शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

सूतांजली जनवरी २०२१

सूतांजली

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वर्ष : ०४ * अंक : ०६                   🔊००.००-२६.३०                   जनवरी  * २०२१

अगर आप सचमुच चाहते हैं कि जीवन आबाद रहे, तो प्रेम को चुनें, चाहते हैं सपने साकार हों, तो प्रेम को चुनें, चाहते हैं सेहत और स्वास्थ्य बेहतरीन रहें तो प्रेम को चुनें, चाहते हैं रिश्तों 

से सुख ही सुख मिले तो प्रेम को चुनें, चाहते हैं समृद्धि आये तो प्रेम को चुनें

चाहे जो भी आपकी  तमन्ना हो, उसे पाने का सबसे सरल,

सहज और आसान रास्ता है प्रेम ।

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ध्यान कैसे करें? 

🔉 ००.००-०९.९०

ध्यान! ध्यान कैसे करें? यह प्रश्न हमें मथता रहता है। हम पूछते रहते हैं; मन बड़ा चंचल है, एकाग्र होता ही नहीं, इधर उधर भागता रहता है, ऐसे में ध्यान कैसे किया जाये? इस कैसे के पहले एक दूसरा प्रश्न; ध्यान क्यों? ध्यान क्यों करना चाहते हैं? प्राय: इसका उत्तर एक ही होता है शांति पाने के लिए। इसी एक परिणाम की आशा में ध्यान करना चाहते हैं। समझते हैं कि किसी एक स्थान पर आँखें मूँद कर बैठ जाने से शांति मिल जाएगी।  प्राय: हम इस बारे में स्पष्ट नहीं होते कि ध्यान क्या है, क्यों करना है और इससे कैसे लाभ उठाया जाये।

मनुष्य अपने-आप में खंडित है, उसकी चेतना बिखरी हुई है। ध्यान के द्वारा हम अपने खंडों को जोड़ सकते हैं, अपने व्यक्तित्व को समग्र बना सकते हैं। अग्निशिखा की संपादिका श्रीमती वंदना जी ने अपना एक संस्मरण इस पत्रिका में साझा किया है। आइए, ध्यान की चर्चा पर आगे बढ़ने के पहले उनका वह संस्मरण पढ़ते हैं।

नवम्बर का महीना था, हमारा मसूरी जाने का कार्यक्रम बना। पर्यटकों के हिसाब से बेमौसम पहुंचे तो मसूरी के प्राकृतिक सौन्दर्य का भरपूर रसपान कर पाये। हफ्ते भर बाद यूं ही अकेली घूमने निकल पड़ी मैं और कुछ ही दूरी पर मैंने अपना लक्ष्य पा लिया।

वह छोटी सी दुकान चमत्कार के टुकड़ों से कम न थी – पारदर्शक काँच के छोटे-छोटे रंगीन  खिलौनों की दुनिया जहां ऊंट से लेकर बंदर तक की पंक्तियाँ सजी थीं।  मैं उस ओर बरबस खींची चली गई और देखती क्या हूँ, एक सुदर्शन किशोर गरम काँच से उसी समय उन खिलौनों को गढ़ रहा था। कितना मंत्र मुग्ध करने वाला दृश्य था वह। अभी अभी एक लौंदा पड़ा है और दूसरे ही पल वह सारस या हिरण, हाथी या खरगोश – न जाने किस-किस रूप में सजीव हो उठता है – मैं अपलक यह दृश्य देखती रही और निहारती रही उन गोरे हाथों की दक्षता को जिन्हें रचते समय सर्जनहार ने नि:संदेह कौशल के पुट की मात्रा को बढ़ा दिया था। लेकिन अचानक मुझे महसूस हुआ कि खिलौने गढ़ लेने के बाद वे हाथ टटोल-टटोल कर उन्हें यथास्थान रख रहे थे – मन में खटका हुआ, लेकिन फिर उन नीली, खूबसूरत आँखों को देख कर मैंने उस विचार को बहुत दूर खदेड़ दिया। तभी दुकान के दूसरे लड़के की आवाज सुनाई दी, “नीलू, वह खुले पंखोवाला मोर पकड़ाइयो जरा, नहीं उधर नहीं, नैक हट कर .......”

