता हूँ आगे से ध्यान रखूँगा कि मुझसे कोई भूल न हो”। अगर गलती की है तो उस पर अड़े रहने के बजाय उसे सुधारें, भूल स्वीकार करें, सही दिशा की तरफ मुड़ें, लोगों को नई राह दिखाएँ।

हम  युवाओं के प्रति अपनी सोच में परिवर्तन करें। हम और उदाहरण पेश करें, गोपाल कृष्ण गांधी  को बता दें कि हम कमजोर नहीं हैं। महात्मा की तरह निडर बनें। है आप में दम? स्टीव स्मिथ, मार्क जुकेरबर्ग और अरविंद केजरीवाल ने तो कहा,हाँ, है मुझ में दम”।


शनिवार, 12 मई 2018

सूतांजली, अप्रैल २०१८


 सूतांजली                       ०१/०९                                                 ०१.०४.२०१८

पैड मैन
जी हाँ, मैं अक्षय कुमार की फिल्म पैड मैन की ही बात कर रहा हूँ। पिछले कुछ समय से देश प्रेमी, सुरक्षा कर्मी, ईमानदार नागरिक के   अभिनय की भूमिका में ही दिखा है। ऐसी ही कोई कहानी होगी, यही सोचकर गया था पैड मैन देखने। लेकिन यह फिल्म औरतों से जुड़ी उनकी निजी-व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्या पर आधारित है। पैड यानि सैनिटरी पैड। जानकारी के अभाव एवं रूढ़ियों के चलते खुल कर न बोल पाने के कारण देश की करोड़ों महिलाएं अपने मासिक रक्त स्त्राव के संबंध में चर्चा करने से कतराती हैं। अत: अनेक कष्टों को सहती हैं और रोगों से ग्रसित होती हैं  फिर भी मौन रहती हैं। कुछ समय पहले अमिताभ जी द्वारा संचालित टीवी सीरियल कौन बनेगा करोड़पति में एक सामाजिक संस्था  गूंज ने भी इस समस्या का जिक्र किया था और देश के नगरिकों को औरतों की इस दयनीय दशा से अवगत कराया। खैर, यह तो वह मुद्दा है जिस पर यह  फिल्म आधारित है।  लेकिन इसके साथ साथ कई अन्य मुद्दे भी कहानी में पिरोये गए  गए हैं।

१।  आर्थिक परिस्थिति  - देश की अधिकतर जनता गांवों में रहती है और गरीबी में किसी प्रकार अपने परिवार को चलाती है। समुचित कमाई के अभाव में उपलब्ध महंगे उपाय अधिकतर औरतें अपनाने में असमर्थ हैं। उस अतिरिक्त खर्च से उनकी अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शहर-विद्यालय-कॉलेज  की पढ़ी लिखी  औरतों को विश्वसनीय उपाय चाहिए और उसके लिए कुछ भी खर्च करने में वे जरा भी नहीं  हिचकती  हैं। लेकिन जितने रुपयों का उनके लिए कोई महत्व नहीं, उतने रुपए हमारे देश की अधिकतर औरतों के लिए परिवार के आर्थिक अस्तित्व का सवाल खड़ा कर देती हैं। उन्हे स्वदेशी सस्ता उपाय चाहिए  जो उनकी जेब के अनुरूप हो।

२।  हमारी साखदेश की राजधानी, दिल्ली में नायक को सम्मान और पुरस्कार मिलने पर गाँव  वाले नायक का स्वागत करते हैं, खुशी मनाते हैं, सम्मान देते हैं। लेकिन फिर जब उस सम्मान और पुरस्कार का कारण पता चलता है तब वापस वही पुराना तिरस्कार झेलना पड़ता है। फिर कुछ  समय बाद हमारा वह  नायक उन्हीं कारणों से विश्व मंच पर सम्मानित होता है। तब वही गाँव वाले उसे सिर आँखों पर बैठा लेते हैं।  ऐसा क्यों? हमारी जनता अपने देश द्वारा दिये गए सम्मान को उतना महत्व  क्यों नहीं देती! उसमें नुक्ताचीनी करती है! लेकिन जब वही सम्मान पश्चिम से घूम कर आता  है तब उसे स्वीकार कर लेती है! हमारी जनता को  पश्चिमी पर ज्यादा भरोसा क्यों है? या फिर हमारी सस्थाओं ने अपनी ही जनता का विश्वास खो दिया है?  हमें अपनी जनता का विश्वास हासिल करना होगा।

३। मित्र की आवश्यकताहमें अपने जीवन के हर दुर्गम मोड़ पर एक सच्चे  मित्र की आवश्यकता होती है। कठिन समय में वही हमारी सहायता करता है, सही मार्ग दिखाता है। हमें कठिनाइयों से निकालता है लेकिन उसके बदले कोई चाह नहीं होती।  आध्यात्मिक भाषा में हम उसे  ही गुरु कहते हैं। चेले ने गुरु को नहीं खोजा, गुरु ने ही चेले को खोजा। हम  सत्पथ और सेवा भाव अपनाएं, गुरु अपने आप सहारा देने आ जाएंगे

