सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०३ 🔊(२६.३२) अक्तूबर *
२०२१
हमें महापुरुषों के
गुणों को ही ग्रहण करना चाहिए,
उनके दोष नहीं देखना
चाहिए; क्योंकि
पहाड़ का गड्ढा भी
मैदान से बहुत ऊँचा
होता है।
(स्वामी विवेकानंद)
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क्या गाँधी से दूर रहा जा सकता है? 🔉 (६.१२) मैंने पढ़ा
(किसी भी वाद-विवाद का कोई अंत नहीं होता। अत: जब कभी कहीं कोई गाँधी
की आलोचना करता, मेरे पास चुप
रहने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता। मैं जानता हूँ कि वह गाँधी के बारे में नहीं
जानता। सोनाली के लेख को पढ़ने से संतोष हुआ, ऐसा सोचने वाला
मैं अकेला नहीं हूँ, और भी हैं। किसी की आलोचना करनी है, जरूर कीजिये लेकिन उसे जानने के बाद, समझने के बाद, पढ़ने का बाद। आधे-अधूरे ज्ञान से नहीं, सुनी-सुनाई बातों
से नहीं। प्रस्तुत भावुक आलेख की लेखिका हैं सोनाली जोशी जिसका अनुवाद किया
है उपमा ने।)
मेरा
छोटा सा मस्तिष्क, कभी भी समाज की बड़ी-बड़ी धारणाओं, वादों, आदर्शों, समूहों और
शाखाओं को नहीं समझ सका। मुझे वे सारी चीजें बहुत उलझी हुई लगीं। मेरा मानना है कि
सरलता वो है जिसे सहज ही समझा सके। और इसी तरह मैंने बापू को समझा। गाँधीजी के
विचारों की शुद्धता और सरलता बड़ी असाधारण
थी। गाँधी को समझने के लिए मुझे किताबी ज्ञान की जरूरत महसूस नहीं हुई। उनका संदेश
खुद उनका जीवन था। उन्होंने वही सिखाया, जिसका उन्होंने
अनुकरण किया।
साबरमती आश्रम में एक सूक्ति ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। यह
सूक्ति मार्टिन लूथर किंग की थी – “बौद्धिक और नैतिक संतुष्टि जो बेंथम और
मिल के उपयोगितावाद में,
मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी सिद्धांतों में, होब्स के
सामाजिक समझौते के सिद्धान्त में, रूसो के ‘प्रकृति की ओर लौटो’ वाले आशावाद में, नित्शे के अतिमानवीय दर्शन में नहीं मिल सकी, उसे
मैंने गाँधी के अहिंसावादी दर्शन में पा लिया।”
यकीनन गाँधीजी चर्चा का सार्वभौमिक विषय है। दुनिया में दो तरह के
लोग हैं, एक वे जो सचमुच गाँधी की नीतियों और उनके बताए
रस्तों पर चर्चा करना चाहते हैं और दूसरे वे जो सिर्फ उनकी आलोचना करना चाहते हैं।
ये आलोचक बड़े पढे-लिखे लोग हैं। विश्वविख्यात हैं, वे देश के
पिछड़े और शोषित इलाकों की दशा सुधारने के लिए विदेशों में घूमते हैं। ऊँचे ओहदों
पर बैठे हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं, जो सकारात्मक और
नकारात्मक आलोचना में अन्तर तक नहीं कर पाते हैं। तारीख का हवाला देते हुए कहते
हैं, ‘१९२० में गाँधी ने इस मसले पर
ऐसा कहा, वैसा कहा’।
पहले मैं भी ऐसी चर्चाओं को बढ़ाने की कोशिश करती थी, लेकिन अब ये सब खत्म कर दिया है। जब कभी उन की आलोचना सुनती हूँ तो मैं
बहस से किनारा कर लेती हूँ। क्योंकि मुझे पता है ये लोग नहीं जानते कि गाँधी क्या
थे? वे अकेले ऐसे थे, जो जिंदगी
और मानवता के प्रति अपने प्रयोगों और समझ के द्वारा हर दिन विकसित होते थे। वे हर