मेरे सिर में हथौड़े बजने लगे, शरीर में असंख्य कांटे उग आए, आँखें बिना रौशनी के चौंधियाने लगी .....क्या, क्या सचमुच यह लड़का अंधा है? नहीं, नहीं मेरा मन किसी भी तरह विश्वास करने को तैयार नहीं हुआ... । न जाने कितनी देर मैं वहीं पत्थर की मूरत बनी खड़ी रही।

खिलौनों के बजाय अब मेरी नज़रों को उस हस्त-कौशल, उस मुखड़े ने बांध लिया था और मैं बिना किसी भूमिका के बोल उठी, “भैया, तुम्हें दिखाई नहीं देता क्या?” 

“जी नहीं,” उस मुखड़े ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

“लेकिन इत्ते सुंदर-सुंदर, प्यारे-प्यारे खिलौने कैसे गढ़ लेते हो?

वह हल्के से मुस्कुराया। काम छोड़ दोनों हाथ मेरी तरफ बढ़ा कर बोला, “क्यों बहिन जी, ये देखते हैं न। ये दोनों मेरी दोनों आँखें हैं।” मैं निरूत्तर हो गयी।

यह उसका ध्यान ही तो था जिसे वह अपने हाथों में एकाग्र कर उनसे आँखों का काम लेता, सृजन करने में तल्लीन था। उसके ध्यान का एक केंद्र था, एक लक्ष्य था। 

कई बार ऐसा देखा गया है कि किसी असाध्य रोग से पीड़ित रोगी का इलाज करते चिकित्सक दुविधा में पड़ जाता है। उसे समझ नहीं आता कि क्या करें। तब, खुली आँखों से भी, जब वह ध्यान करता है तो उसे एक दवा सूझती है और रोगी स्वस्थ्य हो जाता है। कहते हैं श्री अरविंद आश्रम में एक चिकित्सक थे, जो बहुत अधिक पढे-लिखे नहीं थे। एक बार उनसे पूछा गया; वैद्यजी, आप क्या करते है?” उन्होंने कहा, मैं भगवान का ध्यान करता हूँ, जो दवा ध्यान में आती है, वही दे देता हूँ और रोगी ठीक हो जाता है”। उनके ध्यान का लक्ष्य रोगी का उपचार करना था। विश्व में कठिन परिस्थितियों में ध्यान द्वारा मार्ग जानने के उदाहरण भरे हुए हैं जिनमें मनीषी, महापुरुष और वैज्ञानिक भी शामिल हैं। उन सब के ध्यान करने का अपना अपना लक्ष्य था।

ध्यान, यानि अपने खंडों को जोड़ कर अपने व्यक्तित्व को समग्र बनाना। यदि हम दैन्य-भरा जीवन नहीं बिताना चाहते तो एक शक्तिशाली उपाय है ध्यान – चौबीस घण्टे ध्यान। परंतु आँखें मूँद कर ध्यान नहीं, हम आँखें मूँद कर आधे घण्टे के लिए ध्यान कर सकते हैं, परंतु खुली आँखों से चौबीस घण्टे ध्यान हो सकता है। हम ध्यान को जीवन के साधारण लक्ष्य से अलग नहीं कर सकते। पहले हमें अपने जीवन का ध्येय साधित करना होगा और फिर हर ध्यान के लिए एक विशेष लक्ष्य निश्चित करना होगा। आज हम रोगमुक्त होने के लिए, कल अन्तर्भासिक क्षमता विकसित करने के लिए, परसों कवि बनने के लिए और उसके बाद भागवत पथ-प्रदर्शक पाने के लिए।

हमें एक सहायक वातावरण चाहिये। हम चौबीस घण्टे ध्यान करने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन  इन चौबीस घंटों में भी कोई निश्चित समय होना चाहिये। अगर हम नियमतता स्थापित कर सकें, तो वह निश्चित समय पर स्वयं-स्वचालित हो जाता है और कुछ समय के बाद उसके लिए प्रयास की जरूरत नहीं रहती है।

हमारा ध्यान सक्रिय होना चाहिये। निष्क्रिय ध्यान बहुत सहायक नहीं होता। हमारे सामने एक लक्ष्य होना चाहिये और उस लक्ष्य के लिए तीव्र अभीप्सा होनी चाहिये। अभीप्सा की तीव्रता और सच्चाई के अनुसार परिणाम धीमे या तेज़ आयेंगे।

