सूतांजली ०२/०८ मार्च
२०१९
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आजा मेरी गाड़ी में....!
मैंने
खीज कर कहा, “आजा, मेरी गाड़ी में बैठजा।
बैठेगी”?
उसने
गाड़ी खोलने की कोशिश की। लेकिन खोल नहीं पाई। उसने मेरे स्वाभिमान को ललकारा ‘बैठती हूँ, हिम्मत है तो दरवाजा खोल”? मेरा स्वाभिमान भी फुफकार उठा और गाड़ी का दरवाजा खोल दिया। बिना
देर किए वह तुरंत गाड़ी में बैठ गई, जैसे
उसी की गाड़ी हो। तब तक चौराहे की लाल बत्ती हरी हो गई और मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई।
लेकिन तब तक मेरे मस्तिष्क में भयंकर झंझावात उठ खड़ा हुआ। ‘यह
मैंने क्या किया?
और अब क्या करूँ?’ मैंने गाड़ी वापस घर की तरफ मोड़ ली। रास्ते भर यही उधेड़-बुन, करूँ तो करूँ क्या? क्या इसके हँसते खेलते शैशव को, उन्मुक्त जीवन को अपने घर की चाहर दीवार में बंद कर नौकरनी बना लूँ, नहीं! इसकी रोटी की व्यवस्था तो हो जाएगी लेकिन
पराधीन हो जाएगी। घर पहुँचने के पहले मैंने निश्चय कर लिया। रास्ते से कपड़े, जूते, चप्पल लिये और घर पहुँची। उसे गुसलखाने में
धकेल दिया। नहलाया, धुलाया, खिलाया और
सुला दिया। घंटों बात सहमी सी उठी। उसे मैंने उसे अपनी बाहों में भर लिया और कहा
अब से मैं तुम्हारी माँ हूँ और तू मेरी बेटी।
अब
वह एक शिक्षित जिम्मेदार युवती है। सामाजिक उत्सवों में शरीक होती है, मेरे पूरे परिवार में जाती है। उसके लिए समुचित वर खोज रही हूँ। सोच सोच
कर आंखे गीली हो जाती है। कल तक चौराहे पर भीख मांग रही थी। अभी मेरे जिगर का
टुकड़ा है। कल फिर मेरा हाथ छोड़ किसी और का हाथ पकड़ पराई हो जाएगी।
भ्रम
में मत रहिएगा। यह न कोई कहानी है न कपोल कल्पना है। यह एक सच्ची घटना है
ग्रेटर नोएडा की। मेरी मुलाक़ात इन माँ-बेटी सी हुई चिन्मय मिशन के एक कैंप
में।
हाँ हम ... गांधी के
हत्यारे
30 जनवरी 1948 संध्या के समय बिड़ला भवन में तीन धमाके हुए और एक इंसान को शांत
कर दिया। उस धमाके की गूंज आज तक प्रतिध्वनित हो रही है। हम उस धमाके को शांत नहीं
होने देते। उस धमाके को हमने जिंदा रख रखा
है ताकि हमारे धमाके छुपे रहें, नहीं सुने। उन
तीन धमाकों ने तो उस नश्वर शरीर को शांत किया जिसे अगर वह नहीं भी करता तो यमराज
कभी न कभी करते ही। हमने तो उसकी आत्मा को मारा है और प्रतिपल मार रहे हैं। बेवकूफ
था वह युवक जिसने छिप कर नहीं सबके सामने, दिन के उजाले में
यह कृत्य किया और फांसी पर चढ़ गया। हम रोज मारते हैं और ‘गांधीवादी’ के नाम से इज्जत भी पाते हैं।
हमने
तो गांधी की आत्मा को बहुत पहले से ही मारना शुरू कर दिया था। दिन के उजाले में तो
हम उसके समर्थक हैं, भक्त हैं, अनुयायी हैं। लेकिन रोज रोज उस गांधी को
मार रहे हैं, उसे खरोंच रहे हैं, उनके
हर विचार को-काम को जड़ से उखाड़ कर फेंक रहे हैं। दिन की रौशनी में हम गांधी की मूर्तियों
का अनावरण करते हैं, तस्वीरे टाँगते हैं, 2 अक्तूबर और 30 जनवरी को सूता कातते हैं, ‘महात्मा गांधी अमर रहें’ के नारे लगाते हैं और अपनी
काली देह को सफ़ेद खादी से ढंके रखते हैं। 125 वर्ष की आयु की कामना रखने वाला
वह व्यक्ति आसन्न-मृत्यु क्यों खोजने लगा? जब देश की जनता उनकी बात सुन रही थी तब गांधी क्यों बार बार कह
रहे थे ‘अब कोई मेरी नहीं सुनता’, ‘मैं विवश हूँ’, ‘ईश्वर से प्रार्थना
करने के अलावा मैं और कुछ नहीं कर सकता’ और ‘मेरा ईश्वर पर पूरा विश्वास है’। क्योंकि हमने उसकी
आत्मा को छलनी कर दिया था और गांधी मूक दर्शक बना देखता रहा। शायद यही कारण था कि जिस
जनता ने उसे अपना ‘मजबूत’ नायक समझा था उसी जनता ने कहा ‘मजबूरी का नाम
महात्मा गांधी’।
हमने
