सूतांजली ०२/११ जून २०१९
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शीत युद्ध और संवाद
कई
दशकों से सुबह की सैर के लिए लेक जाता हूँ। अभी पिछले कुछ महीनों से वहाँ एक
बुजुर्ग दक्षिण भारतीय दंपत्ति सुबह इडली और ढोसा बेचने आने लगे हैं। कम दाम और बेहतरीन
माल होने के कारण उनकी बिक्री बढ़ने लगी और अब तो रोज सुबह उनकी टेबल पर भीड़ जमा
रहती है। एक सुबह मैं भी वहाँ उस भीड़ में शामिल हो गया। कुछ ही देर में आगे बढ़ते
हुए मैं उसकी टेबल तक पहुँच गया। “मेरा ६ इडली” कह
कर मैं शांति से प्रतीक्षा करने लगा। तब तक मेरे बगल वाले सज्जन निकल गए और उनका
स्थान लिया एक युवती ने ‘मेरा १० इडली’
युवती ने कहा। लेकिन वह यहीं नहीं रुकी, बार बार ‘मेरा १०’ दोहराने लगी। मुझे खीज होने लगी। थोड़ी ही देर में ‘मेरा १०’ और ‘मेरा ६’ की गोलियां चलने
लगी। हम दोनों के बीच शीत युद्ध शुरू हो चुका था। मुझे यह भी अनुभव हुआ कि अगर
विक्रेता ने उसे पहले दिया तो शायद मैं बर्दास्त नहीं कर पाऊँगा। मुझे कुछ करना
चाहिए। संवाद स्थापित करने के उद्देश्य से मैंने कहा ‘यह अपनी
भाषा में गिनती कर रहा है। तमिल है या तेलुगू’? कोई जवाब
नहीं मिला। लेकिन गोलीबारी एक बार रुक गई। मैंने देखा कि विक्रेता बार बार अपना
हाथ झाड़ रहा है। अब मैंने उससे कहा ‘लगता है इडली बहुत गरम
है?’ उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया ‘हाँ’। मैंने फिर कहा ‘आहिस्ता आहिस्ता, अंगुलिया-हाथ बचा कर’। उसके बाद मेरे कानों मे आवाज
पड़ी ‘पहले इनका ६ फिर मेरा १०’। युद्ध
समाप्त हो चुका था। यह किसी की जीत हार नहीं थी। यह युद्ध का संवाद में विलय था।
हृदय परिवर्तन।
कुछ
दिन बाद वही युवती लेक पर घूमते हुए सामने से आते दिखी। पास आने पर मैंने हाथ जोड़
कर नमस्ते की। वह ठीक मेरे सामने आ कर चुपचाप खड़ी हो गई और आँखों में आँख डाल कर
मुझे घूरने लगी। आज के माहौल और समय को देख मैं थोड़ा घबड़ाया लेकिन फिर सधे शब्दों
में कहा ‘नमस्कार आपको नहीं आपके भीतर छुपे गुण को, समझ को’। अब वह भी मुस्कुराई
हाथ जोड़े और हम अपने अपने रास्तों पर आगे बढ़ गए। ‘पापी को नहीं पाप को मारो’ का मर्म समझ आया। गुणग्राही
बनो।
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एकला चलो रे!
सत्याग्रह
का प्रवेश द्वार दक्षिण अफ्रीका ही था। उस हथियार को गांधी ने पहली बार वहीं
आजमाया और सफल रहे। उस पहले मुक़ाबले की याद करते गांधी लिखते हैं-
मैंने
सपने में भी नहीं सोचा था कि इस काम में कोई भारतवासी अपूर्व वीरता प्रकट करेगा
अथवा सत्याग्रह का आंदोलन इतना ज़ोर पकड़ेगा। मैंने यह बात उसी क्षण हिंदुस्तानी
भाइयों से कही और बहुतेरे सत्याग्रह करने को तैयार हो गए। पहले युद्ध में लोग यह
समझ कर सम्मिलित हुए कि थोड़े ही दिनों तक कष्ट सहने से हमारा उद्देश्य सिद्ध हो
जाएगा। दूसरे युद्ध के समय आरंभ में थोड़े ही लोग सम्मिलित हुए। पीछे बहुत से लोग आ
मिले। बाद में श्री गोखले के वहाँ पहुँचने पर दक्षिण अफ्रीका की सरकार से समझौते
का वचन पा कर यह लड़ाई बंद की गई। परंतु सरकार ने फिर दगाबाजी की और अपना वचन पूरा
करने से इंकार कर दिया। इस पर तीसरा सत्याग्रह युद्ध आरंभ करना पड़ा। उस समय गोखले
ने मुझसे पूछा था कि आंदोलन में कितने आदमी सम्मिलित होंगे? मैंने लिखा कि 30 से 60 आदमी तक सम्मिलित होंगे। परंतु मुझे इतने भी साथी
नहीं मिले। हम 16 आदमियों ने ही मुक़ाबला शुरू किया। हमने दृड़ निश्चय कर
लिया था कि जब तक सरकार अपने अत्याचारी क़ानूनों को रद्द न करेगी अथवा कोई
समाधानकारक समझौता नहीं करेगी, तब तक हम हर एक दंड भुगतेंगे
पर सर न झुकाएँगे। हमें इस बात की बिलकुल आशा न थी कि हमें बहुत से साथी मिलेंगे
पर एक मनुष्य के भी नि:स्वार्थ पूर्वक सत्य और देशहित के लिए आत्म-समर्पण करने के
लिए तैयार होने का परिणाम अवश्य ही होता है। देखते-ही-देखते बीस हजार मनुष्य
आंदोलन में सम्मिलित हो गए। जेलों में जगह न रही और समस्त भारत का खून खौलने
लगा।
बहुत
से लोग कहते हैं कि यदि लॉर्ड हार्डिंग बीच बचाव नहीं करते तो समझौता होना असंभव
था। पर ये लोग यह भूल जाते हैं कि लॉर्ड हार्डिंग ने आखिर मध्यस्तथा क्यों की? दक्षिण अफ्रीका की अपेक्षा कनाडा के हिंदुस्तानी कहीं अधिक दुख पा रहे
थे। उन्होने वहाँ मध्यस्तथा क्यों नहीं की? जिस स्थान पर
हजारों स्त्री-पुरुष का आत्मबल एकत्र हो, जिस स्थान पर
असंख्य नर-नारी प्राण हथेली पर लिए हुए हों, वहाँ कौन सी बात
असंभव है? मध्यस्तथा करने के सिवा लॉर्ड हार्डिंग के लिए कोई
उपाय नहीं था और ऐसा करके उन्होने बुद्धिमत्ता प्रकट की।
गांधी
मार्ग, सितंबर-अक्तूबर 2018
1।
निर्णय, संख्या बल पर नहीं बल्कि सत्य बल पर आधारित हो तो
सफलता अवश्यंभावी है।
2।
टिप्पणी करना सहज है लेकिन उसका सही आकलन करना कठिन होता है।
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रावण महान!
