सूतांजली ०२/०७ फरवरी २०१९
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गांधी क्या करते......
और
आखिरकार अहिंसा का पुजारी हिंसा का शिकार हो गया। लेकिन क्या, हत्यारे अपने मकसद में सफल हुए? स्थूल रूप से तो यही लगता है,
लेकिन सूक्ष्म रूप से देखें तो ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि गांधी व्यक्ति नहीं हैं, वह एक विचार है। यह गांधी आज भी हमारे बीच मौजूद है और पहले से ज्यादा
मजबूत है। जो मारा गया वह व्यक्ति था और
जो अमर है वह विचार है।
अगर
आज गांधी होते..........????? भारत की अनेक समस्याएँ हैं, अनेक वाद हैं, विवाद हैं,
इनके बीच वे क्या करते, इसे किस रूप में देखते? कैसे इनका समाधान करते? यह बताने वालों की कमी नहीं हैं। लेकिन इन्हे छोड़ हम देखें-परखें
उनके जीवन को, उनके संदेश को।
विशेष कर तब जब उन्होने कहा मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। पढ़ें उनके जीवन को। उनके जीवन की कुछ घटनाओं का, बातों का विश्लेषण करें, समझने और सीखने की कोशिश
करें। प्रारम्भ करें प्रस्थान से :
1। प्राथमिकता का चयन – गांधी ने अपने जीवन में अनेक लड़ाइयाँ
लड़ीं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण था देश की आजादी। लेकिन जब देश को स्वतन्त्रता मिली
और भारत आजादी का जश्न मना रहा था गांधी अपनी प्राथमिकता तय कर रहे थे –
स्वतन्त्रता के जश्न में शरीक होना है या कलकत्ता में बैठ कर सांप्रदायिकता की धू
धू जलती आग को बुझाना है? उत्सव में शरीक होना है या पीड़ितों के बीच रहना है? किसे महत्व देना है – स्वतन्त्रता या सांप्रदायिकता? सही प्राथमिकता का चुनाव। कहाँ रहना है और क्या
करना है इसका सही निर्णय। निर्णय का आधार व्यक्तिगत नहीं सामाजिक हित और मानवीय
मूल्यों पर आधारित था।
2। क्षेत्रीयता को महत्व - गांधी ने चरखे को अपनाया। चरखा तो
केवल एक प्रतीक मात्र था, उद्देश्य था क्षेत्रीयता को स्वीकार करना। चरखा और
सूता प्रतिकात्मक हैं। गांधी जिस क्षेत्र से थे वहाँ कपास बहुतायत में होता था।
सूत कातना और कपड़े बुनना उस क्षेत्र का कुटीर उद्योग था। इस कारण गांधी ने सूत
कातना और चरखा चलाना शुरू किया। इस प्रकार गांधी ने क्षेत्रीयता को महत्व देने की
बात रखी। अलग अलग क्षेत्रों की विशिष्टताओं और उनकी समृद्धि के कारणों पर
ध्यान देना और उसे स्वीकार करना, प्राथमिकता देना, प्रोत्साहित करना। और यह इस प्रकार होना चाहिए कि हर क्षेत्र का महत्व
बना रहे, उसकी विशिष्टता बनी रहे। भारत अगर ‘सोने की चिड़िया’ था तो उसकी जड़ क्षेत्रीयता ही थी।
केवल शहरों पर ध्यान देने का नतीजा यह हुआ कि गाँवों से पलायन प्रारम्भ हो गया, गाँव खाली हो गए और शहर रहने लायक नहीं रहे। यही गाँववासी शहरों में जाकर
झोपड़ पट्टी और सड़कों के किनारे बसे। जहां इंसान है वहाँ शुद्ध हवा-पानी नहीं, जहां शुद्ध हवा-पानी है वहाँ इंसान नहीं।
3। बुराई को मारो बुरे को नहीं - बुरे को मिटाना टहनी
काटना है लेकिन बुराई को मिटाना जड़ काटना है। एक बार एक व्यक्ति एक
दुधमुंहे बच्चे को लेकर गांधीजी के पास आया और बोला कि इस बच्चे के पूरे परिवार को
मैंने मार डाला है। अब आप बताएं कि मैं इस बच्चे
का क्या करूँ? भारत उस समय सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा था।
गांधी ने सुझाव दिया कि वह एक अभिभावक की तरह उस बच्चे का पालन पोषण करे और इस बात
का ध्यान रखे कि यह बच्चा बड़ा होकर सच्चा मुसलमान बने। वह व्यक्ति बुरा नहीं था
लेकिन उसमें से हिंसा, द्वेष और बदले की भावना को मिटाना था।
उद्देश्य उस व्यक्ति को दंडित करना नहीं था बल्कि उस के दिल की बुराई को मिटाना
था।
एक
व्यक्ति ने कहा कि मुसलमान मेरी बहन को उठा ले गए। आपकी नीति के अनुसार मैं अपनी
दूसरी बहन उसको दे दूँ? गांधी ने कहा नहीं मेरी नीति कहती है इसके बदले में उसकी बहन को
उठा कर ले आना समाधान नहीं है। बहन किसी की भी हो, उसको उठाना पाप है। पापी के साथ पापी का सा व्यावहार पाप और पापी
दोनों को बढ़ाना है।
4। मन की स्वच्छता - गांधी को हम स्वच्छता से जोड़ कर देखते
हैं। लेकिन गांधी की यह स्वच्छता केवल परिवेश की नहीं थी बल्कि अपने भीतर मन की
स्वच्छता भी थी। उन्होने लिखा है कि अगर हमारे मन में भी कोई विकार आ गया है भले