(अग्निशिखा और दिव्य शरीर में दिव्य जीवन पर आधारित)

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बोध कथा

🔉०९.९०-१६.११

बोध कथाएँ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। हमारे पुराण, रामायण, महाभारत ऐसी कथाओं से भरी-पूरी हैं। कल्याण के २०२०का वार्षिक अंक बोध कथा अंक ऐसी कथाओं-आख्यानों का खजाना है। इस विशाल अंक में ५०० से ज्यादा कथाएँ बहुत ही सरल और सरस भाषा में उपलब्ध हैं। इन कथाओं को अलग अलग ८ खंडों में विभाजित कर सजाया गया है, - १.महापुरुषों के जीवन प्रसंग, २.प्रेरणा दायक कथाएँ, ३.नीतिपरक कथाएँ, ४. कर्म सिद्धान्त कथाएँ, ५.आर्ष साहित्य की कथाएँ, ६.विभिन्न धर्म-संस्कृतियों की बोध कथाएँ, ७. लोक जीवन की कथाएँ और ८. आध्यात्मिक कथाएँ।

लेकिन बोध कथाएँ किसे कहते हैं और इनका क्या उद्देशय है? अंक के प्रारम्भ में संपादक श्री राधेश्याम खेमका ने इस पर प्रकाश डाला है, “समस्त पुराणों, रामायण एवं महाभारत के सुदीर्घ कलेवर में पदे-पदे कथा, आख्यान, उपाख्यान, दृष्टांत आदि के रूप में विन्यस्त बोधकथाओं की विशाल थाती प्राप्त होती है जो हमारी अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर है। बोध कथाएँ ऐसा करो-ऐसा न करो इस प्रकार से आज्ञा नहीं देतीं, बल्कि एक सच्चे हितैषी मित्र की भांति ऐसा करना चाहिए-ऐसा नहीं करना चाहिए यह बताकर कर्तव्याकर्तव्य का सहज ही ज्ञान करा देती है। इसी प्रकार संसार के महापुरुषों के जीवन के ऐसे प्रसंग, जो रोचक भी हों, विशेष उपयोगी होते हैं। नीरस अथवा बोझिल प्रतीत होनेवाले उपदेशों के स्थान पर महापुरुषों के छोटे छोटे प्रेरक प्रसंग कहीं अधिक सुबोध और प्रभावी सिद्ध होते हैं।

अपनी बात को श्री खेमकाजी ने एक छोटी सी कहानी के माध्यम से स्पष्ट किया है।  पाटलिपुत्र नगर  में सुदर्शन नाम का एक राजा था। उनके पुत्र युवा थे और राज पुत्र होने के कारण धन-संपत्ति से परिपूर्ण थे। इसके प्रभाव से उनके पुत्र अहंकारी, अविवेकी और मूर्ख थे। राजा ने सुना , “यौवनं धनसम्पत्ति: प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम॥” अर्थात युवावस्था, धन, प्रभुता और अविवेकिता – इस चारों में से एक भी किसी में आ जाय तो वह अनर्थ का कारण हो सकता है। परंतु जिसमें चारों बातें एक साथ हों, वहाँ का तो कहना ही क्या?” यह सुनकर राजा बेहद चिंतित हो उठा। उसने इस बारे में अपने दरबार के विद्वानों से अपने पुत्रों की उछृखंलता की चर्चा कर इसका उपाय पूछा। उनके सुझाए उपायों से कोई लाभ नहीं हुआ। तब विष्णुशर्मा नामक एक पण्डित ने राजा को आश्वस्त किया और उसके पुत्रों को पशु-पक्षी की कथाओं से सुबुद्ध बनाने का प्रयास किया। इस प्रकार जिन राजकुमारों को कोई भी व्यवहार-नीति का बोध न करा सका, उनको श्री विष्णु शर्मा ने बोधकथाओं के माध्यम से मात्र छ: मास में सहज ही सुमार्ग पर लाकर नीति विशारद बना दिया। हितोपदेश में इन्हीं कथाओं का संग्रह है। इस ग्रंथ की रचना लगभग ११वीं शताब्दी में माण्डलिक राजा धवलचंद्र के आश्रित नारायण पण्डित द्वारा की गयी।