रावण
का जन्म पुलस्त्य मुनि के वंश में हुआ था। यानि कुल का ब्राह्मण था। महान पराक्रमी
और योद्धा था। जनता सुखी और धनवान थी। उसकी राजधानी लंका, सोने की थी। ब्रह्मांड के देवी-देवता उससे काँपते थे। असाधारण शिव भक्त
था। तुलसी कृत मानस में तो इसका उल्लेख नहीं है लेकिन अन्यत्र यह उल्लेख मिलता है
कि लंका पर आक्रमण करने के पहले जब राम ने शिव पूजन का मन बनाया तब रावण ही उनका पुरोहित
बना था। इस प्रकार अपने ही विरुद्ध आक्रमण की सफलता के लिए शत्रु यजमान का पुरोहित भी बना।
इसके
विपरीत राम, क्षत्रिय वंश में थे, न उनकी
राजधानी सोने के थी और न ही उनकी प्रजा रावण की तुलना में उतनी सुखी और धनवान थी।
तब हम रावण को छोड़ राम का गुणगान क्यों करते हैं? मैं फिलहाल केवल दो बातों की चर्चा करना
चाहूँगा –
१.
अंहकर का अभाव - राम ने रावण की तरह कभी किसी भी अन्य राज्य पर
आक्रमण नहीं किया। कभी किया भी जैसे किष्किंधा, लंका
तब उन राज्यों को अपने राज्य में न मिलाकर वहाँ का राजा वहीं के नागरिक को बनाया।
राम से कोई डरता नहीं था। सब उनका आदर करते थे। और तो और उनके शत्रु बाली और रावण
को भी उनसे डर नहीं लगता था। यह राम की सहज प्रकृति और दयालु स्वभाव के कारण था।
जनता को राजा से डर नहीं लगना चाहिए। जनता का राजा के प्रति आदर भाव होना चाहिए।
रावण को उसके घर वाले भी सम्मति देने में घबराते थे वहीं राम के विरुद्ध एक साधारण
धोबी को भी अपनी बात कहने में डर नहीं लगा।
२.
ध्येय की महत्ता - राम और रावण दोनों शिव भक्त थे। लेकिन शिव किनके भक्त
थे? क्यों? राम और रावण की भक्ति
का ध्येय अलग था। एक का ध्येय सृजनात्मक था और दूसरे का विध्वंसात्मक। रावण शिव से
शक्ति प्राप्त कर तीनों लोकों का राजा बनने का ख्वाब पाल रहा था। सज्जनों-मुनियों को भयभीत करके रखता था। वहीं राम का ध्येय रावण
को परास्त कर सीता को मुक्ति दिलाना था। सज्जनों-मुनियों को भय मुक्त करना था। इसी
कारण शिव राम के भक्त थे रावण के नहीं।
दुर्भाग्यवश
आज हम तर्क नहीं कुतर्क में दक्ष हैं। ज्ञानी तर्क करता है, शिक्षित कुतर्क। आज शिक्षित ही
ज्यादा हैं, ज्ञानी कम। ये शिक्षित वर्ग ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ का दुरुपयोग कर जनता में
संदेहों और अविश्वासों का बीज बोते हैं। केवल शिक्षित मत बनिए, ज्ञानी भी बनिए।
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कौन जानता गांधी को - मई
2019
मई
2019 के प्रारम्भ होते ही ‘फनी’ चक्रवात ने पूर्वी भारत
को इस प्रकार भयाक्रांत किया कि पश्चिम बंगाल सरकार ने तत्काल सभी विद्यालयों में ‘छुट्टी’ की घोषणा कर दी। इस उठा पटक के कारण हम 3 के बजाय केवल एक ही स्कूल, हरियाणा विद्या मंदिर, साल्ट लेक में क्विज कर
पाये। खुशी की बात यह है कि प्रदर्शन के समय स्कूल की कार्यकारिणी के कई सदस्य भी उपस्थित
थे और सबों ने एक स्वर में हमारे प्रयास की सराहना की।
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हमें
आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता है। - संपादक