४। पढ़ें और गुनें  – आज अपनी गति के कारण हमारे पास न तो पूरा पढ़ने का समय है, न सुनने का, न गुनने (समझने) का।  आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही शेष रह गयी है। तेज़, और तेज़, और तेज़, आखिर भागकर हम कहाँ पहुंचना चाहते हैं? यह हमें पता ही नहीं है। बिना पढ़े, सुने और  गुने करने और बोलने के लिए हम व्याकुल  हैं। नायक के गाँव वालों ने नायक को मिले सम्मान और उसकी फोटो ही देखी। क्यों मिला? यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। हमारा भी यही हाल है। सिर्फ पढ़े  नहीं, बल्कि गुनें

मैंने पढ़ा
सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और धन से चलने वाली संस्था

 .......(नेटाल इंडियन काँग्रेस के) कोष में लगभग 5 हजार पौंड जमा हो गये। मेरे मन में लोभ यह था कि यदि कांग्रेस का स्थाई कोश हो जाए, तो उसके लिए जमीन ले ली जाए और उसका भाड़ा आने लगे तो काँग्रेस निर्भय हो जाये। सार्वजनिक संस्था का यह मेरा पहला अनुभव था। मैंने अपना विचार साथियों के सामने रखा। उन्होने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गए और भाड़े पर उठा दिये गए। उनके किराये  से काँग्रेस का मासिक खर्च आसानी से चलने लगा। संपत्ति का सुदृड़ ट्रस्ट बन गया। यह संपत्ति आज भी मौजूद है, पर अंदर-अंदर वह आपसी कलह का कारण बन गई है और जायदाद का किराया आज अदालत में जमा होता है।

यह दुखद घटना तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के बाद घटी, पर सार्वजनिक संस्थाओं के लिए स्थाई कोष रखने के संबंध में मेरे विचार दक्षिण अफ्रीका में ही बदल चुके थे। अनेकानेक सार्वजनिक संस्थाओं की उत्पत्ति और उनके प्रबंध की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद मैं इस दृड़ निर्णय पर पहूंचा हूँ कि किसी भी सार्वजनिक संस्था को स्थाई कोष पर निर्भर रहने  का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसमें उसकी नैतिक अधोगति का बीज छिपा होता है।

सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और लोगों के धन से चलने वाली संस्था।  ऐसी संस्था को जब लोगों कि सहायता नहीं मिले, तो उसे जीवित रहने का अधिकार ही नहीं रहता। देखा यह गया है कि स्थाई संपत्ति के भरोसे चलने वाली संस्था लोकमत से स्वतंत्र हो जाती है और कितनी ही बार वह उल्टा आचरण भी करती है। हिंदुस्तान में हमें पग-पग पर इसका अनुभव होता है। कितनी ही धार्मिक माने जाने वाली  संस्थाओं के हिसाब-किताब का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। उनके ट्रस्टी ही उनके मालिक  बन बैठे हैं और वे किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं हैं। जिस तरह प्रकृति स्वयं प्रतिदिन उत्पन्न करती और प्रतिदिन खाती है, वैसी ही व्यवस्था सार्वजनिक संस्थाओं की भी होनी चाहिए, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। जिस संस्था को लोग मदद देने के लिए तैयार न हों, उसे सार्वजनिक संस्था के रूप में जीवित रहने का अधिकार नहीं है। प्रतिवर्ष मिलने वाला चंदा ही उन  संस्थाओं की लोकप्रियता और उनके संचालकों की प्रामाणिकता की कसौटी है, और मेरी यह राय है कि हर एक संस्था को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए। .......... सार्वजनिक संस्थाओं के दैनिक खर्च का आधार लोगों से मिलने वाला चंदा ही होना चाहिए
गांधी, आत्मकथा

धर्म का विशेषण
धर्म को मैं निर्विशेषण देखना चाहता हूँ। आज तक उसके साथ जितने भी विशेषण लगे हैं, उन्होने मनुष्य को बांटा ही है। आज एक विशेषण रहित धर्म की अवशयकता है, जो मानव-मानव को आपस में जोड़, यदि विशेषण ही लगाना चाहें तो उसे मानव-धर्म कह सकते है।

ब्लॉग विशेष
आजाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है। गुलाम आदमी यही दिलेरी खो चुका होता है।
 
प्रख्यात फिल्म अभिनेता बलराज साहनी द्वारा १९७२ में जेएनयू के दीक्षांत समारोह में दिये गए व्याख्यान के संपादित अंश                                                                           गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त २०१७, पृ १२

बुधवार, 9 मई 2018

सूतांजली, मार्च २०१८


 सूतांजली                       ०१/०८                                                 ०१.०३.२०१८

