सूतांजली ०३/०८ मार्च २०२०
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उत्सव
उत्सव यानि त्योहार। त्योहार यानि उमंग, यानि खुशी, यानि चमक, यानि
सुगंध, यानि प्रेम, यानि अपनों का साथ।
अलग अलग नहीं, सब एक साथ। संक्षेप में कहूँ तो सबों के साथ
खुशनुमा बदलाव। इनमें से एक भी छूटा तो उत्सव फीका पड़ा। रोज की दिनचर्या से हट कर
कुछ और करने का जज़बा। ये सब सामग्रियाँ किसी भी उत्सव के आवश्यक अंग हैं। इनमें भी
अगर आप पूछें सबसे अहम अंग कौन सा है ? तो इसका दिल है ‘अपनों का साथ’। सब कुछ हो लेकिन अपनों का
साथ न हो तो न उत्सव न त्योहार। समय के साथ साथ हमारे उत्सवों में से एक एक कर ये सामग्रियाँ
कम होती गईं और जैसे जैसे ये कम होती गईं हमारे उत्सव फीके पड़ते गए।
क्या आप बता सकते हैं इन में से वह
कौनसी सामग्री है जो सबसे पहले छूटी? हाँ, आपने ठीक पहचाना, ‘अपनों का
साथ’। ये अपने कौन थे? हमारे रिश्तेदार, हमारे परिचित, हमारे दोस्त और हमारे पड़ोसी। हम
ने अनेक बहाने खोजे,
और खोज कर अपनों का दायरा सिकोड़ते चले गए। हम कहते हैं लोग अब रंग नहीं केमिकल-गोबर-गंदगी
का प्रयोग करते हैं, गुलाल नहीं धूल लगाते हैं, प्रेम नहीं रहा, समय की बर्बादी है .......। झूठ
कहते हैं हम। ये तो केवल बहाने हैं। अपने आँसूओं को छिपाने के। क्या हमें याद है
हमने पिछली होली कब, किस के साथ, कहाँ
और कैसे खेली थी? अगर वे सब फिर जमा हो जाएँ तो क्या हम फिर
वही हुड़दंग किए बिना रहेंगे? हाँ, कई
बिछुड़ गए लेकिन नए तो आए हैं? उन्हे मिलाइए, उन्हे जोड़िए। हर उत्सव की जड़ तो वही ‘अपनों का साथ’ ही है। उनके बिना हर उत्सव वैसा ही है जैसे बिना नमक का व्यंजन, बिना चीनी की मिठाई। जहां जड़ मजबूत हुई ये सब बहाने नदारद हो जाएंगे और
फिर से आ जाएगी वही खुशी, उमंग, चमक, सुगंध, त्योहार। जहां ये जमा हुए, उत्सव राग बजने लगेगा।
बाजार से रंग नहीं फूल लाइये। गुलाल
नहीं जड़ी बूटियाँ लाइये। अगर आप के पास समय नहीं है तो बच्चों, दादा, दादी, बुजुर्ग, मित्र, पड़ोसी को साथ लगाइये। अगर उन्हें नहीं आता
तो उन्हे बता दीजिये, इंटरनेट में बनाने की विधियां मिल
जाएगी। फूलों से प्राकृतिक रंग और जड़ी बूटियों से सुगंधित गुलाल बनाइये। बच्चों को उत्सव और त्योहार का
अर्थ समझ आयेगा और वे उससे जुड़ेंगे। उनके उत्साह और उमंग में खुशी और सुगंध का
तड़का लगेगा। मिठाई भले ही बाजार से लाइये, लेकिन कम से कम एक
मिठाई घर पर ही बनाइये। रिश्तेदारों को शामिल कीजिये – उन्हे बुलाएँ या उनके पास
जाएँ। उनके आमंत्रण का इंतजार मत कीजिये। क्या आप होली खेलने बुलाने पर जाते थे? या बिना बुलाए ही जाते थे? मित्रों और पड़ोसियों के
दिलों पर दस्तक दीजिये। देखिये दरवाजे खुलने लगेंगे। उत्सव का संगीत फिर से बजने
लगेगा। होली की होली मत ‘जलाइये’ बल्कि होली ‘मंगलाइए’।
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जो फल पावे, मनवांछित बन जावे
“अरे रामू उ उ उ ..... जरा दौड़ कर बाजार
जा और ये सामान जल्दी से ले आ”, मालकिन ने रामू को दैनिक वस्तुओं की एक लिस्ट तथा
तदनुसार रुपए देते हुए उसे आवाज लगाई। रामू के निकलते ही ड्राईवर को गाड़ी निकालने
का हुक्म सुना दिया ‘मंदिर जाना है’।
मंदिर में ठाकुर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी
हो गईं, आंखे बंद, ध्यानमग्न लेकिन पूरी तरह से चैतन्य। एक दूसरी लिस्ट निकल गई।
इस बार लिखी हुई नहीं है मानसिक रूप से कार्यों की एक लिस्ट उसने ठाकुर को पकड़ा दी
- मेरे पैरों को ठीक कर दे, इनकी सुनने की कोई व्यवस्था कर दे, बहू का दिमाग ठीक
कर दे, बेटी की सास को उसके गाँव भेज दे नहीं तो किसी भी तीर्थस्थान पर ही भेज दे,