दिन सीखते थे। हर दिन बढ़ते थे। हर दिन उन्नति करते और हर दिन जागते थे। वे स्वयं
को जिंदगी के हर क्षण सुधारते थे। फिर चाहे वो व्यक्तिगत जीवन हो या वैवाहिक जीवन।
सामाजिक जीवन हो या राजनीतिक जीवन। इसीलिए ८०-९० साल पहले गाँधी के कहे गए शब्दों
को उनके आखरी शब्द मान लेना गाँधी नहीं, स्वयं
अपनी बौद्धिक क्षमता को सीमित करने जैसा होगा। वस्तुत: गाँधी को असामाजिक घोषित करने के प्रयास
उन्हें और अधिक सामाजिक बनाते हैं। शांति की आवश्यकता और तलाश हमें गाँधी के और
निकट ले जाती है। गाँधी अंत तक सामाजिक थे, सामाजिक हैं और
सामाजिक रहेंगे। डॉ. किंग की सूक्ति के साथ अपनी बात खत्म करना चाहूंगी, ‘यदि मानवता, विकास के लिए है, तो गाँधी से दूर नहीं रहा जा सकता। वे विश्व शांति और सद्भाव से भरी मानवीय
दृष्टि से प्रेरित थे। इसी भाव से वे सोचते थे और कार्य करते थे। हम केवल अपनी ‘रिस्क’ पर ही उन्हें अनदेखा कर सकते हैं’।
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मैंने शायरी को देखा है 🔉(६.५८) मेरे अनुभव
आपने
शायरी सुनी होगी, आपने शायरी पढ़ी भी होगी, हो
सकता है अपने शायरी लिखी भी हो। लेकिन जनाब, क्या अपने कभी शायरी
देखी भी है? हाँ, मैंने देखी है।
अकस्मात, हठात, अनजाने में, शायरी झूमते हुए मेरे सामने आई और मेरे दिल, दिमाग
को हतप्रभ कर निकल गई। शायद आप जानते होंगे, आँखें देखने का
काम नहीं करती। आँखें तो खिड़की मात्र हैं, वे तो सिर्फ चंद लकीरों को, कुछ रौशनी
को हमारे मस्तिष्क तक भेजती हैं। यह तो हमारा मस्तिष्क है जो इन्हें पढ़ता है। ‘साक्षर’ मस्तिष्क उन लकीरों को शब्दों में परिवर्तित कर उन्हें पढ़ लेते हैं, लेकिन शिक्षित मस्तिष्क ही उनका
विश्लेषण कर इसका अर्थ निकाल पाते हैं। जब ‘खुदा’ इन सबका संयोग बैठाता है तब जाकर शायरी के ‘दर्शन’ होते हैं। दैव-योग से हमें यह अमूल्य योग प्राप्त हुआ और हमें शायरी के साक्षात
दर्शन हुए।
हुआ यूँ कि लंबे समय से इंतज़ार के
पश्चात हम श्रीअरविंद आश्रम – दिल्ली पहुंचे और अचानक फिर से एक संयोग बना और दो
दिन की यात्रा पर इंदौर पहुँच गए। वहाँ जाने का मकसद था अपने एक निकट के ‘अति वरिष्ठ नागरिक’ से मिलना। अपने जीवन के 90 से
ज्यादा शरद देख चुके थे। केवल उन्हीं से मिलना था इसलिए एक ही दिन का कार्यक्रम
था। लेकिन आश्रम की ‘दीदी’, जिनसे मैं
जितना स्नेह रखता हूँ उससे ज्यादा उनका सम्मान करता हूँ, ने एक
आज्ञा दी, “तुम्हें एक सप्ताह के लिए जाना है”। मैं दुविधा
में पड़ गया। न मैं इतने दिन के लिए जाना चाहता था न ही उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना
चाहता था। रात भर नींद नहीं आई, दुविधा में पड़ा रहा। असमंजस
में टिकिट भी नहीं करवाई। सुबह-सुबह उनके दरबार में पहुंचा,
दरख्वास्त की, “कृपया अपनी आज्ञा में थोड़ा परिवर्तन करें, तब मैं टिकट बनवाऊँ।” सुनवाई हुई और उन्होंने मुझे पूरी छूट दे दी, “जैसा आपलोग चाहते हैं वैसा ही कर लीजिये।” राहत की साँस ली और अपने