नव वर्ष - नव संकल्प - नव संवत्सर
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा २०७५, तदनुसार १८ मार्च २०१८
आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:  - (ऋग्वेद १-८९-१)
 जहां कहीं से श्रेष्ठ विचार मिलें, ग्रहण करना चाहिए।
नव वर्ष का सूर्योदय हम बिस्तर पर न  गवायें। न ही सिर्फ घूमने-फिरने, नाचने- कूदने, पकवान-मिष्ठान्न  खाने में व्यर्थ करें।   नव वर्ष के प्रारम्भ में  हम पुरानी भूलों को अवश्य याद करें। उन भूलों पर विचार करें और तब आगे की मंजिल देखें। इस बात पर गौर करें कि सामने वाले ने कम दिया या हमरी अपेक्षाएँ ज्यादा थीं? हरीन्द्र दवे के अनुसार,’किसी का प्रेम कम नहीं होता, हमारी अपेक्षाएँ ज्यादा होती हैं। इस सत्य को स्वीकार करें कि इस जीवन में सब कुछ नहीं पाया जा सकता लेकिन अपनी समझ एवं सकर्म के मेल से बहुत कुछ पाया जा  सकता है। जो हासिल नहीं कर पाये हैं उसके मिलने की संभावना बनी हुई है। पाने का यत्न ही गतिशीलता है और गतिशीलता ही हमारी विजय है। गलतियाँ तो उसी से होंगी जो कार्य  करेगा। या तो उन गलतियों का सुधार कर लिया जाय या फिर छोड़ दिया जाए। भाषा में, कर्म में, कहीं भी चूक हो तो हम उसे समझें और उसका निदान भी निकालें। यह इंसान से ही संभव है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी गलतियों – भूलों को समझते हैं? क्या हमारे पास इतनी फुर्सत है कि हम अपने आप को निहार सकें? क्या हमारा संवाद हम से होता है? क्या हमारी व्यस्तता महज भागमभाग है, संबंध औपचारिकता मात्र, धर्म केवल अनुष्ठान हैं? सत्य अनेक आयामी भ्रम हो गए हैं, प्रगति अनिश्चित गंतव्य हो गया है, प्रेम मृग मरीचिका बन गई है, ज्ञान कुतर्क और संवाद हठधर्मिता बन गई है। द्रव्य की इस अंधी दौड़ में हमें यह पता नहीं है कि हमें कितना धन चाहिए,  किस लिए चाहिए? हमारी चाह क्या है  और उस चाह की पूर्ति के लिए कितना द्रव्य चाहिए? अत: निराशा आनी स्वाभाविक है।

पिछले वर्ष भी सबों ने योजनाएँ बनाई होंगी। किसी की पूरी हुई, किसी की नहीं। यह संभव है कि योजना को पूरा करने के लिए और कुछ समय चाहिए। विभिन्न कारणों से कार्य पूरा नहीं हुआ, लेकिन व्यर्थ भी तो नहीं गया। कुछ तो सीखा? यदि हम कुछ सीखेंगे तभी औरों को कुछ सीखा पाएंगे। हमारी आत्मा सबसे पहले हमें सावधान करती है। इसका संकेत करती है। हमारे हर गलत कार्य  पर वह अलार्म बजती है। लेकिन हम अनसुना कर देते हैं। स्वप्न को कभी व्यर्थ न जाने दें, उसे यथार्थ बनाएँ। कुछ सपने तो कभी साकार नहीं होते लेकिन जिन्हें पूरा करना संभव है उन्हे करें या फिर करने का प्रयास करें। यही हमारा पुरुषार्थ है। कला व जीवन दोनों को आत्मीयता से रचा जा सकता है। समझदार लोग कला को जीवन तथा जीवन को कला बना लेते हैं।  हमारे सम्मुख हमारा भविष्य है और पीछे भूतकाल। दोनों हमारी पकड़ के बाहर है। अत: वर्तमान को गहराई से साधें। हर क्षण को विशिष्ट माने। विशिष्टता हमारे कौशल और दृष्टि में है, यही पारस है, लोहे को सोना बना सकती है।  कठिनाइयाँ हमारे लिए अच्छी राह  बना सकती हैं। इनका उपयोग करना सीखें। अपने श्रम, कल्पना, बुद्धि, मनोभाव को तरल बनाएँ। उनको स्नेह भरा बनाएँ तभी दीया जलेगा। यह दीया हमारे साथ साथ दुनिया को भी प्रकाशित करेगा।
(परिचय दास से अनुप्रेरित)
दूसरों के त्योहारों को मनाना, संस्कृति को अपनाना उत्थान का द्योतक  है। लेकिन उसकी चकाचौंध में  अपनी भूल जाना पतन की निशानी है।

