मंगलवार, 8 मई 2018

सूतांजली, फरवरी २०१८


  सूतांजली                         ०१/०७                                                 ०१.०२.२०१८

आपण कै चीज रो काम?
कोलकाता एक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक शहर है। अंग्रेजों के समय जब राजस्थान से मारवाड़ी काम काज ढूंढते अपनी जन्मभूमी छोड़  बाहर निकले तो कोलकाता की तरफ अपना रुख किया। उस समय कोलकाता का नाम कलकत्ता था। आज कोलकाता को राजस्थान के बाहर, राजस्थान की राजधानी कहते हैं। इसी शहर के एक सुपरिचित व्यापारी एवं उद्योगपति हैं रविजी। अपनी  भाषा एवं संस्कृति के प्रति जागरूक। विद्यालयों एवं सामाजिक संस्थानों से जुड़े हैं। केवल कथनी में नहीं आचरण में भी इसकी झलक देखने को साफ नजर आती है। शहर की एक संस्था  ने कई प्रतिष्ठित राजस्थानियों को अपने जीवन के अनुभव बताने का न्योता दिया था। उसी सभा में  रविजी ने अपने संस्मरण बताये।

उन्होने बताया कि राजस्थान  से आए अपने एक बुजुर्ग चाचा से मिलने वे उनके पास गए। साथ में बेटी भी थी। पढ़ी लिखी एवं अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिला कर उनका व्यापार भी संभालती थी। औपचारिक कुशल क्षेम एवं परिचय के बाद चाचा ने अपनी राजस्थानी भाषा में प्रश्न किया, “आपणो कै चीज रो काम?” (अपने क्या व्यापार  है)। रवि ने बताया। और उसके बाद प्रश्नों की झड़ी लग गई। यथा, कारख़ाना कहाँ है? कितने का माल बेच लेते हो? कहाँ कहाँ बेचते हो? बेचने का क्या तारीका है? कच्चा माल कहाँ से और कैसे खरीदते हो? बनाने की लागत क्या आती है? क्या खर्चा पड़ता है? बचता कितना है? उधारी का क्या हिसाब है? रविजी धैर्य से सब प्रश्नों का जवाब दिये जा रहे थे। बेटी बैठी आश्चर्यचकित एवं अधीर हो रही थी। उसके चहरे पर प्रश्न चिन्ह भी था। लेकिन चाचा उससे बेखबर लगातार प्रश्न किए जा रहे थे साथ ही  जहां जहां उनके समझ में आ रहा था उचित सलाह  भी देते जा रहे थे। रविजी के द्वारा दिये गए आंकड़ों का हाथों हाथ विश्लेषण कर उनके उत्तरों में कहाँ भूल है, क्या होना चाहिये इस पर भी रवि का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। वार्ता के अंत में उन्होने उनके व्यापार का एक प्रकार से पूरा तलपट मय नफे नुकसान के उनके सामने रखा दिया। उनकी बेटी पहले ही इस वार्ता से बेचैन बैठी  थी। वहाँ से निकलते ही उसके प्रश्न शुरू हो गए। ये चाचाजी कौन हैं? आज तक इनके बारे में नहीं सुना? इन्होने पूछा  “अपने” क्या काम है? क्या हमारा काम उनका है? हमारे साझेदार हैं? हमारे व्यापार में इनको इतनी रुचि क्यों है? और आपने उनके सब प्रश्नों के उत्तर क्यों दिये, आदि आदि।

रविजी कहते हैं, उसकी यह जिज्ञासा सहज और समयानुकूल  ही थी। मेरे लिए उसे समझाना आसान नहीं था। लेकिन फिर भी मैंने प्रयत्न किया। मैंने उसे बताया कि एक समय हमारा साझा-संयुक्त परिवार था। आज के एक्स्टेंडेड (वृहद) परिवार की  परिभाषा से भी ज्यादा बड़ा। उसमें “मेरा” “तुम्हारा” कुछ नहीं था सब “अपना” था। और इस लिए “तुम्हारा” शब्द का प्रचालन भी नहीं के बराबर था। सब प्रश्न अपनापन लिए ही होते थे। यथा, अपने क्या काम है? अपने कहाँ रहते हैं, अपने कितने बच्चे हैं? क्या अपने बच्चों का विवाह हो गया?  आदि आदि। बुजुर्ग भले ही कम लिखे-पढ़े रहे हों लेकिन उनमें आत्मीयता थी, आपनापन था। सत्य पूछने और बतलाने में संकोच नहीं था। परिवार के सब सदस्य एक दूसरे के अनुभव से लाभ उठाते थे और बिना मांगे उचित सलाह देने में संकोच नहीं करते थे। उनका ध्यान खुद की नहीं पूरे परिवार की प्रसन्नता, सुख और उन्नति की तरफ होता था। वे कर्म सुख लेने के लिए नहीं देने के लिए करते थे।  हमलोगों की अप्रत्याशित उन्नति का यह भी एक कारण था।

रविजी ने आगे कहा बेटी को उसके  सब प्रश्नों के उत्तर मिल गए। लेकिन वह विचार मग्न थी। उसके चेहरा पर कई प्रश्न टंगे थे, यह साफ दिख रहा था। लेकिन उसने न कुछ कहा न कुछ पूछा। शायद वह समझ गई थी कि उन प्रश्नों के उत्तर उसे ही ढूँढने होंगे।
                                                                                                         