कार्यक्रम को 1 से बढ़ा कर 2 दिन का कर लिया।
पहला दिन तो सबों से मिलने में निकल गया। दूसरे दिन क्या करूँ? ‘दीदी’ ने एक नंबर दिया था और कहा था कि समय मिले तो इनसे मिल लीजिएगा नहीं तो कम-से-कम बात तो जरूर कर लीजिएगा। मैंने भी कहा तो यही कि अगर समय मिला और हमारे नजदीक ही होंगी तो मिल लूँगा। फोन मिलाया, बात हुई। बात हुई, तो मिलने कि इच्छा भी हुई। कहाँ है, कितनी दूर है, यह समझ न सका तो पता-ठिकाना पूछा और ‘बाद में फिर फोन करता हूँ’ कह कर बात समाप्त कर दी। पूछ-ताछ की तो बताया गया कि ‘पास ही है’, कोई दिक्कत नहीं है। बाद में पता चला कि दूर ही नहीं भीड़ भरे इलाके में भी है। जिन्होंने बताया था वे आधे रास्ते तक ही छोड़ने को तैयार हुए। लेकिन तब तक कार्यक्रम बन चुका था, पीछे हटना संभव नहीं था। पूछने पर बताया ‘आधी-पौन घंटे से ज्यादा नहीं लगेगी’, क्या मालूम था कि समय ज्यादा लगना था, विधाता को तो मुझे शायरी के दर्शन कराने थे।
औपचारिकता निभाने के बाद मैंने दिल्ली
आश्रम का संदेश निवेदित किया और तत्पश्चात बोला, “अब आज्ञा दें”। बोलते ही एक झिड़की सी मिली, “अरे! अभी कैसे!” और फिर! एक-के-बाद-एक परतें खुलने लगीं। जैसे-जैसे
परतें उतरने लगीं – रोमांचित होना, रोंगटों का खड़ा होना और
अश्रुपात – इधर भी उधर भी - होने लगे। न वे बोल रही थीं, न
हम सुन रहे थे। विधाता ही बोल रहा था, विधाता ही सुन रहा था।
हमारे सामने दो टेलीग्राम रखे गए। वाणी
बोलने लगी,
“एक
विशेष कार्यक्रम में ‘न’, पांडिचेरी से एक अतिविशिष्ट सज्जन का आना तय हुआ। उनकी रजामंदी भी आ गई।
उसी अनुसार सबों को सूचित भी किया गया। कार्यक्रम, कार्यक्रम न रह
‘उत्सव’ बन गया। सबों के पैरों में जैसे घुँघरू बंध गए। बिना किसी थकावट की
अनुभूति के कार्यक्रम की तैयारी होने लगी।
लेकिन, अचानक, दो दिन पहले, उनका टेलीग्राम आया ‘मैं नहीं आ सकूँगा - न’। ऐसा लगा जैसे बिजली गिरी। किंकर्त्यव-विमूढ़ सी बैठी रह गई। आँखों से
अविरल धारा बह चली। फरियाद की ‘माँ,
तूने ये क्या किया? सब कुछ तुझ पर है,
जैसे तेरी इच्छा’। और किसी को कुछ नहीं कहा। लोग यह समझ रहे
थे ‘कुछ हुआ है’ लेकिन क्या? किसी में पूछने का साहस नहीं जुट रहा था। सब माँ से प्रार्थना कर रहे थे।
दूसरे दिन और एक टेलीग्राम आया, लिखा था “’न’ जा रहा है – माँ”। मैं
सुन्न हो गई। आँखें बंद हो गईं। गालों से आँसू लुढ़कने लगे। कुछ ही देर बाद और एक
टेलीग्राम आया! सहमते हुए लेकिन पूरे आत्म-विश्वास के साथ
उसे खोला। ‘मैं पहुँच रहा हूँ - न’।
खुदी
को कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बंदे
से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।
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सज्जनता 🔉(३.०६) लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना
सेना
के एक अधिकारी लड़ाई के समय शिविर के कुछ सैनिकों के साथ घोड़ों के लिये घास एकत्र
करने निकले। एक गाँव के किसान को उन्होंने आदेश दिया, “चल कर बताओ कि इस गाँव में किस खेत की फसल सबसे अच्छी है”। विवश होकर