मैंने पढ़ा

इसी उम्मीद में है इंतजार होली का
होली शब्द के उच्चारण मात्र से मन में हिलोरें उठने लगती हैं और पूरा अस्तित्व सब कुछ भूलकर बचपन की  यादों में डूबने उतराने लगता है। सात-आठ बरस की रही होऊँगी – यानि १९४२-४३ के समय की याद आती है। तब पिताजी लखनऊ के जुबली कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते थे। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब के बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। खां साहब हमारे ताऊ जी थे और उनकी बेगम हमारी ताई। हर बरस उनके घर से सुबह-सुबह हमारे घर बड़ी स्वादिष्ट सिवईयाँ आतीं और शाम को साज-धज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम भाई-बहन। और होली के दिन सबसे पहली पिचकारी खां ताऊ को भिगोती। अस्मत और इफ़्फ़त आपा कितना भी भागें या छुपें हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा नहीं छोड़ते। शाम को हम खूब सारे होली के पकवान लेकर उनसे होली मिलने जाते। वे लोग हमारे लाए लड्डू, पपड़ी, खुरमे, शक्करपारे और खासतौर से मावे भरी गुझियाँ बहुत स्वाद ले-लेकर खाते और असीसते। ताई बेगम की मैं  सबसे लाड़ली थी। हर होली पर वे अपने हाथों से बनाई कपड़े की गुड़िया जरूर देती थीं। गुड्डा इफ़्फ़त  झटक लेती थी। फिर सावन में हम दोनों उनका ब्याह रचाते थे। ओह! रे मीठे प्यारे बचपन! होली आने के पाँच दिन पहले घर के दो शरारती बच्चे एक तो मैं और दूसरा मेरा छोटा भाई,  हम दोनों सुबह-सुबह निकल जाते थे और मोहल्ले भर का चक्कर लगा कर गाय का गोबर इकट्ठा करके घर लाते थे। हम तीनों बहनें गोबर की चपटी लोइयाँ बनाकर अंगुली से बीच में छेद बनाकर धूप में सूखने रख देतीं। हम तीनों बहनें अपने भाइयों का नाम ले-लेकर गीत गातीं और उनके ढाल और तलवार की शक्ल की लोइयाँ बनातीं । सूखने के बाद होली दहन वाले दिन इस छेदों के बीच से सुतली पिरोकर छोटी-बड़ी मालाएँ बनाई जाती थीं। रात को आँगन में अम्मा एक चौकोर अल्पना बनतीं और विधिवत पूजन के बाद सबसे पहले बड़ी वाली माला गोलाकार बिछाई जाती और क्रमानुसार उससे छोटी मालाएँ एक-एक करके एक-दूसरी के ऊपर टिकाई जातीं और इन मालाओं का एक पिरामिड जैसा बन जाता। फिर मंत्रोच्चारण के साथ पिताजी होलिका दहन करते। हमारा भरा-पूरा घर परिक्रमा लगाता। हम गन्ने और हरे चने के होराहे उन लपटों में भूनते।

और फिर वह क्षण आता, जब हम छोटे बच्चों का गहन इंतजार खत्म होता और मुंह में पानी भर आता। कई दिन से अम्मा गुझियाँ तथा अन्य  पकवान बना-बनाकर कलसों में भरकर रखती जाती थीं और कहती थीं, होली जलाने के बाद रोज खाने को मिलेंगे। अब थके मांदे सब सोने जाते, पर नींद कहाँ आती थी। सुबह से ही रंग-गुलाल से होली जो खेलनी थी। ..........

कैसी मनोहारी परम्पराएँ थीं। पहली रात में होली के साथ सारी दुशमनी जला दी जाती थीं। दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों  से धो दिए जाते थे और शाम को खुले मन से प्रेम-प्यार के वातवरण में सब एक-दूसरे से गले मिलते थे। धीरे-धीरे हमारे देखते-देखते पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में लोग यह सब भूलते गए और अब तो “हैप्पी होली” कह दिया और हो ली होली
साभार – पुष्पा भारती, आहा!जिंदगी मार्च २०१७
जरा ठहरें, और विचार करें। सांप्रदायिक सौहार्द की इस ऊंचाई से हम इस  खड्डे में क्यों और कैसे गिर गए? औरों के दोष ढूँढने के बदले पहले हम खुद में ढूँढे।

किसी के हम काम न आए, न कोई अपने काम आया,
ताज्जुब है कि तो भी, जुमर-ए-इनसा में नाम आया।
१ मनुष्य की श्रेणी में

मंगलवार, 8 मई 2018

सूतांजली, फरवरी २०१८


  सूतांजली                         ०१/०७                                                 ०१.०२.२०१८

आपण कै चीज रो काम?
कोलकाता एक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक शहर है। अंग्रेजों के समय जब राजस्थान से मारवाड़ी काम काज ढूंढते अपनी जन्मभूमी छोड़  बाहर निकले तो कोलकाता की तरफ अपना रुख किया। उस समय कोलकाता का नाम कलकत्ता था। आज कोलकाता को राजस्थान के बाहर, राजस्थान की राजधानी कहते हैं। इसी शहर के एक सुपरिचित व्यापारी एवं उद्योगपति हैं रविजी। अपनी  भाषा एवं संस्कृति के प्रति जागरूक। विद्यालयों एवं सामाजिक संस्थानों से जुड़े हैं। केवल कथनी में नहीं आचरण में भी इसकी झलक देखने को साफ नजर आती है। शहर की एक संस्था  ने कई प्रतिष्ठित राजस्थानियों को अपने जीवन के अनुभव बताने का न्योता दिया था। उसी सभा में  रविजी ने अपने संस्मरण बताये।

