सूतांजली ०३/०७ फरवरी २०२०
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अर्थ-काम -> धर्म -> मोक्ष
शाम घिर आई है। सूर्य अस्त होने को है।
घनघोर जंगल में भटक गया हूँ। रास्ता नहीं सूझ रहा है। कभी ईधर बढ़ता हूँ कभी उधर।
अजीब अजीब पक्षियों और जानवरों की आवाजें आ रही हैं। निपट अकेला हूँ। मन घबरा रहा
है। फोन पर न जीपीएस पकड़ रहा है न ही कोई टावर। दिल की धड़कन भी धीरे धीरे बढ़ रही
है। तभी जंगली जानवर की दहाड़ सुनाई पड़ती है। चौंक कर नजर घुमाता हूँ। एक शेर धीरे
धीरे आगे बढ़ रहा है। मेरे पैर जड़ हो गए। धीरे धीरे पीछे होने लगा। धड़कन और बढ़ गई।
पसीने पसीने हो गया। जीभ जैसे तालू से चिपक गई। पूरी ताकत बटोर कर भागना शुरू करता
हूँ। बाघ मेरे पीछे है। मुड़ मुड़ कर देख कर भागने के चक्कर में गिर पड़ता हूँ और शेर
ने छलांग लगा दी। मेरे मुंह से ज़ोर की चीख निकल पड़ती है और आँख खुल जाती है। अपने
को बिस्तर पर पड़ा पाता हूँ। पसीना अभी भी है, धड़कन
अभी भी तेज है, लेकिन अब शेर नहीं है। मैं आराम से पड़ा हूँ। डर
दूर हो जाता है। धीरे धीरे शांत हो जाता हूँ। समझ लेता हूँ कि “वह सपना था
यह यथार्थ है”। मन में यह प्रश्न नहीं उठा ‘क्या
यह भी स्वप्न है और यथार्थ कुछ और’?
मेरे गुल्लक में २० रुपये हैं। मेरे लिए
२ रुपए का बहुत महत्व है। किसी और के गुल्लक में २०००० रुपए हैं उसके लिए २ रुपयों
का कोई महत्व नहीं लेकिन २००० का है। तीसरे के गुल्लक में २० लाख रुपए हैं। उसके
लिए २००० का महत्व नहीं लेकिन २ लाख का है। एक ही समय में अलग अलग लोगों के लिए
रुपयों का महत्व अलग अलग है। जबकि वे २ हों या २ लाख उन सब का, उस समय, समान मूल्य है। जैसे जैसे हमारी पूंजी बढ़ती
जाती है हमारे लिए कम पूंजी का महत्व कम होता जाता है। जैसे जैसे हमारा ज्ञान बढ़ता
जाता है हमारा ध्यान छोटे ज्ञान या छोटी बातों से हटता जाता है। जैसे जैसे हमारा
ध्यान छोटी बातों से अलग हो जाता है, हममें बड़प्पन आने लगता
है। जैसे जैसे पूंजी बढ़ती जाती है काम भी बढ़ता जाता है। वैसे ही जैसे जैसे ज्ञान
बढ़ता है मन शांत होने लगता है।
अर्थ का अर्थ सिर्फ धन नहीं है। हमार पद, हमारी शान, हमारा रुतबा,
हमारी शक्ति हमारा अभिमान-स्वाभिमान सब हैं। उसी प्रकार ‘काम’ का अर्थ सिर्फ काम वासना नहीं बल्कि कामनाएँ हैं। हमारी इन कामनाओं की
फेहरिस्त लंबी है, बहुत लंबी। बल्कि यह भी कह सकते हैं अंत
हीन हैं। ये लगातार बदलती रहती हैं। जुड़ती रहती हैं। हर ‘अर्थ’ और हर ‘काम’ बुरा नहीं है
जैसा कि साधारणतया हम समझते हैं। अ-धार्मिक
अर्थ और काम त्याज्य हैं जबकि धर्मयुक्त काम करने योग्य हैं। धर्म का यही कार्य
है। हमें अ-धार्मिक से धार्मिक की तरफ प्रवृत्त करना। जब हमें काम चाहिये
अर्थोपार्जन के लिए, इसका स्वरूप अधार्मिक हो जाता है। लेकिन
जब हमें अर्थ चाहिए काम पूरा करने के लिए तब यह धार्मिक हो जाता है।
जब हम इस प्रकार धार्मिक कार्यों में
प्रवृत्त होने लगते हैं तब प्रश्न उठने लगता है – इसके बाद? मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊंगा?
