सूतांजली ०२/०२ सितंबर
२०१८
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क्या सत्य कहा जा सकता है ?
सत्य
में कुछ भी काट दिया जाये या कुछ भी बढ़ा दिया जाये तो सत्य न रहे। सत्य बस जितना
है उतना ही है। उसमें कुछ भी, थोड़ा भी, जोड़ या घटा दिया जाए, तो सत्य सत्य नहीं
रहता।
इसलिए
हजारों वर्ष तक ऋषियों ने कोशिश की कि ग्रंथ न लिखे जाएँ। क्योंकि लिखे हुए में वह
तो छूट जाएगा, कट जाएगा, जिसे कहने के लिए यह सब कहा था, यद्यपि इसमें वह कहा नहीं जा सकता। वे खाली रिक्त स्थान तो छूट जाएंगे, और वही थे असली। वेद लिखे गए कोई पाँच हजार वर्ष पहले। लेकिन लिखे जाने
के पहले से हजारों वर्षों तक वे अस्तित्व में थे। जो वेद ऐसे विचार को जन्म दे
सकते थे, लिखने की कला न खोज पाये हों,
यह नासमझी की बात है। वे भाषा न बना पाये हों, लिपि न बना
पाये हों, यह पागलपन की बात है।
आग्रह
था कि न लिखे जाएँ। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को सीधा ही संक्रमित करता रहे।
क्योंकि वह व्यक्ति शब्द भी दे सकेगा और वह शून्य मौजूदगी भी दे सकेगा। किताब जड़
हो जाएगी, शून्य मौजूदगी नहीं दे सकेगी। किताब उनके भी हाथ
लगेगी जो कुछ नहीं जानते, अज्ञानी हैं। और किताब अज्ञानी के
हाथ लग जाए तो अज्ञानी को इतनी जल्दी ज्ञानी होने का भ्रम पैदा होता है जिसका कोई
हिसाब नहीं। अज्ञानी होना बुरा नहीं, अज्ञान में ज्ञान
का भ्रम हो जाना बहुत खतरनाक है ।
ज्ञानी
अकर्म से व्यवस्था करता है। उसकी मौजूदगी ही व्यवस्था देती है, उसे कोई कर्म नहीं करना पड़ता। जैसे घर में पिता का आगमन बच्चे को अपने आप
व्यवस्थित कर देता है। पिता को कुछ करना नहीं पड़ता। मालिक की मौजूदगी कार्यालय में
अनुशासन बनाए रखती है। मालिक को इस के लिए अलग से कुछ करना नहीं पड़ता। ज्ञानी की
मौजूदगी सक्रियता है। उसका होना काफी है। जैसे चुंबक हो, तो
फिर उसे कुछ करना नहीं पड़ता, लोहे के टुकड़े खींचे चले आते
हैं।
आप
चाहते हों कि आपके घर में शांति हो, तो उसके लिए कोई नियम मत बनाइये, सिर्फ आप शांत
होते चले जाइए। और थोड़े ही दिनों
में आप पाएंगे कि घर में अनूठी शांति उतरने लगी है। न मालूम, अन्जान रास्तों से शांति घर में उतरने लगेगी। जिनमें कल तक सब अशांति का
उपाय दिखता था, वे भी शांत होते मालूम होने लगेंगे। सिर्फ आप
शांत हो जाइए। आपने कहीं कुछ भी नहीं किया, अगर कुछ किया तो सिर्फ अपने भीतर किया।
इस
दुनिया में शक्तिहीन ही काम करते हैं, शक्तिशालियों के तो होने से ही काम हो जाता है। जो नहीं जानते, वे ही केवल श्रम
करके कुछ कर पाते हैं, जो जानते हैं,
वे तो विश्राम से भी कर लेते हैं। जिन्हे पता है, वे तो मौन
से भी बोल लेते हैं, और जिन्हे पता नहीं है, वे लाख लाख
शब्दों का उपयोग करके भी कुछ नहीं कह पाते।
बोलने
से तो सत्य को बोला नहीं जा सकता। और बोलते ही सिद्धान्त विवाद बन जाता है। इसलिए
सब सिद्धान्त वाद बन जाते हैं। वाद बनते ही विपरीत वाद निर्मित होता है। संघर्ष और कलह और संप्रदाय और मत, सारे उपद्रव का जन्म होता है। गांधी ने हर समय कहा ‘गांधीवाद’
जैसा कोई वाद नहीं । मेरे पास देने के लिए
कोई नया विचार नहीं है, सत्य और अहिंसा उतना ही पुराना है
जितना इंसान। गांधी यही कहते थे ‘मेरा जीवन ही मेरा
संदेश है’।
बुद्ध
कहते थे कि जो मैं कह सकता था, वह मैंने कहा; लेकिन वह असली बात नहीं है। जो मैं नहीं कह सकता था, वह मैंने नहीं कहा है; वही असली बात है। इसलिए जो
मेरे कहने को सुनते रहे हैं वे मुझे नहीं समझ पाएंगे;
जिन्होने मेरे न कहने को भी सुना है, वही मुझे समझ सकते हैं।
न कहने को जिन्होने सुना है! न कहना भी सुना जा सकता है!
ओशो से प्रेरित
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आदि शंकराचार्य द्वारा आर्यावर्त का
गठन
जब
सनातन धर्म आडम्बर और कर्मकांड के दल दल में फंसा पाताल में धँसता जा रहा था उसी
समय आचार्य शंकराचार्य का, सूर्य के सदृश्य, भारत के
क्षितिज पर आगमन होता है। अपने ज्ञान और कौशल से वे सिर्फ सनातन धर्म की
पुनर्स्थापना ही नहीं करते बल्कि आर्यावर्त को संगठित कर उसके संचालन की भी
व्यवस्था करते हैं। देश के चारों कोनों में चार धाम की स्थापना करते हैं, चार देवी-देवता, चार वेद, चार
महा मंत्र तथा चार आचार्यों को प्रतिष्ठित करते हैं और उनके भविष्य में सुचारु रूप
से चलते रहने का भी सुप्रबंध करते हैं।
आदि शंकराचार्य |
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