मैंने पढ़ा

विडम्बना : एक पुस्तक में पड़ी गीता और कुरान आपस में कभी  नहीं लड़तीं और जो उनके लिए लड़ते हैं वो उनको कभी नहीं पढ़ते।
शब्द : शब्द मुफ्त में मिलते हैं, लेकिन उनके चयन पर निर्भर करता है कि उसकी कीमत मिलेगी या चुकनी पड़ेगी।
रुपया और इंसान : रुपया जितना भी गिर जाए, मगर इतना कभी नहीं गिर पाएगा जितना कि रुपए के लिए इंसान गिर चुका है।
असली चेहरे : रहने दो मुझे इन अँधेरों में गालिब, कमबख्त रोशनी में अपनों के असली चेहरे सामने आ जाते हैं।
सीख : अगर सीखना ही है तो,  आँखों को पढ़ना सीख लो, वरना लफ्जों के मतलब तो हजार निकलते हैं।
जवाब : परिंदे से किसी ने पूछा, “आपको गिरने का डर नहीं लगता?” परिंदे ने कहा, “मैं इंसान नहीं, जो जरा सी ऊंचाई पाकर अकड़ जाऊँ।”
प्रस्तुति: अहा!जिंदगी, दिसंबर२०१७, श्रीकांत, मुंबई
संख्यासुर                                                                          
.......फिर आया पश्चिमी ढंग का लोकतन्त्र, जिसने संख्यासुर का  बीज बोया। इसने आदमी की गुणात्मकता को खारिज कर दिया और संख्या को देवता बना दिया। दोष तब भी कम नहीं थे, जब गुणात्मकता को डंडा बना कर, सुविधा प्राप्त लोग आमजन को खारिज कर, भूलुंठित किए, अपनी ऐंठ में चलते थे। फिर जैसे जैसे सामाजिक चेतना फैलने लगी, इस सुविधाप्राप्त वर्ग की विशिष्ट स्थिति पर चोट पड़ने लगी। तब इसी वर्ग ने एक नई चाल चली और संख्याबल का आधार सामने रखा। तबसे बंदों को तौलने का नहीं, गिनने का दर्शन मान्य हुआ; और कहीं अंधेरे में यह बात भी जोड़ दी गई कि गिनने की यह सारी कीमिया उसी विशिष्ट वर्ग के हाथ रहेगी, जिसके हाथ में समाज तब था जब गुणों के आधार पर उसका संचालन-नियम होता था, क्योंकि ऐसे सारे गुणा-भाग की अक्ल तो इनके पास ही थी।

संख्या किसकी है यह गिनने का अधिकार और यह गिनने का तंत्र अपने हाथ में रखकर, इस वर्ग ने संख्यासुर का ऐसा दानव स्थापित कर दिया जिसने समझदारी व विवेक को नहीं, उन्माद को हथियार बना दिया। ******उसकी विष बेल सब दूर ऐसी फैली कि धर्म क्या है , कैसे है, और क्यों है, मानव समाज में इसकी भूमिका क्या है जैसी बातें निरर्थक होती गई और यह गिनती ही अंतिम सत्य बन गई कि किस धार्मिक  संकल्पना के पीछे कितने लोग हैं। लोग यानि भीड़, भीड़ यानि जिसके पास गिनने को सर होते हैं, नापने को विवेक नहीं  होता; चलने वाले अनगणित  पाँव होते हैं, दिशा देखने वाली आँख नहीं होती। भीड़ की ताकत यही है कि उसमें कितने लोग हैं और उनका उन्माद कितना बड़ा है। धर्म हमारे विश्वास  का निजी तत्व नहीं है, एक ऐसा सार्वजनिक हथियार बना दिया गया, जिससे वह हर गर्दन काटी जाने लगी जो सर को थमने का काम करती है।

धर्म का सीधा मतलब होता है – वह जो धरण करता है। वह जो सँभालता है; वह जो दशा समझता है और दिशा देता है। निजी स्तर  पर धर्म वह है जो हमारा स्वभाव है – आग का धर्म है कि वह जलाती है, पानी का धर्म है कि वह गीला करता है, हवा का धर्म है कि वह बहती है, रोशनी का धर्म है कि वह अंधेरा काटती है। करुणा मनुष्य का धर्म है क्योंकि वह सहज स्वभाव से ही करुणा प्रेरित होता है। निजी स्तर  पर यही  धर्म है तो धर्म का सामाजिक मतलब उस संकल्पना से प्रेषित होता है, जिसे समाज धारण करता है ताकि वह उसे धारण कर ले। .......        
                                            कुमार प्रशांत, गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त २०१५ पृ १५

ब्लॉग विशेष
मराठवाड़ा, लातूर की खबरें टी.वी. पर देख मन बहुत दुखी होता है। कलेक्टर ने धारा १४४ लगाई है जल स्त्रोतों पर। पानी को लेकर झगड़ते हैं लोग। और यहाँ हमारे गाँव में इतनी कम मात्र में वर्षा होने के बाद भी पानी को लेकर समाज में परस्पर प्रेम का रिस्ता बना हुआ है। आपने भोजन में मनुहार सुना है। आपके यहाँ भी मेहमान आ जाए तो उसे विशेष आग्रह से भोजन परोसा जाता है। हमारे यहाँ तालाब, कुएं और कुईं पर आज भी पानी निकालने को लेकर मनुहार चलती है – पहले आप पानी लें, पीछे हम लेंगे। पानी ने सामाजिक संबंध जोड़ कर रखे हैं हमारे यहाँ।

यह इलाका महाराष्ट्र में पड़ता है। और वर्षा? २०१४ में कुल ११ एम.एम. फिर भी यह क्षेत्र अकाल की खबरों में नहीं आया।  पूरी खबर पढ़ें, चतरसिंह जाम की अकाल अच्छे कामों का भी
साभार – गांधी मार्ग, मई-जून २०१६

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