शनिवार, 1 दिसंबर 2018

सूतांजली दिसम्बर 2018

सूतांजली               ०२/०५                                              दिसम्बर २०१८
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मेरे लिए आदर प्रकट करने का यह तरीका गलत है

गांधीजी के जीवन के अनेक प्रसंग हैं। लेकिन कई प्रसंग ऐसे हैं जिन्हे पढ़ कर हमें रुकना पड़ता है, उस पर विचार करना पड़ता है। ये हमें प्रभावित करती हैं, हम अछूते नहीं रह पाते। एक लंबी सांस लेकर इतना तो कहते ही हैं कि This is why Gandhi is Gandhi (इसी कारण गांधी गांधी थे)। उनके साथ रहने वाले भी अछूते नहीं रह पाते थे और पारस के सम्पर्क से स्वर्ण बन जाते थे, खुद अनुकूल और प्रतिकूल दोनों के तर्क देते थे।  ऐसा ही एक प्रसंग नवजीवन प्रकाशन की पुस्तक से।
  
श्रीगणेश वसुदेव मालवंकर, जो बाद में स्वतंत्र भारत के लोकसभा के अध्यक्ष बने, सत्याग्रह के प्रारम्भिक दिनों में गांधीजी के असहयोग प्रस्ताव से पूर्णतया सहमत नहीं थे। इसलिए जब कलकत्ता अधिवेशन से लौटकर श्री वल्लभभाई पटेल ने यह प्रश्न अहमदाबाद म्युनिसिपैलिटी में उपस्थित किया तो वह उलझन में पड़ गए। दो शिक्षकों को नोटिस दिया था। अगर म्युनिसिपैलिटी असहयोग नहीं करती तो वे इस्तीफा दे देंगे। इस पर वल्लभ भाई पटेल ने प्रस्ताव पेश किया कि उन दोनों के इस्तीफे मंजूर कर लिए जाएँ। मालवंकरजी ने इसमें एक संशोधन सुझाया कि इस बारे में मतदाताओं को विश्वास में लेना चाहिए और इसलिए इस प्रस्ताव पर एक महीने बाद विचार करना चाहिए।  

गणेश वसुदेव मालवंकर
सर्वसम्मति से यह संशोधन पास हो गया। अब प्रश्न यह था कि मतदाता मालवंकरजी का साथ नहीं देते तो क्या उन्हे अपने पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए? उन्होने ऐसा ही करने का निश्चय किया। वे असहयोग करने के विरोध में थे। उन्होने मतदाताओं के लिए असहयोग के अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह के एक-एक वक्तव्य तैयार किया और हरेक के पास वह वक्तव्य, उत्तर के लिए  मतपत्र और पते सहित लिफाफा भेजने का निश्चय किया।

गांधीजी उस समय अहमदाबाद में थे। उनको दिखाने के लिए यह वक्तव्य लेकर उनके पास गए। गांधीजी ने उसे ध्यान पूर्वक पढ़ा। बोले, मालवंकर, तुमने यह बहुत लंबा वक्तव्य लिखा है
मालवंकर ने उत्तर दिया, बापू, सब समझ जाएँ, इसलिए यह जरूरी था और थोड़े से शब्दों में बड़ी बात कह डालने वाली लेखन कला मुझमें नहीं है

बहुत देर तक वे उस प्रश्न को लेकर विचार विनिमय करते रहे। खुले दिल से बीच-बीच में हंसी मज़ाक करते हुए बातें हुईं, लेकिन गांधीजी मालवंकरजी को अपनी बात नहीं समझा सके। मालवंकरजी ने कहा, बापू, मेरे मन में आपके लिए आदर है। विचारों में भी हमारा मतभेद है, फिर भी ऐसा लगता है कि शायद मेरे ही विचारों में भूल हो। इसलिए मैं आपसे सहमत होने का विचार कर रहा हूँ

गांधीजी हंस पड़े। बोले, मेरे लिए आदर है, इसलिए सहमत होना चाहते हो। मेरे लिए आदर प्रकट करने का यह तरीका बहुत गलत है। तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम जो कुछ ठीक समझते हो उसे खुले मन से व्यक्त करो। मेरी गलती नजर आए तो आलोचना करो, जिससे मैं अपनी भूल समझ सकूँ। मेरा आदर व्यक्त करने का तो यही सही तरीका है

