सूतांजली ०१/११ जून २०१८
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बा का जन्म किस दिन हुआ, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन वे
बापू से एक वर्ष बड़ी थीं। बापू की १५०वीं जयंती हम अगले वर्ष मनाएंगे। मतलब, बा का १५०वां जयंती वर्ष चल रहा
है। बापू महिलाओं को अपने संग्राम में जोड़ना चाहते थे और इसके लिए सबसे बड़ी
चुनौती थी बा को मनाना। बा बहुत सरल और कोमल हृदय महिला थीं लेकिन साथ ही अपने
इरादों की पक्की। उन्हे मनाना आसान काम नहीं था। बापू ने उन्हे कैसे जोड़ा और वे
कैसे जुड़ीं? बा को
समर्पित है श्री विष्णु प्रभाकर का लिखा यह प्रसंग।
दक्षिण अफ्रीका में एक दिन बा रसोईघर में कुछ बना रही थीं। गांधीजी
कुछ और काम कर रहे थे। सहसा उन्होने कस्तूरबा से पूछा, “तुझे पता चला या नहीं”?
बा उत्सुक स्वर में बोली, “क्या”?
गांधीजी ने हँसते हुए कहा, “अब तक तू मेरी विवाहिता पत्नी थी, लेकिन अब नहीं
रही”।
बा ने चकित होकर उनकी ओर देखा और पूछा, “ऐसा किसने कहा? आप तो रोज
नई नई बातें खोज निकालते हैं”।
गांधीजी बोले, “मैं
कहाँ खोज निकालता हूँ। वह जनरल स्मट्स कहता है कि ईसाई विवाहों की तरह हमारा विवाह
सरकारी अदालत के रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ है, इसलिए वह गैर
कानूनी माना जाएगा और तू मेरी विवाहिता पत्नी नहीं, बल्कि रखैल
मानी जाएगी”।
बा का चेहरा तमतमा उठा। बोली, “उनका सिर! उस निठल्ले को तो ऐसी ही बातें सूझा करती हैं”।
गांधीजी ने पूछा,
“लेकिन अब तुम स्त्रियाँ क्या करोगी”?
बा बोलीं, “आप
ही बताइये, हम क्या करें”?
गांधीजी जैसे यही सुनने के लिए तैयार बैठे थे। तुरंत बोले, “हम पुरुष जिस तरह सरकार से लड़ते हैं वैसे ही तुम
स्त्रियाँ भी लड़ो। अगर तुम्हें विवाहिता पत्नी बनना हो और अपनी आबरू प्यारी हो तो
तुम्हें भी हमरी तरह सत्याग्रह करके जेल जाना चाहिए”।
बा ने अचरज से कहा, “मैं
जेल जाऊँ? औरतें भी कभी जेल जा सकती हैं”?
“औरतें जेल क्यों नहीं जा सकती? पुरुष जो सुख दुख भोगेंगे वे स्त्रियाँ क्यों नहीं भोग सकती? राम के साथ सीता, हरिश्चंद्र के साथ तारामती और नल
के साथ दमयंती, इन सभी ने वनों मे अपार दुख सहे थे”, गांधी ने कहा।
बा बोली, “वे सब तो
देवताओं जैसे थे। उतनी शक्ति हममें कहाँ”?
गांधीजी ने उत्तर दिया, “हम भी उनके जैसे आचरण करें तो देवता बन सकते हैं। मैं राम बन सकता हूँ
और तू सीता बन सकती है। सीता राम के साथ न गई होती, तारा
हरिश्चंद्र के साथ न बिकी होती और दमयंती ने नल के साथ कष्ट न उठाए होते तो उन्हे
कोई भी सती नहीं कहता”।
यह सुनकर बा कुछ देर चुप रही। फिर बोली, “तो फिर आपको मुझे जेल भेजना ही है। जाऊँगी मैं, जेल भी जाऊँगी। लेकिन जेल का खाना क्या मुझे अनुकूल आयेगा?”
गांधीजी बोले, “जेल
का खाना अनुकूल न आए तो वहाँ फलों पर रहना”।
बा ने पूछा, “जेल
में सरकार मुझे फल खाने देगी”?
गांधीजी ने कहा, “न दे तो उपवास करना”।
बा हंस पड़ी, “ठीक
है, यह आपने मुझे मरने का अच्छा रास्ता बता दिया। अगर मैं
जेल गई तो जरूर मर जाऊँगी”।
गांधीजी खिलखिला पड़े और कहा, “हाँ-हाँ। तू जेल में जाकर मरेगी
तो मैं जगदंबा की तरह तेरी पूजा करूंगा”।
बा दृड़ स्वर में बोली,
“अच्छा, तब तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ”।
उस समय कौन जानता था कि बा-बापू होनी की ही बात कर रहे थे। २२
फरवरी १९४४ को संध्या ७.३५ पर आगाखान महल की कारा में ही बा ने देह त्याग किया।
गांधी अभी हारे नहीं हैं?