इन बोध कथाओं के ग्रन्थों की चर्चा करते हुए श्री खेमकाजी बताते हैं कि लौकिक संस्कृत वाङ्ग्मय के प्राचीन ग्रन्थों यथा – श्री विष्णु शर्मा विचारित पंचतन्त्र (लगभग तृतीय शताब्दी), आचार्य  गुणाढ्य कृत बृहत्कथा (लगभग प्रथम शताब्दी), कश्मीर के पण्डित सोमदेव कृत कथासारित्सागर (११वीं शताब्दी), श्री नारायण पण्डित विरचित हितोपदेश (लगभग ११वीं शताब्दी), भोजप्रबंध, सिंहासनद्वात्रिंशिका (हिन्दी में सिंहासन-बत्तीसी के नाम से प्राप्त), वेताल पंचविंशति (हिन्दी में वेतालपच्चीसीके नाम से प्राप्त) हैं।

इन कथाओं और ग्रन्थों का वैश्विक भाषाओं में अनुवाद का इतिहास भी बताने में खेमकाजी नहीं चूकते। वे बताते हैं कि इस सांस्कृतिक थाती ने विदेशी यात्रियों एवं विद्वान लेखकों को भी अत्यन्त विस्मित एवं प्रभावित किया। इन ग्रन्थों में सबसे अधिक लोकप्रियता पंचतन्त्र को मिली। सर्वप्रथम ५३३ ईस्वी में इसका फारसी में, इसके बाद ५६० ईस्वी में सीरियन भाषा में, तत्पश्चात ७५०  ईस्वी में सीरियन अनुवाद के आधार पर अरबी में पंचतंत्र का अनुवाद हुआ। पुन: अरबी अनुवाद ७८१ ईस्वी में हुआ। वस्तुत: भारतीय बोध कथाओं के अनुवाद ग्रीक, लैटिन, स्पैनिश, फ्रेंच, जर्मन, सीरियन, फारसी, अरबी इत्यादि अन्यान्य भाषाओं में सतत होते रहे। उससे एक तरफ उन देशों की भाषा और साहित्य समृद्ध हुए तो दूसरी तरफ भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कारों का विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार हुआ।

ग्रंथ में संग्रहीत कथाएँ पाठक को केवल अभिभूत ही नहीं करती बल्कि उसे चरित्रवान, नीतिवान, कर्मवान बनाती है, कठिनाई में हमारा पथ-प्रदर्शन करती हैं, हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने  में प्रेरित करती हैं। ग्रंथ केवल पठनीय ही नहीं बल्कि एक उत्कृष्ट उपहार भी है।

(इस ग्रंथ की एक प्रति अपने घर में रखें। नव-वर्ष में यह संकल्प लें कि इसकी कहानियाँ बच्चों को पढ़ कर सुनाएँगे तथा ग्रंथ उन्हें उपहार में भी देंगे।)  

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जनसम्पर्क

🔉१६.११-२०.१९

किसी की लोकप्रियता का कोई एक कारण नहीं होता। अनेक कारणों में एक कारण है, जनसम्पर्क  अभियान। निरंतर समाज के हर वर्ग के लोगों से बिना किसी भेदभाव के सम्पर्क बनाये  रखना। इसके लिए गांधी कई कार्य निरंतर करते थे। मसलन - पूरे भारत में सफर, कई भाषाओं में पत्र – पत्रिकाओं  का सम्पादन, बिना रोक टोक  के लोगों से मिलना, बिना नागा हर जगह जहां भी हों  प्रार्थना सभा और सबसे अहम पत्राचार। हर पत्र का उत्तर देना उनकी खासियत थी । लंबे-लंबे पत्रों का एक पंक्ति में ऐसा जवाब देना कि लेखक को उस एक पंक्ति से भी पूरा संतोष होता था। पत्र लिखने में गांधी को माहरत हासिल थी। अगर गांधी वाङ्ग्मय  पर नजर डालें तो पाते हैं कि उसका एक बड़ा हिस्सा उनके लिखे पत्रों का ही है। इन पत्रों का एक बड़ा भाग हाथ से पोस्टकार्ड में है  और एक ऐसी शैली में जो स्पष्टता और संक्षिप्तता का अद्भुत नमूना है।