पोते को..(अंतहीन).... बाकी जो और तेरे को ठीक लगे। यानि ये सब तो करना ही है
लेकिन यह अंतिम मांग नहीं है। अपनी समझ से और भी जोड़ दे। जैसे कि चेतवानी दे रही
हों कि अगर तुमने नहीं जोड़ा तो अगली बार मैं कुछ और जोड़ दूँगी। और अपने इन कामनाओं
की पूर्ति के बदले, तदनुसार, वे क्या चढ़ाएंगी, क्या पूजा-पाठ करवाएँगी, कौनसे मंदिर का दर्शन
करेंगी आदि आदि का मानसिक संकल्प। साथ ही वादा पूर्ति के लिए कुछ अग्रिम भुगतान भी
उन्होने ठाकुर की थाली में डाल दिये। फिर
आरती भी कर ली ‘......मन इच्छा फल पावे, मनवांछित फल पावे......’ और दूसरी-दूसरी पंक्तियाँ भले ही दो बार गायी हों इस पंक्ति को
हिल हिल कर, ताली बजा बजा कर उच्च स्वर में कई बार गायी गईं। निकलते निकलते एक बार
फिर से याद करा दिया ‘देखना ध्यान रखना’।
इस रामू और ठाकुर में कोई फर्क नजर आता
है आपको? हाँ, एक फर्क जरूर है, एक चपरासी
है और दूसरा अधिकारी। दोनों से कामनाएँ हैं, पद के अनुसार आदेश
और अनुग्रह है, आवश्यकता की लिस्ट है और उसके अनुसार भुगतान
या विनिमय में नगद या वादे हैं।
जिस दिन दिल से इसके बदले यह निकले ‘जो
फल पावे, मनवांछित बन जावे’ समझ लीजिये आपको मोक्ष मिल गया। जिस दिन धन
कमाने के लिए काम ढूँढने के बदले धन ढूँढने लगें काम को पूरा करने के लिए, समझ लीजिये तीसरा नेत्र खुल गया। ठाकुर को लिस्ट देने के बजाय लिस्ट
बनाने की ज़िम्मेदारी भी उसे ही सौंप दें! जीवन बदल जाएगा। ठाकुर से सौदेबाजी बंद
हो गई। मोक्ष कोई स्थान नहीं, बल्कि वह ज्ञान है जहां हमें यह पता चल जाता है कि
इस जन्म के बाद क्या? यह ठीक वैसे ही है जैसे सपने से जागते ही हमारा स्वप्न से
कोई सरोकार नहीं रहता और हम यथार्थ के संसार में आ जाते हैं। शेर गायब हो जाता है, जंगल नहीं दीखता और हम अपने बिस्तर पर आ जाते हैं। स्वप्न और संसार का फर्क समझ आ जाता है। ठीक
वैसे ही मोक्ष का ज्ञान प्राप्त होते ही हम देख लेते हैं, अनुभव कर लेते हैं कि यह
दुनिया भी एक स्वप्न मात्र ही है। कामनाएँ तब भी रहती हैं लेकिन उस की पूर्ति करना, न करना ठाकुर के हाथ में छोड़ देते हैं। निष्काम कर्म की उत्पत्ति होती
है। मिला तो ठीक, न मिला तो ठीक। यह एक अलग ही हलका जीवन बन
जाता है। ज्ञान यानि मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अर्थ और काम को त्याग कर धर्म
की तरफ प्रवृत्त तो हुए लेकिन उसके बदले अर्थ और काम की ही इच्छा रही, इन्ही के विनिमय में धार्मिक कृत्य किया तो रहे तो वहीं के वहीं। निचोड़ -
हमें करने योग्य कर्म करने हैं बिना उस के फल पर आश्रित हुए। यही है असली मोक्ष।
(आचार्य श्रद्धेय
श्री नवनीतजी द्वारा श्री औरोबिंदो आश्रम, मधुवान, रामगड़ में जून २०१९ को दिये गए व्याख्यान
से संकलित)
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चलते चलते – इन्हे भी जानिए
जिसे बाद में सरकार की सहायता से जिला पंचायत उच्च
प्राथमिक विद्यालय में तब्दील कर दिया गया। इनके पास खुद के रहने के लिए ढंग का
मकान नहीं है, खुद कभी स्कूल नहीं गए। उन्हे प्रेरणा मिली एक
घटना से। एक बार एक विदेशी ने उनसे अँग्रेजी में संतरे का दाम पूछ। वे समझ नहीं
पाये, अत: जवाब नहीं दे पाये। उसी समय यह तय किया कि भले ही
वे नहीं पढ़े हों लेकिन गाँव के बच्चों के लिए एक स्कूल खोलूँ जहां वे पढ़ सकें और
उन्हे ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़े।
जब इन्हे सरकार से 2020 में पद्मश्री मिलने की खबर मिली उस समय वे राशन दुकान
की लाइन में खड़े थे। हम तो उनसे ज्यादा सक्षम हैं। फिर .......
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आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता है। - महेश