धर्म का कार्य यही है कि वह ऐसे प्रश्नों को उत्पन्न करने लगता है। सब
प्रकार की धार्मिक प्रार्थना, जप,
ध्यान, उपासना मन के मैल को साफ कर ऐसे प्रश्नों को जागृत
करते हैं। अर्थ और काम से हम मैल जमा करते रहते हैं, ये
क्रियाएँ इन्हे साफ करती रहती हैं। जैसे जैसे मैल साफ होता जाता है, तीव्रता गहरी होती जाती और ऐसे
प्रश्न का आना स्वाभाविक होता जाता है। शेर यथार्थ था, या यह
बिस्तर? यह बिस्तर यथार्थ है या इसके बाद भी कुछ और है? ये सब कौन
करा रहा है? सृष्टि के बाद क्या? नचिकेता
के मन में यही प्रश्न तीव्र था। मरने के बाद क्या होता है? इसे
जानने में कई कई जन्म भी लग जाते हैं। हमार ज्ञान बढ़ने लगता है, हमारे अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के जवाब हमें मिलने लगते हैं। हमें यह सब
दिखने लगता है। २० हजार और २० लाख का फर्क समझ आने लगता है। पूर्व जन्म, वर्तमान जन्म और आगे के जन्म का फर्क समझ आने लगता है। असीम दिख जाने पर
छोटा अपने आप छूट जाता है। शेर और बिस्तर का यथार्थ समझ आ जाता है। इस समझ के आने
को ही हम ‘तीसरे
नेत्र’ का खुलना कहते हैं। इसे जानने की इच्छा को ही मोक्ष
की इच्छा या मुमुक्षा कहते हैं। इन उत्तरों की खोज एक पुरुषार्थ बन जाता है। उस
ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा को ही मोक्ष पुरुषार्थ कहते हैं।
जीवन के यही चार पुरुषार्थ हैं – अर्थ और
काम जिसे धर्म नियंत्रित कर दिशा प्रदान करता है मोक्ष की तरफ।
(आचार्य
श्रद्धेय श्री नवनीतजी द्वारा श्री औरोबिंदो आश्रम, मधुवन, रामगड़ में जून २०१९ को दिये गए व्याख्यान पर
आधारित)
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श्री अरविंद का दूसरा और तीसरा पागलपन
(पिछले अंक (फरवरी 2020) में श्री अरविंद के तीन पागलपनों की चर्चा
की थी, जिसका जिक्र
उन्होने अपनी पत्नी से एक पत्र में किया था। उनका पहला पागलपन था ‘2
आना रखना और 14 आना देना’। उनके शेष दो पागलपन, जिसकी चर्चा उन्होने की, वे ये हैं।)
दूसरा
पागलपन - भगवान का साक्षात दर्शन प्राप्त
करना
“दूसरा पागलपन, हाल में ही सिर पर सवार हुआ है वह यह है कि चाहे जैसे भी हो, भगवान का साक्षात दर्शन प्राप्त करना ही होगा। आजकल का धर्म है, बात बात में मुंह से भगवान का नाम लेना, सबके सामने
प्रार्थना करना, लोगों को दिखाना कि मैं कितना धार्मिक हूँ।
मैं इसे नहीं चाहता। ईश्वर यदि हैं तो उनके अस्तित्व को अनुभव करने का, उनका साक्षात दर्शन प्राप्त करने का कोई न कोई पथ होगा, वह पथ चाहे कितना भी दुर्गम क्यों न हो, उस पथ से
जाने का मैंने दृड़ संकल्प कर लिया है। हिन्दूधर्म का कहना है कि अपने शरीर के, अपने भीतर ही वह पथ है। जाने के नियम भी दिखा दिये हैं, उन सबका पालन करना मैंने प्रारम्भ कर दिया है, एक
मास के अंदर अनुभव कर सका हूँ कि हिन्दूधर्म की बात झूठी नहीं है, जिन जिन चिन्हों की बात कही गई है उस सबकी उपलब्धि मैं कर रहा हूँ। अब
मेरी इच्छा है कि तुम्हें भी उस पथ पर ले चलूँ, ............