उनकी प्रसिद्ध नमक यात्रा से मोतीलाल नेहरू सहमत नहीं थे। जब इस यात्रा का मसौदा तैयार हो रहा था तब मोतीलाल जी ने इस यात्रा के विरोध में गांधी को कई पन्नों का एक लंबा पत्र लिखा। उस पत्र के जवाब में गांधी ने एक पोस्ट कार्ड में केवल एक पंक्ति लिखी “करो तो समझो”। गांधी ने कहा तो मोतीलालजी ने किया और करने के बाद उनका विरोध समाप्त हो गया और लिखा “किया तो समझा”।

इसी प्रकार आश्रम के बच्चों को अलग अलग पत्र न लिख कर वे उन्हे सामूहिक पत्र लिखा करते थे। आश्रमवासियों के पत्र प्राय: प्रश्न के रूप में ही हुआ करते थे और गांधी अपनी आदतानुसार उन सब पत्रों के प्रश्नों के उत्तर सामूहिक रूप में एक संक्षिप्त पत्र में ही दिया करते थे। गांधी के इस प्रकार के संक्षिप्त प्रश्नों से महादेव भाई को संतोष नहीं होता था। अत: उन्होंने एक बार प्रश्न किया कि  गीता में अर्जुन कृष्ण से संक्षिप्त प्रश्न करते हैं और कृष्ण उसका विस्तार से उत्तर देते हैं, तब आप हमारे प्रश्नों का उत्तर इतना संक्षेप में क्यों देते हैं? गांधी ने खासतौर से उन्हे अलग से पत्र लिखा “क्या तुम नहीं देखते कि कृष्ण के पास केवल एक अर्जुन था लेकिन मेरे पास बहुत से हैं”। इसी प्रकार जब महादेव भाई के पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए एक नियमित स्कूल में भेजा तब महादेव भाई ने इसका विरोध किया और गांधी को हर बात विस्तार से लिखी। उन्हे गांधी का एक शब्द का पत्र मिला “शाबाश”। लेकिन उन्होंने उसे यहीं  नहीं छोड़ा बल्कि उनकी शिक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। गांधी उत्तर खुद लिखते थे, मन से लिखते थे और सामने वाले की पूरी इज्जत के साथ उसका समाधान करते जिससे उसे संतोष मिलता था।

(डिजिटल प्रेजेंस का अनुवाद किया गया है – आभासीय उपस्थिती। हाँ, डिजिटल मैसेज आभास ही दर्ज कराते हैं, उपस्थिती नहीं। फोन पर बात करें, पत्र लिखें। इनका प्रभाव अलग है जिसका अनुभव किया जा सकता है।)

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कारावास की कहानी

🔉२०.१९-२६.३०

(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल बंद में थे। जेल के इस जीवन का, श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से, रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम इस माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। यहाँ इसका पहला अंश है।)

(१)