किसान को उन सैनिकों के साथ जाना पड़ा। खेत खड़ी फसल से लहलहा रहे थे। बहुत उत्तम
फसल थी। सैनिक चाहते थे कि उन लहलहाते खेतों की
फसल काट लें, लेकिन किसान कहता चला जा रहा था, “जी यहाँ नहीं, कुछ और आगे चलिये, इससे भी अच्छी फसल आपको दिखलाऊंगा”। धीरे-धीरे किसान सैनिकों को गाँव की
सीमा के खेत तक ले गया। वहाँ का खेत दिखला कर बोला, “महाशय, इस गाँव में इस खेत की फसल सबसे अच्छी है”। सैनिकों ने उस खेत की पूरी
फसल उखाड़ कर, गट्ठे बाँध, घोड़ों पर लाद
दी। सैनिक अधिकारी ने वह फसल देख, डपट कर किसान से कहाँ, “बेकार में तुम हमें इतनी दूर ले आया, इससे
अच्छी-अच्छी फसलें तो हम पीछे छोड़ आए और तुम उत्तम बता कर हमें बेवकूफ बना रहा है।
बता, इस चाल के पीछे तेरी मंशा क्या है”?
किसान ने हाथ जोड़ कर,
विनीत लेकिन स्पष्ट स्वर में कहा, “जी,
सच बात तो यह है कि मैं जानता था कि आप खेत के मालिक की फसल का मूल्य तो देंगे
नहीं। मैं किसी दूसरे का खेत दिखला कर उस बेचारे की हानि कैसे करवाता। पहली बात तो
यह है कि यह खेत मेरा है और दूसरी यह कि आप भी मानेंगे कि मेरे लिए तो अपने खेत की
फसल ही सबसे सबसे अच्छी है”।
किसान की बात सुन कर वह सैनिक अधिकारी लज्जित हो उठा। उसका किसान
के प्रति मनोभाव तुरंत बदल गया। घोड़े से उतर कर उसने अपनी जेब से एक थैली निकाली, किसान के हाथों में थमाता हुआ बोला, “आज
अचानक सज्जनता का यह पाठ पढ़ा कर तुमने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया भाई। युद्ध के
इस नारकीय दलदल में फँसे हुए मुझको हाथ
देकर उबरने की कीमत तो नहीं चुका पाऊँगा,
लेकिन तुम्हारी फसल की भरपाई के लिए मेरी इस छोटी-सी भेंट को कहीं अस्वीकार न कर
देना..........”
(अग्निशिखा से)
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मेरी नहीं सबकी माँ 🔉 ३.०५) मैंने पढ़ा
यह
कैसी माँ है?
मैंने
समझा मेरी माँ है। परंतु जो मिलता है, कहता
है – मेरी माँ है, मेरी माँ है। यह भी कोई बात हुई?
यदि
इस तरह लाखों-करोड़ों की माँ हुई तो मेरे हिस्से में क्या आयेगा? टॉफी का सारा डिब्बा खुलने पर बस एक टॉफी! गुस्सा भी आता है, पर कुछ बन नहीं पाता।
मैं
ने एक दिन ठानी कि माँ से पूछ ही लूँ - तू
मेरी माँ है कि सबकी माँ है? जब गया तो जाते
ही जो चाहता था वह मिल गया और पूछना भूल गया। अच्छा! मैं ने सोचा अबकी बार पूछूँगा।
अबकी बार अवश्य पूछूंगा। पर जाऊँ तो जो माँगू मिल जाए। जो चाहूँ मिल जाए।
बरसों बीत गए और बात धरी-की-धरी रह गई।
जब देखूँ लाइन लगी हुई है। क्यू में लोग जा रहे हैं और ओठों पर – माँ रटन लगी है।
और वापस आएं तो ऐसे प्रसन्न – संतुष्ट जैसे सब कुछ मिल गया। यह देख-देख कर मेरा
खून रोजाना इतना बनता नहीं था जितना सूख जाता था। बरसों फिर बीत गए। अबकी बार सोचा
कि चाहे कुछ मिल जाये फिर भी पूछ कर ही छोड़ूँगा। रुमाल में गाँठ बाँध ली और लाल-पीला होकर जीने पर चढ़ा। रुमाल
की गाँठ तो जेब में ही रह गई। गुस्से ने प्राणों में जगह ले ली।
माँ
ने पूछ ‘बेटा क्या चाहिए’?