उन्होने बताया कि राजस्थान  से आए अपने एक बुजुर्ग चाचा से मिलने वे उनके पास गए। साथ में बेटी भी थी। पढ़ी लिखी एवं अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिला कर उनका व्यापार भी संभालती थी। औपचारिक कुशल क्षेम एवं परिचय के बाद चाचा ने अपनी राजस्थानी भाषा में प्रश्न किया, “आपणो कै चीज रो काम?” (अपने क्या व्यापार  है)। रवि ने बताया। और उसके बाद प्रश्नों की झड़ी लग गई। यथा, कारख़ाना कहाँ है? कितने का माल बेच लेते हो? कहाँ कहाँ बेचते हो? बेचने का क्या तारीका है? कच्चा माल कहाँ से और कैसे खरीदते हो? बनाने की लागत क्या आती है? क्या खर्चा पड़ता है? बचता कितना है? उधारी का क्या हिसाब है? रविजी धैर्य से सब प्रश्नों का जवाब दिये जा रहे थे। बेटी बैठी आश्चर्यचकित एवं अधीर हो रही थी। उसके चहरे पर प्रश्न चिन्ह भी था। लेकिन चाचा उससे बेखबर लगातार प्रश्न किए जा रहे थे साथ ही  जहां जहां उनके समझ में आ रहा था उचित सलाह  भी देते जा रहे थे। रविजी के द्वारा दिये गए आंकड़ों का हाथों हाथ विश्लेषण कर उनके उत्तरों में कहाँ भूल है, क्या होना चाहिये इस पर भी रवि का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। वार्ता के अंत में उन्होने उनके व्यापार का एक प्रकार से पूरा तलपट मय नफे नुकसान के उनके सामने रखा दिया। उनकी बेटी पहले ही इस वार्ता से बेचैन बैठी  थी। वहाँ से निकलते ही उसके प्रश्न शुरू हो गए। ये चाचाजी कौन हैं? आज तक इनके बारे में नहीं सुना? इन्होने पूछा  “अपने” क्या काम है? क्या हमारा काम उनका है? हमारे साझेदार हैं? हमारे व्यापार में इनको इतनी रुचि क्यों है? और आपने उनके सब प्रश्नों के उत्तर क्यों दिये, आदि आदि।

रविजी कहते हैं, उसकी यह जिज्ञासा सहज और समयानुकूल  ही थी। मेरे लिए उसे समझाना आसान नहीं था। लेकिन फिर भी मैंने प्रयत्न किया। मैंने उसे बताया कि एक समय हमारा साझा-संयुक्त परिवार था। आज के एक्स्टेंडेड (वृहद) परिवार की  परिभाषा से भी ज्यादा बड़ा। उसमें “मेरा” “तुम्हारा” कुछ नहीं था सब “अपना” था। और इस लिए “तुम्हारा” शब्द का प्रचालन भी नहीं के बराबर था। सब प्रश्न अपनापन लिए ही होते थे। यथा, अपने क्या काम है? अपने कहाँ रहते हैं, अपने कितने बच्चे हैं? क्या अपने बच्चों का विवाह हो गया?  आदि आदि। बुजुर्ग भले ही कम लिखे-पढ़े रहे हों लेकिन उनमें आत्मीयता थी, आपनापन था। सत्य पूछने और बतलाने में संकोच नहीं था। परिवार के सब सदस्य एक दूसरे के अनुभव से लाभ उठाते थे और बिना मांगे उचित सलाह देने में संकोच नहीं करते थे। उनका ध्यान खुद की नहीं पूरे परिवार की प्रसन्नता, सुख और उन्नति की तरफ होता था। वे कर्म सुख लेने के लिए नहीं देने के लिए करते थे।  हमलोगों की अप्रत्याशित उन्नति का यह भी एक कारण था।

रविजी ने आगे कहा बेटी को उसके  सब प्रश्नों के उत्तर मिल गए। लेकिन वह विचार मग्न थी। उसके चेहरा पर कई प्रश्न टंगे थे, यह साफ दिख रहा था। लेकिन उसने न कुछ कहा न कुछ पूछा। शायद वह समझ गई थी कि उन प्रश्नों के उत्तर उसे ही ढूँढने होंगे।
                                                                                                         
मैंने पढ़ा

विडम्बना : एक पुस्तक में पड़ी गीता और कुरान आपस में कभी  नहीं लड़तीं और जो उनके लिए लड़ते हैं वो उनको कभी नहीं पढ़ते।
शब्द : शब्द मुफ्त में मिलते हैं, लेकिन उनके चयन पर निर्भर करता है कि उसकी कीमत मिलेगी या चुकनी पड़ेगी।
रुपया और इंसान : रुपया जितना भी गिर जाए, मगर इतना कभी नहीं गिर पाएगा जितना कि रुपए के लिए इंसान गिर चुका है।
असली चेहरे : रहने दो मुझे इन अँधेरों में गालिब, कमबख्त रोशनी में अपनों के असली चेहरे सामने आ जाते हैं।
सीख : अगर सीखना ही है तो,  आँखों को पढ़ना सीख लो, वरना लफ्जों के मतलब तो हजार निकलते हैं।
जवाब : परिंदे से किसी ने पूछा, “आपको गिरने का डर नहीं लगता?” परिंदे ने कहा, “मैं इंसान नहीं, जो जरा सी ऊंचाई पाकर अकड़ जाऊँ।”
प्रस्तुति: अहा!जिंदगी, दिसंबर२०१७, श्रीकांत, मुंबई
संख्यासुर                                                                          
.......फिर आया पश्चिमी ढंग का लोकतन्त्र, जिसने संख्यासुर का  बीज बोया। इसने आदमी की गुणात्मकता को खारिज कर दिया और संख्या को देवता बना दिया। दोष तब भी कम नहीं थे, जब गुणात्मकता को डंडा बना कर, सुविधा प्राप्त लोग आमजन को खारिज कर, भूलुंठित किए, अपनी ऐंठ में चलते थे। फिर जैसे जैसे सामाजिक चेतना फैलने लगी, इस सुविधाप्राप्त वर्ग की विशिष्ट स्थिति पर चोट पड़ने लगी। तब इसी वर्ग ने एक नई चाल चली और संख्याबल का आधार सामने रखा। तबसे बंदों को तौलने का नहीं, गिनने का दर्शन मान्य हुआ; और कहीं अंधेरे में यह बात भी जोड़ दी गई कि गिनने की यह सारी कीमिया उसी विशिष्ट वर्ग के हाथ रहेगी, जिसके हाथ में समाज तब था जब गुणों के आधार पर उसका संचालन-नियम होता था, क्योंकि ऐसे सारे गुणा-भाग की अक्ल तो इनके पास ही थी।