मेरे निर्जन कारावास का भूगोल

मेरा निर्जन कारागृह था नौ फीट लंबा और पांच-छ: फीट चौड़ा, इसमें कोई खिड़की नहीं, सामने था एक वृहत् लौह-कपाट; यह पिंजरा ही बना मेरा निर्दिष्ट वासस्थान । कमरे के बाहर था एक छोटा-सा पथरीला आंगन और ईंट की ऊंची दीवार, सामने लकड़ी का दरवाजा । उस दरवाजे के ऊपरी भाग में मनुष्य की आँख की ऊंचाई पर था एक गोलाकार छेद, दरवाजा बंद होने पर संतरी उसमें आँख सटा थोड़ी-थोड़ी देर में झांकता था कि कैदी क्या कर रहा है । किंतु मेरे आंगन का दरवाजा प्रायः खुला रहता । ऐसे छ: कमरे पास-पास थे, इन्हें कहा जाता था छ: 'डिक्री' । डिक्री का अर्थ है विशेष दण्ड का कमरा, न्यायाधीश या जेल सुपरिण्टेण्डेण्ट के हुकुम से जिन्हें निर्जन कारावास का दण्ड मिलता था, उन्हें ही इन छोटे-छोटे गह्वरों में रहना होता था । इन निर्जन कारावासों की भी श्रेणी होती है । जिन्हें विशेष सजा मिलती है उनके आंगन का दरवाजा बंद रहता है; मनुष्य संसार से पूर्णतया वंचित हो जाते हैं, उनका जगत् से एकमात्र संपर्क रह जाता है संतरी की आंखों और दो समय खाना लानेवाले कैदी से । सी.आई.डी.  की नजरों में हेमचन्द्र दास मुझसे भी ज्यादा आतंककारी थे, इसीलिये उनके लिये ऐसी व्यवस्था की गयी । इस सजा के ऊपर भी सजा है, हाथ-पैर में हथकड़ी और बेड़ी पहन निर्जन कारावास में रहना । यह चरम दण्ड केवल जेल की शांति भंग करनेवालों या मारपीट करनेवालों के लिये नहीं, बार-बार काम में गफलत करने से भी यह दण्ड मिलता है । निर्जन कारावास के मुकदमे के आसामी को दण्ड-स्वरूप ऐसा कष्ट  देना नियम के विरुद्ध है परंतु स्वदेशी या 'वंदेमातरम्'-कैदी नियम से बाहर हैं, पुलिस की इच्छा से उनके लिये भी सुव्यवस्था होती है।

बहु प्रयोजक थाली और कटोरा 

हमारा वासस्थान तो था ऐसा, लेकिन साज-सरंजाम  में भी हमारे सहृदय कर्मचारियों ने आतिथ्य सत्कार में कोई त्रुटि नहीं की। एक थाली और एक कटोरा आंगन को सुशोभित करते थे । खूब अच्छी तरह मांजे जाने पर मेरा सर्वस्व थाली और कटोरा चांदी की तरह इस कदर चमकते कि प्राण जुड़ जाते और उस निर्दोष किरणमयी उज्ज्वलता के 'स्वर्गजगत्' में विशुद्ध ब्रिटिश राजतंत्र की उपमा पर  राजभक्ति के निर्मल आनंद का अनुभव करता था । दोषों में एक दोष था कि थाली भी उसे समझ कर आनंद में इतनी उत्फुल्ल हो उठती थी कि अंगुली का जरा-सा जोर पड़ते ही वह घुमक्कड़ अरब-दरवेशों की तरह चक्कर काटने लगती, ऐसे में एक हाथ से खाना और एक हाथ से थाली पकड़े रहने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। नहीं तो चक्कर काटते-काटते जेल का अतुलनीय मुट्ठी-भर अन्न लेकर वह भाग जाने का उपक्रम करती । थाली की अपेक्षा कटोरा था और भी अधिक प्रिय और उपकारी । जड़ पदार्थो  में मानों यह था ब्रिटिश सिविलियन । सिविलियनों में जैसे सब कार्यो में स्वभावजात निपुणता और योग्यता होती है, जज, शासनकर्ता, पुलिस, शुल्क-विभाग के कर्ता, म्युनिसपैलिटी के अध्यक्ष, शिक्षक, धर्मोपदेशक जो चाहो वही, कहने-भर से ही  बन सकते हैं, जैसे उनके लिये, एक शरीर में, एक ही साथ अनुसंधाता,  अभियोगकर्ता, पुलिस, विचारक और कभी-कभी वादी के परामर्शदाता का भी प्रीति सम्मिलन सहज-साध्य था, वैसा ही था मेरा प्यारा कटोरा भी । कटोरे की जात नहीं, विचार नहीं । कारागृह में उसी कटोरे से पानी ले शौच किया, उसी कटोरे से मुंह धोया, स्नान किया, कुछ देर बाद उसी में खाना पड़ा, उसी कटोरे में दाल या तरकारी डाली गयी, उसी कटोरे से पानी पिया और कुल्ला किया। ऐसी सर्वकार्यक्षम मूल्यवान् वस्तु अंग्रेजों की जेल में ही मिलनी संभव है । कटोरा, मेरे ये सब सांसारिक उपकार कर योग-साधना में भी सहायक बना । घृणा परित्याग कराने का ऐसा सहायक और उपदेशक कहां पाऊंगा?                                                                ......आगे अगले अंक में

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