गांधी पर अनेक गोलियां बरसाईं, बम के धमाके किए, ग्रेनेड फोड़े। बहुत मेहनत वाला काम किया और साथ ही साथ नेता, विधायक, शासक, प्रशासक, विशेष वर्ग का कार्य भी बखूबी निभाया। कितनों की चर्चा करूँ तीन गोलियों के
जवाब में? कुछ की ही
चर्चा करूँ -
१. ब्रिटिश सरकर के ठाटबाट का चयन - गांधी यह चाहते
थे कि आजादी के बाद राजकीय कर्मचारी अंग्रेजों की तरह शान शौकत से न रह कर ‘सादा’ जीवन यापन करें। उन्हे यह शंका थी कि गवर्नर
जनरल माउंटबेटन इसके लिए तैयार नहीं होंगे। लेकिन जब उनकी ‘सहर्ष’ स्वीकृति गांधी को मिली तब उन्हे बड़ा हर्ष और संतोष हुआ। गांधी ने सरकार
से इस बाबत पत्र लिखा ‘राजकीय कर्मचारियों के लिए राज प्रसाद
के फिजूलखर्ची को बंद कर सादे आवासों की व्यवस्था की जाए’।
नेहरू ने भी सहमति जताई। लेकिन कोई कार्यवाही न होते देख जब गांधी ने पुन: लिखा, तब हमने जवाब दे दिया ‘हम काम में इतने व्यस्त हैं कि उपयुक्त स्थान ढूँढना और राजप्रसाद को छोड़
कर दूसरे स्थान में जाने की व्यवस्था करना कठिन है’। हमारे
ठाट-बाट में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आई। यह थी वह गोली जिसे हमने गांधी
पर चलाई, जिसकी कहीं गूंज नहीं हुई।
२.
क्षेत्रीय एवं सत्याग्रही कार्यकर्ताओं की अवहेलना – गांधी ने
कहा ‘भूतकाल
से बिलकुल नाता तोड़कर शासन की नीचे से नई रचना खड़ी की जाए’।
लेकिन हमने इसे भी नहीं माना। ब्रिटिश राज्य में तालीम पाये हुए कर्मचारियों पर ही
आधार रखकर शासन चलाने लगे। कल तक जिसकी हम अलोचना करते थे उसकी हम प्रशंसा करने
लगे। क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं तथा सत्याग्रहियों की अवहेलना करना और उनके द्वारा की
गई अफसरों की आलोचना के प्रति असहिष्णु बन गए। “कल्याण राज” के आकर्षक नाम के तले
हमने वही अंग्रेजों का रूप अंगीकार कर लिया। सत्याग्राहियों पर हम पहले
अंग्रेजों के कर्मचारी बन कर डंडे चलाये अब वही काम सरकारी कर्मचारी बन कर रहे थे।
यह एक और बम था जो गांधी की आत्मा पर हमने चलाया, बिना किसी
शोर शराबे के।
३.
कांग्रेस की सदस्यता के लिए हाथ कता सूत – खादी के प्रचार-प्रसार तथा
सेवा भाव और शारीरक श्रम को बनाए रखने के
उद्देश्य से गांधी ने कहा ‘कांग्रेस की सदस्यता के लिए एक निश्चित राशि के साथ
साथ निश्चित मात्र में स्वयं के हाथ का कता सूता भी अवश्यक हो’। हमसे सूत कातना संभव नहीं था। लेकिन कॉंग्रेस के बिना राजकीय पद भी नहीं
मिल सकता था। हमने गांधी की सलाह को फिर नकार कर उनकी आत्मा पर एक और प्रहार किया।
आज हाथ से सूत कातने वाले भूख से मर चुके हैं या मर रहे हैं। और हम .......
४.
‘स्वेच्छा से अपना सर्वस्व देश को चढ़ाने वालों के
लिए अब हमें अपना सुख उनके साथ बांटना चाहिए’
,गांधी ने कहा, ‘अब तक लाखों की संख्या में ग्रामीण मर गए ताकि हम स्वतंत्र रहें, अब
हमें मरना होगा, ताकि वे लोग जीवित रहें। गांधी ने हमें ‘उनके साथ अपना भोजन बांटने’ के लिए कहा, लेकिन हमने उनकी यह बात भी नहीं मानी। सत्य का प्रचार किया लेकिन
व्यापार असत्य का किया। प्रसार अहिंसा का किया लेकिन हिंसा को प्रोत्साहन देते रहे, गांधी को बेचते रहे।
सत्य
और अहिंसा पर चलना बहादुरी का काम है। मुझे पता है सब इतने बहादुर नहीं, बहुतों के पास ‘खोने के लिए’
बहुत कुछ है। लेकिन कम से कम उस राह पर चलने वालों को प्रोत्साहित तो कर ही सकते
हैं। साथ न दे सकें तो उनका विरोध तो न करें! मुझ पर ‘बालाकोट’ आक्रमण का बाण मत छोड़िए। अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए कभी कभी यह बताना
आवश्यक होता है कि अहिंसा हमारा सिद्धान्त है स्वेच्छा से अपनाया हुआ, हमारी मजबूरी नहीं। पटेल के पूछने पर गांधी ने
कहा था ‘तुम्हारे पास कश्मीर में सेना भेजने के अलावा और कोई
विकल्प नहीं है’।
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