ही वह कार्य रूप में परिणित न हुआ हो तो भी यह मानना चाहिए कि वह विकार हमारे भीतर
है। कहीं कोई गंदगी हमारे भीतर आ गई है।
हमें उसे स्वीकार करना चाहिए और उसे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। गांधीजी में
अनेक कमियाँ थी। उनसे कई गलत कार्य हुए। उन्होने विवादास्पद परीक्षण किए। लेकिन उन
कार्यों को, उन बातों को, उन परीक्षण को
गांधी ने छिपाया नहीं किया। उसे सब को बताया और उन्हे दूर करने का प्रयत्न किया।
हमें अपने आप को अंदर से स्वच्छ रखना है। हम दोहरा जीवन न जीएं। जो भीतर हों वही
बाहर हों। हमारे चेहरे पर मुखौटे नहीं होने चाहिए। हमारे भीतर जो भी चल रहा है हम
उसे बाहर भी व्यक्त कर सकें। हमें अपनी कमजोरियों पर नजर रखना है और लगातार
उसे दूर करने की कोशिश करनी है।
हर मनुष्य में कमी हैं। उसे छिपाएँ नहीं, उसे दूर
करने का प्रयत्न करें।
5। लोगों को जोड़ना - गांधी एक माहिर संगठन कर्ता थे। उन्होने
पूरे देश के लोगों को, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, धर्म-जाति-वर्ग, बिना किसी भेद भाव के सबको आपस में
जोड़ दिया। और इसके लिए उन्होने लगातार संवाद बनाए रखा, हर
विषय पर। केवल राजनीति नहीं, बल्कि सामाजिक, शिक्षा, व्यक्तिगत, पर्यावरण, स्वास्थ, धर्म आदि हर विषय पर संवाद किया। अपने मौन
व्रतों के बावजूद गांधी से ज्यादा संवाद करने वाला इंसान मिलना मुश्किल है।
उन्होने इसके लिए लगभग पूरे भारत का दौरा किया, तीसरी श्रेणी
में, जिसमें भारत सफर करता था। वे रात रात भर जाग कर हर पत्र
का उत्तर देते। हर आने वाले से मिलते, अनेक भाषाओं में कई
पत्रों का सम्पादन करते और देश भर में घूमते रहते। समय अकेले रहने का नहीं साथ
रहने का है। साथ का तात्पर्य वर्ग, जाति, धर्म, लिंग की दीवार गिरा कर आपस में जुड़ कर।
6। मतभेद हो मनभेद नहीं – अगर हम संवाद करते हैं तो हमारे
मध्य मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन हमारा मतभेद मनभेद नहीं होना चाहिए। दक्षिण
अफ्रीका में रहते जनरल स्मट्स से मतभेद रहा,
अंग्रेजों से मतभेद रहा। वैसे ही लोकमान्य तिलक, सुभाष
चन्द्र बोस, अंबेडकर, जिन्ना और तो और
जवाहर लाल नेहरू से भी अनेक मुद्दों पर मतभेद रहा लेकिन किसी से भी मन भेद नहीं
रहा। मतभेद वालों से मनभेद करते रहे तो दुनिया छोटी होती जाएगी। हर
मत के सब पहलुओं पर विचार करना, अलग अलग दृष्टिकोणों से
देखना, सर्वांगीण तरीके से सोचना उनके विशेष गुण थे। दूसरों
मे मत का भी आदर करते थे। वैसे तो गांधी सत्य के पुजारी थे लेकिन वे किसी भी सत्य
को अंतिम सत्य नहीं मानते थे। अपना कहा हुआ भी अंतिम सत्य नहीं समझते थे। वे यही
कहते थे कि अब तक के अनुभव से मुझे यही सत्य लगता है और मैं इस पर कायम हूँ। एक
पत्रकार ने जब पूछ कि आप के कई वक्तव्यों में विरोधाभास है तो उन्होने यही कहा कि
मेरी बाद वाली बात को ही सही मानना चाहिए। यह उनके सत्य का परिवर्तन नहीं था बल्कि
उसका विकास था। गांधी सतत परिवर्तनशील रहे और जो परिवर्तन शील होगा वही
विकासशील भी होगा।
7। समान सिद्धान्त – गांधी में सबों के लिए सद्धांतों में
समानता थी। यह सिद्धान्त की समानता वे सब के लिए, हर जगह और हर समय एक ही थी। जो सिद्धान्त दूसरों के लिए था वही अपनों के
लिए भी था। जिस प्राकृतिक चिकित्सा की सलाह वे सब को देते थे उसी का प्रयोग
उन्होने अपने बेटे और पत्नी पर भी किया, भले ही इस कारण वे मृत्यु के द्वार तक पहुँच गए। अपने सिद्धान्त पर अडिग
रहे। हिंदुओं और मुसलमानों के लिए भी अलग अलग सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया।
नोआखाली हो या कलकत्ता या बिहार या दिल्ली हर जगह वे एक सिद्धान्त पर अडिग रहे, उसमें परिवर्तन नहीं किया। सिद्धान्त की समानता लोगों में विश्वास
पैदा करती है। अपने लिए एक पैमाना और दूसरों के लिए दूसरा पैमाना, विश्वास का हनन करता है। गांधी के लिए अपनों का दायरा बहुत बड़ा था, या यूं कहें कि गांधी के अपनों का दायरा इतना विशाल था कि सब उसमें
सब समा जाते थे।
गांधी
होते तो क्या करते? इस पर विचार न कर गांधी ने क्या किया, इस पर विचार करें।
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