संख्या किसकी है यह गिनने का अधिकार और यह गिनने का तंत्र अपने हाथ में रखकर, इस वर्ग ने संख्यासुर का ऐसा दानव स्थापित कर दिया जिसने समझदारी व विवेक को नहीं, उन्माद को हथियार बना दिया। ******उसकी विष बेल सब दूर ऐसी फैली कि धर्म क्या है , कैसे है, और क्यों है, मानव समाज में इसकी भूमिका क्या है जैसी बातें निरर्थक होती गई और यह गिनती ही अंतिम सत्य बन गई कि किस धार्मिक  संकल्पना के पीछे कितने लोग हैं। लोग यानि भीड़, भीड़ यानि जिसके पास गिनने को सर होते हैं, नापने को विवेक नहीं  होता; चलने वाले अनगणित  पाँव होते हैं, दिशा देखने वाली आँख नहीं होती। भीड़ की ताकत यही है कि उसमें कितने लोग हैं और उनका उन्माद कितना बड़ा है। धर्म हमारे विश्वास  का निजी तत्व नहीं है, एक ऐसा सार्वजनिक हथियार बना दिया गया, जिससे वह हर गर्दन काटी जाने लगी जो सर को थमने का काम करती है।

धर्म का सीधा मतलब होता है – वह जो धरण करता है। वह जो सँभालता है; वह जो दशा समझता है और दिशा देता है। निजी स्तर  पर धर्म वह है जो हमारा स्वभाव है – आग का धर्म है कि वह जलाती है, पानी का धर्म है कि वह गीला करता है, हवा का धर्म है कि वह बहती है, रोशनी का धर्म है कि वह अंधेरा काटती है। करुणा मनुष्य का धर्म है क्योंकि वह सहज स्वभाव से ही करुणा प्रेरित होता है। निजी स्तर  पर यही  धर्म है तो धर्म का सामाजिक मतलब उस संकल्पना से प्रेषित होता है, जिसे समाज धारण करता है ताकि वह उसे धारण कर ले। .......        
                                            कुमार प्रशांत, गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त २०१५ पृ १५

ब्लॉग विशेष
मराठवाड़ा, लातूर की खबरें टी.वी. पर देख मन बहुत दुखी होता है। कलेक्टर ने धारा १४४ लगाई है जल स्त्रोतों पर। पानी को लेकर झगड़ते हैं लोग। और यहाँ हमारे गाँव में इतनी कम मात्र में वर्षा होने के बाद भी पानी को लेकर समाज में परस्पर प्रेम का रिस्ता बना हुआ है। आपने भोजन में मनुहार सुना है। आपके यहाँ भी मेहमान आ जाए तो उसे विशेष आग्रह से भोजन परोसा जाता है। हमारे यहाँ तालाब, कुएं और कुईं पर आज भी पानी निकालने को लेकर मनुहार चलती है – पहले आप पानी लें, पीछे हम लेंगे। पानी ने सामाजिक संबंध जोड़ कर रखे हैं हमारे यहाँ।

यह इलाका महाराष्ट्र में पड़ता है। और वर्षा? २०१४ में कुल ११ एम.एम. फिर भी यह क्षेत्र अकाल की खबरों में नहीं आया।  पूरी खबर पढ़ें, चतरसिंह जाम की अकाल अच्छे कामों का भी
साभार – गांधी मार्ग, मई-जून २०१६

शनिवार, 5 मई 2018

सूतांजली, जनवरी २०१८


सूतांजली                                            ०१/०६                       ०१.०१.२०१८
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श्रद्धेय आचार्य श्री नवनीत
प्रश्न: देश के कई मंदिरों में दर्शन के लिए सैंकड़ों हजारों रुपयोंकी पर्चियाँ कटती हैं। यह व्यवस्था अनास्था उत्पन्न करती है।
उत्तर : जीवन में शत-प्रतिशत आदर्श अवस्था कहीं नहीं है। उनकी नाक टेढ़ी हैंमुझे उनको देख कर बात करने का मन नहीं करता। इनकी आँखें ऊँह:, उनके बाल देखो क्या एकदम रीछ की तरह। अनगिनत कारण हों सकते हैं जो मुझे पसंद नहीं और मुझे क्षुब्द  करते हैं। ‘मुझे नहीं चाहिए’ यह एक छोटे बच्चे को शोभा दे सकता है लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते हैं और हमारा विकास होता है जिसे भावनात्मक परिपक्वता कहते हैंऐसा नहीं रहता। हमें यह समझना चाहिए कि सब कुछ सही नहीं होता हैहमारे मन मुताबिक नहीं होता है। यह संसार हमारे नियंत्रण में नहीं है। अगर हम संसार के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी होंअमेरिका के राष्ट्रपति भी  होंतब भी यह संसार हमारी इच्छानुसार नहीं चलता। तब अव्यवस्थाकमीखोट हो सकते हैं और उसके कारण भी हैं।