मैंने
भुनभुनाकर जवाब दिया, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए’।
माँ
ने मुस्कुराकर पूछा, ‘तब तो तुम्हें सब कुछ मिल
गया’।
मैं
ने भुनभुनाकर पूछा, ‘पर तुम दूसरों की माँ क्यों
बनती हो?’
माँ
प्यार से बोली, ‘ताकि उनको भी तुम्हारी तरह
सब कुछ मिल सके और तुमसे छीना-झपटी न करें’।
जब मैं वापस आया तो सोचने लगा कि कहीं
ठगा तो नहीं गया। जब मुझे सब-कुछ मिल गया तो दूसरों को भी सब-कुछ मिल गया, ठीक है। सब प्रसन्न होंगे तभी तो मैं भी प्रसन्न रह सकूँगा।
वाह
री माँ।
तू
तो माँ ही माँ है।
मेरी
नहीं, सबकी माँ है!
(आप माँ को अपनी श्रद्धा से चाहे जिस रूप में देख सकते हैं। स्वामी
रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द ने काली के रूप में देखा तो श्री सुरेन्द्र
नाथ जौहर ने श्रीमाँ के रूप में। श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा से प्रकाशित पत्रिका
कर्मधारा से।)
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी 🔉 (६.५९) धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक
धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी दसवीं किश्त है।)
(१०)
हमारे नाटक के शेक्सपीयर
हमारे
नाटक के शेक्सपीयर थे नॉर्टन
साहब। किन्तु शेक्सपीयर और नॉर्टन साहब में मैंने एक प्रभेद देखा। संगृहीत उपादान
का कुछ अंश शेक्सपीयर कहीं-कहीं छोड़ भी देते थे, पर नॉर्टन साहब अच्छा-बुरा,
सत्य-मिथ्या, संलग्न-असंलग्न,
अनोर्णियान महतो माहियान जो पाते, एक भी न छोड़ते, तिस पर निजी कल्पनासृष्ट प्रचुर सुझाव, अनुमान, परिकल्पना जुटा उन्होंने इतना सुंदर कथानक रचा कि शेक्सपीयर, डेफ़ो इत्यादि सर्वश्रेष्ठ कवि और उपन्यासकार इस महाप्रभु के आगे मात खा
गए। आलोचक कह सकते हैं कि जैसे फ़ौलस्टाफ के होटल के बिल में एक आने की रोटी और
असंख्य गैलन शराब का समावेश था उसी तरह नॉर्टन साहब के प्लॉट में एक रत्ती प्रमाण
के साथ दस मन अनुमान और सुझाव थे। किन्तु आलोचक भी प्लॉट की परिपाटी और रचना-कौशल
की प्रशंसा करने को बाध्य होगा। नॉर्टन साहब ने इस नाटक के नायक के रूप में मुझे ही पसंद किया, यह देख मैं समधिक प्रसन्न हुआ। जिसे मिल्टन के “Paradise Lost” का शैतान, वैसे ही मैं था नॉर्टन साहब के प्लॉट का
कल्पनाप्रभूत महाविद्रोह का केंद्र स्वरूप, असाधारण
तीक्ष्णबुद्धि-सम्पन्न, क्षमतावान और प्रतापशील ढीठ बुरा
आदमी (बोल्ड बैड मैन)। मैं ही था राष्ट्रीय आंदोलन का आदि और अंत, स्रष्टा और त्राता, ब्रिटिश साम्राज्य का
संहार-प्रयासी। उत्कृष्ट और तेजस्वी अँग्रेजी लेख देखते ही नॉर्टन साहब उछल पड़ते
और उच्च स्वर में कहते – अरविंद घोष।
आंदोलन के जितने भी वैध, अवैध,