यह कहते हुए वे बहुत गंभीर हो गए, लेकिन शायद मालवंकरजी को यह कठिन मालूम हो रहा था। गांधीजी ने कहा, कठिन तो नहीं मालूम होना चाहिए। तुम निर्भय होकर अपना यही वक्तव्य छपवा दो। यह ठीक ही है। मेरे जो विचार दिये हैं, वे भी ठीक हैं
यह सुनकर मालवंकरजी को थोड़ा संतोष हुआ। वे विदा लेकर जाने के लिए उठे, लेकिन दरवाजे तक पहुंचे भी नहीं थे कि गांधीजी ने बुलाकर कहा, मालवंकर जरा अपना वक्तव्य दिखाना। मुझे तो लगता है कि मेरे विचारों के विरोध में और तुम्हारे विचारों के अनुकूल कुछ और बातें लिखी जा सकती हैं
यह कहते हुए उन्होने स्वयं अपने हाथ से उस वक्तव्य में अपने ही विरुद्ध दो-तीन बातें और जोड़ दीं।


गांधी की कहानी

30 जनवरी 1948, शुक्रवार के जिस दिन महात्माजी की मृत्यु हुई, उस दिन वे वही थे, जो सदा से रहे थे – अर्थात एक साधारण नागरिक, जिसके पास न धन था, न सम्पत्ति थी, न सरकारी उपाधि, न सरकारी पद, न विशेष प्रशिक्षण योग्यता, न वैज्ञानिक सिद्धि और न कलात्मक प्रतिभा। फिर भी, ऐसे लोगों ने, जिनके पीछे सरकारें और सेनाएँ थीं, इस अठहत्तर वर्ष के लंगोटधारी छोटे-से आदमी को श्रद्धांजलियाँ भेंट कीं। भारत के अधिकारियों को विदेशों से संवेदना के 3441 संदेश प्राप्त हुए, जो सब बिना मांगे आए थे, क्योंकि गांधीजी एक नीति-निष्ठ व्यक्ति थे।                                                                                                    लुईफिशर



गांधी ने कह दिया .....


गांधी ने हिंसक रास्ते से आजादी खोजने वालों  से कह दिया था कि खून से निकलने वाला समाज भी खूनी ही होगा, और वैसा भारत मुझे कबूल नहीं। उन्होने सुभाष बोस से कह दिया कि हिटलर और मुसोलिनी की मदद से मिली आजादी अंग्रेजों की गुलामी से बेहतर नहीं हो सकती; उन्होने जवाहरलाल से कह दिया – भले ही मैंने तुम्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है लेकिन हमारे तुम्हारे बीच भारत की भावी तस्वीर को लेकर जो खाई है, उसे इतिहास में दर्ज कर, हमें एक-दूसरे से अलग रास्ते पर चल पड़ना चाहिए; उन्होने हिंदुत्व के पैरोकारों से कह दिया कि जहां तक छुआ-छात का सवाल है, अगर वेदों में लिखा है तो मैं उस वेद को मनाने से इंकार करता हूँ; उन्होने मुहम्मद जिन्ना से कह दिया – राष्ट्र धर्मों से नहीं, संस्कृतियों से बनते हैं और इसलिए मैं मानता हूँ कि हिंदुस्तान में रहने वाले सारे ही धर्म यहाँ एक-सी आजादी व सम्मान से रह सकते हैं और इसलिए मैं दो राष्ट्र के आपके सिद्धान्त का मरते दम तक विरोध करूंगा; उन्होने अम्बेडकर से कह दिया – मैं सामाजिक न्याय की  हर लड़ाई की अगली कतार में खड़ा मिलूंगा लेकिन यह काम भारतीय समाज को तोड़ कर और उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करके नहीं कर सकेंगे; और अंग्रेजों से कह दिया – भगवान के लिए इस देश को एनार्की में छोड़ कर आप यहाँ से चले जाइए। भारत को रक्त का सागर भले पार करना पड़े, वह अपना भविष्य खोज खुद लेगा।                                                                                                                                                                                                                                                                     कुमार प्रशांत

सूतांजली नवंबर 2024

  मानवता में कुछ गिने चुने , थोड़े से व्यक्ति शुद्ध सोने में बदलने के लिए तैयार हैं और ये बिना हिंसा के शक्ति को , बिना विनाश के वीरता को और...