एक बार हम यह मान लें कि अगर वह पर्चियाँ नहीं कटे तो क्या होगाहमें पता है कि विश्व के कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में उनके वार्षिक उत्सव में क्या होता हैकई जगहों पर तो हर वर्ष होता है और सैकड़ों व्यक्तियों की जानें भी जाती हैं।  हमारे मंदिरों का निर्माण हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। वे उस समय जैसे और जितने बड़े थे आज भी वैसे ही हैं। और हम यह भी जानते हैं कि हर प्रकार की प्रक्रियाओं के बावजूद वहाँ जगह बढ़ाई नहीं जा सकती है। लेकिन दर्शन करने वालों की  संख्या  दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। तब कोई व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी। या तो बंदर बाँट कर दो। मुझे यह पसंद नहीं कि दर्शन के लिए कोई टिकट खरीदनी पड़े। अत: य ह व्यवस्था बंद कर दी जाय। तब जरा विचार करें इससे कैसी अव्यवस्था होगीफिर वही होगा जिसमें बल है वह  दो चार बाहुबली को ले कर जाएगा और इच्छानुसार दर्शन कर आयेगा। तबया तो कुछ वैसी व्यवस्था के भरोसे छोड़ दिया जाए या फिर यह पैसों की पर्ची कटे। वैसे यह भी जानकारी होनी चाहिए कि लगभग देश के हर बड़े मंदिरतिरुपति वैष्णव देवी एवं अन्यमें  अगर आपके पास पर्ची के पैसे नहीं हैं तो पैसे या पर्ची के लिए अर्जी देने पर समुचित  व्यवस्था की जाती है।

कहने का मतलब है कि कई प्रकार की  व्यवस्था है और हम किसी को भी पूरी तरह सही और व्यवस्थित नहीं कर सकते। कई बार हम बच्चों की  तरह प्रतिक्रिया करते हैं। यह ऐसा है मुझे पसन्द नहींयह वैसा है मुझे पसंद नहीं। तुम्हारे अंदर क्या क्या है जो औरों को पसंद नहींहर कहींहर किसी में कहीं न कहीं कमियाँ है। कमियों को इतना व्यापक रूप दे देते हैं कि वह अनुपानित हो जाता है। हम यह क्यों नहीं कह सकते कि इसका यह उपाय होयह ज्यादा बेहतर हैयह ग्रहणीय भी है और विचारणीय भी। लेकिन इस कारण अगर किसी की आस्था कम हो जाती है तब यह उसकी मुसीबत है। इतनी सी गड़बड़ी से अगर कोई अव्यवस्थित हो जाता है तो गड़बड़ी कहाँ हैकहीं किसी की पूजा में एक चूहा आ गया और प्रसाद खा गया उसने पूजा बंद कर हवन अपना लिया। हवन की  सामाग्री में कीड़े निकल गए तो हवन भी बंद कर कुछ और पकड़ लिया। इस प्रकार अगर बंद करते चलें तो क्या क्या बंद करोगेदर असल हम कहीं किसी प्रकार की गलती निकालने में लगे हुवे हैं और दोषारोपण या एक के बाद दूसरे कार्य बंद करने में लगे हैं। इस सोच के कारण नए नए आधुनिक ‘विद्रोहीमत निकल पड़े।  लेकिन जिन आडंबरों एवं रीति रिवाजों के  विरोध या जिनको त्यागने के लिए उनकी स्थापना हुई थी क्रमश: वे भी वापस उन्ही  आडंबरों में पड़ गए। हम इस पर विचार करें और अपनी सोच का दायरा बढ़ाएँ। यह स्वीकार करें कि पूर्ण कुछ भी नहीं है। अत: हमें विचार करना चाहिए कि क्या उस देश-काल के अनुसार और बेहतर व्यवस्था हो सकती हैसुझाव देंउस पर चर्चा करेंउस विचार को फैलाएँ। हो सकता है इस नए प्रतिपादित व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन यह भी हो सकता है कि वह स्वीकार न हो और उसे रद्द कर दिया जाए। तब उस सर्व स्वीकार्य  व्यवस्था  को अपनाएं – चलो वही ठीक है। दोष दृष्टि नहीं होनी चाहिए। शिकायत के साथ सुझाव आना चाहिए। अगर सुझाव नहीं है तब आप बच्चे हो क्योंकि बच्चे केवल शिकायत कर सकते हैं सुझाव नहीं दे सकते। अगर आपके पास वर्तमान से बढ़िया सुझाव नहीं है तब बुराई देखना बंद कर दें।
(श्री अरविंद आश्रम वन निवासनैनीतालजून २०१७)
                                                                                                                                   मैंने पढ़ा
माँ की ममता                                                                                        
माँआज मैं किसी काम से एम्सटर्डम आया था और अब आपसे मिलने गाँव आ रहा हूँ।” फोन के दूसरे हिस्से से आवाज आई, “बेटा आज तो मैं बहुत व्यस्त हूँ। मैंने पास के कस्बे के ब्युटि पारलर से समय ले रखा है। शाम को लौटने में देर हो जाएगीइसलिए बेहतर होगा कि तुम कल ही आओ।” माँ का यह जवाब सुनते ही बेटे ने कार सड़क किनारे खड़ी कर दी। वह सिर पकड़ कर सोचने लगा कि अब आगे क्या करूँहुआ ये कि मैं अपने मित्र लुकास के साथ जर्मनी के हनोवर शहर से एम्स्टर्डम किसी काम से आया था। उसका पैतृक घर नजदीक हीसाठ किलोमीटर दूर पर स्थित एक गाँव में था। काम खत्म होने के बाद वो अचानक घर पहुँच माँ को आश्कर्यचकित  कर देना चाहता था। हम दोनों ने एम्स्टर्डम से एक कार किराए पर ली और चल पड़े उसके गाँव की ओर। मैं भी नीदरलौंड्स का ग्राम्य जीवन देखने को लेकर बड़ा उत्साहित था।