सुशृंखलित अंग या अप्रत्याशित फल – वे सभी अरविंद घोष की सृष्टि हैं, और क्योंकि वे अरविंद की सृष्टि हैं इसलिये वैध होने पर भी उसमें अवैध
अभिसंधि गुप्त रूप से निहित है। शायद उनका यह विश्वास था कि अगर मैं न पकड़ा गया तो
दो साल के अंदर-अंदर अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य का ध्वंस हो जाएगा। किसी फटे
कागज के टुकड़े पर मेरा नाम पाते ही नॉर्टन साहब खूब खुश होते और इस परम मूल्यवान
प्रमाण को मैजिस्ट्रेट के श्री चरणों में सादर समर्पित करते। अफसोस है, कि मैं अवतार बन कर नहीं जन्मा, नहीं तो मेरे प्रति
उस समय की उनकी इतनी भक्ति और मेरे अनवरत ध्यान से नॉर्टन साहब निश्चित ही उस समय
मुक्ति पा जाते जिससे हमारी कारावास की अवधि और गवर्नमेंट का अर्थव्यय दोनों की ही
बचत होती। सेशन्स अदालत द्वारा मुझे निर्दोष प्रमाणित किये जाने से नॉर्टन-रचित प्लॉट की सब श्री और गौरव नष्ट हो
गया। बेरसिक बीचक्राफ्ट ‘हैमलेट’ नाटक
से हैमलेट को अलग करके बीसवीं सदी के श्रेष्ठ काव्य की हतश्री कर गए। समालोचक को यदि काव्य-परिवर्तन का
अधिकार दे दिया जाए तो भला क्यों न होगी ऐसी दुर्दशा? नॉर्टन
साहब को एक और दु:ख था, कुछ गवाह भी ऐसे बेरसिक थे की
उन्होंने भी उनके रचित प्लॉट के अनुसार गवाही देने से साफ इंकार कर दिया। नॉर्टन
साहब गुस्से से लाल पीले हो जाते, सिंह गर्जना से उनके प्राण
कंपा उन्हें धमकाते। जिसे कवि को स्वरचित शब्द के अन्यथा प्रकाशन पर और सूत्रधार
को अपने दिये गए निर्देशों के विरुद्ध अभिनेता की आवृत्ति,
स्वर या अंगभंगिमा पर न्यायसंगत और अदमनीय क्रोध आता, वैसा
ही क्रोध आता था नॉर्टन साहब को। बैरिस्टर भुवन चटर्जी के साथ हुए संघर्ष का कारण
यही सात्विक क्रोध ही था। चटर्जी महाशय के जितना रसायनभिज्ञ पुरुष तो कोई नहीं
देखा। उन्हें रत्ती भर भी समय-असमय का ज्ञान नहीं था। नॉर्टन साहब जब
संलग्न-असंलग्न का विचार न कर केवल कवित्व की खातिर जिस-तिस प्रमाण को घुसेड़ते, तब चटर्जी महाशय खड़े हो असंलग्न या अमान्य कह आपत्ति करते। वे समझ न सके
कि ये साक्षी इसलिए नहीं पेश किये जा रहे हैं कि ये संलग्न या कानून-सम्मत हैं वरन
इसलिये कि नॉर्टनकृत नाटक में शायद उपयोगी हों। इस असंगत व्यवहार से नॉर्टन ही
क्यों बर्ली साहब तक झुँझला उठते। एक बार
बर्ली साहब ने चटर्जी साहब को बड़े करुण शब्दों में कहा था,
“श्रीमान चटर्जी, आपके आने से पहले हम निर्विघ्न मुकदमा चला
रहे थे। सच तो यह है, नाटक की रचना के समय बात-बात पर आपत्ति
उठाने से नाटक भी आगे नहीं बढ़ता और दर्शकों को भी मजा नहीं आता।
(क्रमश:, आगे अगले अंक में)
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