उस पथ पर चलने से सिद्धि प्राप्त हो सकती है, किन्तु प्रवेश
करना अपनी इच्छा पर निर्भर करता है, कोई तुम्हें पकड़ कर नहीं
ले जा सकता.........”
तीसरा
पागलपन – मैं स्वदेश को माँ मानता हूँ
“तीसरा पगलापन यह है कि अन्य लोग स्वदेश
को एक जड़ पदार्थ, कुछ मैदान, खेत, वन, पर्वत, नदी-भर समझते हैं, मैं स्वदेश को माँ मानता हूँ।, उसकी भक्ति करता हूँ, पूजा करता हूँ। माँ की छाती पर बैठ कर यदि कोई राक्षस रक्तपान करने के
लिए उद्यत हो तो भला बेटा क्या करता है? निश्चिंत हो कर भोजर
करने, स्त्री-पुत्र के साथ आमोद-प्रमोद करने के लिए बैठ जाता
है या माँ का उद्धार करने के लिए दौड़ पड़ता है? मैं जानता हूँ कि पतित जाति का उद्धार करने का बल मेरे अंदर है, शारीरिक बल नहीं, तलवार या बंदूक लेकर मैं युद्ध करने
नहीं जा रहा हूँ, वरन ज्ञान का बल है। क्षात्र तेज एकमात्र
तेज नहीं है, ब्रह्म तेज भी एक तेज है, वह तेज ज्ञान के ऊपर प्रतिष्ठित होता है। यह भाव नया नहीं है, आजकल का नहीं है, इस भाव को लेकर ही मैंने जन्म
ग्रहण किया है, यह भाव मेरी नस-नस में भरा है, भगवान ने इसी महाव्रत को पूरा करने के लिए मुझे पृथ्वी पर भेजा है। ....
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चलते चलते – इन्हे भी जानिए
क्या आपने सुना है ‘ह्यूमेनिटी हॉस्पिटल’ का नाम?
या फिर सुभाषिणी मिस्त्री का नाम? १५००० स्क्वायर फीट में
फैला ४५ बिस्तरों वाले इस अस्पताल के प्रेरणा स्त्रोत हैं ये शब्द “अमीर हो
या गरीब, बच्चा
सुभाषिणी मिस्त्री |
हो या बूढ़ा, सबों के लिए सस्ते मूल्यों पर चिकित्सा। हम यह सुनिश्चित करते हैं कि सबों
को सुलभ दरों पर चिकित्सा उपलब्ध हो”। ये शब्द हैं
सुभाषिणी मिस्त्री के - एक अति साधारण सड़क के किनारे तरकारी बेचने वाली महिला के
जिसने इस अस्पताल का सपना देखा और उसे
मूर्त रूप दिया। ‘अहा!जिंदगी’ की इन पर
नजर पड़ी जून २०१५ में और सबसे बड़ी बात कि सरकार की भी इस पर नजर पड़ी और २०१८ में ‘पद्मश्री’ से नवाजा। www.humanityhospital.org
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- महेश
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