आधे रास्ते तक पहुँच कर लुकास को सरप्राइज देने के बजाय फोन करना उचित लगाजिसका नतीजा सामने था। चूंकि उनकी बातचीत डच भाषा में हो रही थीइसलिए मुझे कुछ समझ में नहीं आया। एडी ने माँ के साथ हुई चर्चा के बारे में मुझे बताया और मुझसे पूछा कि यदि हिंदुस्तान में तुम्हारे साथ ये घटना होती तो क्या करतेमैं उसका दिल दुखाना नहीं चाहता थाफिर भी बताया कि हिंदुस्तना में कोई भी माँबेटे के विदेश से आने कि खबर सुनते हीएक सप्ताह पहले से सारे अपोइंटमेंट रद्द कर बेटे का पसंदीदा खाने का सामान बनाना शुरू कर देती है। दस मिनट तक हम दोनों सड़क किनारे यू हीं खड़े रहे। फिर जैसे कि हम हिंदुस्तानी मुफ्त की सलाह देने में पारंगत होते हैंमैंने भी उससे कहा कि एक बार और माँ को फोन लगाओ। लुकास ने कुछ सोचकर हिम्मत जुटाई और दुबारा फोन किया, “माँ मैं आपसे दूरकिसी दूसरे देश में रहता हूँ। आज छमहीने बाद मिलने आ रहा हूँऔर आप मुझे “ना” कर रही हैं। मेरे बजाय आपको ब्युटि पारलर वाले को ना करना चाहिएउसका अपोइंटमेंट तो फिर भी कभी मिल जाएगा। आज अगर मैं लौट गयाफिर न जाने आपसे मिलने कब आ पाऊँगा।

माँ ने जो जवाब दिया उसका अंदाज तो मुझे घर पहुँच कर ही लगाजब वह लुकास से लिपटकर बहुत देर तक रोती रही व माफी मांगती रही। फिर मुझ से बोली, “हम यूरोपियन लोग इतने मशीन हो चुके हैं कि एक रोबोट कि तरह व्यहवार करने लगे हैं। अगर इसने दोबारा फोन न किया होता तो मुझे अपनी भूल का एहसास तक  नहीं होता।

हिंदुस्तान की तरह हम यूरोप में अचानक किसी के यहाँ मिलने नहीं जा सकते हैं। चाहे वह हमारा कितना ही नजदीकी मित्र या रिश्तेदार क्यों न हो।      
विनोद जैन, अहा!जिंदगीअक्तूबर २०१७ पृ ३८
ममता - भावुकता पूरे विश्व में है। यही हमें पशु से इंसान बनाती हैं। कहीं मुक्त रूप में है कहीं गौण हैथोड़ा सा  कुरेदना पड़ता है। 
ब्लॉग विशेष
१९१५ में दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद से गांधी अंग्रेजों के लिए जितनी बड़ी मुसीबत बने, उतनी ही बड़ी मुसीबत काँग्रेस के लिए भी बन गए। गांधी ने काँग्रेस की  भाषा बदल दी, भूषा बादल दी, संगठन की काया बदल दी, इसकी आत्मा बदल दी। पार्टी के आयोजनों के तरीके बदल गये, शब्दों के मानी बदल गए, लड़ाई के हथियार बदल गए, दुश्मन का मतलब बदल गया, दोस्ती के मानक बदल गए, आज और कल का तालमेल बदल गया और संघर्ष और रचना की दूरी पाट दी।
गांधी मार्ग, मार्च-अप्रैल २०१६, कुमार प्रशांत, पृ.५९

सूतांजली नवंबर 2024

  मानवता में कुछ गिने चुने , थोड़े से व्यक्ति शुद्ध सोने में बदलने के लिए तैयार हैं और ये बिना हिंसा के शक्ति को , बिना विनाश के वीरता को और...