बाहुबली का जमाना है। सब अपनी अपनी शक्ति, शक्ति
यानि हथियार या धन, बटोरने में लगे हैं। जिसके पास ज्यादा
शक्ति वही सर्वशक्तिमान। उसी की चलती है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। सत्य हो या अहिंसा, शिक्षा हो या धर्म सब इसी के सामने घुटने टेकते हैं। गांधी? हाँ, कहने सुनने में भले ही अच्छा लगता हो,
सत्य-अहिंसा, लेकिन अब उसका क्या काम?
इन सबसे कुछ होनी जानी नहीं है। जब तक
लाठी नहीं पड़ती अक्ल ठिकाने नहीं लगती। बंदूक कनपट्टी पर रखो या जेब गर्म करो तब
सब काम खुद-ब-खुद हो जाते हैं, नहीं तो घिघियाते रहो, हाथ जोड़ते रहो कुछ नहीं होता।
मेदिनीपुर,
बंगाल। जन-जाति का शिकार करने का त्योहार। ५००० जन जाति के लोग लाठी, कुल्हाड़ी, तीर-कमान लेकर तैयार खड़े हैं जंगल में
घुसने के लिए। उन्हे अपने रीति-रिवाज का पालन करना है। इस त्योहार पर शिकार करना
है। उनके सामने खड़े हैं ३०० वन विभाग के अधिकारी और पुलिस। उन्हे शिकार करने से
रोकने के लिए। उनका नेतृत्व कर रही हैं, अतिरिक्त जिला वन
विभाग अधिकारी (additional divisional forest officer)
श्रीमती पूरबी महतो। किसी भी समय लाठी चलाने का हुक्म दिया जा सकता है। और इसके
बाद क्या परिस्थिति रहेगी कोई नहीं जानता। क्या इतने से उन्हे रोक पाएंगे? या फिर अश्रु गैस, गोली,
गिरफ्तारी, आगजनी का माहौल बनेगा?
लेकिन यह क्या? अचानक श्रीमती महतो आगे बढ़ती है और शिकार
पर
आमादा जन जाति के अगुआ दिनेन हेम्बरम के पैरों पर गिर पड़ती है। उसके पैरों को पकड़
कर उन्हे सब समझाती हैं और फिर पूरे दृड़ निश्चय के साथ कहती हैं कि इन सबके बाद भी
अगर आप शिकार करना चाहते हैं तो उसके पहले अपने तीर कमान से उसे मार डालें फिर
जाएँ। और देखते ही देखते पूरा दृश्य बदल जाता है। बिना एक लाठी चलाये, अश्रु गैस छोड़े, गोली दागे ५००० की भीड़ छंट
जाती है। न वन विभाग के इतिहास में ऐसा हुआ और न ही उस जन जाति के इतिहास
में। जहां श्रीमती महतो यह कहती हैं कि उनके १७ वर्ष की नौकरी में ऐसा पहली बार
हुआ है वहीं दिनेन कहते हैं कि हम पहली बार अपनी मर्जी से वापस लौट रहे हैं।
टेलीग्राफ में प्रकाशित रिपोर्ट |
कमी है अपने विश्वास की, आत्मबल की। अपना अहंकार हम पर हावी हो जाता है और झुकने से इंकार कर देता
है। और तब प्रारम्भ होती है हिंसा। कौन है बाहुबली? हिंसा या अहिंसा!
क्या पढ़ें
प्रदीप भट्टाचार्य का उपन्यास “मगरमुंहा”
“हमारे अकेले के करने से क्या होगा?” का उत्तर है यह उपन्यास। यह आख्यान है एक ऐसे साधारण युवक शिक्षक की
जिसने देश की तीन सबसे ताकतवर वर्ग -
राजनीतिक, धार्मिक और औद्योगिक - से बिना जुड़े समाज
एवं शहर में रचनात्मक बदलाव का सफलता पूर्वक आगाज किया। किसी से सहायता मांगने नहीं गया। सब खुद-ब-खुद
सहायक बन गए।
ब्लॉग विशेष
अनुपम भाई, उस
गांधीवादी परंपरा के खाँटी वारिस हैं, जिसमें रचनात्मक काम
को ज्यादा और विचार-पक्ष को कमतर महत्व का माना गया। गांधी ने अपने काम-धाम में और
अपने साथ के लोगों में श्रम-साधना को प्रमुखता दी! कहा कि लोगों के बीच जाओ, शिक्षक बनना बंद करो, ज्ञानी बनना बंद करो, सीखो और काम करो। तो एक काम की दुनिया है और एक ज्ञान की दुनिया है। एक
लोक ज्ञान है और एक विशेषज्ञों का ज्ञान है। क्या इस दो दुनियाओं के बीच संवाद
सेतु बनाए जा सकते है?
अनुपम भाई के देहावसान पर “गांधी मार्ग” का जनवरी-अप्रैल २०१७ का
अंक उन्हें समर्पित था। उसी अंक में पंकज पुष्कर का प्रकाशित लेख “लोकशक्ति को माना लोकबुद्धि को नहीं”।
गाँधी 150